भाजपा ने गुजरात फिर जीत लिया। ये उसकी लगातार होने वाली जीत का अगला कदम है। पार्टी इस जीत से बहुत ज्यादा उत्साहित है। निश्चित रूप से चुनाव की जीत राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं में उत्साह भरती हैं। लेकिन, लगता है भाजपा गुजरात की जीत में हिमाचल प्रदेश की हार को भूल रही है। भाजपा ने गुजरात में अपनी दोहराई भर है, नया राज्य जीता नहीं, पर एक राज्य खो दिया। ये वो राज्य है जो इस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का गृह राज्य भी है। क्या कारण है कि 'मोदी ब्रांड' गुजरात में तो चला, पर हिमाचल में उसे जनता ने नकार दिया। भाजपा के लिए मैनपुरी और खतौली के उपचुनाव के अलावा दिल्ली नगर निगम के चुनाव भी चिंतन का विषय हैं! बेहतर होगा कि पार्टी गुजरात की जीत के जश्न में हिमाचल की हार को नजरअंदाज न करे।
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- हेमंत पाल
दो राज्यों के चुनाव के नतीजे सामने आ गए। साथ ही चुनाव को लेकर किए जा रहे दावों का सच भी सामने आ गया। इस चुनाव में कौनसी पार्टी ने कितनी सीटें जीती, किसकी सत्ता कायम रही और किसका झंडा ज्यादा लहराया, उससे ज्यादा बड़ी बात है कि लोकतंत्र ज्यादा मजबूत हुआ। इन चुनाव ने सभी पार्टियों को जश्न मनाने का मौका देने के साथ कुछ ऐसे सबक भी दिए, जो भविष्य का गंभीर संकेत हैं। जो नतीजे सामने आए, वो लोकतंत्र के ताकतवर होने का इशारा हैं। साथ ही राजनीतिक पार्टियों को चिंतन करने का भी संदेश देते हैं कि वे मतदाताओं को जागीर समझने की ग़लतफ़हमी न पालें।
भाजपा गुजरात की जीत को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्साहित है और जश्न में डूबी है। लेकिन, उसे हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजों को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। भाजपा ने गुजरात में अपनी सत्ता को फिर से पाया, पर हिमाचल में भाजपा ने सत्ता को खोया भी है। गिनती के लिहाज से देखा जाए तो भाजपा के लिए यह बड़ा नुकसान है कि उसने एक राज्य खो दिया। ऐसी पार्टी जो केंद्र की सत्ता में हो और अपनी जीत के दावे और अपनी चुनावी रणनीति का दम भरती हो, उसके लिए हिमाचल की हार बड़ी बात है। हिमाचल में कांग्रेस ने 68 सीटों में से 40 पर जीत दर्ज की। कांग्रेस ने बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर दिया।
गुजरात में हुई करारी हार के बाद यदि हिमाचल में भी कांग्रेस हार जाती, तो उसके लिए आने वाला समय और चुनौती भरा होता। हिमाचल में चार दशकों से हर बार सत्ता बदलने का इतिहास रहा है। इसलिए भाजपा के लिए बड़ी बात ये थी, कि वो इस रिवाज को खंडित करती। यहां कांग्रेस के प्रचार अभियान की कमान प्रियंका गांधी ने संभाल रखी थी। यदि वास्तव में मोदी ब्रांड होते, तो उनका जादू इस पहाड़ी राज्य में भी चलना था, फिर क्या हुआ जो ऐसा नहीं हुआ। भाजपा के लिए चिंताजनक बात ये भी है, कि हिमाचल प्रदेश भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का राज्य है। जो पार्टी देश की राजनीति में अव्वल हो उसके अध्यक्ष के राज्य में ही उसे हार का मुंह देखना पड़ा। नड्डा का चुनाव के टिकटों में दबदबा रहा और उन्होंने रिकॉर्ड संख्या में रैलियों के साथ निजी रूप से भाजपा अभियान को आगे बढ़ाया। केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर भी ख़म ठोककर लगे थे, पर जो नतीजे सामने आए वो निराशाजनक रहे।
दिल्ली में नगर निगम की हार और उत्तर प्रदेश में मैनपुरी लोकसभा सीट पर समाजवादी पार्टी की आसमान फाड़ जीत भी भाजपा के लिए किसी चुनौती से कम नहीं! इन राजनीतिक हादसों को नजरअंदाज करके उसे गुजरात की जीत की आड़ में छुपाया जा रहा है। हिमाचल के अलावा मैनपुरी से समाजवादी की डिंपल यादव की जीत भी महत्वपूर्ण है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस सीट को कसने की पूरी कोशिश की, पर वे सफल नहीं हुए। मुजफ्फरनगर की खतौली विधानसभा सीट के उपचुनाव में रालोद के मदन भैया की जीत ने भी भाजपा को आईना दिखा दिया।
देखा जाए तो यह एक तरह से उन राजनीतिक पार्टियों के लिए संदेश भी है, जो मतदाताओं को अपनी जागीर समझने की भूल करने लगती हैं। उन्हें लगता है कि हम मतदाता को हम जिस दिशा में चाहे घुमा सकते हैं। उन्हें जो दिखाना या भरमाना चाहेंगे, वे उस भ्रम में आ भी जाएंगे! यही कारण है कि गुजरात की जीत की आड़ में हिमाचल की हार, दिल्ली के एमसीडी की हार को नजरअंदाज किया जा रहा है। गुजरात में भले ही कांग्रेस के सफाई की बात की जा रही हो, लेकिन हिमाचल भी भारत का एक राज्य और जहां उसी कांग्रेस ने अपनी जीत हासिल करके बता दिया कि ये पार्टी अभी खत्म नहीं हुई। जिस नरेंद्र मोदी को ब्रांड बनाकर गुजरात की जीत का श्रेय दिया जा रहा है, वही मोदी ब्रांड हिमाचल प्रदेश में कोई चमत्कार क्यों नहीं कर पाए या दिल्ली में उनका जादू क्यों नहीं चला! भाजपा की छाती पर मूंग दल रही 'आप' पर भाजपा नकेल क्यों नहीं डाल सकी! नकारात्मक प्रचार के बावजूद दिल्ली नगर निगम के चुनाव में 15 साल बाद भाजपा को 'आप' ने सत्ता से बाहर कैसे कर दिया।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि लाख खामियों के बावजूद गुजरात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज भी लोकप्रिय होने के साथ बड़े नेता हैं। 27 साल की एंटी इनकंबेंसी को किनारे करके यहां बड़ी जीत पाना इस बार आसान नहीं लग रहा था, पर ये चमत्कार हुआ, तो सिर्फ ब्रांड मोदी के कारण! गुजरात में यह भाजपा की सबसे बड़ी जीत कही जा रही है। कांग्रेस के माधवसिंह सोलंकी ने नेतृत्व में कभी 149 सीटें जीती थी, आज भाजपा उससे आगे निकल गई। लेकिन, फिर भी सोलंकी को मिले मतों का प्रतिशत आज भी भाजपा को मिले वोटों के ज्यादा है। सोलंकी के समय कांग्रेस को 55.3% वोट मिले थे, जबकि भाजपा को अभी 53% वोट मिले। यह भाजपा की बड़ी जीत है, पर उसे यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसके लिए पार्टी ने कितनी मेहनत की। स्वयं नरेंद्र मोदी ने 31 बड़ी रैलियां की, रोड शो किए और 135 विधानसभा सीटों पर चुनाव प्रचार किया।
गृह मंत्री अमित शाह ने भी 108 सीटों पर प्रचार किया। यदि वास्तव में गुजरात में भाजपा की जड़ें इतनी मजबूत है, तो यह सब करने की जरूरत शायद नहीं थी! यही स्थिति दिल्ली नगर निगम की भी कही जा सकती है, जहां स्वयं नरेंद्र मोदी और अमित शाह को भाजपा के लिए प्रचार करना पड़ा। यह सब भाजपा की लोकप्रियता का संकेत नहीं, बल्कि चिंता का विषय है। इन छोटे चुनाव में भी बड़े नेताओं को दखल देना पड़ रहा है। सबसे बड़ी बात तो यह कि हिमाचल में सारी कोशिशों के बावजूद भाजपा वह नहीं पा सकी, जिसकी उसे उम्मीद थी। इस राज्य का रिवाज है यहां का मतदाता हर 5 साल में सरकार बदल देता है। वही भाजपा के साथ भी हुआ। यदि यह नहीं होता, तो भाजपा कद बढ़ता, पर ऐसा कुछ नहीं हो सका
दिलचस्प पक्ष है कि अरविंद केजरीवाल की 'आप' राजनीति ने गुजरात के दम पर ही दस साल में आधिकारिक रूप से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल कर लिया। देखा जाए तो यह देश का सबसे सफल राजनीतिक स्टार्टअप है। भले ही उसे गिनती में पांच सीटें मिली हो, पर उसे मिले 13% वोट भविष्य के लिए अच्छा संकेत है। दिल्ली निकाय चुनावों में जीत हासिल करके अरविंद केजरीवाल ने गुजरात में एक अच्छी शुरुआत की। देखा जाए तो भाजपा के लिए कांग्रेस से बड़ा खतरा 'आप' है।
ये चुनाव के नतीजे वास्तव में देश के लोकतंत्र की मजबूती, मतदाताओं की परिपक्वता और उनकी समझदारी का प्रतीक है। दो राज्यों के इन चुनाव और चंद उपचुनाव के नतीजों से यह साबित हो गया कि देश का मतदाता किसी पार्टी के दबाव और प्रभाव में नहीं है। वह किसी प्रलोभन या झूठे वादों में भी अब आंख मूंदकर भरोसा नहीं करता। देश की सियासत एक नई राह की और मुड़ने लगी है। दो राज्यों के परस्पर विपरीत नतीजों से यह भी स्पष्ट हो गया कि भाजपा भले ही स्वीकार न करे, पर इन चुनावों से उसे बड़ा नुकसान हुआ है न कि उतना फायदा जिसके जश्न में वह सच को नहीं समझ रही! विपक्ष भी अब समझ गया कि भाजपा को टक्कर देने के लिए उसे भी राष्ट्रवाद का डंका बजाना होगा। गुजरात तो 27 साल से भाजपा का था। यदि मुहिम की तरह मुकाबले में उतरा जाए, तो बीजेपी की ताकत के बावजूद उससे दूसरे राज्य भी छीने जा सकते हैं।
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