Sunday, December 4, 2022

मनोरंजन से मालामाल राजश्री के 75 साल!

हेमंत पाल 

      हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को सौ साल से ज्यादा हो गए। इस लम्बे दौर में बहुत कुछ घटा। मूक फिल्मों ने बोलना सीखा, फिल्मों में गाने सुनाई देने लगे, ब्लैक एंड व्हाइट से फ़िल्में रंगीन हुई, स्टार वैल्यू का जमाना आया। लोगों ने सितारों को आसमान चढ़ते और अस्त होते देखा। लेकिन, इंडस्ट्री ने यह भी देखा कि एक फिल्म निर्माण कंपनी ने इस उतार-चढाव के बीच अपनी स्थापना के 75 साल पूरे कर लिए। ये है ताराचंद बड़जात्या कि 'राजश्री पिक्चर्स!' इस फिल्म निर्माण कंपनी को इंडस्ट्री की संस्कारों की पाठशाला भी कहा जाता है, जिसने फिल्मों को यह सामाजिकता का संस्कार दिया। यह भी बताया कि पारिवारिक फिल्मों के दम पर भी दर्शकों का मनोरंजन किया जा सकता है। यदि कहानी में दम हो, तो उसे किसी बड़े सितारे की जरुरत नहीं! इसलिए यह भी कहा जा सकता है 'राजश्री' का नाम ही कई बार फिल्मों की सफलता के लिए काफी होता है। 'राजश्री पिक्चर्स' के नाम से उन्होंने सिनेमा का ऐसा एम्पायर खड़ा किया, जो 75 साल से लगातार पारिवारिक और सामाजिक फिल्में बना रहा है।   
    ताराचंद बड़जात्या ने 1933 में फिल्मों में प्रवेश किया, जब वे 19 साल के थे। उन्होंने 'मोती महल थियेटर्स' से अपना काम शुरू किया। ताराचंद बड़जात्या ने पहले अपने फिल्म प्रोडक्शन हाउस का नाम अपने बेटों 'राज' और 'कमल' के नामों को मिलाकर राजकमल रखा था। इस प्रोडक्शन हाउस के बारे में कहा जाता है कि इन्हें पारिवारिक फिल्मों में सफलता इसलिए मिली, कि इनकी फिल्मों का कथानक बेहद संस्कारित होता है। यहां तक कि नायक-नायिका नजदीक भी नहीं आते! ये उस दौर में बहुत हिम्मत की बात है, जब सिनेमा में अश्लीलता की बाढ़ आई हुई है और पूरा परिवार एक साथ बैठकर फिल्म नहीं देख सकता। देशभर में सिनेमाघरों के निर्माण में भी यह फ़िल्मी परिवार पीछे नहीं रहा। इसके अलावा मितव्ययिता भी राजश्री का मूलमंत्र है। एक फिल्म में उन्होंने गीत के फिल्मांकन के लिए तरह-तरह के फलों से सेट लगाया गया था। शूटिंग के बाद लंच में इन्हीं फलों को निकालकर सभी को लंच करवाने का कीर्तिमान भी राजश्री के नाम दर्ज है। इंदौर का बैम्बिनो सिनेमा एक समय राजश्री की ही फिल्में दिखाने के लिए चर्चित था।
    इस फिल्म निर्माण कंपनी की उम्र और देश की आजादी की उम्र बराबर है। 15 अगस्त 1947 को जिस दिन देश आजाद हुआ, उसी दिन ताराचंद बड़जात्या ने 'राजश्री पिक्चर्स' के रूप में इस कंपनी की नींव रखी। उन्होंने 1960 में 'राजश्री प्रोडक्शन्स' की स्थापना की और हिंदी सिनेमा को एक से बढ़कर एक नायाब फिल्में दीं। उनकी पहली फिल्म 'आरती' सुपरहिट रही। 1964 में आई दूसरी फिल्म 'दोस्ती' ने भी अपार सफलता हासिल की। यह अपने समय की ब्लॉकबस्टर फिल्म थी, जिसे उस समय 6 फिल्म फेयर पुरस्कार मिले थे। इसके बाद सफल फिल्मों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। इस प्रोडक्शन कंपनी ने कई सुपरहिट फिल्में दी। 'राजश्री' की ज्यादातर फिल्मों को सफलता मिली। लेकिन, सबसे सफल फिल्मों में दोस्ती (1964), अंखियों के झरोखे से (1978), नदिया के पार (1982), सारांश (1984), मैंने प्यार किया (1989), हम आपके हैं कौन (1994), हम साथ साथ हैं (1999) और 'दुल्हन वही जो पिया मन भाए' भी सुपरहिट थी। अब 'ऊंचाई (2022) भी इस फेहरिस्त में शामिल हो गई। 
       राजश्री ने हमेशा पारिवारिक फिल्में ही बनाई, ऐसा भी नहीं है। बड़ी फिल्मों के साथ कम बजट और नए कलाकारों को लेकर कुछ मारधाड़ और फैंटेसी फिल्में भी राजश्री के कुनबे से निकली है। इनमें अलीबाबा और मरजीना, तूफान और मैटिनी शो में गोल्डन जुबली मनाने वाली महेंद्र संधू की जासूसी फिल्म 'एजेंट विनोद' भी शामिल हैं। राजश्री घराने ने सिर्फ नए कलाकारों को ही पहचान नहीं दी रविंद्र जैन, राम लक्ष्मण जैसे संगीतकारों और हेमलता, जसपाल सिंह, येसुदास जैसे गायकों भी स्थापित किया। विजयेंद्र घाटगे, अमोल पालेकर, रंजीता, सचिन, अरुण गोविल, प्रेम किशन, शरत सक्सेना और रामेश्वरी को आगे बढ़ाने में और पद्मा खन्ना जैसी अभिनेत्री को निखारने में राजश्री के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। 
      कहा जाता है कि 'राजश्री' की फ़िल्में जब पूरी हो जाती है, तो उस नई फिल्म को सबसे पहले परिवार के सदस्यों, घर के ड्राइवरों और बच्चों को दिखाया जाता था। उनसे फिल्म के बारे में राय ली जाती थी और उनके सुझाव को गंभीरता से भी लिया जाता! जरुरी होता तो फिल्म में सुधार के बाद ही फिल्म रिलीज होती। इसलिए कि यदि उनके परिवार और परिवार से जुड़े लोगों को ही फिल्म पसंद नहीं आती, तो उसे दर्शकों के सामने कैसे परोसा जा सकता है! इस कंपनी ने डिस्ट्रीब्यूशन का काम भी हाथ में लिया और दक्षिण भारत से अनेक फिल्म निर्माताओं को हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा में लाए। उन्होंने कई ब्लॉकबस्टर फिल्मों का डिस्ट्रीब्यूशन किया जिनमें शोले, धर्मवीर, अमर-अकबर-एंथनी, विक्टोरिया नं. 203, रोटी कपड़ा और मकान, कुली, खिलौना, बैजू बावरा, आनंद, गुड्डी, कभी खुशी कभी गम, देवदास और 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' जैसी अपने समय की सुपरहिट फिल्में शामिल हैं।
     राजश्री की पहचान पारिवारिक और मूल्य आधारित फ़िल्में बनाने की रही है। अपनी इस पहचान से ही उनकी फिल्मों ने सफलता के परचम लहराए। इन फिल्मों में परिवार, दोस्ती और रिश्तेदारी को सबसे ज्यादा अहमियत दी जाती है। 1964 में आई 'दोस्ती' पूरी तरह से दो दोस्तों के समर्पित प्रेम और भावुकता पर आधारित थी। पांच दशक बाद राजश्री ने इसी दोस्ती पर 'ऊंचाई' पर फिल्म बनाई। 'दोस्ती' की तरह 'ऊंचाई' भी मूल्य आधारित फिल्म है, जिसमें बड़े सितारों के होने के बावजूद राजश्री का टच साफ़ दिखता है। इस बार चार बूढ़े दोस्तों की कहानी दिखाई गई, जबकि 'दोस्ती' दो बच्चों के भावनात्मक लगाव की कहानी थी। इस फिल्म की सफलता ने यह भी दिखाया कि कहानी दमदार हो, तो फिल्म के लिए किसी बड़े सितारे की जरुरत नहीं होती! इस स्टार विहीन फिल्म की कामयाबी इसलिए भी बेमिसाल थी। इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म ने उस दौर में करीब दो करोड़ से ज्यादा का बिजनेस किया था। 'दोस्ती' में वह सब कुछ था जो दर्शकों को बांधकर रख सके। प्यार, भावना, रिश्ते, विवशता, अमीरी, गरीबी, सुर और संगीत! इस फिल्म के जादू से कोई बच नहीं पाया था। यह फिल्म उस वक्त बहुत लंबे वक्त तक सिनेमाघरों में चली। भावना का ज्वार ऐसा कि शायद ही इससे कोई दर्शक बचा हो। 
   1978 में आई फिल्म 'अंखियों के झरोखों से' सच्चे प्रेम की कहानी है, जो अपनी तरह की अलग फिल्म थी। इसमें सचिन पिलगांवकर, रंजीता कौर और मदन पुरी ने अभिनय किया है। ये एक अपनी तरह की अलग लव स्टोरी फिल्म है, जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया था। फिल्म में नायक अरुण और नायिका लिली ख़ुशी से फूले नहीं समाते जब उनके माता-पिता उनकी शादी के लिए राज़ी हो जाते हैं। जब सब कुछ ठीक चल रहा होता है, तो लिली बीमार पड़ जाती है। हालत तब बदलते हैं, जब पता चलता है, कि लिली को ल्यूकेमिया है। सभी लिली को बचाने की कोशिश करते हैं। लेकिन, लिली की हालत और खराब होती जाती है। फिल्म के अंत में लिली की अरुण की बाहों में मौत हो जाती है। फिल्म का कथानक सच्चे प्रेम का संकेत देता है। 1982 की फिल्म 'नदिया के पार' भी राजश्री की हिट फिल्मों में गिनी जाती है। इसमें भी सचिन और साधना सिंह मुख्य भूमिकाओं में थे। बाद में इसी कथानक पर 'हम आपके हैं कौन' बनाई गई। इन दोनों फिल्मों का कथानक प्रेम कहानी पर आधारित था। इसकी खासियत यह थी कि 'नदिया के पार' जिस कथानक पर ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी थी 'हम आपके हैं कौन' वही शहरी पृष्ठभूमि पर गढ़ी गई फिल्म थी।     
      राजश्री की जो फ़िल्में सबसे ज्यादा पसंद की गई उनमें एक थी 1984 में आई 'सारांश' जिसमें बहुत कुछ ऐसा था, जो समाज के खोखलेपन को उजागर करता था। फिल्म में मुख्य भूमिकाओं में अनुपम खेर, रोहिणी हट्टंगड़ी, सोनी राज़दान और मदन जैन थे। फिल्म में रिश्वतखोरी, भाई भतीजावाद, अविवाहित गर्भावस्था और समाज का दोगलापन सामने आता है। ये फिल्म ऐसे बुजुर्ग दंपति की कहानी है, जो अपने इकलौते बेटे को खोने के बाद जीने की उम्मीद छोड़ देते हैं। कहानी में मोड़ तब आता है जब उन्हें जीवन जीने का एक नया मकसद मिलता है। फिल्म में 60 साल के बुजुर्ग का किरदार निभा रहे अनुपम खेर उस वक़्त केवल 28 वर्ष के थे। इसे महेश भट्ट ने निर्देशित किया था। इस फिल्म ने बेहद मर्मभेदी ढंग से समाज में मौजूद सभी समस्याओं पर प्रकाश डाला था।
       'राजश्री' की व्यावसायिक रूप से सफल फिल्मों में एक 1989 में आई फिल्म 'मैंने प्यार किया' थी, जिसे ताराचंद बड़जात्या परिवार के उत्तराधिकारी सूरज बड़जात्या ने निर्देशित किया था। ये एक संगीत से भरी प्रेम कहानी थी। जिसमें सलमान खान और भाग्यश्री मुख्य भूमिकाओं में थे। सलमान खान की मुख्य भूमिका और भाग्यश्री के फिल्म करियर की शुरुआती फिल्म थी। यह 80 के दशक की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली हिंदी फिल्म थी। 1999 की फिल्म हम साथ साथ हैं, 2006 की फिल्म 'विवाह' के बाद इस कंपनी की कई फ़िल्में आई जिन्होंने मनोरंजन के साथ समाज को संस्कारित भी किया। इसी परंपरा का निर्वहन करते हुए 'ऊंचाई' ने भी अपनी जगह बनाई! ये फिल्म 1964 में आई 'दोस्ती' का ही बदला हुआ रूप है।    
     सूरज बड़जात्या ने एक साक्षात्कार में बताया कि बैनर का नाम हमारी बुआ जी राजश्री के नाम पर है, जो जयपुर में रहती हैं। इसका प्रतीक चिन्ह माता सरस्वती है। इस प्रतीक चिन्ह को लेकर भी एक मजेदार किस्सा है। जिस समय 'दोस्ती' बन रही थी तब ताराचंद बड़जात्या ने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को फिल्म का संगीत देने ऑफिस बुलाया। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ऑफिस तो गए, लेकिन उनका इरादा संगीत देने का नहीं था। क्योंकि, दोनों ने तय किया था कि संगीत की गुणवत्ता के लिए एक समय में पांच से ज्यादा फिल्म नहीं करेंगे। 'दोस्ती' उनकी छठी फिल्म थी। जब वे राजश्री के दफ्तर पहुंचे तो वहां उनकी नजर राजश्री प्रोडक्शन के प्रतीक चिन्ह माता सरस्वती पर पड़ी। उन्हें ऐसा लगा कि माता सरस्वती ही उन्हें अवसर दे रही है। यदि वे मना करते हैं, तो माता सरस्वती का अपमान होगा। यह विचार कर उन्होंने 'दोस्ती' में संगीत देना स्वीकार कर लिया। शायद इसी का असर था कि उनकी इस छठी फिल्म का संगीत इतना लोकप्रिय हुआ कि 1964 के फिल्मफेयर पुरस्कार में इन्होंने आरके फिल्म्स की म्यूजिकल सुपरहिट 'संगम' के गीत-संगीत को पछाड़कर उस साल का  फिल्मफेयर अवॉर्ड अपनी झोली में डाल लिया। उस फिल्म से शुरू हुआ 'राजश्री' का सफर आज भी परंपरा के साथ अनवरत जारी है।     
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