- हेमंत पाल
हिंदी सिनेमा ने अपने सौ साल से ज्यादा लंबे इतिहास ने कई उतार-चढाव देखे हैं। इनमें कुछ संघर्ष भरे, कुछ अच्छे थे, कुछ बहुत अच्छे और यादगार पड़ाव रहे। शुरुआती समय में फ़िल्में बनाना बेहद दुष्कर काम था! पर, जैसे-जैसे तकनीक समृद्ध हुई, फिल्मकारों के काम में भी रचनात्मकता आई। तकनीकी सुधार से फिल्मांकन, संगीत और डायरेक्शन में भी बहुत बदलाव आया। शुरू के दौर में जो फ़िल्में ब्लैक एंड व्हाइट बनती थीं, वे धीरे-धीरे रंगीन होने के साथ बेहतर होती गई। जब फिल्मों ने जीवन की वास्तविकता रंग लिए, तो लोगों ने ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों को लगभग भुला दिया। लेकिन, आज भी उस दौर की कुछ फ़िल्में ऐसी हैं, जो अपनी कहानी, डायरेक्शन, फिल्मांकन और अभिनय के मामले में आज की फिल्मों पर भारी हैं।
70 के दशक के बाद तो ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्में बनना बंद ही हो गई! लेकिन, ब्लैक एंड व्हाइट काल की कुछ यादगार फ़िल्में ऐसी हैं, जिन्हें आज भी पसंद किया जाता है। ये फ़िल्में उन पुरानी विंटेज कार की तरह हैं, जिनमें बैठने वाला अपने आपमें कुछ अलग ही महसूस करता है। क्योंकि, ये फ़िल्में भी किसी विंटेज से कम नहीं! सभी तो नहीं, पर कुछ फ़िल्में ऐसी हैं, जो आज भी देखी जाती हैं। ये वे फिल्में हैं, जो जीवन की सच्चाइयों से रूबरू कराने के साथ कई सामाजिक मुद्दों की तरफ इंगित करती हैं। इन फिल्मों के कलाकार भी अपने दौर के वे लोग हैं, जिनके अभिनय का आज भी लोहा माना जाता है।
पसंद की जाने वाली फिल्मों में 1949 की फिल्म 'महल' को रखा जा सकता है। कमाल अमरोही के निर्देशन में बनी इस फिल्म में अशोक कुमार और मधुबाला ने काम किया था। ये पुनर्जन्म से जुड़ी अलौकिक सस्पेंस थ्रिलर फिल्म थी। ये दो प्रेमियों के मिलन और बिछड़ने की कहानी है। एक महल में दो प्रेमी आधी रात को मिलते हैं। एक दिन प्रेमी एक हादसे का शिकार हो जाता है और प्रेमिका से मिलने नहीं आ पाता। कई सालों के बाद नया मालिक अशोक कुमार वहां रहने आता है, तब रहस्य सामने आता है। इसमें मधुबाला ने दोहरी भूमिका निभाई थी। ऐसी ही एक फिल्म है 1951 की 'आवारा' जिसके निर्देशन के साथ राज कपूर ने इसमें काम भी किया था। इस फिल्म ने देश-विदेश में कामयाबी के कई झंडे गाड़े थे। फिल्म में पृथ्वीराज कपूर ने जज की भूमिका निभाई थी। इसी साल (1951) में आई फिल्म 'अलबेला' का निर्देशन मास्टर भगवान ने किया था और इसके कलाकार थे गीता बाली और मास्टर भगवान। फिल्म की कहानी एक गरीब पर केंद्रित थी, जो अपनी बहन की शादी के लिए पैसे नहीं जुटा पाता है। घर से निकलते समय अमीर के रूप में लौटने की कसम खाता है। जब वो वापस लौटता है, तो उसे पता चलता है कि उसकी माँ अब जीवित नहीं है। उसने सालों तक जो पैसे घर भेजे, वे भी गायब थे।
निर्देशक बिमल रॉय की फिल्म 'दो बीघा ज़मीन' (1953) में बलराज साहनी, मुराद, निरूपा रॉय ने काम किया था। रवींद्रनाथ टैगोर की बंगाली कविता 'दुई बीघा जोमी' इस फिल्म की नींव थी। इस फिल्म में गरीब किसान ठाकुर हरनाम सिंह (मुराद) के हाथों गरीब किसान शंभू महतो (बलराज साहनी) के संघर्ष और जबरन वसूली का दर्दभरा चित्रण था। किसान और उसका परिवार दो एकड़ जमीन बचाने के लिए अपना जीवन ख़त्म कर देते हैं, जो उनकी जीविका का एकमात्र साधन होता है। 1954 में आई फिल्म 'बूट पॉलिश' को प्रकाश अरोड़ा ने निर्देशित किया था। इसके कलाकार कुमारी नाज़, रतन कुमार, चंदा बुर्के और डेविड थे। यह फिल्म भाई-बहन भोला (रतन कुमार) और बेलू (कुमारी नाज़) की कहानी थी। मां की मौत के बाद, क्रूर चाची कमला देवी (चंदा बुर्के) भाई और बहन को सड़क भिखारी बनने के लिए मजबूर करती है। जॉन अंकल (डेविड अब्राहम) की मदद से, भोला और बेलू अपनी चाची के खिलाफ जाने और जीवन जीने का फैसला करते हैं। 1955 में आई फिल्म 'बाप रे बाप' को अब्दुल रशीद कारदार ने निर्देशित किया था। किशोर कुमार, चाँद उस्मानी, स्मृति बिस्वास की ये फिल्म एक सुपर-हिट कॉमेडी थी।
ब्लैक एंड व्हाइट दौर की राज कपूर निर्देशित क्लासिक फिल्मों में 'श्री 420' (1955) को भी गिना जाता है। इसमें राज कपूर के साथ नरगिस और नादिरा थे। फिल्म एक गांव के लड़के रणबीर राज की कहानी है, जो अपनी किस्मत आजमाने शहर जाता है। वहां उसे विद्या (नरगिस) से प्यार हो जाता है। राज शहर में कई चालाक लोगों से मिलता है, जो उसे धोखाधड़ी का जीवन जीने के लिए सिखाते हैं। यह फिल्म रूस में बहुत लोकप्रिय हुई थी। 1956 में आई 'जागते रहो' निर्देशक अमित मित्रा की फिल्म थी, जिसमें राज कपूर, प्रदीप कुमार, स्मृति बिस्वास और नरगिस थे। फिल्म की कहानी में एक गरीब व्यक्ति के बेहतर जीवन जीने की उम्मीद की कहानी थी। लेकिन, यह भोला किसान लालच और भ्रष्टाचार के जाल में फंस जाता है।
ब्लैक एंड व्हाइट दौर की राज कपूर निर्देशित क्लासिक फिल्मों में 'श्री 420' (1955) को भी गिना जाता है। इसमें राज कपूर के साथ नरगिस और नादिरा थे। फिल्म एक गांव के लड़के रणबीर राज की कहानी है, जो अपनी किस्मत आजमाने शहर जाता है। वहां उसे विद्या (नरगिस) से प्यार हो जाता है। राज शहर में कई चालाक लोगों से मिलता है, जो उसे धोखाधड़ी का जीवन जीने के लिए सिखाते हैं। यह फिल्म रूस में बहुत लोकप्रिय हुई थी। 1956 में आई 'जागते रहो' निर्देशक अमित मित्रा की फिल्म थी, जिसमें राज कपूर, प्रदीप कुमार, स्मृति बिस्वास और नरगिस थे। फिल्म की कहानी में एक गरीब व्यक्ति के बेहतर जीवन जीने की उम्मीद की कहानी थी। लेकिन, यह भोला किसान लालच और भ्रष्टाचार के जाल में फंस जाता है।
'जागते रहो' भारतीय सिनेमा की क्लासिक फिल्मों में एक है। इसे रूसी बॉक्स ऑफिस पर भी ब्लॉक बस्टर घोषित किया गया था। इसी तरह 1957 में आई 'प्यासा' निर्देशक गुरुदत्त की फिल्म थी, जिसमें गुरुदत्त के साथ वहीदा रहमान, माला सिन्हा ने काम किया था। इसकी कहानी है एक कवि का संघर्ष था जो अपनी कविताओं को प्रकाशित करने के लिए संघर्ष करता है। वह उस वेश्या गुलाबो (वहीदा रहमान) से मिलता है, जो उसकी कविता से प्यार करती है। अबरार अल्वी फिल्म के लेखक थे।
1957 में आई फिल्म 'नया दौर' बीआर चोपड़ा ने बनाई थी। इसमें दिलीप कुमार, वैजयंती माला और अजीत थे। इसकी कहानी में शंकर (दिलीप कुमार) घोड़ा गाड़ी खींचकर आजीविका कमाता है। लेकिन, मकान मालिक सेठ जी (नजीर हुसैन) के बेटे कुंदन (जीवन) को शंकर और साथी धमकाते हैं। क्योंकि, वह उसी मार्ग पर बस की सवारी शुरू करता है। ब्लैक एंड व्हाइट काल की 'मधुमती' (1958) भी आज पसंद की जाने वाली फिल्मों में एक है। इसके निर्देशक बिमल रॉय थे और इसमें दिलीप कुमार, वैजयंती माला, प्राण और जॉनी वॉकर ने काम किया था। 'मधुमती' एक सदाबहार रोमांटिक फिल्म है, जिसमें दो जन्मों की कहानी थी। 1958 की फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' निर्देशक सत्येन बोस ने निर्देशित की थी। इसमें किशोर कुमार, अशोक कुमार और अनूप कुमार के साथ मधुबाला थी। 1959 में आई गुरुदत्त की फिल्म 'कागज़ के फूल' में गुरुदत्त के साथ वहीदा रहमान और वीणा सप्रू थे। अबरार अल्वी की कहानी पर बनी 'काग़ज़ के फूल' गुरुदत्त के जीवन की कहानी थी, जो बेहद दुखद थी।
हिंदी सिनेमा की सबसे क्लासिक कही जाने वाली फिल्मों में एक 'मुगल-ए-आज़म' (1960) को के आसिफ ने निर्देशित किया था। इसमें पृथ्वीराज कपूर, मधुबाला, दिलीप कुमार और दुर्गा खोटे ने काम किया था। फिल्म की कहानी प्रेम और पिता के जिद्दी स्वभाव और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर गढ़ी गई थी। फिल्म में मुगल राजकुमार सलीम (दिलीप कुमार) और दरबारी अनारकली (मधुबाला) की प्रेम कहानी पर प्रकाश डाला गया है। बाद में इस फिल्म को नई तकनीक से रंगीन बनाया गया था। कहा जा सकता है कि इस फिल्म को दोहराया नहीं जा सकता। निर्देशक विजय आनंद की 'काला बाज़ार' (1960) में देव आनंद, वहीदा रहमान और नंदा थे। ये विजय आनंद की सफल ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म थी। फिल्म में रघुवीर (देव आनंद) एक यात्री के साथ बहस से बस कंडक्टर की नौकरी गंवाने के बाद कालाबाजारी करने लगता है। बाद में वो महसूस करता है कि वो गलत रास्ते पर है। 1961 में आई 'काबुलीवाला' निर्देशक हेमेन गुप्ता की फिल्म थी। इसमें बलराज साहनी, बेबी सोनू, बेबी फरीदा ने अभिनय किया था। इसकी कहानी ड्राई फ्रूट बेचने अब्दुल रहमान खान (बलराज साहनी) की थी।
'साहिब बीबी और गुलाम (1962) को गुरुदत्त की फिल्मों के लेखक अबरार अल्वी ने निर्देशित किया था। इसके कलाकार मीना कुमारी, गुरुदत्त, रहमान थे। फिल्म में कई फ्लैशबैक हैं। इस फिल्म में कई डायलॉग भी क्लासिक थे। फिल्म 'बंदिनी' (1963) को निर्देशक बिमल रॉय की क्लासिक फिल्मों में गिना जाता है। इसमें अशोक कुमार, नूतन, धर्मेंद्र थे। इसकी कहानी एक महिला कैदी नूतन और डॉ देवेंद्र (धर्मेंद्र) पर केंद्रित है। 'बंदिनी' एक एक महिला कैदी की दुखद और भावनात्मक कहानी है।
'साहिब बीबी और गुलाम (1962) को गुरुदत्त की फिल्मों के लेखक अबरार अल्वी ने निर्देशित किया था। इसके कलाकार मीना कुमारी, गुरुदत्त, रहमान थे। फिल्म में कई फ्लैशबैक हैं। इस फिल्म में कई डायलॉग भी क्लासिक थे। फिल्म 'बंदिनी' (1963) को निर्देशक बिमल रॉय की क्लासिक फिल्मों में गिना जाता है। इसमें अशोक कुमार, नूतन, धर्मेंद्र थे। इसकी कहानी एक महिला कैदी नूतन और डॉ देवेंद्र (धर्मेंद्र) पर केंद्रित है। 'बंदिनी' एक एक महिला कैदी की दुखद और भावनात्मक कहानी है।
1963 में राष्ट्रीय पुरस्कार के अलावा, इस फिल्म ने 1964 के फिल्मफेयर पुरस्कारों में कई श्रेणियां जीतीं। 1967 की फिल्म 'रात और दिन' निर्देशक सत्येन बोस की फिल्म थी, जिसमें नरगिस, प्रदीप कुमार और फिरोज खान ने काम किया था। यह फिल्म एक महिला केंद्रित ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म थी। इसके अलावा और भी कई ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों हैं, जिन्होंने हिंदी सिनेमा में अपनी पहचान बनाई। इनमें अनमोल घड़ी (1946), आर पार (1954), देवदास (1955), चोरी चोरी (1956) और हावड़ा ब्रिज (1958) भी हैं।
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