- हेमंत पाल
प्रेम के ढाई अक्षर होते हैं और अहं में भी अमूमन उतने ही शब्द होते हैं। ढाई अक्षरों वाले इन दोनों शब्दों का संबंध बनाने और बिगाड़ने में अहम भूमिका होती है। जहां प्रेम से संबंध बनते और पनपते हैं, वहीं अहं से संबंध बिगड़ते और टूटते हैं। संबंध के बनने और बिगड़ने में प्रेम और अहं दोनों जिम्मेदार होते हैं। संबंधों की यह सच्चाई संबंध में परदे पर जितनी शिद्दत से पेश की गई, परदे के बाहर भी संबंधों के जुड़ने और टूटने का क्रम भी दिखाई देता रहता है। एस मुखर्जी को हिंदी सिनेमा में मसाले का उपयोग करने का सबसे ज्यादा श्रेय दिया जाता है। उनकी पाठशाला से जॉय मुखर्जी, साधना, संजीव कुमार जैसे सितारे तो निकले ही, नासिर हुसैन और ओपी नैयर ने भी मुखर्जी परिवार को रजत पटल पर स्थापित करने में अहम् भूमिका निभाई। एस मुखर्जी जहां अपने बडे बेटे जॉय मुखर्जी को सितारा बनाने में सफल रहे, वहीं अपने छोटे बेटे देव मुखर्जी का फिल्मों से संबंध जोड़ने में वे भले ही कामयाब रहे हों, लेकिन फिल्मों से देव मुखर्जी के सबंधों को पुख्ता करने या स्थायित्व देने में वह सफल नहीं हो पाए।
अपने बेटे का फिल्मों से संबंध जोड़ने का यह सिलसिला फिल्म 'संबंध' से ही शुरू हुआ था। इसे संयोग कहें या प्रेम और अहं का अंतरजाल कि 'संबंध' में ही गीतकार प्रदीप, संगीतकार ओपी नैयर और गायक मुकेश के बीच संबंध बनने और बिगडने का संबंध रहा है। मसाला फिल्मों के जनक एस मुखर्जी 'संबंध' से कुछ अलग करने का सोच रहे थे। इसलिए उन्होंने इसके गीत संगीत में भी प्रयोग करने का निश्चय किया और गीतकार प्रदीप और संगीतकार ओपी नैयर की बेमेल जोडी का किसी तरह मेल करने में भी वे कामयाब रहे। यह संबंध मुखर्जी परिवार के साथ कवि प्रदीप और संगीतकार ओपी नैयर के प्रेम का परिणाम था।
इस फिल्म के लिए ओपी नैयर का मिजाज कुछ अलग ही था। वे भी मसालेदार धुनों से इतर संजीदा धुन बनाकर फिल्मी दुनिया को यह दिखाना चाहते थे कि उनका संगीत केवल घोड़ों की टापों या पंजाबी लोक संगीत के सहारे ही नहीं चलता! बल्कि, वे सुरमई संगीत का सृजन भी उतनी ही संजीदगी से कर सकते हैं। गीतकार प्रदीप के गीतों में शुद्ध हिंदी का प्रयोग होता था और अपने गीत अक्सर वह स्वयं ही गाते थे जो कविता नुमा धुनों में पिरोए होते थे। एक बड़ा गीतकार होने का उन्हें भ्रम था, तो अपने संगीत से श्रोताओं को थिरकाने वाले ओपी नैयर की सनक भी कुछ कम नहीं थी। गीत और संगीत का सिलसिला संबंधों के बनने और उसमें दरार पड़ने से आरंभ हुआ। यह गीत था 'चल अकेला चल अकेला चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा रही चल अकेला।
इस फिल्म के लिए ओपी नैयर का मिजाज कुछ अलग ही था। वे भी मसालेदार धुनों से इतर संजीदा धुन बनाकर फिल्मी दुनिया को यह दिखाना चाहते थे कि उनका संगीत केवल घोड़ों की टापों या पंजाबी लोक संगीत के सहारे ही नहीं चलता! बल्कि, वे सुरमई संगीत का सृजन भी उतनी ही संजीदगी से कर सकते हैं। गीतकार प्रदीप के गीतों में शुद्ध हिंदी का प्रयोग होता था और अपने गीत अक्सर वह स्वयं ही गाते थे जो कविता नुमा धुनों में पिरोए होते थे। एक बड़ा गीतकार होने का उन्हें भ्रम था, तो अपने संगीत से श्रोताओं को थिरकाने वाले ओपी नैयर की सनक भी कुछ कम नहीं थी। गीत और संगीत का सिलसिला संबंधों के बनने और उसमें दरार पड़ने से आरंभ हुआ। यह गीत था 'चल अकेला चल अकेला चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा रही चल अकेला।
इस गीत के लिए प्रदीप ने यह तय माना था कि वे इसे खुद ही गाएंगे। लेकिन, आशा भोंसले की सिफारिश पर ओपी नैयर इसे मुकेश से गवाना चाहते थे। मजे की बात तो यह है कि मुकेश और ओपी नैयर के संबंध भी ज्यादा अच्छे नहीं थे। तारा हरीश की फिल्म 'दो उस्ताद' जिसके एक नायक राज कपूर थे उसमें ओपी नैयर ने राज कपूर के गीत मुकेश से गवाने की मांग ठुकरा कर मोहम्मद रफी से सारे गीत गवाए थे। इसके बाद राज कपूर और ओपी नैयर कभी साथ नहीं आए। लेकिन, संबंधों की इस तल्खी का असर मुकेश पर भी पडा। इसके बावजूद संबंधों के चलते ओपी नैयर ने 'चल अकेला' के लिए मुकेश को राजी कर लिया और यह गीत इतना ज्यादा लोकप्रिय हुआ कि मुकेश के टॉप टेन गीतों में इसने अपना स्थान बना लिया। इसके बाद ओपी नैयर और मुकेश के संबंध तो सुधर गए, लेकिन नैयर और प्रदीप के बीच तनातनी के हालात बन गए। लेकिन, दोनों ने अपनी प्रतिभा पर किसी तरह की आंच नहीं आने दी और फिल्म 'संबंध' के सारे गीत एक से बढ़कर एक लिखे गए और एक से बढ़कर एक धुनों में पिरोकर गीत संगीत का प्रगाढ़ संबंध स्थापित कर दिया।
'संबंध' में एक गीत और था, जो अपने आप में अद्भुत था। 'अकेली हूं मैं पिया आ' यह गीत अदभूत इस मायने में था कि मुजरा स्टाइल में होने के बावजूद इसमें मुजरे जैसा हल्कापन नहीं था। न तो बोल में और न संगीत में। यह भी कम ही देखा गया कि इस शैली के गीत को शुद्ध हिंदी में लिखा गया और कम से कम वाद्य यंत्रों के प्रयोग से इसकी प्रभावशीलता बढा दी गई हो। गीत की शुरुआत विषय वस्तु और गायन का अंदाज देखकर इसकी तुलना राज कपूर की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गीत 'अंग लग जा बालमा' के साथ की जाने लगी। उसकी शुरुआत भी चार पंक्तियों के साथ आरंभ हुई। इसमें भी नायिका अपने अकेलेपन की तड़फ का हवाला देते हुए नायक को आमंत्रण देती है। फिर भी 'अंग लग जा बालमा' और 'अकेली हूं मैं पिया आ' कि तुलना इसलिए भी बेमानी है, क्योंकि दोनो गीतों के भाव भिन्न है। 'अंग लग जा बालमा' के फिल्मांकन में नायिका का खुलापन वासना को भड़काने का काम करता है, तो संबंध का गीत प्रेममय आमंत्रण है जिसमें रंचमात्र भी वासना नहीं है। एक गीत यदि कामदेव की पत्नी रति का रचा प्रपंच नजर आता है तो दूसरा गीत राधा और मीरा की याचना है।
'अकेली हूं मैं पिया आ' के बोलों पर यदि ध्यान पूर्वक विचार किया जाए तो यह किसी तवायफ के कोठे से निकला गीत नहीं, बल्कि किसी मंदिर से निकली प्रभु को पुकारने का प्रयास है। इंसान यदि अकेला बढ़ता जाए और अपने हौंसले के बल पर चलकर 'चल अकेला चल अकेला' गाता हुआ आगे बढता भी जाए। लेकिन, अकेले बढ़ते-बढ़ते जब उसका मेला पीछे छूट जाता है और वह नितांत अकेला पड़ जाता है, तब उसे ईश्वर के अलावा कुछ और नजर नहीं आता। इस गीत में दुनिया की भीड़ में अकेली पड़ी ऐसी ही एक दुखियारी की पुकार है, जो अकेली होकर अपने प्रिय प्रभु को पुकार रही है। अकेली हूं में पिया, यहां पिया और कोई नहीं स्वयं ईश्वर है जिसे राधा और मीरा ने इसी स्वरूप में देखा था।
गीत के अंतरे भी अपनी व्यथा और ईश्वर से आकर रक्षा करने की याचना की तरफ इंगित करते हैं। प्रभु यदि रूपनगर के कुंवर हैं, तो नायिका रूपनगर की कुंवारी बनकर कहती है कि उनके बिना वह तरस रही है और कहती है राजा प्रीत निभा। यह अनुनय राधा का भी हो सकता है, जो द्वारका नरेश को प्रीत निभाने का बचपन का वादा निभाने की याद दिला रही है। दूसरा अंतरा कहता है 'जब जब देखूं मैं दर्पण में आग सी लगती है नाजुक तन में क्या करूं तू ही बता।' इन पंक्तियों का भावार्थ भी छायावाद से प्रेरित लगता है।
गीत के अंतरे भी अपनी व्यथा और ईश्वर से आकर रक्षा करने की याचना की तरफ इंगित करते हैं। प्रभु यदि रूपनगर के कुंवर हैं, तो नायिका रूपनगर की कुंवारी बनकर कहती है कि उनके बिना वह तरस रही है और कहती है राजा प्रीत निभा। यह अनुनय राधा का भी हो सकता है, जो द्वारका नरेश को प्रीत निभाने का बचपन का वादा निभाने की याद दिला रही है। दूसरा अंतरा कहता है 'जब जब देखूं मैं दर्पण में आग सी लगती है नाजुक तन में क्या करूं तू ही बता।' इन पंक्तियों का भावार्थ भी छायावाद से प्रेरित लगता है।
सांसारिक दृष्टि से रूप, दर्पण और आग सब कुछ अलग है और आध्यात्मिक रूप से इनके मायने बदल जाते है। यहां इंसान का रूप उसकी आत्मा होती है और दर्पण उसका मन जब दुनिया से दुखी अकेली पडी प्रभु प्यारी गुहार करते हुए अपने मन के दर्पण में झांकती है या अपनी अंर्तआत्मा को झकझोरती है तो उसे अपने आसपास विरह की आग जलती दिखाई देती है यह प्रभु विछोह की आग है जिसके लिए उसे प्यार की शीतल छैयां यानी प्रभु के सानिध्य की जरूरत होती है । लेकिन, वह नहीं जानती कि प्रभु कृपा कब और कैसे होगी । इसलिए वह प्रभु के सामने प्रश्न छोडती है 'क्या करूं तू ही बता अकेली हूं मैं पिया आ...!'
यदि इस गीत में प्रयुक्त वाद्य यंत्रों पर गौर किया जाए तो वह भी ईश्वरीय प्रतीत होते हैं। यूँ तो ओपी नैयर के आर्केस्ट्रा में वायलिन ढोलक का बहुतायत से प्रयोग होता है । लेकिन 'अकेली हूं में पिया आ' को उन्होंने महज एक गीत नहीं बल्कि प्रभु याचना और प्रार्थना मानकर उन्हीं वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया है जो मीरा और उनके गोपाल के बीच के संबंधों को प्रतिबिंबित करते है। इसकी शुरुआत भले ही सारंगी से हुई हो, लेकिन अंतरे में 'पग घुंघरू बांध गोपाल' के सामने नृत्य करती मीरा के पैरो के घुंघरू के साथ गोपाल के ओठों से लगी बांसुरी का सुंदर प्रयोग किया गया है। बीच-बीच में सितार का प्रयोग इसके दर्शन इसकी आध्यात्मिकता को और बढा देता है। परदे पर भले ही अकेली हूं में पिया आ नर्तकी और नृत्य देखने आने वालों के बीच संबंध जोड़ता दिखाई पड़ता है। लेकिन, परदे से परे यह प्रभु और प्रभु-दर्शन की प्यासी राधा और मीरा के संबंधों को रेखांकित करता है।
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