Sunday, December 15, 2024

एक तरफा नाकाम मोहब्बत का फलसफा

   मोहब्बत कई तरह की होती है। दो तरफ़ा हो, तो उसे सफल मोहब्बत कहा जाता है। लेकिन, एक तरफा मोहब्बत भी कम नहीं होती। ऐसी मोहब्बत हमेशा एक नई कहानी को जन्म देती है। इस विषय पर कई फ़िल्में बनी, जिनमें एकतरफा मोहब्बत पर पूरी कहानी गढ़ दी गई। ऐसी मोहब्बत को समझने के लिए कुछ साल पहले आई 'ऐ दिल है मुश्किल' का एक डायलॉग मौजूं है। यह था 'एकतरफा प्यार की ताकत ही कुछ और होती है, औरों के रिश्तों की तरह ये दो लोगों के बीच नहीं बंटती, सिर्फ मेरा हक है इस पर!' वास्तव में यह डायलॉग कई लोगों की जिंदगी का फलसफा है। किंतु, ऐसी मोहब्बत पर आई फिल्म 'डर' एकतरफा मोहब्बत का काला पक्ष दर्शाती है। 
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- हेमंत पाल

     जब से फ़िल्में बनना शुरू हुई, प्रेम कथाओं का कथानकों में सबसे ज्यादा उपयोग किया गया। विषय कोई भी हो, प्रेम उसमें स्थाई भाव की तरह समाहित रहा। यहां तक कि युद्ध कथाओं और डाकुओं की फिल्मों में भी प्रेम को किसी न किसी तरह जोड़ा गया। न सिर्फ जोड़ा गया, बल्कि उस कथा को अंत तक निभाया भी। प्रेम कहानी में प्रेमी और प्रेमिका दोनों की भूमिका होती है, इसलिए कथानक को विस्तार देना मुश्किल नहीं होता। लेकिन, कुछ फ़िल्में ऐसी भी बनी, जिनमें प्यार को सिर्फ एकतरफा दिखाया गया। यानी प्रेमी या प्रेमिका में से कोई एक ही आगे कदम बढ़ाता है, दूसरा या तो वहीं खड़ा रहता है या पीछे हट जाता है। देखा गया कि ऐसी फिल्मों का कथानक हमेशा ही उलझा हुआ रहा। क्योंकि, जरूरी नहीं, जिससे आप प्यार करो, वह भी आप से प्यार करे। ऐसी फिल्मों का लंबा हिस्सा प्रेम के बिखरे हिस्से को समेटने में ही निकल जाता है। लेकिन, प्यार अधूरा हो या एक तरफा, दर्द बहुत देता है। चंद फ़िल्में ऐसी भी बनी जिनमें एकतरफ़ा प्रेम हिंसा के अतिरेक तक पहुंचा। आशय यह कि अपनी मोहब्बत को पाने के लिए खून तक बहाया गया। फिर भी क्या उन्हें प्यार मिला हो, ये जरूरी नहीं है।  
       इस तरह की एकतरफा दर्द भरी प्रेम कथा पर बनी फिल्म 'देवदास' एक तरह से मील का पत्थर है। इस फिल्म की कहानी शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के बंगाली उपन्यास पर आधारित है। इस एकतरफा प्रेम कथा पर अलग-अलग भाषाओं में कई फ़िल्में बनी। पहली बार 'देवदास' 1928 में रिलीज़ हुई थी। सबसे पहले बंगाली में बनी, फिर हिंदी में ही ये तीन बार बन चुकी है। साउथ में भी 'देवदास' पर फिल्म बनाई जा चुकी है। इस कहानी में एक वैश्या के प्यार में देवदास खुद को बर्बाद कर लेता है। जबकि, देवदास के इश्क में चंद्रमुखी अपने देवबाबू को भगवान मानने लगती है! एकतरफा प्यार में खुद को तबाह कर देने की सबसे चर्चित दास्तां 'देवदास' ही है। इसी कथानक पर संजय लीला भंसाली ने भी 2002 में 'देवदास' बनाई। फिल्म में मुख्य किरदार देव बाबू (शाहरुख खान), पारो यानी ऐश्वर्या राय और चंद्रमुखी यानी माधुरी दीक्षित ने निभाई थी। फिल्म में देव बाबू पारो से बहुत प्यार करता है। लेकिन, उसकी शादी नहीं हो पाती। वह एकतरफा प्यार में जब कुछ नहीं कर पाता, तो खुद को तबाह करता है। फिल्म के अंत में देव पारो के दरवाजे पर जाकर दम तोड़ देता है। ये फिल्म एकतरफा प्यार की सबसे सशक्त फिल्म मानी जाती है। 
     1999 में संजय लीला भंसाली ने ही सलमान खान, ऐश्वर्या राय बच्चन और अजय देवगन लेकर 'हम दिल दे चुके सनम' बनाई। इसमें समीर (सलमान खान) और नंदिनी (ऐश्वर्या राय) एक-दूसरे से बेइंतहा मोहब्बत करते हैं। लेकिन, अचानक परिवार वाले नंदिनी की शादी वनराज (अजय देवगन) से कर देते हैं। इसके बाद नंदिनी का प्यार समीर उससे दूर हो जाता है। वनराज नंदिनी से पहली नजर से प्यार करता है, और शादी के बाद उसका प्यार और बढ़ता है। लेकिन, किसी भी एकतरफा प्यार का सबसे बड़ा इम्तिहान तब होता है, जब उसे पता चलता कि उसकी पत्नी किसी दूसरे से प्यार करती है। यह फिल्म एकतरफा प्यार की ताकत को बहुत आगे लेकर जाती है। वनराज दोनों प्रेमियों को मिलाने की कोशिश में करता है। वनराज अपनी पत्नी को उसके प्रेमी से मिलाने लेकर जाता है। उसकी आंखों में आंसू होते हैं, लेकिन फिर भी वो पीछे नहीं हटता। किंतु, नंदिनी यह स्वीकार नहीं करती और पति के साथ लौट आती है। ये अपनी तरह की अनोखी प्रेम कहानी थी। 
    ऐसी चंद कहानियों में एक फिल्म यश चोपड़ा की 'डर' (1993) भी है जिसमें एकतरफा प्यार का हिंसक रूप सामने आता है। 'डर' नाकाम प्रेमियों की उस कहानी को बयां करती है, जिन्हें प्रेमी को खोने का डर सबसे ज्यादा होता है। शाहरुख़ खान (राहुल) फिल्म में जूही चावला (किरण) से एकतरफा प्यार करता है। जब जूही उसके प्यार को स्वीकार नहीं करती तो शाहरुख का प्यार पागलपन की हद तक चला जाता है। लेकिन, किरण तो सुनील (सनी देओल) को चाहती थी। 'डर' में एकतरफा प्यार का जो रूप दिखाया, वो काफी भयानक है। अंत में राहुल को किरण का पति सुनील मार देता है। 
    शाहरुख खान की एक और फिल्म 'कभी हां कभी ना' (1994) शुरुआती फिल्म थी। फिल्म की कहानी में शाहरुख़ एक लड़की सुचित्रा कृष्णमूर्ति को चाहता हैं, पर वो किसी और को। लेकिन, इस फिल्म का अंत खुशनुमा होता है। अमिताभ बच्चन की हिट फिल्म 'मुकद्दर का सिकंदर' में भी एकतरफा प्यार के दो किस्से थे। कथानक में एक गरीब बच्चे की मदद एक अमीर लड़की करती है। वो बच्चा उसे प्यार करने लगता है। बड़े होने तक और मरने तक उसे यह प्यार रहता है। लेकिन, वो लड़की किसी और को चाहती है। 'मुकद्दर का सिकंदर' में वो गरीब बच्चा अमिताभ थे और अमीर लड़की जयाप्रदा जिससे वे एकतरफा प्यार करते हैं। वहीं रेखा अमिताभ को चाहती है। फिल्म में अमजद खान भी रेखा से एकतरफा प्यार करते थे।
   आमिर खान की फिल्म 'लगान' (2001) भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें एकतरफा प्यार का बहुत हल्का सा इशारा था। इस फिल्म में एकतरफा प्यार पनपता है भुवन (आमिर खान) के लिए एलिजाबेथ में। जब एलिजाबेथ गांव वालों को क्रिकेट सिखाने में मदद करती है, उसी दौरान वह अपना दिल भुवन को दे देती है। लेकिन, भुवन को इस बात का पता नहीं होता। क्योंकि, वह तो गौरी से प्यार करता है। फिल्म के अंत में जरूर दर्शकों को इस एकतरफा मोहब्बत का अंदाजा मिलता है। 
      2001 में ही आई 'दिल चाहता है' की कहानी में भी एकतरफा प्यार था। इस फिल्म ने दोस्ती में नया अध्याय जरूर जोड़ा। फिल्म की कहानी में तीनों दोस्तों को प्यार होता है। सिड (अक्षय खन्ना) को तलाकशुदा महिला तारा (डिंपल कपाड़िया) से एकतरफा प्यार हो जाता है। लेकिन, तारा उसे दोस्त ही समझती रहती है। जबकि, सिड को तारा की दोस्ती प्यार लगती है। अंत में उसका दिल टूट जाता है। ऐसी ही एक फिल्म 'कॉकटेल' आई थी, जिसकी कहानी एकतरफा आशिकों के लिए थी। ऐसा नहीं कि लड़का ही एकतरफा आशिक होता है। लड़की को भी एकतरफा इश्क हो सकता है। फिल्म में वही दिखाया गया। गौतम (सैफ अली) वेरॉनिका (दीपिका पादुकोण) एक जोड़े की तरह साथ रहते हैं। लेकिन, दोनों के बीच प्यार पूरा नहीं होता। इनके साथ डायना पेंटी (मीरा) भी रहती है। जब गौतम को मीरा से इश्क हो जाता है, तो वेरोनिका भी उससे प्यार करने लगती है। तब मामला गंभीर हो जाता है। 1997 में आई फिल्म 'दिल तो पागल है' में निशा (करिश्मा कपूर) और राहुल (शाहरुख खान) अच्छे दोस्त होते हैं। लेकिन निशा के दिल में राहुल के लिए दोस्त से बढ़कर जगह होती है। पर, वह यह बात राहुल से नहीं कहती। लेकिन राहुल की जिंदगी में जब पूजा (माधुरी दीक्षित) की एंट्री होती है, तो निशा का प्यार दिल में ही रह जाता है और राहुल-पूजा प्रेमी जोड़ा बन जाते हैं।
     करण जौहर की फिल्म 'ऐ दिल है मुश्किल' (2016) में एकतरफा प्यार की ताकत को दिखाया गया। किस तरह लड़के को लड़की से प्यार होता है लेकिन लड़की किसी और को चाहती है। रणबीर कपूर ने फिल्म में अयान का किरदार निभाया था। फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर तो कोई कमाल नहीं किया। लेकिन, एकतरफा मोहब्बत करने वालों को सीख जरूर दी। दो अजनबी टकराते हैं, फिर रिश्ते की शुरुआत होती है। अयान इसे प्यार समझ लेता है। लेकिन अनुष्का शर्मा (अलिजेह) इस रिश्ते को दोस्ती का नाम देती है। कहानी में अयान को अविजेह से प्यार रहता है। जबकि अलिजेह के लिए अयान सिर्फ एक अच्छा दोस्त होता है। 2005 में आई आदित्य दत्त की फिल्म 'आश‌िक बनाया आपने' में सोनू सूद (करण) तनुश्री दत्ता (स्नेहा) से एकतरफ़ा प्यार करते हैं। लेकिन, वे कभी बताते नहीं। लेकिन, जब स्नेहा इमरान हाशमी (विकी) से प्यार करने लगती हैं, तो करण अपने दोस्त विकी के खिलाफ साजिश रचकर उससे सब छीन लेता है। 
    आज के दौर में ऐसी फिल्मों में यादगार फिल्म 'रांझणा' (2013) है। आनंद एल राय ने सोनम कपूर, अभय देओल और धनुष को लेकर यह फिल्म बनाई। वाराणसी शहर की पृष्ठभूमि और हिंदू-मुस्लिम धर्मों के दो किरदारों की कहानी है। कुंदन (धनुष) बचपन से ही जोया (सोनम कपूर) से एकतरफा प्यार करता है। लेकिन, जोया जसजीत सिंह (अभय देओल) नाम के छात्र व यूनियन में चुनाव में सक्रिय लड़के से प्यार करती है। कहानी कुछ ऐसा मोड़ लेती है कि कुंदन की एक गलती की वजह से जसजीत सिंह की मौत हो जाती है। इसके बाद एक तरफा मुहब्बत एक नए मुकाम पर पहुंच जाती है। कुंदन अपना सब कुछ पहले ही जोया पर हार चुका होता है। अंत में जोया के कहने पर सब जानते हुए अपनी जान तक दे देता है। रणबीर कपूर की फिल्म 'ये जवानी है दीवानी' में भी दीपिका पादुकोण को एकतरफा प्यार करते दिखाया गया। 'बर्फी' फिल्म में रणबीर कपूर को इलियाना डिक्रूज के एकतरफा प्यार में दीवाना दिखाया था। इसके अलावा मेरी प्यारी बिंदु, रॉकस्टार, मोहब्बतें और 'जब तक है जान' भी वे फ़िल्में हैं जिनका कथानक एकतरफा प्यार पर केंद्रित था।  
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स्वप्नीली नीली आंखों का वो रंगीन जादू

   भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े फिल्ममेकर्स रहे राज कपूर ने सिर्फ हिंदी सिनेमा को ही समृद्ध नहीं किया, उन्होंने विश्व सिनेमा पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। 'द ग्रेटेस्ट शोमैन' के नाम से मशहूर इस स्वप्नीली नीली आंखों वाले बहुमुखी कलाकार ने फिल्म मेकिंग, एक्टिंग और डायरेक्शन में ऐसा जबरदस्त कमाल किया, जो आज भी प्रेरणा देता है। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर आरके फिल्म्स, फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन और एनएफडीसी ने एक साथ मिलकर एक खास उत्सव मना रहे हैं। इसमें उनकी 10 चुनिंदा फ़िल्में प्रदर्शित की जाएगी। राज कपूर का जन्म 14 दिसंबर 1924 को हुआ और 1988 में उनका निधन हो गया था। आज वे होते तो 100 साल के होते।  

- हेमंत पाल
  
     सिनेमा के ग्रेटेस्ट शोमैन राज कपूर के बारे में जिन्हें लगता था कि उनके बाद हिंदी फिल्मों का शो थम जाएगा, वे कहीं न कहीं गलत थे। लेकिन, यदि वे आज जीवित होते, तो देखते कि फिल्म प्रशंसक उनकी सौंवी जयंती मना रहे हैं। 'मेरा नाम जोकर' में उन्होंने सच कहा था 'कल खेल में हम हो न हो गर्दिश में सितारे रहेंगे सदा' और जाइएगा नहीं शो अभी खत्म नहीं हुआ। अब लगने लगा कि राज कपूर ने खेल खेल ही में ही, लेकिन सच ही कहा था कि शो अभी खत्म नहीं हुआ! उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर आरके फिल्म्स, फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन और एनएफडीसी ने एक साथ मिलकर एक खास उत्सव मना रहे हैं। इसमें 40 शहरों के 135 सिनेमाघरों में राज कपूर की 10 फिल्में प्रदर्शित की जाएंगी। 'राज कपूर 100 : सेलिब्रेटिंग द सेंटेनरी ऑफ द ग्रेटेस्ट शोमैन' नाम का यह उत्सव 13 दिसंबर 15 दिसंबर तक चलेगा। इस दौरान राज कपूर की फिल्मों की स्क्रीनिंग पीवीआर-आईनॉक्स और सिनेपोलिस सिनेमाघरों में आग, बरसात, आवारा, श्री 420, जागते रहो, जिस देश में गंगा बहती है, संगम, मेरा नाम जोकर, बॉबी और 'राम तेरी गंगा मैली' का प्रदर्शन किया जाएगा। 
     राज कपूर के बेटे रणधीर कपूर ने कहा भी है कि राज कपूर सिर्फ फिल्ममेकर नहीं दूरदर्शी थे। उन्होंने भारतीय सिनेमा की भावनात्मक परंपरा को आकार दिया। उनकी कहानियां केवल फिल्में नहीं, बल्कि भावनात्मक यात्राएं हैं, जो पीढ़ियों को जोड़ती हैं। यह उत्सव उनके नजरिए को हमारी छोटी सी श्रृद्धांजलि है। उनके पोते रणबीर कपूर ने कहा कि हमें गर्व है, कि हम राज कपूर परिवार के सदस्य हैं। हमारी पीढ़ी एक ऐसे दिग्गज के कंधों पर खड़ी है, जिनकी फिल्मों ने अपने समय की भावनाओं को दर्शाया और दशकों तक आम आदमी को आवाज दी। उनकी टाइमलेस कहानियां प्रेरणा देती रहती हैं, और यह फेस्टिवल उस जादू का सम्मान करने और सभी को बड़े पर्दे पर उनकी विरासत का अनुभव करने के लिए आमंत्रित करने का हमारा एक तरीका है।
    निर्देशक, निर्माता और कलाकार के रूप में, राज कपूर आजादी के बाद के पहले दो दशकों में भारतीय सिनेमा के 'स्वर्ण युग' के दौरान भारत के अग्रणी फिल्म निर्माताओं में से एक बने। राज कपूर यथार्थ में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। उनकी फिल्मों में सिक्के के दो पहलू दिखाए गए। जिसका एक पहलू आजादी के युग की आकांक्षाओं के दर्शन कराता है। दूसरा, हिंदी सिनेमा की वर्तमान स्थिति के सामने आईना रखने का काम करता है। सीधा सा सिद्धांत यही है 'दिल का हाल कहे दिलवाला सीधी सी बात न मिर्च मसाला।' उनका सिनेमा मांसल यौवन से लथपथ होने के बावजूद कथानक और घटनाक्रम के रूप में पूर्ण रूप से सात्विक था। यही था उनका बिना मिर्च मसाले वाला सिनेमा।
    राज कपूर की शुरुआती फिल्में लोकप्रिय संगीत और मेलोड्रामा के मिश्रण में गरीबी और जाति के बारे में जनजागरण लाने का प्रयास करती रही। श्री 420, जागते रहो,  बूट पालिश से लेकर 'आवारा' और 'जिस देश में गंगा बहती है' इसके बेहतरीन उदाहरण है। जिनमें राज कपूर ने चार्ली चैपलिन का भारतीयकरण कर फिर भी दिल भी दिल है हिन्दुस्तानी की तर्ज में सफलतापूर्वक पेश किया। इन सबके चलते राज कपूर एक करिश्माई कलाकार और निर्माता-निर्देशक  बन गए, जिन्होंने दुनियाभर में भारतीय फिल्मों का झंडा फहराने में कामयाबी पायी। उनके बाद की फिल्मों की चकाचौंध ने उन्हें हिन्दी फिल्मों के ग्रेटेस्ट शोमेन का दर्जा दिया, जो आज भी उनके नाम पर अखंडित ओहदा है। मदभरे गीत संगीत और दिल को छूने वाली कहानियों के साथ अल्हड़ प्रेम प्रसंगों के चलते राज कपूर बेहद लोकप्रिय हो गए। 
     इस दौरान भारतीय फिल्म इतिहास की सबसे बड़ी स्टार और सबसे प्रशंसित अभिनेत्रियों में से एक नरगिस के साथ उनकी अक्सर ऑन-स्क्रीन जोड़ी भी बनी। 1950 के दशक के मध्य में अपनी प्रसिद्धि के चरम पर आवारा और 'श्री 420' की रिलीज़ के बाद राज कपूर न केवल भारत में बल्कि पूरे दक्षिण एशिया, अरब दुनिया, ईरान, तुर्की, अफ्रीका और सोवियत संघ में भी एक मशहूर हस्ती थे। साथ ही, उन्होंने अभिव्यक्तिवादी छाया और गहरे फ़ोकस के अपने उपयोग से हिंदी सिनेमा की शैलीगत शब्दावली का विस्तार करने में मदद की। बाद के सालों में रंग में काम करते हुए वे उन लोगों में से थे, जिन्होंने हिंदी फ़िल्मों में तेज़ी से लंबे, विस्तृत और शानदार गीत अनुक्रमों को शामिल करना शुरू किया।
     उनकी सबसे बड़ी सफलता और खासियत थी उनके काम करने की स्टाइल। वह ऐसे काम करते थे, जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता। मसलन 'जिस देश में गंगा बहती है' की कहानी सुनने के बाद शंकर जयकिशन ने यह कहा था कि बेहतर होगा वह इसका संगीत किसी दूसरे संगीतकार को दें, क्योंकि इसमें गानों की सिचुएशन ही नहीं है। इसी कथानक में राज कपूर ने सात दिन में ग्यारह गानों की सिचुएशन निकालकर सभी को अचंभित कर दिया। कहा जाता है कि वह अपनी फिल्मों के संगीत को दर्शकों से पास करवाकर कथानक का हिस्सा बनाते थे। इसी तारतम्य में एक बात यह भी चर्चित है कि वे अपनी फिल्मों के गानों को पहले किन्नरों को बुलाकर सुनाते थे और उनकी सहमति के बाद उसे फिल्म में जोड़ते थे। उनकी फिल्मों में आजादी के बाद के भारत के आम आदमी के सपने, गांव और शहर के बीच का संघर्ष और भावनात्मक कहानियां जीवंत हो उठती थीं। आवारा, श्री 420, संगम, और 'मेरा नाम जोकर' जैसी फिल्में आज भी सिनेमा प्रेमियों के दिलों में बसी हुई हैं।
    राज कपूर का जन्म पठानी हिन्दू परिवार में हुआ था। पांच भाइयों और एक बहन में सबसे बड़े राज कपूर ने अपनी शिक्षा सेंट जेवियर्स कॉलेजिएट स्कूल, कोलकाता और कर्नल ब्राउन कैंब्रिज स्कूल देहरादून से ली। बाद में 1930 के दशक में उन्होनें बॉम्बे टॉकीज़ में क्लैपर-बॉय और पृथ्वी थिएटर में एक अभिनेता के रूप में काम किया, ये दोनों कंपनियाँ उनके पिता पृथ्वीराज कपूर की थीं। राज कपूर बाल कलाकार के रूप में इंकलाब (1935) और हमारी बात (1943), गौरी (1943) में छोटी भूमिकाओं में कैमरे के सामने आ चुके थे। राज कपूर ने फ़िल्म वाल्मीकि (1946), नारद और अमरप्रेम (1948) में कृष्ण की भूमिका निभाई थी। इन तमाम गतिविधियों के बावज़ूद उनके दिल में एक आग सुलग रही थी कि वे स्वयं निर्माता-निर्देशक बनकर अपनी स्वतंत्र फ़िल्म का निर्माण करें। उनका सपना 24 साल की उम्र में फ़िल्म आग (1948) के साथ पूरा हुआ। उन्होंने प्रमुख भूमिका भी 'आग' में ही निभाई, जिसका निर्माण और निर्देशन भी उन्होंने स्वयं किया था। 
    इसके बाद राज कपूर के मन में अपना स्टूडियो बनाने का विचार आया और चेम्बूर में चार एकड़ ज़मीन लेकर 1950 में उन्होंने अपने आरके स्टूडियो की स्थापना की और 1951 में ‘आवारा’ में रूमानी नायक के रूप में ख्याति पाई। राज कपूर ने ‘बरसात’ (1949), ‘श्री 420’ (1955), ‘जागते रहो’ (1956) व ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन व लेखन किया और उनमें अभिनय भी किया। उन्होंने ऐसी कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें उनके दो भाई शम्मी कपूर व शशि कपूर और तीन बेटे रणधीर, ऋषि व राजीव अभिनय कर रहे थे। यद्यपि उन्होंने अपनी आरंभिक फ़िल्मों में रूमानी भूमिकाएँ निभाईं, लेकिन उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित्र ‘चार्ली चैपलिन’ का ग़रीब, लेकिन ईमानदार ‘आवारा’ का प्रतिरूप है। उनका यौन बिंबों का प्रयोग अक्सर परंपरागत रूप से सख्त भारतीय फ़िल्म मानकों को चुनौती देता था। 
      राज कपूर ने बरसात (1949), श्री 420 (1955), जागते रहो (1956) व मेरा नाम जोकर (1970) जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन व लेखन किया और उनमें अभिनय भी किया। उन्होंने ऐसी कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें उनके दो भाई शम्मी कपूर व शशि कपूर और तीन बेटे रणधीर, ऋषि व राजीव अभिनय कर रहे थे। उन्होंने अपनी आरंभिक फ़िल्मों में रूमानी भूमिकाएँ निभाईं, लेकिन उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित्र ‘चार्ली चैपलिन‘ का ग़रीब, लेकिन ईमानदार ‘आवारा’ का प्रतिरूप है। उनका यौन बिंबों का प्रयोग अक्सर परंपरागत रूप से सख्त भारतीय फ़िल्म मानकों को चुनौती देता था। मेरा नाम जोकर, संगम, अनाड़ी, जिस देश में गंगा बहती है, उनकी कुछ बेहतरीन फिल्में रही। बॉबी, राम तेरी गंगा मैली, प्रेम रोग जैसी हिट फिल्मों का निर्देशन भी किया।
    राज कपूर फिल्मों में जितने गैर-रोमांटिक नजर आते थे, वास्तविक जीवन में उतने ही रोमांटिक थे। उनकी रूमानी तबीयत के कारण उनकी पत्नी कृष्णा राज कपूर के साथ नर्गिस, पद्मिनी और वैजयंती माला जैसी भारतीय नायिकाओं के संबंधों से काफी परेशान रहती थीं। इसके चलते वह कई बार उनका घर भी छोड़ देती थीं। विवादों से भी उनका नाता कम नहीं रहा है। 1978 में, उन्होंने लता मंगेशकर से वादा किया कि वह उनके भाई हृदयनाथ मंगेशकर को फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में संगीत निर्देशक के रूप में नियुक्त करेंगे। लेकिन, जब लता मंगेशकर एक संगीत दौरे पर संयुक्त राज्य अमेरिका गई थी, तब उन्होंने इस फिल्म के लिए हृदयनाथ मंगेशकर की जगह लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को संगीत निर्देशक बना दिया। इसके बाद लता मंगेशकर उनसे नाराज हो गईं। लेकिन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के निवेदन के बाद उन्होंने इस फिल्म के लिए भी गीत गाए।  
      राज कपूर को फिल्मों में जो सफलता मिली वह टीम वर्क का ही परिणाम था। उनके पास ख्वाजा अहमद अब्बास, जैनेन्द्र जैन और इंदर राज आनंद जैसे लेखक थे, जिन्होंने समय के साथ उनके लिए एक से बढ़कर एक फिल्म लिखी। उनकी फिल्मों से ज्यादा उसका संगीत लोकप्रिय हुआ, जिसमें शंकर जयकिशन के साथ हसरत और शैलेन्द्र की जोड़ी और मुकेश की आवाज के योगदान को खुद राजकपूर भी नहीं नकार सके। इसके अलावा उनके साथ नर्गिस दत्त की जोड़ी परदे पर जादू सा कमाल करती थी। यही कारण था कि एक बार जब फिल्मों के रिमेक का दौर चला, राज कपूर से 'आवारा' के रीमेक की बात की गई तो उन्होंने कहा आप मुझे नरगिस, शंकर जयकिशन, शैलेन्द्र हसरत और मुकेश ला दीजिए मैं आपको इससे भी बेहतर आवारा दे दूंगा। 
    नई दिल्ली के रीगल सिनेमा से राजकपूर को खासा लगाव था। उनकी हर फिल्म का प्रीमियर यहीं होता था। वे पहले शो में मौजूद रहकर हवन करवाते थे। राजकपूर और नर्गिस ने रीगल के फैमिली बॉक्स में बैठकर कई फिल्में देखी थी। 1978 में जब बोल्ड दृश्यों के कारण कई सिनेमाघरों ने 'सत्यम शिवम सुंदरम' को प्रदर्शित करने से इंकार कर दिया, तब रीगल ने इसे बिना किसी झिझक के प्रदर्शित किया। ऋषि कपूर की बतौर नायक पहली फिल्म 'बॉबी' का प्रीमियर भी यहीं हुआ था। 30 मार्च 2017 को जब रीगल सिनेमा बंद हुआ, तब भी उसके अंतिम शो में 'मेरा नाम जोकर' का ही प्रदर्शन किया गया था।
    राज कपूर की फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर पैसा कमाया, बल्कि उनकी झोली में पुरस्कार भी बेशुमार गिरे। 1960 में फिल्म 'अनाड़ी' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार से सम्मानित किया। 1962 में फिल्म 'जिस देश में गंगा बहती है' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार से नवाजा गया। 1965 में उन्हे 'संगम' के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार दिया गया। राज कपूर को कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन् 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।1972 में फिल्म 'मेरा नाम जोकर' सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार से सम्मानित किया।1983 में उन्हे फिल्म 'प्रेम रोग' के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार दिया गया। उन्हे जीवन का सबसे बडा और आखिरी दादा साहब फाल्के पुरस्कार 1987 में मिला। इस पुरस्कार को लेने वह दिल्ली गए। 2 जून को जब राष्ट्रपति भवन में यह पुरस्कार दिया जा रहा था। भावावेश में उन्हें दमे का इतना जोरदार अटैक आया कि वह मंच तक नहीं पहुंच सके। राष्ट्रपति ने शिष्टाचार तोड़कर उनके पास जाकर उन्हें पुरस्कार सौंपा। इसके बाद वह दिल्ली के अस्पताल में ही भर्ती रहे, यहीं फिल्मी दुनिया का 'एक तारा न जाने कहां खो गया!'
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Wednesday, December 11, 2024

इन फिल्मों ने रूढ़ियों की बेड़ियां तोड़ी!

     हिंदी फिल्मों के इतिहास को उलट-पलट कर देखा जाए, तो हर दौर में चंद ऐसी फिल्में जरूर बनी, जिन्हें लीक से हटकर कहा जा सकता है। इन फिल्मों में तयशुदा ढर्रे से हटकर कुछ कहने और करने की कोशिश की गई। इनमें मनोरंजन नहीं था, बल्कि एक वैचारिक संदेश था, जो देखने वालों को झकझोरता था कि उनके आसपास जो चल रहा है, वो उससे वाकिफ हैं या नहीं! ऐसी फ़िल्में हर दौर में बनी, जिन्होंने कभी सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाई, कभी ऐसी बेड़ियों को तोड़ा जो बंधन की तरह पैरों में पड़ी हैं। लेकिन, इनकी संख्या बहुत कम है। अछूत कन्या, बूट पॉलिश, जूली, गाइड, दो आंखे बारह हाथ और 'प्रेम रोग' वे फ़िल्में थी, जिनके कथानक में नई सोच थी। पर, अब कोई ऐसी फ़िल्में बनाने का साहस नहीं करता!
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- हेमंत पाल

     फिल्मों के कथानक किस प्रेरणा से गढ़े जाते हैं, यदि इस सवाल का जवाब खोजा जाए तो हर जवाब में जीवन के अनुभव, प्रेम कथाएं, सामाजिक परम्पराएं, अनोखी घटनाएं, सामाजिक रूढ़ियां और पारिवारिक रिश्ते ही शामिल होंगी। अभी तक बनी फिल्मों के कथानकों पर सरसरी नजर दौड़ाई जाए, यही पांच-छह विषय ही सामने आएंगे। लेकिन, जिस विषय पर सबसे कम कथानक रचे गए, वो है सामाजिक रूढ़ियां या यूं कहिए कि मान्यताओं को खंडित करने वाली फ़िल्में। 
   यानी ऐसे रीति-रिवाज जो बरसों से समाज में हैं और उन्हें न चाहते हुए भी ढोया जा रहा है। कुछ लोग उन्हें तोड़ना भी चाहते हैं, पर आगे बढ़कर कोई साहस नहीं करता! जब भी इन विषयों पर फिल्मों के कथानक बने, उनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक है। इसके पीछे कारण यह भी कहा जा सकता है, कि फिल्मकार ऐसे मामलों में उलझना नहीं चाहते! उन्हें पता है कि यदि सामाजिक स्तर पर फिल्म का विरोध हुआ, तो इसका खामियाजा सिर्फ निर्माता-निर्देशक को ही भुगतना पड़ता है। लेकिन, फिर भी कुछ फिल्मकारों ने ऐसी फ़िल्में बनाई, जो दर्शकों ने पसंद की। 
    गुलामी के दौर में बनी फ्रांज़ ऑस्टेन की फिल्म 'अछूत कन्या' (1936) का निष्कर्ष था कि फिल्मों के जरिए सुधारवाद की बात कैसे की जाए! ज्वलंत मुद्दों पर आधारित कहानियों को तब सामने लाना आसान नहीं था। वह भी ऐसे समय में, जब फ़िल्मों के विषय समाज और राजनीति के हिसाब से तय होते हों। फिल्म में एक ब्राह्मण लड़के अशोक कुमार और एक अछूत कन्या देविका रानी के बीच प्रेम कहानी को दिखाकर, ऐसे समाज में जीने की बात की गई थी, जो वर्गों में बंटा हो। इस प्रकार के विचारशील मुद्दे पर बनी इस फिल्म को महात्मा गांधी द्वारा भी सराहा था। लेकिन, बाद में किसी ने ऐसा साहस नहीं किया। आजादी के बाद 1954 में पहली ऐसी फिल्म 'बूट पॉलिश' बनी, जिसमें मानवीय मूल्यों को उजागर करने की कोशिश की गई थी। क्योंकि, देश तो आजाद था, पर दिलों से गुलामी के बंधन नहीं टूटे थे।
    ऐसे समय में 'बूट पॉलिश' जैसी फिल्म एक अलग तरह का अहसास थी। यह फिल्म दो बच्चों भोला और बेलू की कहानी थी। 'बूट पॉलिश' को अन्य फिल्मों के मुकाबले अलग दर्जा मिला। क्योंकि, इस फ़िल्म में सहजता से बताया गया था कि कोई भी काम छोटा या बड़ा हो, वह आत्मनिर्भर जरूर बनाता है। भोला और बेलू भी मेहनत करके कमाई का रास्ता नहीं छोड़ते। एक दिन अपनी कमाई से वे बूट पॉलिश और ब्रश खरीदते हैं और चिल्ला कर कहते हैं 'आज से हमारा हिंदुस्तान आजाद होता है!' राज कपूर ने अपने दम से इस फ़िल्म को अलग बनाया। राज कपूर हमेशा प्रेम पर आधारित फिल्में बनाते रहे थे। 'बूट पॉलिश' उनकी इस फिल्म से उलट थी।
     इसके कुछ साल बाद 1957 में वी शांताराम की फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' आई, जो कुछ अलग थी। अपने अनोखे विषय और सभ्य समाज में रहन-सहन के कथित आदर्शों के उलट इस कहानी की वजह से यह फिल्म कसौटी पर खरी उतरी। तब कैदियों को जेल में पीड़ितों की तरह रखा जाता था। ज़िंदगी में किए अपराधों की वजह से उनकी जवानी खो जाती थी। इस फिल्म ने इस धारणा को बदला। फ़िल्म का मुख्य विषय था खूंखार अपराधियों को सुधारने के लिए अहिंसक तरीके अपनाना। यह कहानी जेल वार्डन के इर्द-गिर्द घूमती है, जो छह कैदियों को अच्छा इंसान बनने की राह पर लाता है। 
    इसी साल आई 'शारदा' (1957) एलवी प्रसाद की फिल्म थी। इसकी कहानी भी अन्य फिल्मों से अलग थी। इसका घटनाक्रम कहीं ज़्यादा जटिल था। जब एक प्रेमी युगल एक-दूसरे से जुदा हो जाता है, तो कई अजीब चीजें होती हैं। नायक को एक युवती से प्यार हो जाता है, लेकिन वह उससे शादी नहीं कर पाता। कुछ अनोखी घटनाओं की वजह से, उसके पिता की उसी महिला से शादी हो जाती है! इसके बाद, एक सौतेली मां और बेटे के बीच का रिश्ता देखने को मिलता है, जिसके मायने ही कुछ और होते हैं। ये अपनी तरह की बिल्कुल अलग फिल्म थी। इसके अलावा 1963 में आई बिमल रॉय की फिल्म 'बंदिनी' में पहली बार मुख्य कलाकारों को बिल्कुल अलग तरीके से दिखाया गया। मुख्य किरदार कल्याणी के व्यक्तित्व के कई पहलू थे। प्रेमी को पाने और अधूरे प्यार के बीच फंसने से उपजी जलन की वजह से वह खून तक कर देती है। उसे जेल हो जाती है। सजा काटने के बाद, वह उसी आदमी के पास लौटकर उसी की हो जाती है।
    अलग तरह की फिल्मों के दौर में 1972 में आई कमाल अमरोही की 'पाकीजा' को भी गिना जाता है। यह मुगल दौर की नर्तकियों की जिंदगी की कहानी थी। फिल्म का कथानक तवायफ़ों को समाज में स्वीकार करने की राह में आने वाली अड़चनों को उजागर करना था। मीना कुमारी की इस यादगार फिल्म ने यह सवाल भी खड़े किए थे कि समाज के झूठ और ढोंग को मध्यम वर्ग कितनी सहजता से सह लेता है। आज भी फिल्म को दमदार और तीखे संवादों के लिए जाना जाता है। वैश्या विवाह पर बनी फिल्मों में देव आनंद और वहीदा रहमान की फिल्म कालजयी फिल्म 'गाइड' (1965) को भी गिना जाता है। इसकी कहानी अपने समय काल से काफी आगे की बोल्ड थी। ये फिल्म न सिर्फ वैश्या विवाह का समर्थन करती थी, बल्कि इसमें आज की तरह का लिवइन रिलेशन भी दिखाया था। 1966 में आई धर्मेंद्र, अशोक कुमार और सुचित्रा सेन की फिल्म 'ममता' भी वैश्या विवाह के समर्थन का संदेश देने वाली फिल्म थी।     
    रूढ़ियों को खंडित करने वाली एक फिल्म थी 1975 में आई 'जूली।' फिल्म में नए ज़माने की संवेदनशील लड़की बिना शादी के गर्भवती हो जाती है। इसके बाद उसे कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। धर्म और शादी के बीच की सदियों पुरानी रुकावटों के आधार पर होने वाले घटनाक्रम को इसमें अच्छी तरह से दिखाया था। एक बिन ब्याही मां का संघर्ष क्या होता है, यही इसका कथानक था। 'जूली' उन फिल्मों में थी, जिसमें एंग्लो इंडियन परिवार और उनके ईसाई मूल्यों का खास चित्रण था। लंबे विवाद के बाद 'जूली' की मां हिंदू से अपनी बेटी की शादी के लिए तब तक स्वीकृति नहीं देती, जब तक प्रेमी के पिता अपने पोते और एक खुशहाल परिवार को साथ बनाए रखने की हामी नहीं भरते। घिसी-पिटी रूढ़िवादी सोच के बजाए मानवीय मूल्यों को तरजीह देने की सीख इसी फिल्म ने दी थी। 
    1982 में आई राज कपूर की फिल्म 'प्रेम रोग' में देश के ग्रामीण इलाकों में रहने वाली विधवाओं की जिंदगी में आने वाली मुश्किलों को बहुत करीब से दिखाया था। फिल्म में राज कपूर ने प्रेमियों के माता-पिता को अपनी 'शान' के लिए अपनी बेटियों और बेटों की जान को दांव पर लगाने के खिलाफ चेतावनी दी थी। नायक देवधर (ऋषि कपूर) शहर से गांव आता है। उसकी बचपन की दोस्त मनोरमा (पद्मिनी कोल्हापुरी) अमीर और रसूख रखने वाले परिवार की लड़की होती है। उसकी शादी एक अमीर खानदान में कर दी जाती है। लेकिन, शादी के बाद मनोरमा के पति की मौत हो जाती है। विधवा मनोरमा ससुराल में बलात्कार का शिकार भी होती है। जब देवधर उसे बचाने के लिए आगे आता है, तब मनोरमा का परिवार विधवा के पुनर्विवाह के नामुमकिन होने का हवाला देकर, उसके साथ मारपीट करता है। भले ही, 'प्रेम रोग' काफ़ी हद तक एक ऐसी कहानी है, जिसमें मौजूद अंतर्निहित मायने फ़िल्म के दौरान महसूस होते हैं, लेकिन राज कपूर के निर्देशन ने इसे एक सुधारवादी क्लासिक फ़िल्म के तौर पर स्थापित कर दिया था।  
    यश चोपड़ा की फिल्म 'लम्हे' (1991) भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसके कथानक में प्रेमी-प्रेमिका, लड़का-लड़की और प्यार-मोहब्बत इन सबकी परिभाषा बदल दी थी। यह फिल्म दूसरी प्रेम कहानियों से बिल्कुल अलग थी। कथानक के मुताबिक, वीरेन एक लड़की पल्लवी से प्यार करता था। पल्लवी की शादी किसी और से शादी हो जाती है। लेकिन, कुछ समय बाद पति-पत्नी की मौत हो जाती है। पल्लवी और उसका पति अपने पीछे एक बेटी को छोड़ जाते हैं। जब यह बेटी बड़ी हुई, तो वो हूबहू अपनी मां पल्लवी (श्रीदेवी) की कॉपी होती है। उसे अपने पिता की उम्र के विरेन (अनिल कपूर) से प्यार हो जाता है। फिल्म का यह विषय देखने वालों के लिए असहनीय जरूर था, यह बहस का विषय भी बना। लेकिन, फिल्म में इस बेमेल प्यार को खूबसूरत अंदाज में दिखाया गया था।
      लीक से हटकर बनी फिल्मों में मेघना गुलजार की 'फ़िलहाल' को भी गिना जा रखा सकता है। आज बच्चे को जन्म देने के लिए सरोगेसी आम तरीका है। लेकिन, साल 2002 में जब यह फिल्म रिलीज हुई थी, तब यह बड़ी बात हुआ करती थी। ये कहानी एक ऐसी औरत की है, जो प्राकृतिक रूप से मां नहीं बन सकती। इसलिए वह अपने दोस्त को अपने लिए सरोगेट करने के लिए मनाती है। तब्बू, सुष्मिता सेन, पलाश सेन और संजय सूरी की यह फिल्म बेहद इमोशनल अनुभव रहा। इसके साल भर बाद 2003 में आई 'मातृभूमि' ऐसी फिल्म थी, जिसे देखने लायक फिल्म थी। 
    यह ऐसे समाज की कल्पना थी, जहां औरतों की संख्या कम होकर ना के बराबर बची थी। ऐसे दौर में शादी और परिवार के लिए पुरुषों को लड़कियां नहीं मिलती। इस कारण होने वाले व्यसन फिल्म में दिखाए गए। लड़कियों को भ्रूण में ही मार देने की वजह से पैदा हुई ये स्थिति बहुत भयावह और रोंगटे खड़े करने वाली है। मनीष झा के निर्देशन में बनी इस फिल्म को देखना आसान नहीं है। क्योंकि, इसका ट्रीटमेंट मनोरंजक नहीं है। अब ऐसी फ़िल्में बनने का दौर करीब-करीब ख़त्म हो गया। इसका कारण यह भी है कि अब फिल्म महज मनोरंजन का साधन बनकर रह गईं, अब कोई फिल्मों से ऐसी उम्मीद नहीं करता कि रूढ़ियां खंडित हों!  
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Wednesday, November 27, 2024

उम्र के साथ बड़ा नहीं हुआ बच्चों का सिनेमा!

- हेमंत पाल

    फिल्मों की कहानियां अलग-अलग होती है, ये सब जानते हैं और यह होना जरूरी भी है। लेकिन, ये बात कम ही लोग जानते होंगे कि फिल्मों का अपना ट्रेंड भी होता है। जब कोई फिल्म दर्शकों की पसंद पर खरी उतरती है, तो आने वाली कई फिल्मों के कथानक भी उसी फिल्म के आसपास रचे जाते हैं। जब बदले की भावना वाली फ़िल्में हिट हुई, तो ऐसी फिल्मों की लाइन लग गई। यही स्थिति प्रेम कहानियों को लेकर भी देखी गई। लेकिन, बच्चों की फिल्मों को लेकर ये स्थिति कभी नहीं बनी। सौ साल से ज्यादा लंबे फिल्म इतिहास को टटोला जाए, तो बच्चों पर बनी फिल्मों की संख्या बहुत कम मिलेगी। अमूमन साल भर में एक फिल्म भी ऐसी नहीं बनती, जिसका कथानक बच्चों पर केंद्रित होता हो! इसका सीधा सा कारण है फिल्मों की कमाई। फ़िल्मकार निर्माण लागत से कई गुना ज्यादा कमाने की कोशिश करते हैं। पर, कमाई का ये फार्मूला बच्चों की फिल्मों पर सही नहीं बैठता।
     यही वजह है कि फिल्मों के कथानक में बच्चों से जुड़े प्रसंग तो होते हैं, पर पूरी फिल्म बच्चों के लिए नहीं होती। इस नजरिए से कहा जा सकता है कि हिंदी फिल्मों की उम्र सौ साल लांघ गई, पर बच्चों का सिनेमा अभी खुद ही बच्चा है। क्योंकि, बाल फिल्मों से आशय है, ऐसी फिल्में जो बच्चों का उनकी मानसिकता के स्तर पर मनोरंजन करें। साथ ही उनसे जुड़ी समस्याओं की तरफ भी दर्शकों का ध्यान आकर्षित करे! लेकिन, हिंदी फिल्मों में उपदेशात्मक बाल सिनेमा की बाढ़ है। अभी तक बनी ज्यादातर फिल्मों में बच्चों को उपदेश देते हुए कथानक रचा गया। निर्देशक की कोशिश रहती हैं, कि बच्चा वह उपदेश सुने। 
      सिनेमा के शुरुआती सालों में दादा साहब फाल्के ने शायद ही भागवत पुराण का कोई कैरेक्टर अपनी बनाई फिल्मों में छोड़ा हो। आज हमारे यहां बाल सिनेमा के साथ भी स्थिति वही है। गणेश, हनुमान, घटोत्कच्च और भीम जैसे मिथकीय चरित्रों से बच्चों को उपदेश देने का काम किया जा रहा है। कार्टून फ़िल्में भी इन्हीं कथानकों पर बन रही है। लेकिन, यह भी कहीं न कहीं बच्चों पर थोपा गया संदेश ही है। आज़ादी के बाद लगभग हर दशक में सिनेमा के जरिए ये कोशिश की जाती रही, कि समाज को कुछ नया दिया जाए। इस कोशिश में बच्चों पर केंद्रित सिनेमा की शुरुआत हुई। इसका मकसद था बच्चों से जुड़े मुद्दे, उनकी सामाजिक चुनौतियां और उनके अंतर्मन की स्थिति को परदे पर दिखाना। लेकिन, अभी तक इस दिशा में कारगर काम नहीं हुआ! बच्चों पर अभी तक जो भी फिल्में बनी, उनमें सिर्फ संदेश दिए जाते रहे! 
      हिंदी सिनेमा में ज्ञान देने वाली ऐसी फिल्मों की भरमार है। अधिकांश बाल फिल्मों की कहानी में उपदेश ही ज्यादा दिखाई दिए, बालमन को कुरेदने की कोशिश किसी ने कभी नहीं की! बच्चों के लिए सत्यजित राय ने कुछ अच्छी बंगाली फिल्में बनाने की कोशिश जरूर की थी। लेकिन, ताजा संदर्भों में देखा जाए तो किसी ने वास्तव में बालमन को खंगालकर फ़िल्में बनाने की कोशिश की है, तो वे हैं गुलजार! उनकी फिल्म 'परिचय' (1972) और 'किताब' (1977) में बच्चों का सकारात्मक चित्रण दिखाया गया। 'परिचय' ऐसे परिवार के बच्चों की कहानी है, जहां बच्चों की मनः स्थिति को जांचा-परखा नहीं गया था। क्योंकि, जब तक बच्चों से घुला-मिला नहीं जाए, उनके करीब नहीं जाया जा सकता। ऐसा न करने पर खुद परिवार के सदस्य उन्हें समझ पाने में असमर्थ होते हैं। फिल्म में दिखाया था कि बच्चों का मनोविज्ञान समझे बगैर उन्हें समझना मुश्किल है। ऐसी स्थिति में उनका टीचर रवि (जितेंद्र) बच्चों के हाव-भाव और उनकी जरूरतों को समझकर उन्हें पढ़ा पाने में सफल होता है। जबकि, इसके पूर्व कई शिक्षक बच्चे भगा देते हैं। 
     महबूब खान ने भी बच्चों के लिए 1962 में 'सन ऑफ इंडिया' बनाई थी। फिल्म तो नहीं चली, पर इसका एक गीत 'नन्हा मुन्ना राही हूं मैं देश का सिपाही हूँ' को लोग आज भी याद करते हैं। सत्येन बोस के निर्देशन में 1964 में बनी फिल्म 'दोस्ती' सिर्फ बच्चों की फिल्म तो नहीं कहा जा सकता, पर ये फिल्म बच्चों को प्रेरणा जरूर देती है। शेखर कपूर ने भी 1983 में 'मासूम' बनाई! वास्तव में तो ये विवाहेत्तर संबंधों से जन्मे बच्चे के कारण होने वाले पारिवारिक संघर्ष पर आधारित थी। 1992 में गोपी देसाई निर्देशित फिल्म 'मुझसे दोस्ती करोगे' का विषय भी एक बच्चे के सपनों की दुनिया का चित्रण था। इसी थीम पर 1994 में अन्नू कपूर ने 'अभय' बनाई थी। आशय यह कि बच्चों पर फ़िल्में तो बनी, पर उसमें भी बड़ी उम्र के दर्शकों को ध्यान में रखा गया! फिल्म 'नन्हें मुन्ने' भी याद करने लायक फिल्म है, जिसमें एक लड़की के अनाथ होने के बाद अपने तीन भाइयों के पालन पोषण के संघर्ष का चित्रण था! ऐसी ही एक फिल्म 'मुन्ना' थी, जो ऐसे बच्चे की कहानी है, जिसकी विधवा मां ख़ुदकुशी कर लेती है। बाद में चेतन आनंद ने इसी को आधार बनाकर 'आखिरी खत' फिल्म बनाई थी। 
     बच्चों पर केंद्रित एक फिल्म 'जागृति' (1954) भी आई, जिसका गीत 'हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के' आज भी सुनाई देता है। इसी साल बनी फिल्म 'बूट पॉलिश' भी बाल मनोविज्ञान को स्पष्ट करती है। एक सन्यासी और एक अनाथ बालिका के बीच स्नेह संबंध दर्शाने वाली वी शांताराम की फिल्म 'तूफ़ान और दीया' (1956) भी सराहनीय फिल्म थी! सत्येन बोस ने 1960 में बच्चों पर केंद्रित फिल्म 'मासूम' बनाई, जिसमें बच्चों से जुड़े कई सवाल उठाए थे। इस फिल्म का गीत 'नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए' अभी भी सुना जाता है। 1983 में शेखर कपूर ने इसी नाम से फिर फिल्म बनाई। यह फिल्म भी बच्चों को कहानी का आधार बनाकर बनी थी। अभी तक बच्चों पर कई फ़िल्में बनी, पर वास्तव में इन फिल्मों को बच्चों की फिल्म नहीं कहा जा सकता! बतौर बाल कलाकार नीतू सिंह की फिल्म 'दो कलियां' को बच्चों की फिल्म जरूर कहा गया, पर ये बच्चों के लिए नहीं थी! 2005 में विशाल भारद्वाज ने भी बच्चों के लिए 'ब्लू अम्ब्रेला' बनाई, पर वो चली नहीं! 
     बीआर चोपड़ा' ने संयुक्त परिवारों के टूटने पर भूतनाथ' और 'भूतनाथ रिटर्न' बनाई! लेकिन, विशाल भारद्वाज की 'मकड़ी' ने बाल फिल्मों को लेकर चली आ रही धारणा को तोड़ दिया! 2007 में आमिर खान ने बाल मानसिकता पर श्रेष्ठ फिल्म 'तारे जमीं पर' बनाकर दर्शकों को जरूर झकझोर दिया था। परिवार में उपेक्षित और मंदबुद्धि बच्चे की कहानी ने कई बड़ों-बड़ों को रुलाया था। अमोल गुप्ते की फिल्म 'स्टेनली का डब्बा' (2011) को भी बच्चों को बेहतरीन फिल्म कहा जा सकता है! गरीब राजस्थानी लड़के के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से मिलने की कोशिश पर बनी 'आई एम कलाम' भी इस दिशा में अच्छा प्रयास था। लेकिन, 1956 में अल्बर्ट लैमोरीसे निर्देशित फ्रेंच फिल्म 'रेड बैलून' और 1995 में ईरानी फ़िल्मकार निर्देशित 'व्हाइट बैलून' आज भी सिनेमा के लिए मील का पत्थर है। लेकिन, क्या कारण है कि हम बच्चों के लिए अभी तक 'चिंड्रेन ऑफ हेवन' जैसी एक भी फिल्म नहीं बना पाए! आज फिल्में हमारी जरूरत का हिस्सा बन चुकी हैं। आज़ादी के बाद लगभग हर दशक में सिनेमा के जरिए कोशिश की जाती रही, कि समाज को कुछ नया दिया जा सके। इस क्रम में बच्चों पर केंद्रित सिनेमा की शुरुआत हुई। जिससे बच्चों के अपने मुद्दे, उनसे जुड़ी सामाजिक चुनौतियाँ और उनके अंतःमन स्थिति को परदे पर दिखाया जा सके।
     1955 में बच्चों के लिए उद्देश्यपूर्ण फिल्मों का निर्माण और उन्हे स्वस्थ मनोरंजन देने के लिए 'बाल चलचित्र समिति' की स्थापना की गई। इस समिति का काम बच्चों पर आधारित फिल्मों का निर्माण, वितरण और प्रदर्शन करना था। इस कोशिश में 1979 से यह समिति हर दो साल में 'बाल फिल्म महोत्सव' का आयोजन करती आ रही है। जिनमें देश और दुनिया के बच्चों पर केन्द्रित फिल्मों का प्रदर्शन होता है। लेकिन, आज तक बाल चित्र समिति एक भी ऐसी फिल्म नहीं बना पाया, जिससे बाल सिनेमा का इतिहास गौरवान्वित हो सके। आजादी के बाद से बच्चों पर जितनी फिल्में बनाई, उनमें बच्चों को साथ लेकर चलने के बजाए संदेश ज्यादा सुनाए गए।
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दिल उदास है, तो देखिए दिल खुश फ़िल्में

बीमारियों की फेहरिस्त में एक नाम मूड का भी शामिल है। लेकिन, मूड का इलाज किसी के पास नहीं होता। हर बीमारी का डॉक्टर मिल जाता है, पर मूड तो लाइलाज है। इसलिए कि हर व्यक्ति का मूड अलग-अलग तरीके से ठीक होता है। कोई लांग ड्राइव पर चला जाता है, कोई संगीत सुनता है तो कोई अपने प्रिय के साथ गुफ्तगू करके दिल बहला लेता है। कुछ लोग फिल्म देखकर अपना दिल खुश कर लेते हैं। लेकिन, हर फिल्म ऐसी नहीं होती जो दिल खुश करके मूड को मस्त कर दे। फिल्म इतिहास में ऐसी चुनिंदा फ़िल्में बनी जो कुछ अलग मानी जाती है।
   
- हेमंत पाल
  
     आजकल मूड ख़राब होना भी एक बीमारी है। ये वो बीमारी है जिसका कोई एक कारण नहीं होता और न एक होता है। वही जानता है कि मूड कैसे ठीक होगा। इस बीमारी का सबसे बड़ा लक्षण है दिल उदास होना। ऐसे में कुछ भी अच्छा नहीं लगता। लेकिन, फिल्म ऐसी चीज है जो मूड ठीक करके दिल खुश करने में देर नहीं करती। लेकिन, हर फिल्म ख़राब मूड का इलाज नहीं होती। मूड ख़राब हो, तो ठीक करने के लिए भी कैसी फिल्म देखी जाए कि मूड फ्रेश हो। क्योंकि, सभी फ़िल्में इस स्तर की होती भी नहीं है कि उनसे मूड ठीक हो! इसके लिए कुछ अलग तरह की फ़िल्में देखी जाना चाहिए। जब फ़िल्म अलग होगी, तभी उस बीमार का ध्यान बंटेगा और मनोरंजन होगा। मारधाड़, बदले की कहानियां, प्रेम कहानियों वाली फिल्मों से चंद समय मन बहलाव होता है, पर ये फ़िल्में मूड दुरुस्त नहीं करती। वैसे आजकल ऐसी कई फिल्में बन रही हैं, जिनके कथानक काफी अलग होते हैं।
    फिल्मकार मनोरंजन के लिए बहुत से प्रयोग करते हैं। भागदौड़ भरी जिंदगी में आजकल स्ट्रेस किसे नहीं होता। लेकिन, महत्वपूर्ण यह है कि आप उसे किस तरह हैंडल करते हैं। फेहरिस्त में कुछ ऐसी कमाल की फ़िल्में हैं, जो न सिर्फ जीने का तरीका सिखाती हैं, बल्कि जिंदगी की समस्याओं को एक अलग नजरिए से देखने में भी मदद करती है। आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में तनाव किसे नहीं होता। किसी को नौकरी या कारोबार का तनाव है, तो कोई पारिवारिक समस्या से परेशान है। कोई पैसों की तंगी से दुखी है तो किसी को ऑफिस का स्ट्रेस मारता है। ऐसी स्थिति में कुछ फिल्में दिल को सुकून देती हैं। कई बार ऐसी फिल्मों से कोई ऐसा आइडिया मिल जाता है, जो दर्शकों की समस्या का निराकरण करता है। अलग तरह की फ़िल्में वे होती है, जो जिंदगी को नई राह दिखाती है। सब कुछ ठीक नहीं चल रहा, तो ऐसी फिल्में जरूर देखनी चाहिए, जो न सिर्फ तनाव कम करें, बल्कि जीने और खुश रहने की कला भी सिखाए। ऐसी ही एक फिल्म है 'डियर जिंदगी' जो एक बार जरूर देखनी चाहिए। शाहरुख खान और आलिया भट्ट की यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई खास जादू नहीं चला सकी। लेकिन, समीक्षकों ने इसे बेहतरीन फिल्मों में शामिल किया। कई बार अपने ऑफिस स्ट्रेस और निजी जिंदगी में चल रही नेगेटिविटी से लोग इतने परेशान हो जाते हैं कि उनके दिलो-दिमाग में उल्टे-सीधे ख्याल आने लगते हैं। फिल्म में शाहरुख़ का किरदार मनोचिकित्सक का है। इस नजरिए से फिल्म में शाहरुख खान का बोला हर डायलॉग यादगार है। 
    आमिर खान अभिनीत '3 इडियट्स' भी ऐसी ही फिल्म है, जो जीवन को नई दिशा दिखाती है। क्योंकि, जिंदगी में किसी ऊंचाई पर पहुंचने और धन कमाने का दबाव दुनिया का सबसे बड़ा तनाव में से एक है। फिल्म के कथानक के मुताबिक, रचनात्मकता और जिज्ञासा से भरे सवाल जिंदगी की पढ़ाई बर्बाद कर देती है। उन्हें असली शिक्षा जिंदगी और करियर के नजरिए से मिलना चाहिए। यह बात आमिर खान की फिल्म '3 इडियट्स' यही बात बताती है। ऐसी ही एक फिल्म है 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' जिसके मुख्य कलाकार रितिक रोशन, फरहान अख्तर और अभय देयोल हैं। यह फिल्म असल में उन लोगों के लिए है, जो पढ़ लिखकर कामयाब तो हो गए, पर हमेशा चूहा दौड़ में लगे रहते हैं। यह फिल्म कुछ ऐसे दोस्तों की कहानी है जिनमें से एक अपने बाकी दोस्तों की जिंदगी और एक मजेदार सफर के दौरान लाइफ का असली मतलब सीखता है। एक दिल खुश पर अंत में शिक्षा देने वाली फिल्मों में एक 1971 में आई 'आनंद' भी है। अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना की यह फिल्म ऐसे व्यक्ति पर केंद्रित है, जिसकी जिंदगी में अब बस चंद दिन शेष हैं। वे एक लाइलाज बीमारी से पीड़ित हैं, लेकिन फिर भी वो अपने आखिरी वक्त को खुलकर जीता है और निराशा में आशा के रंग भरते हुए दुनिया को जीने की कला सिखाता है।  कंगना रनौत की फिल्म 'क्वीन' 2013 में आई थी। यह फिल्म ऐसी लड़की की कहानी है, जिसे उसका मंगेतर शादी के चंद दिन पहले धोखा दे देता है। लेकिन, हनीमून की टिकट बुक हो चुकी होती है, तो कंगना (रानी) इन पैसों को बर्बाद करने के बजाए अकेले ही हनीमून पर जाने का फैसला करती है। अकेले हनीमून का उसका तजुर्बा उसे एक नया नजरिया देता हैं। ऐसी ही खुशनुमा फिल्म 'उड़ान' भी है, जो ओटीटी प्लेटफॉर्म पर देखी जा सकती है। ये फिल्म बताती है कि कई बार जिंदगी में ऐसी चुनौतियां सामने आती है, जिनमें सख्त फैसले लेना मजबूरी हो जाता है। ये फिल्म एक फैमिली ड्रामा है।
     'लापता लेडीज' भी दो लड़कियों के इर्द-गिर्द घूमती है, जो शादी के बाद दुल्हन बनकर ससुराल जाती हैं, पर घूंघट में उनकी अदला-बदली हो जाती है। एक का नाम फूल होता है, दूसरी पुष्पा होती है। फूल अपने ससुराल का नाम तक नहीं जानती। जबकि, पुष्पा अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए भाग जाना चाहती है। अंत में दोनों ही अपने-अपने मकसद में कामयाब हो जाती हैं।
    सलमान खान, आमिर खान, रवीना टंडन और करिश्मा कपूर की फिल्म 'अंदाज अपना अपना' इतिहास में दर्ज फिल्म है। इस फिल्म की कॉमेडी ने अपने समय पर दर्शकों को लोटपोट कर दिया था। न सिर्फ कॉमेडी बल्कि फिल्म में क्यूट लव स्टोरी भी देखने को मिलती है। शक्ति कपूर और परेश रावल भी अहम किरदार में थे। इसके अलावा संजय दत्त की फिल्म 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' भी एक बेहतरीन कॉमेडी फिल्म है। इसमें संजय दत्त का एक अलग ही अंदाज देखने को मिला था। मुन्ना भाई यानी संजय दत्त के साथ अरशद वारसी सर्किट की जोड़ी दर्शकों को खूब पसंद आई। फिल्म जहां हंसाती है, वहीं कई जगहों पर भावुक भी कर देती हैं। 2005 में आई 'गरम मसाला' में अक्षय कुमार और जॉन अब्राहम की जोड़ी थी। परेश रावल और राजपाल यादव का भी अहम किरदार था। फिल्म में अक्षय और जॉन अब्राहम तीन एयर होस्टेस के चक्कर में पड़ जाते हैं और फिर जोरदार कॉमेडी होती है। सलमान खान, अनिल कपूर, फरदीन खान, बिपाशा बसु और लारा दत्ता की फिल्म 'नो एंट्री' को देखकर दर्शकों का हंसी रोकना मुश्किल हो जाता है। फिल्म का एक डायलॉग 'रिलायंस की कसम' तो आज भी कई बार लोग बातों बातों में कह देते हैं।
    डरावनी फिल्मों को मनोरंजन की गिनती में कम ही लोग लेते हैं। लेकिन, अब ऐसी फ़िल्में बनाने का अंदाज बदल गया। जब से हॉरर के साथ कॉमेडी को जोड़ा गया, इन फिल्मों के कथानक बदल गए। पहले इन फिल्मों में बड़े नामचीन कलाकार काम नहीं करते थे, पर अब  राजकुमार राव, श्रद्धा कपूर और कार्तिक आर्यन से लगाकर अक्षय कुमार भी दिखाई देने लगे। सिनेमा की दुनिया में हॉरर फिल्मों को दोयम दर्जे का माना जाता रहा है। मगर, कुछ सालों में सस्ते सिनेमा के रूप में जाना जाना वाला ये जॉनर लोकप्रिय होने लगा। मूड फ्रेश करने के लिए ऐसे कथानकों की फ़िल्में देखे जाने जरूरत इसलिए महसूस की जाने लगी, कि ये दर्शकों को ये अलग दुनिया में ले जाती है। स्त्री, मुंज्या और 'स्त्री 2' के बाद 'भूल भुलैया' सीरीज के बॉक्स ऑफिस आंकड़ों के बाद अब हॉरर कॉमेडी को भी मूड बदलने वाली फिल्मों के रूप में जगह मिलने लगी।
      कुछ दशक पहले तक हॉरर फिल्मों का एक लंबा दौर रहा। दो गज जमीन के नीचे, वीराना, पुराना मंदिर, बंद दरवाजा जैसी डरावनी फिल्मों का अलग ही दर्शक वर्ग था। इस तरह की हॉरर फिल्मों में कुछ ऐसे दृश्य पिरोए जाते थे जो दर्शकों को बांधकर रखते थे। मगर कोई भी इन इन फिल्मों को परिवार के साथ देखना पसंद नहीं करता। मगर कुछ सालों में हॉरर कॉमेडी में आए नए कथानक ने इन्हें मनोरंजक फिल्मों का दर्जा दे दिया। हॉरर और कॉमिक फिल्मों को हमेशा ही पसंद किया जाता रहा है। जब दर्शकों को हॉरर और कॉमेडी का कॉम्बिनेशन मिला, तो उसे दर्शकों ने हाथों-हाथ हाथ लिया। फिल्मकार अमर कौशिक की 'स्त्री' से इसकी शुरुआत हुई। फिल्म ने आज से पांच साल पहले 180 करोड़ से ज्यादा का बिजनेस किया था और उसके बाद तो हॉरर कॉमेडी का सिलसिला चल निकला। अब दिल खुश करने वाली फिल्मों की श्रेणी में ऐसी फ़िल्में भी शामिल की जाने लगी। यदि दिल उदास है और मूड बदलना चाहते हैं, तो देखिए कुछ ऐसी फ़िल्में तो रूटीन से अलग हों!
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Friday, November 22, 2024

अभी ख़त्म नहीं हुआ ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का जादू!

- हेमंत पाल

      हिंदी सिनेमा ने अपने सौ साल से ज्यादा लंबे इतिहास में कई उतार-चढाव देखे। इनमें कुछ संघर्ष भरे, कुछ अच्छे थे, कुछ बहुत अच्छे और यादगार पड़ाव रहे। शुरुआती समय में फ़िल्में बनाना बेहद दुष्कर काम था! पर, जैसे-जैसे तकनीक समृद्ध हुई, फिल्मकारों के काम में भी रचनात्मकता आती गई। तकनीकी सुधार से फिल्मांकन, संगीत और डायरेक्शन में बहुत बदलाव आया। शुरू के दौर में जो फ़िल्में ब्लैक एंड व्हाइट बनती थीं, वे धीरे-धीरे रंगीन होने के साथ बेहतर होती गई। जब फिल्मों ने जीवन की वास्तविकता रंग लिए, तो लोगों ने ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों को लगभग भुला दिया। लेकिन, आज भी उस दौर की कुछ फ़िल्में ऐसी हैं, जो अपनी कहानी, डायरेक्शन, फिल्मांकन और अभिनय के मामले में आज की फिल्मों पर भारी हैं। 70 के दशक के बाद तो ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्में बनना बंद ही हो गई! लेकिन, ब्लैक एंड व्हाइट काल की कुछ यादगार फ़िल्में ऐसी हैं, जिन्हें आज भी पसंद किया जाता है।    
      ये फ़िल्में उन पुरानी विंटेज कार की तरह हैं, जिनमें बैठने वाला अपने आपमें कुछ अलग ही महसूस करता है। क्योंकि, ये फ़िल्में भी किसी विंटेज से कम नहीं! सभी तो नहीं, पर कुछ कालजयी फ़िल्में जरूर हैं, जो आज भी देखी जाती हैं। ये वे फिल्में हैं, जो जीवन की सच्चाइयों से रूबरू कराने के साथ कई सामाजिक मुद्दों की तरफ इंगित करती हैं। इन फिल्मों के कलाकार भी अपने दौर के वे लोग हैं, जिनके अभिनय का आज भी लोहा माना जाता है। पसंद की जाने वाली फिल्मों में 1949 की फिल्म 'महल' को रखा जा सकता है। कमाल अमरोही के निर्देशन में बनी इस फिल्म में अशोक कुमार और मधुबाला ने काम किया था। ये पुनर्जन्म से जुड़ी अलौकिक सस्पेंस थ्रिलर फिल्म थी। ये दो प्रेमियों के मिलन और बिछड़ने की कहानी है। एक महल में दो प्रेमी आधी रात को मिलते हैं। एक दिन प्रेमी एक हादसे का शिकार हो जाता है और प्रेमिका से मिलने नहीं आ पाता। कई सालों के बाद नया मालिक अशोक कुमार वहां रहने आता है, तब रहस्य सामने आता है। इसमें मधुबाला ने दोहरी भूमिका निभाई थी।  
      ऐसी ही एक फिल्म है 1951 में आई 'आवारा' है, जिसका निर्देशन करने के साथ राज कपूर ने इसमें काम भी किया था। इस फिल्म ने देश-विदेश में कामयाबी के कई झंडे गाड़े थे। फिल्म में पृथ्वीराज कपूर ने जज की भूमिका निभाई थी। इसी साल (1951) में आई फिल्म 'अलबेला' का निर्देशन मास्टर भगवान ने किया और इसके कलाकार थे गीता बाली और मास्टर भगवान। फिल्म की कहानी एक गरीब पर केंद्रित थी, जो अपनी बहन की शादी के लिए पैसे नहीं जुटा पाता है। घर से निकलते समय अमीर के रूप में लौटने की कसम खाता है। जब वो वापस लौटता है, तो उसे पता चलता है कि उसकी माँ अब जीवित नहीं है। उसने सालों तक जो पैसे घर भेजे, वे भी गायब थे। निर्देशक बिमल रॉय की फिल्म 'दो बीघा ज़मीन' (1953) में बलराज साहनी, मुराद, निरूपा रॉय ने काम किया था। रवींद्रनाथ टैगोर की बंगाली कविता 'दुई बीघा जोमी' इस फिल्म की नींव थी। इस फिल्म में गरीब किसान ठाकुर हरनाम सिंह (मुराद) के हाथों गरीब किसान शंभू महतो (बलराज साहनी) के संघर्ष और जबरन वसूली का दर्द भरा चित्रण था। किसान और उसका परिवार दो एकड़ जमीन बचाने के लिए अपना जीवन ख़त्म कर देते हैं, जो उनकी जीविका का एकमात्र साधन होता है।  
      1954 में आई फिल्म 'बूट पॉलिश' को प्रकाश अरोड़ा ने निर्देशित किया था। इसके कलाकार कुमारी नाज़, रतन कुमार, चंदा बुर्के और डेविड थे। यह फिल्म भाई-बहन भोला (रतन कुमार) और बेलू (कुमारी नाज़) की कहानी थी। मां की मौत के बाद, क्रूर चाची कमला देवी (चंदा बुर्के) भाई और बहन को सड़क भिखारी बनने के लिए मजबूर करती है। जॉन अंकल (डेविड अब्राहम) की मदद से भोला और बेलू अपनी चाची के खिलाफ जाने और जीवन जीने का फैसला करते हैं। 1955 में आई फिल्म 'बाप रे बाप' को अब्दुल रशीद कारदार ने निर्देशित किया था। किशोर कुमार, चाँद उस्मानी, स्मृति बिस्वास  की ये फिल्म एक सुपर-हिट कॉमेडी थी।  ब्लैक एंड व्हाइट दौर की राज कपूर निर्देशित क्लासिक फिल्मों में 'श्री 420' (1955) को भी गिना जाता है। इसमें राज कपूर के साथ नरगिस और नादिरा थे। फिल्म एक गांव के लड़के रणबीर राज की कहानी है, जो अपनी किस्मत आजमाने शहर जाता है। वहां उसे विद्या (नरगिस) से प्यार हो जाता है। राज शहर में कई चालाक लोगों से मिलता है, जो उसे धोखाधड़ी का जीवन जीने के लिए सिखाते हैं। यह फिल्म रूस में बहुत लोकप्रिय हुई थी। 
      1956 में आई 'जागते रहो' निर्देशक अमित मित्रा की फिल्म थी, जिसमें राज कपूर, प्रदीप कुमार, स्मृति बिस्वास और नरगिस थे। फिल्म की कहानी में एक गरीब व्यक्ति के बेहतर जीवन जीने की उम्मीद की कहानी थी। लेकिन, यह भोला किसान लालच और भ्रष्टाचार के जाल में फंस जाता है। 'जागते रहो' भारतीय सिनेमा की क्लासिक फिल्मों में एक है। इसे रूसी बॉक्स ऑफिस पर भी ब्लॉक बस्टर घोषित किया गया था। इसी तरह 1957 में आई 'प्यासा' निर्देशक गुरुदत्त की फिल्म थी, जिसमें गुरुदत्त के साथ वहीदा रहमान, माला सिन्हा ने काम किया था। इसकी कहानी है एक कवि का संघर्ष था जो अपनी कविताओं को प्रकाशित करने के लिए संघर्ष करता है। वह उस वेश्या गुलाबो (वहीदा रहमान) से मिलता है, जो उसकी कविता से प्यार करती है। अबरार अल्वी फिल्म के लेखक थे। 
      1957 में आई फिल्म 'नया दौर' बीआर चोपड़ा ने बनाई थी। इसमें दिलीप कुमार, वैजयंती माला और अजीत थे। इसकी कहानी में शंकर (दिलीप कुमार) घोड़ा गाड़ी खींचकर आजीविका कमाता है। लेकिन, मकान मालिक सेठ जी (नजीर हुसैन) के बेटे कुंदन (जीवन) को शंकर और साथी धमकाते हैं। क्योंकि, वह उसी मार्ग पर बस की सवारी शुरू करता है। ब्लैक एंड व्हाइट काल की 'मधुमती' (1958) भी आज पसंद की जाने वाली फिल्मों में एक है। इसके निर्देशक बिमल रॉय थे और इसमें दिलीप कुमार, वैजयंती माला, प्राण और जॉनी वॉकर ने काम किया था। 'मधुमती' एक सदाबहार रोमांटिक फिल्म है, जिसमें दो जन्मों की कहानी थी। 1958 की फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' निर्देशक सत्येन बोस ने निर्देशित की थी। इसमें किशोर कुमार, अशोक कुमार और अनूप कुमार के साथ मधुबाला थी। 1959 में आई गुरुदत्त की फिल्म 'कागज़ के फूल' में गुरुदत्त के साथ वहीदा रहमान और वीणा सप्रू थे। अबरार अल्वी की कहानी पर बनी 'काग़ज़ के फूल' गुरुदत्त के जीवन की कहानी थी, जो बेहद दुखद थी।
       हिंदी सिनेमा की सबसे क्लासिक कही जाने वाली फिल्मों में एक 'मुगल-ए-आज़म' (1960) को के आसिफ ने निर्देशित किया था। इसमें पृथ्वीराज कपूर, मधुबाला, दिलीप कुमार और दुर्गा खोटे ने काम किया था। फिल्म की कहानी प्रेम और पिता के जिद्दी स्वभाव और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर गढ़ी गई थी। फिल्म में मुगल राजकुमार सलीम (दिलीप कुमार) और दरबारी अनारकली (मधुबाला) की प्रेम कहानी पर प्रकाश डाला गया है। बाद में इस फिल्म को नई तकनीक से रंगीन बनाया गया था। कहा जा सकता है कि इस फिल्म को दोहराया नहीं जा सकता। निर्देशक विजय आनंद की 'काला बाज़ार' (1960) में देव आनंद, वहीदा रहमान और नंदा थे। ये विजय आनंद की सफल ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म थी। फिल्म में रघुवीर (देव आनंद) एक यात्री के साथ बहस से बस कंडक्टर की नौकरी गंवाने के बाद कालाबाजारी करने लगता है। बाद में वो महसूस करता है कि वो गलत रास्ते पर है। 1961 में आई 'काबुलीवाला' निर्देशक हेमेन गुप्ता की फिल्म थी। इसमें बलराज साहनी, बेबी सोनू, बेबी फरीदा ने अभिनय किया था। इसकी कहानी ड्राई फ्रूट बेचने अब्दुल रहमान खान (बलराज साहनी) की थी। 
      'साहिब बीबी और गुलाम (1962) को गुरुदत्त की फिल्मों के लेखक अबरार अल्वी ने निर्देशित किया था। इसके कलाकार मीना कुमारी, गुरुदत्त, रहमान थे। फिल्म में कई फ्लैशबैक हैं। इस फिल्म में कई डायलॉग भी क्लासिक थे। फिल्म 'बंदिनी' (1963) को निर्देशक बिमल रॉय की क्लासिक फिल्मों में गिना जाता है। इसमें अशोक कुमार, नूतन, धर्मेंद्र थे। इसकी कहानी एक महिला कैदी नूतन और डॉ देवेंद्र (धर्मेंद्र) पर केंद्रित है। 'बंदिनी' एक एक महिला कैदी की दुखद और भावनात्मक कहानी है। 1963 में राष्ट्रीय पुरस्कार के अलावा, इस फिल्म ने 1964 के फिल्मफेयर पुरस्कारों में कई श्रेणियां जीतीं। 1967 की फिल्म 'रात और दिन' निर्देशक सत्येन बोस की फिल्म थी, जिसमें नरगिस, प्रदीप कुमार और फिरोज खान ने काम किया था। यह फिल्म एक महिला केंद्रित ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म थी। इसके अलावा और भी कई ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों हैं, जिन्होंने हिंदी सिनेमा में अपनी पहचान बनाई। इनमें अनमोल घड़ी (1946), आर पार (1954), देवदास (1955), चोरी चोरी (1956) और हावड़ा ब्रिज (1958) भी हैं।
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Sunday, November 3, 2024

'बिग बॉस' जैसे टीवी शो को कोई क्यों देखे!

     टीवी पर आने वाले रियलिटी शो को लेकर कुछ सामाजिक मापदंड हैं, जिन्हें किनारे नहीं किया जा सकता! लेकिन, विवादित रहे 'बिग बॉस' शो के कुछ सीजन ने ज्यादा ही सीमा लांघी! इस शो में क्रिएटिव टास्क रखे जाते, जो प्रतियोगियों में स्पर्धा बढ़ाते और कुछ अलग तरह का मनोरंजन परोसते! लेकिन, वो सब छोड़कर अब शो में फूहड़ता से लोकप्रियता बटोरने की कोशिश की जाने लगी! 'बिग बॉस' ने अश्लीलता की लक्ष्मण रेखा पार कर ली। इस वजह से शो की लोकप्रियता गिरी। क्योंकि, दर्शक मनोरंजन के नाम पर कुछ भी झेलने को मजबूर नहीं हैं!
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- हेमंत पाल

    कुछ दशक पहले तक टीवी पर मनोरंजन के नाम पर खास कुछ नहीं था। जो था, दर्शक उसी में मन बहलाव की सामग्री ढूंढ लेते थे। पारिवारिक या पौराणिक सीरियल, समाचार, फ़िल्मी गीतों का साप्ताहिक कार्यक्रम और हर रविवार को एक फिल्म ही मनोरंजन हुआ करता था। फिर भी लोग मनोरंजन की खुराक से संतुष्ट थे। आज चौबीस घंटे टीवी मनोरंजन परोसता है, पर दर्शक तृप्त नहीं होते। एक दौर रियलिटी शो का आया, जिसने मनोरंजन की अलग खुराक परोसी। अमिताभ बच्चन के शो 'कौन बनेगा करोड़पति' ने सन 2000 में दर्शकों को मनोरंजन के साथ ज्ञान से परिचित कराया। इसी समय 'बिग बॉस' नाम का रियलिटी शो भी टीवी के परदे पर आया। मूलतः नीदरलैंड के इस शो का नाम 'बिग ब्रदर' है। इस रियलिटी शो में सेलिब्रिटी को कंटेस्टेंट बनाया जाता है। इंडिया में सेलिब्रिटी का मतलब फिल्म और टीवी के कलाकार होते हैं, इसलिए यहाँ वे ही इस शो के प्रतियोगी बनते रहे। पिछले 17 सीजन में इस शो को 6 एंकर्स ने संचालित किया। इनमें सलमान खान का लम्बे समय से कब्ज़ा बना है। 
    अभी तक माना जाता था कि जब 'बिग बॉस' सीजन शुरू होता है, वह हमेशा टीवी पर लोकप्रियता में नंबर वन पर रहता है! लेकिन, लगता है इस बार दर्शकों को शो पसंद नहीं आ रहा। ये सिर्फ अनुमान नहीं, सच्चाई है, जिसका सबूत टीवी कार्यक्रमों को उनकी लोकप्रियता के आधार पर नंबर देने वाली 'टीआरपी' ने भी दिया। 'टीआरपी' में अव्वल रहने के लिए सभी टीवी शो में मुकाबला चलता रहता है। क्योंकि, ये सिर्फ लोकप्रियता का प्रमाण नहीं, बल्कि प्रायोजक भी चाहते हैं कि उनका शो सबसे आगे रहे! यदि ऐसा नहीं होता, तो प्रायोजकों के दरकने का खतरा बढ़ जाता है। इस कोशिश में सलमान खान का शो 'बिग बॉस' कम से कम इस बार तो बुरी तरह असफल साबित हुआ। शो को अभी दो महीने भी नहीं हुए हुए, पर इसकी 'टीआरपी' बेहद कम है। जानकारी के मुताबिक, यह 18वां सीजन 18वें नंबर पर है। दर्शकों के नजरिए से भी इस बार शो का हाल बहुत बुरा है।  शुरुआती लोकप्रियता के बाद 'बिग बॉस' जैसे शो दर्शकों के दिमाग से उतरता गया। इसका कारण है शो की छद्म सच्चाई! भले ही शो को रियलिटी का नाम दिया गया हो, पर कई घटनाएं ऐसी होती है, जिनसे इसके रियल होने पर संदेह होता है। प्रतियोगियों की नजर आती कुंठा, रोज के झगड़े और विवाद, एक-दूसरे को मात देने की कोशिश और गुटबाजी ये सब अपने आप होता नहीं लगता। इसके पीछे कहीं न कहीं स्क्रिप्ट होने का संदेह होता है। वो लिखित में भले न हो, पर दर्शकों को मनोरंजन परोसने के लिए उसे तैयार तो किया ही जाता होगा।
      शो से जुड़े ऐसे कई सवाल हैं, जो इसके रियल होने पर संदेह जताते हैं। क्या सेलिब्रिटी छोटी-छोटी बातों पर ऐसे झगड़ते है? क्या 'बिग बॉस' में दिखाई जानी वाली प्रेम कहानियां सच्ची होती हैं? प्रतियोगी बनकर आए सेलिब्रिटी 'बिग बॉस' की आवाज़ सुनकर डर क्यों जाते हैं? दरअसल, इस शो का कॉन्सेप्ट शो में शामिल सेलिब्रिटी की रियल-लाइफ को दर्शकों के सामने लाना है! क्योंकि, तीन महीने तक कोई भी अपने मूल चरित्र को छुपाकर नहीं रख सकता और न एक्टिंग कर सकता है! इस आधार पर कहा जाता है कि 'बिग बॉस' में दर्शक वही देखते हैं, जो वास्तव में कैमरों के सामने घटता है! अभी तक यही समझा भी जा रहा था। लेकिन, क्या वास्तव में यही सच है? अनजान चेहरों को सेलिब्रिटी भी तो नहीं माना जा सकता।   
     इस शो का जादू दर्शकों के दिमाग से इसलिए भी उतरता गया कि घर के 15 लोगों को आदेश देने वाली आवाज 'बिग बॉस' ने अपना खुद ही अपना दबदबा ख़त्म कर लिया। पिछले 3-4 सीजन से तो 'बिग बॉस' के निर्देशों का कोई मतलब ही नहीं रह गया। जबकि, पहले प्रतियोगी यह आवाज सुनते ही सहम जाते थे। दिन में कोई सोता नहीं था, यदि सोता पाया जाता तो उसे सजा मिलती थी। घर में अंग्रेजी बोलने पर पाबंदी थी। यदि कोई झगड़ता तो 'बिग बॉस' की एक आवाज पर बोलती बंद हो जाती थी। पर, अब ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा। 'बिग बॉस' के 18वें सीजन तक आते-आते 'बिग बॉस' का दबदबा नहीं बचा और उसका मसखरापन सामने आने लगा। महिला प्रतियोगियों से रंगीली बातें करना, बेवजह की मजाक और विवाद होने पर भी कुछ नहीं बोलना दर्शकों के गले नहीं उतर रहा। 
     घर में मौजूद प्रतियोगियों ने 'बिग बॉस' को गंभीरता से लेना लगता है बंद ही कर दिया। 18वें सीजन की टीआरपी का लगातार गिरना सबूत है। घर में लाए गए प्रतियोगी अनजान चेहरे हैं, सीरियल के दोयम दर्जे कलाकार हैं या जेल काटकर आए आपराधिक प्रवृत्ति के लोग हैं, जो झगड़ों में बाहर देख लेने की धमकी देने से भी बाज नहीं आते! जब किसी शो का स्तर इतना दोयम दर्जे का हो तो कोई उसे क्यों देखे! 'बिग बॉस' पिछले कुछ सालों में बेहद कमजोर नजर आने लगा। इस बार का शो (बिग बॉस-18) सबसे ज्यादा अपरिपक्व और बिखरा नजर आ रहा। इस शो की लोकप्रियता भी तेजी से घटी। इसका कारण शो के कंटेस्टेंट्स को माना जा रहा है, जो ज्यादातर अनजाने चेहरे हैं। दर्शकों के लिए इस शो का आकर्षण होता है, अपने पसंदीदा चेहरों को नजदीक से जानना और उनकी दिनचर्या और उनकी आदतों से वाकिफ होना! लेकिन, जिन चेहरों को कंटेस्टेंट बनाकर घर में लाया गया, वे दर्शकों के बीच पहचाने हुए नहीं है! 
   'बिग बॉस' कई बार अपने विवादास्पद फॉर्मेट के कारण आलोचना का शिकार बना! एक सीजन में आलोचना का कारण था, पुरुष और महिला प्रतियोगियों को एक बिस्तर पर साथ सोने की अनिवार्यता! लेकिन, दर्शकों की नाराजगी के बाद इसे दो दिन बाद ही बदलना पड़ा। इस बहाने 'बिग बॉस' लोगों के निशाने पर आ गया! सोशल मीडिया पर दर्शकों का गुस्सा फट पड़ा! उन्होंने अपनी नाराजी जताते हुए सूचना प्रसारण मंत्रालय से 'बिग बॉस' को बंद करने तक की मांग कर दी थी! मेकर्स पर यह भी आरोप लगाया गया कि वे भारतीय संस्कृति का अपमान कर रहे हैं। कई समाजसेवी संगठनों ने 'बिग बॉस' के फॉर्मेट को गलत बताते हुए सूचना प्रसारण मंत्रालय को पत्र लिखा! जिसे गंभीरता से लिया और जांच के आदेश भी दिए गए थे! विवाद बढ़ने के बाद शो के मेकर्स ने इस नियम को बदल तो दिया था। 
   पिछले 18 सीजन के दौरान कई प्रतियोगियों को एक-दूसरे से प्यार हो जाता है। शो की रोचकता के लिए 'बिग बॉस' उन प्रेमियों की शादी करवा देते हैं। ऐसे दो प्रसंग अभी तक हुए हैं। लेकिन, वास्तव में ये दिखावा ही था। शो में सारा खान और अली मर्चेंट की शादी हुई थी। 'बिग बॉस' सीजन-4 में आने से पहले दोनों एक-दूसरे को डेट कर रहे थे। जब शो में अली मर्चेंट ने सारा खान को प्रपोज किया, तो दोनों ने शादी करने का फैसला किया और इसके बाद शो में ही दोनों की शादी करवाई गई। इस शादी में उनके माता-पिता को भी बुलाया गया था। इस शादी के बाद बिग बॉस की टीआरपी काफी बढ़ी, पर शादी आगे नहीं चली। शादी के दो महीने बाद यह जोड़ी अलग हो गई। दरअसल, ये सब शो की टीआरपी के लिए किया गया था। इसके बाद सीजन-10 में भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री की एक्ट्रेस मोनालिसा ने शो की कंटेस्टेंट रहते हुए भोजपुरी एक्टर के मशहूर स्टार विक्रांत सिंह राजपूत से शादी की। शादी में मोनालिसा की मां और विक्रांत की बहन भी शामिल हुईं। 
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रुपहले परदे के पीछे से झांकता काला धंधा

   फिल्मों में अंडरवर्ल्ड के दखल की शुरुआत फ़िल्म निर्माण में पैसा लगाने से हुई, जब निर्माताओं को फिल्म निर्माण के लिए बैंकों और वित्तीय संस्थाओं से पैसा नहीं मिलता था। लेकिन, समय बदला और फिल्मों को उद्योग का दर्जा मिल गया। बैंक और निजी संस्थानों से उन्हें पैसा मिलने लगा। इसके बाद फिल्म निर्माताओं ने अंडरवर्ल्ड की काली कमाई से पल्ला झाड़ लिया। लेकिन, वे इस काली दुनिया से पूरी तरह पीछा नहीं छुड़ा सके। अंडरवर्ल्ड के सरगनाओं ने फिल्म इंडस्ट्री पर किसी न किसी रूप में अपना दबदबा बनाए रखा, जो आज भी कायम है। लेकिन, 90 के दशक में ऐसा दौर भी आया जब कई फिल्म अभिनेत्रियां इन काले कारोबारियों के चंगुल में आकर अपना करियर गंवा बैठी।
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- हेमंत पाल

    फिल्म इंडस्ट्री से अंडरवर्ल्ड का रिश्ता बहुत पुराना और गहरा रहा है। क्योंकि, जहां पैसा और ग्लैमर है वहां इस काले धंधे का दखल है। अपराध की इस दुनिया का दखल सिर्फ फिल्मों में काले पैसे लगाने और कमाने तक सीमित नहीं है। फिल्म की कास्टिंग से लेकर उसके गीत-संगीत और ओवरसीज राइट्स तक में इनका सीधा दखल रहता था। इसलिए कई कलाकार और संगीतकार भी इनसे नजदीकी बढ़ाते हैं। फिल्म की कहानियों को लेकर भी प्रोड्यूसर और डायरेक्टर इनसे सलाह मशवरा किया करते रहे हैं। क्योंकि, बात पैसे लगाने तक की नहीं, बल्कि एक भय भी व्याप्त रहता था, जो सीधे जान पर आता है। अब वहीं भय इतना बढ़ गया कि सलमान खान जैसे बड़े कलाकार भी कड़ी सुरक्षा के साये में रहने को मजबूर हो गए। 1993 में पहली बार मुंबई ने दाऊद और उसके गुर्गों के आतंक का चेहरा नजदीक से देखा था। 
       मुंबई ब्लास्ट से पहले दाऊद इब्राहिम दुबई में रहकर मुंबई में काले कारोबार पर नजर रखी। इसके बाद फिल्मी दुनिया में भी दाऊद का दबदबा हो गया। अगस्त 1997 में संगीत इंडस्ट्री के कैसेट किंग गुलशन कुमार की हत्या हुई और पहली बार एहसास हुआ कि अंडर वर्ल्ड क्या होता है! गुलशन कुमार को मंदिर में पूजा के बाद गोलियों से भून दिया गया। बाद में खुलासा हुआ कि उनसे फिरौती मांगी गई थी और नहीं देने पर उनकी हत्या कर दी गई। फिल्म इंडस्ट्री और अंडरवर्ल्ड की नजदीकी की शुरुआत हाजी मस्तान, करीम लाला और सटोरिए रतन खत्री जैसे सरगनाओं से हुई थी। इसमें बाद दाऊद इब्राहिम और छोटा राजन जैसे कई लोग इससे जुड़ते चले गए। लेकिन, तब ये जुड़ाव फिल्मों में अपना काला पैसा लगाने और फिल्म बनाने तक सीमित था। 90 के दशक की कई फिल्मों में अंडरवर्ल्ड का तो सीधा दखल रहा। जब पुलिस को सबूत मिले, तो कार्रवाई हुई! जिससे पूरी इंडस्ट्री में हलचल मच गई थी। 
      जब फिल्म इंडस्ट्री से दाऊद इब्राहिम का नाम जुड़ा तो उसके साथ काले धंधे में की बुराइयां भी आ गई। लेकिन, 1993 में हुए मुंबई बम कांड के बाद अंडरवर्ल्ड का खौफ कम हो गया। दाऊद दुबई भाग गया, पर उसकी पार्टियों में फ़िल्मी हस्तियों की मौजूदगी बनी रही। कई बड़े कलाकारों के फोटो दाऊद के साथ सुर्ख़ियों में रहे। अंडरवर्ल्ड के दबाव का एक असर अभिनेत्रियों पर कुछ अलग तरह से पड़ा। इस वजह से उनका करियर ही ख़त्म हो गया। क्योंकि, खौफ या आकर्षण के कारण कई अभिनेत्रियां गैंगस्टर्स के चंगुल में आ गई और उनका फ़िल्मी करियर तबाह हो गया।
     फिल्म इंडस्ट्री पर कुछ साल पहले भी अंडरवर्ल्ड का खौफ दिखाई दिया था। 90 के दशक में इंडस्ट्री अंडरवर्ल्ड की जकड़ में थी। धमकाने, गोली चलाने और हत्या करके दाऊद इब्राहिम और छोटा राजन फिल्म इंडस्ट्री पर अपना दबाव बनाने की कोशिश में थे। प्रोड्यूसर करीम मोरानी के घर पर गोली चलाई गई और शाहरुख खान के दफ्तर में फोन करके धमकाया गया। इन वारदातों के पीछे अंडरवर्ल्ड डॉन रवि पुजारी का नाम आया था। शाहरुख़ को धमकी देने के पीछे उनकी एक फिल्म के ओवरसीज राइट्स का मामला सामने आया था। इस वारदात से इंडस्ट्री पर फिर खतरे की घंटी बजने लगी। इससे पहले प्रोड्यूसर राकेश रोशन पर भी जानलेवा हमला हुआ।
     फरहान अख्तर, सोनू निगम, राम गोपाल वर्मा, प्रोड्यूसर फरहान आजमी और रितेश सिधवानी को भी अलग-अलग समय पर अंडरवर्ल्ड से धमकियां मिलती रही। मुंबई पुलिस कोई जोखिम नहीं लेना चाहती थी, लिहाजा शाहरुख समेत 14 फिल्मी हस्तियों को सुरक्षा देने का फैसला किया गया था। इनमें शामिल रहे सलमान खान, आमिर खान, रितिक रोशन, अक्षय कुमार, सैफ अली खान और करीना कपूर, इमरान हाशमी और विवेक ओबरॉय। फिल्म निर्माता करण जौहर, आदित्य चोपड़ा, बोनी कपूर, फरहान आजमी और रितेश सिधवानी। जबकि, फिल्म डायरेक्टर और एक्टर फरहान अख्तर, गायक सोनू निगम को भी सुरक्षा मिली थी।
    अब वही सब सलमान खान के साथ हो रहा है, जिसने 90 के दशक की याद दिला दी। एक नए अंडरवर्ल्ड डॉन लॉरेंस बिश्नोई ने पहले तो सलमान के घर के बाहर गोली चलवाई, फिर उनके जिगरी दोस्त बाबा सिद्दीकी की हत्या करवा दी। इसके बाद सीधे सलमान को धमकी देकर फिरौती मांगी गई। सलमान खान को दी गई धमकी ने सबके होश उड़ा दिए। आखिर सलमान एक्शन हीरो हैं और उनके प्रशंसक उन्हें इसी रूप में देखते हैं। लेकिन, फ़िल्मी बंदूक और असली बंदूक में फर्क होता है। किसी की जिंदगी लेने के लिए एक गोली ही काफी होती है। यही कारण है कि कई अभिनेता सुरक्षा गार्ड के घेरे में रहते हैं। 
 
      इस पूरे खेल में अंडरवर्ल्ड का कुछ नहीं बिगड़ा। उनके सरगना आराम से किसी छोटे देश में बैठकर अपनी काली सत्ता चला रहे हैं। उनकी  बात नहीं मानी जाती तो उनके शूटर गुर्गे किसी को भी गोली मारने को तैयार होते हैं। वे फिल्मों की वीडियो पाइरेसी में शामिल होते हैं और अब ये काले कारोबारी फिल्म के व्यापार का हिस्सा बनना चाहता है। वे फिल्मों के ओवरसीज राइट चाहते थे और ऐसा न करने पर फिर धमकाने से बाज नहीं आते! आजकल चोरी-छुपे यही सब हो रहा।  इंडस्ट्री की कुछ अभिनेत्रियां जैसे ममता कुलकर्णी, मोनिका बेदी, मंदाकिनी, सोना और जैस्मिन धुन्ना अपने समय में चर्चित रहीं। पर, ऐशोआराम के लिए वे काले कारोबारियों के चंगुल में आकर हमेशा के लिए परदे से बेदखल हो गई। इस तरह की प्रेम कहानी सबसे पहले अंडरवर्ल्ड डॉन हाजी मस्तान और अभिनेत्री सोना से शुरू हुई, जो अपने समय काल में खासी चर्चा रही। सोना को उस समय मधुबाला की कॉपी भी माना जाता था। लेकिन, जितनी लोकप्रियता उन्हें फिल्मों से नहीं मिली, उससे ज्यादा वे हाजी मस्तान से जुड़कर चर्चा में आई। दोनों ने शादी कर ली थी। कहते हैं कि फिल्म 'वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई' में इनकी ही कहानी है। 80 और 90 के दशक की अभिनेत्रियां ममता कुलकर्णी, मंदाकिनी और मोनिका बेदी अपने करियर की ऊंचाइयां चढ़ रही थी, कि उनका नाम अंडरवर्ल्ड के सरगनाओं से जुड़ गया। बाद में इनमें से कुछ ने लौटने की कोशिश भी की, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। ममता कुलकर्णी को 90 के दशक की लोकप्रिय अभिनेत्री माना जाता था। लेकिन, ममता को ड्रग तस्कर विक्रम गोस्वामी के मोहब्बत हुई। इसके बाद ममता कुलकर्णी ने विक्रम गोस्वामी से शादी कर ली और दोनों दुबई चले गए। ड्रग्स तस्करी में विक्रम के साथ ममता जेल भी जा चुकी हैं।
    राज कपूर की फिल्म में काम करना किसी भी अभिनेत्री सपना होता है। मंदाकिनी भी उनमें से एक थी, जो 'राम तेरी गंगा मैली' में काम करके रातों-रात स्टार बन गई थी। लेकिन, वे अपने स्टारडम का मजा ले पाती, इससे पहले वे अपने अंडरवर्ल्ड कनेक्शन की वजह से सुर्ख़ियों में आ गई। मंदाकिनी और दाऊद इब्राहिम की नजदीकी की ख़बरों से हर कोई हैरान था। यहां तक कहा जाता था कि मंदाकिनी को हीरोइन बनाने के लिए निर्माता, निर्देशकों को दाऊद से धमकी तक मिलती थी। इसी तरह मोनिका बेदी अपनी एक्टिंग से ज्यादा अंडरवर्ल्ड डॉन अबू सलेम के साथ अफेयर को लेकर चर्चित रहीं। 'बिग बॉस' और 'झलक दिखला जा' टीवी शो की प्रतियोगी रही मोनिका को अबू सलेम से अफेयर इतना भारी पड़ा, कि उनको भी जेल जाना पड़ा। इससे मोनिका को निजी जिंदगी लाइफ में भी परेशानी उठाना पड़ी। भुतहा फिल्म 'वीराना' (1988) की अभिनेत्री जैस्मिन धुन्ना और दाऊद इब्राहिम के प्रेम की खबरें भी सामने आई थी। लेकिन, उन्होंने परेशान होकर भारत ही छोड़ दिया। दाऊद इब्राहिम का नाम अभिनेत्री अनीता अयूब के साथ भी जुड़ा था। कहा तो यहां तक जाता है कि डायरेक्टर जावेद सिद्दीकी की हत्या में दाऊद इब्राहिम का ही हाथ था। क्योंकि, उन्होंने अनीता को फिल्म में लेने से इंकार कर दिया था, जिसकी कीमत उन्हें जान देकर चुकाना पड़ी।
अंडरवर्ल्ड पर बनी फ़िल्में
    2002 में राम गोपाल वर्मा की फिल्म 'कंपनी' का कथानक दाऊद इब्राहिम के खतरनाक इरादों पर केंद्रित था। फिल्म ने अंडरवर्ल्ड वॉर को जीवंत तरीके से फिल्माया था। अजय देवगन की भूमिका वाली इस फिल्म ने खासी कमाई की और फिल्मकारों को एक नया आइडिया दे दिया था। अनुराग कश्यप ने 'ब्लैक फ्राइडे' (2004) में दाऊद के किरदार को बेहद खूबसूरती से फिल्माया था। यह फिल्म मुंबई में हुए बम धमाकों और दाऊद इब्राहिम की उसमें भूमिका पर आधारित थी। फिल्म में विजय मौर्या ने दाऊद इब्राहिम की भूमिका की थी। हाजी मस्तान के जीवन पर आधारित मिलन लथूरिया की फिल्म 'वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई' (2010) में अंडरवर्ल्ड की दुनिया को बेहद करीब से दिखाया गया है। इसमें एक अभिनेत्री और हाजी मस्तान के बीच प्रेम संबंध फिल्माए थे। फिल्म में अजय देवगन और कंगना रनौत की मुख्य भूमिका थी। अंडरवर्ल्ड की काली दुनिया पर राज करने वाले डॉन की अच्छाई और उसूलों को भी दिखाया गया। 2013 की फिल्म 'डी डे' में ऋषि कपूर ने अंडरवर्ल्ड डॉन का किरदार निभाया था। निखिल आडवाणी की यह फिल्म काफी पसंद की गई थी। इसमें मुंबई बम धमाकों की खतरनाक झलक देखने को मिलती है। साल 2013 में आई फिल्म 'वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई अगेन' फिल्म भी अंडरवर्ल्ड पर बनी फिल्मों में एक है। इसमें अक्षय कुमार ने दाऊद जैसा किरदार निभाया था। 2013 की फिल्म 'शूटआउट एट वडाला' भी अंडरवर्ल्ड की ही कहानी थी। फिल्म में जॉन अब्राहम, सोनू सूद और मनोज बाजपेयी थे।
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