Wednesday, November 26, 2025

सिनेमा के परदे पर कला और नग्नता के सवाल

- हेमंत पाल 

     फिल्मों में कला और नग्नता के सवाल पर समय-समय पर बड़ा बवाल और बहस छिड़ता रहता है। भारतीय सिनेमा में यह विषय विशेष रूप से संवेदनशील है, जहाँ कलात्मक अभिव्यक्ति, सेंसरशिप और सामाजिक मूल्य आपस में टकराते हैं। भारतीय फिल्मों में नग्नता का चित्रण पश्चिमी सिनेमा की तुलना में बहुत सीमित और रूढ़िवादी है, मुख्यतः भारत की सांस्कृतिक और पारंपरिक विरासत, और सख्त सेंसरशिप के कारण। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड फिल्मों में नग्न और बोल्ड दृश्यों को नियंत्रित करता है। स्पष्ट नग्नता की अनुमति नहीं है और अक्सर फिल्मों को प्रमाणन देने से पहले उनसे ऐसे दृश्य हटाने को कहा जाता है। फिर भी नग्नता, बोल्ड सीन्स या फोटोशूट को लेकर कई बार बड़े सितारे और फिल्में विवादों में आ जाते हैं जैसे आमिर खान की 'पीके' या रणवीर सिंह का फोटोशूट। श्वेता मेनन जैसे कलाकारों पर अश्लीलता फैलाने के आरोप में कानूनी कार्रवाई तक हो चुकी है। कुछ लोग मानते हैं कि नग्नता भी कला का अभिन्न हिस्सा हो सकती है, क्योंकि मानव शरीर का चित्रण सदियों से चित्रकला, मूर्तिकला और साहित्य में रहा है। दूसरी ओर कई लोगों का मानना है कि फिल्मों में नग्नता महिलाओं के वस्त्र पहनने की आदत, सामाजिक मूल्यों की गिरावट और अपराध को बढ़ावा देती है, और यह 'अश्लीलता' की श्रेणी में आती है। 
     जब कोई दृश्य कब 'कला' है और कब वह अश्लीलता, सामाजिक मानदंडों, संदर्भ और प्रस्तुति की शैली के हिसाब से बदलती रहता है इसका कोई मापदंड नहीं है। भारतीय सेंसर बोर्ड के नियम अस्पष्ट है और कभी-कभी मनमाने से लगते हैं। लेकिन, एक प्रकार के दृश्य किसी फिल्म में पास और कभी भी बैन हो सकते हैं। डिजिटल युग में खुले तौर पर उपलब्ध अंतरराष्ट्रीय कंटेंट के कारण 'सेंसरशिप' को लेकर नई बहस भी छिड़ी है कि क्या संस्कृति की रक्षा के नाम पर कलाकारों की स्वतंत्रता बाधित की जा सकती है। फिल्मों में नग्नता का सवाल केवल कलात्मक दृष्टि, अभिव्यक्ति की आज़ादी या सेंसरशिप भर नहीं है, बल्कि यह समाज के नैतिक मूल्यों, सामाजिक प्रगति, सांस्कृतिक बोध और महिलाओं की स्थिति जैसे गहरे सवालों से भी जुड़ा है। हर बार जब कोई फिल्म या दृश्य विवाद में आता है, यह पुराने सवालों को फिर से जीवित कर देता है कि क्या कला के नाम पर सब कुछ जायज है! आखिर कलात्मक नग्नता और अश्लीलता की सीमाएं कौन तय करेगा। इस विषय पर समाज में लगातार मंथन, तर्क-वितर्क और विमर्श की आवश्यकता है, ताकि कला और संवेदनशीलता के बीच संतुलन बना रहे।
    आजादी के कुछ सालों बाद जब देश प्रेम वाली फिल्मों की संख्या घटी, तो फिल्मकारों ने नए विषयों की खोज की! इसके बाद ही नायिका के अंग-प्रत्यंग से दर्शकों को लुभाने के प्रयास शुरू हुए! इस आंधी से राज कपूर व मनोज कुमार जैसे सार्थक फिल्म बनाने वाले निर्माता भी नहीं बच सके। राज कपूर ने 'सत्यम शिवम सुंदरम' व 'राम तेरी गंगा मैली' में तथा मनोज कुमार ने अपनी लगभग सभी फिल्मों में ग्लैमर, सेक्स व अंग प्रदर्शन को बखूबी से भुनाया। लेकिन, इन दोनों ही फिल्मकारों ने ग्लैमर को बहुत ही कलात्मक ढंग और ऐसे दृश्यों को फिल्माया कि उन पर जिस्म प्रदर्शन का आरोप नहीं लगा! जबकि, दूसरी तरफ हृषिकेश मुखर्जी, गुलजार, श्याम बेनेगल तथा प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की ऐसी जमात थी, जो इस आंधी के बीच भी मकसद पूर्ण फिल्में बनाने में लगे रहे! 
     एक ऐसा दौर भी आया जब ऐसी फ़िल्में खूब बनी। 90 और 2000 के दशक को इसी रूप में जाना जाता है, जब सेक्स और व एक्शन फिल्में बहुत बनी! कहा यह गया ये सब डूबते फिल्म उद्योग व ग्लैमर व्यवसाय को बचाने के नाम पर किया गया। 2000 के बाद का दशक जरूरत से ज्यादा बोल्ड निकला। सेक्स व अंग प्रदर्शन के इस फार्मूले को इस दौर में ज्यादा विकृत तरीके से फिल्माया गया। सशक्त एवं सार्थक फिल्म बनाने वाले महेश भट्ट व उनकी अभिनेत्री बेटी पूजा भट्ट ने जिस्म, पाप, मर्डर जैसी फिल्में बनाकर इसे नया चेहरा दे दिया। शोहरत और पैसा कमाने के लालच में कई अभिनेत्रियों ने भी हर तरह के समझौते किए। देखा जाए तो कला का इससे अधिक पतन दूसरी किसी विधा में नहीं हुआ। आदिकाल से ये सवाल जिंदा रहा है कि कला वास्तव में कला के लिए है या जीवन के लिए? कंदराओं में बैठकर कोई कलाकार क्या लिखता, चित्रित करता अथवा गाता है उसका तो समाज पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता! पर, जब जनता के लिए कोई रचना गढ़ी जाती है तो उसका असर मानव मन पर ही नहीं, अंतर्मन पर भी गहरा पड़ता है। 
     यह सर्वमान्य है कि दृश्य काव्य बहुत शीघ्र तथा अधिक काल तक अपना प्रभाव रखता है। देश में महिलाओं को अशिष्ट रूप में प्रस्तुत करने पर दंड देने के लिए कानून है। सीधा सा अर्थ है कि अश्लीलता का मतलब है नग्नता! जबकि, फिल्मों में कई बार कला और कथित स्टोरी की डिमांड के नाम पर महिला शरीरों को निर्लज्जता पूर्वक लगभग बिना कपड़ों के ही दर्शाया जाता है, इसे कौन स्वीकारेगा? हॉलीवुड की फिल्मों में नग्नता और हिंसा के चरम सीमा पर पहुँच जाने, फिल्म-निर्माताओं की असीम आकांक्षा, लालसा और ललक ने भी फिल्म के कलापक्ष का ताबूत खड़ा करने का प्रयास किया! लेकिन, बॉलीवुड के निर्माता यह तथ्य भूल गए कि तीन दशक पहले इसी सेक्स और हिंसा की बैसाखी पर खड़ी जापानी, फ्रेंच, स्वीडन एवं ब्राजील की फिल्मों ने भले ही विश्व बाजार में खड़े होने के पायदान ढूंढ लिए थे। लेकिन, अंततः उनकी यही लालसा उनके पतन का कारण भी बनी! 
    अंत में सशक्त एवं संवेदनशील फिल्मों की ओर लौटकर उन्हें अपनी अस्मिता बचानी पड़ी थी। अन्यथा उस दौर में उन्मुक्त सेक्स व नग्नता का जितना खुला प्रदर्शन जापान, फ्रांस, स्वीडन, बाजील व पोलैंड की फिल्मों में हुआ था, उतना अन्यत्र कहीं नहीं! यहाँ तक कि हॉलीवुड भी इसमें पीछे रह गया था। अब इस दौराहे पर भारतीय फ़िल्मकार क्या करें? सवाल लाख टके का है, पर जवाब तो दर्शक ही देंगे कि वे क्या देखना पसंद करेंगे। लेकिन, भारतीय फिल्मों को अगले स्तर पर ले जाने के लिए दोहरी मानसिकता से निजात पाना जरूरी है। हम खजुराहो जाते हैं और वहां नग्न मूर्तियों को देखकर उसे कला कहते हैं। जबकि, फिल्मों में अगर नग्नता दिखाई जाए तो हम हाय-तौबा मचाते हैं! इस दोहरी मानसिकता से और इस पाखंड से बाहर निकलना होगा। इसलिए जरूरी है कि सरकार और सेंसर बोर्ड को अपनी मानसिकता बदलना होगी।
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हरफनमौला धर्मेंद्र जो किसी पहचान में नहीं बंधे

     फ़िल्मी कथानकों की भूमिकाओं में धर्मेंद्र के अभिनय का सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव हमेशा दिखाई देता रहा है। जिसमें पवित्रता, हास्य, जीवन की नैतिकता और रोमांस का अनूठा संयोजन रहा, जिसने कई पीढ़ियों को प्रभावित किया। फिल्म 'सत्यकाम' भारतीय समाज में ईमानदारी की मिसाल बनी, वहीं 'शोले' और 'चुपके चुपके' में उनका ह्यूमरस पक्ष हमेशा याद किया जाएगा। उनकी 'ही मैन' वाली पहचान एक अलग ही रूप था। धर्मेंद्र के किरदार आज भी भारतीय सिनेमा की विरासत में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। क्योंकि, उन्होंने फिल्मों के नायक को नई पहचान को नया आयाम दिया।
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    सिनेमा के हर अभिनेता को लंबे अरसे तक याद करने की वजह होती है। फिल्म इतिहास में अमिताभ बच्चन को यंग एंग्रीमैन के रूप में जाना जाता है, ऋषि कपूर की पहचान डांसिंग हीरो की थी, तो राजकुमार की पहचान उनके अलग ही तेवर वाले अंदाज के लिए रही। लेकिन, धर्मेंद्र जैसे अभिनेता के साथ ऐसी कोई पहचान नहीं जुड़ी। ‘शोले’ का वीरू मस्तमौला था तो ‘सत्यवान’ में उनका किरदार ईमानदार, नैतिक और संघर्षरत व्यक्ति का था। बंदिनी में वे संवेदनशील डॉक्टर की भूमिका में थे, तो ‘चुपके-चुपके’ में वे उस प्रोफेसर परिमल त्रिपाठी के रोल में थे, जिसने हल्की-फुल्की कॉमेडी से दर्शकों को गुदगुदाया। धर्मेंद्र के करिअर की विशिष्ट भूमिकाएं उनकी बहुमुखी प्रतिभा, नायकत्व और संवाद अदायगी के लिए जानी जाती हैं। उनके कुछ किरदार बॉलीवुड के सबसे यादगार और प्रभावशाली माने जाते हैं। धर्मेंद्र ने एक्शन हीरो के तौर पर भी अपनी छवि बनाई। मेरा गांव मेरा देश, प्रतिज्ञा, जुगनू, समाधि, राजा जानी और ‘हुकूमत’ में साफ दिखाई दिया, जिससे वे ‘ही मैन’ कहे जाते रहे।

      हिंदी सिनेमा के सबसे लोकप्रिय और प्रभावशाली सितारों में धर्मेंद्र की गिनती होती रही है। उनका फिल्म करिअर छह दशकों से अधिक समय तक चला और उन्होंने 300 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया। 1966 में ‘फूल और पत्थर’ से धर्मेंद्र को जबरदस्त लोकप्रियता मिली, इसके बाद वे ‘एक्शन हीरो’ और ‘ही-मैन’ के रूप में पहचाने गए। 1970 के दशक में वे सबसे ज्यादा कमाई करने वाले सितारों में शामिल थे और एक साल में ही 9 से 12 फिल्में रिलीज़ होने का रिकॉर्ड भी उनके नाम रहा था। ‘शोले’ (1975) में वीरू के किरदार ने उन्हें सबसे बड़ी पहचान दी। लेकिन, वे सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहे। सत्यकाम, चुपके-चुपके, मेरा गांव मेरा देश, धरमवीर, सीता और गीता, द बर्निंग ट्रेन, हुकूमत, प्रतिज्ञा, नौकर बीवी का जैसी फिल्मों के लिए भी उन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा।
      रोमांटिक, एक्शन, कॉमेडी और थ्रिलर समेत हर शैली की फिल्मों में उन्होंने सफलता पाई। लेकिन, ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों ने उनके करिअर को नई ऊंचाई दी। ‘सत्यकाम’ और ‘चुपके-चुपके’ इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। धर्मेंद्र सिनेमा के ऐसे सितारा रहे, जिन्होंने अभिनय, एक्शन, रोमांस और सामाजिक संदेश वाली फिल्मों के जरिए अपने चाहने वालों के दिलों पर गहरी छाप छोड़ी। उनके अभिनय की विरासत फिल्म इंडस्ट्री में हमेशा अमिट रहेगी। धर्मेंद्र ने कई फिल्मों में हास्य, जोश और भावुकता का अद्भुत मिश्रण पेश किया। दरअसल, उनकी ऐसी भूमिकाएं सिनेमा की सबसे प्रतिष्ठित भूमिकाओं में गिनी जाती हैं। ‘फूल और पत्थर’ के शाका में वे नेकदिल इंसान के रोल में दिखाई दिए तो ‘अनुपमा’ का राम रोमांटिक और संवेदनशील चरित्र था, जिसका चर्चित काव्यात्मक अंदाज दर्शक आज भी नहीं भूले। 
    धर्मेंद्र ऐसे अभिनेता रहे, जिन्होंने हर भूमिका, हर जॉनर में अपने अभिनय का जादू बिखेरा और हिंदी सिनेमा की परंपरा को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। अपने अभिनय में उन्होंने एक्शन, रोमांस, कॉमेडी और ड्रामा हर भूमिका में बेजोड़ अदाकारी की और अपनी बहुमुखी प्रतिभा से दर्शकों को प्रभावित किया। उन्होंने ‘फूल और पत्थर’ और ‘मेरा गांव मेरा देश’ जैसी फिल्मों में सख्त और साहसी नायक का किरदार निभाया, वहीं ‘चुपके चुपके’ और ‘प्रतिज्ञा’ में हल्का-फुल्का रोल निभाया। इससे उनकी कॉमिक टाइमिंग सामने आई। ‘शोले’ में चुलबुले लेकिन निडर वीरू और ‘अनुपमा’ में विचारशील लेखक बनकर उन्होंने अपने अभिनय की गहराई को दर्शाया। ‘हकीकत’ जैसी फिल्म में युद्ध के दृश्यों और भावनाओं को, और ‘लोफर’ जैसी फिल्मों में रोमांटिक व कॉमिक किरदार को उन्होंने जीवंत बनाया।
     धर्मेंद्र अपने अभिनय काल में ‘ही मैन’ के नाम से मशहूर रहे हैं। लेकिन, एक्शन के साथ भावनात्मक और हास्य भूमिका में भी वे उतने ही सशक्त दिखे। उनके करिअर में 300 से अधिक फिल्में दर्ज हैं। उनके खाते में पद्मभूषण जैसे सम्मान के साथ कई यादगार ब्लॉकबस्टर फिल्में भी हैं। 1997 में फिल्मफेयर का लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के साथ, हिंदी सिनेमा में योगदान के लिए उन्हें कई पुरस्कार मिले। उन्‍होंने हर दौर में अपनी छवि को बरकरार रखते हुए फिल्मों में सक्रियता बनाए रखी। चरस, शोले, राजपूत, कातिलों के कातिल और ‘समधी’ आदि इसी का प्रमाण है। उनकी एक्टिंग स्टाइल में सहजता, इमोशन और दर्शकों से जुड़ने की क्षमता हमेशा कायम रही। उनकी अभिनय शैली में समय के साथ गहरी परिपक्वता और विविधता आई। शुरुआती दौर में वे रोमांटिक और संवेदनशील किरदारों के लिए पहचाने गए।
     वर्ष 1970 के दशक में एक्शन हीरो के रूप में उनका बोलबाला हुआ और बाद के सालों में उन्होंने भावनात्मक और चरित्र प्रधान भूमिकाएं की। धर्मेंद्र की छवि रोमांटिक हीरो और संवेदनशील पात्रों की भी रही। अनुपमा, बंदिनी और ‘हकीकत’ जैसी फिल्मों में उनके अभिनय में मासूमियत, सहजता और कोमलता प्रमुख रही। लेखकों तथा निर्देशकों के निर्देशन में उन्होंने साहित्यिक, दार्शनिक और आदर्शवादी किरदारों को गहराई से निभाया। लेकिन, उनका शुरुआती समय संघर्ष से भरा रहा। 8 दिसंबर, 1935 को पंजाब में जन्मे इस कलाकार के फिल्मी सफर की शुरुआत 1960 में अर्जुन हिंगोरानी की फिल्म ‘दिल भी तेरा हम भी तेरे’ से हुई थी। शुरू में उन्हें साधारण भूमिकाएं मिलीं, लेकिन जल्दी ही उनके अभिनय और व्यक्तित्व ने दर्शकों को आकर्षित करना शुरू कर दिया।
    उम्र बढ़ने के साथ धर्मेंद्र ने सपोर्टिंग और चरित्र प्रधान भूमिका निभानी शुरू की। प्यार किया तो डरना क्या, लाइफ इन अ मेट्रो, अपने और ‘यमला पगला दीवाना’ जैसी फिल्मों में अपनापन, विनम्रता और हंसमुख अंदाज देखने को मिला। भावनात्मक दृश्य निभाने में नयापन और अनुभव की परछाई उनके अभिनय में साफ झलकी। धर्मेन्द्र के अभिनय का हर दौर, बदलते सामाजिक और फिल्मी चलनों के हिसाब से ढलता गया। कभी रोमांटिक, कभी एक्शन, कभी हास्य और अंत में पारिवारिक किरदारों में उनकी सादगी और गहराई दर्शकों के दिलों में आज भी ताजा है। इसी दौर में उनकी अनोखे किरदारों में आत्मविश्वास, ऊर्जा और ‘ही-मैन’ वाली मर्दानगी छवि जुड़ गई।
     धर्मेंद्र की अभिनय यात्रा के सबसे यादगार पल ‘शोले’ में रहा। रोमांच से भरपूर उनकी वो अदाकारी धर्मेंद्र की सबसे लोकप्रिय छवियों में एक है। इसके अलावा ‘सत्यकाम’ का सत्यप्रिय, ईमानदार, आदर्शवादी और जज़्बाती किरदार में गहन भावुकता भी उनके करिअर का सर्वश्रेष्ठ अभिनय क्षण माना जाता है। ‘चुपके चुपके’ में प्रोफेसर परिमल त्रिपाठी का हास्य और मासूमियत के साथ उनके अभिनय ने क्लासिक कॉमेडी को नई जान दी। ‘फूल और पत्थर’ का शाका का जबरदस्त स्क्रीन प्रेज़ेंस भी याद किया जाता है। एक रफ एंड टफ किरदार के साथ धर्मेंद्र ने हिंदी फिल्मों में नायक की छवि को नया मोड़ दिया था। ‘अनुपमा’ में धर्मेंद्र के किरदार अशोक का सादगी और संवेदनशीलता से भरा किरदार उनके अभिनय की गहराई को दर्शाता है।
     धर्मेंद्र के जीवन का सबसे श्रेष्ठ अभिनय ज़्यादातर आलोचकों की नज़र में फिल्म ‘सत्यकाम’ की भूमिका को माना जाता है। जबकि, लोकप्रियता के स्तर पर ‘शोले’ (वीरू) और ‘चुपके चुपके’ (परिमल) को भी उनकी शिखर-प्रदर्शन की श्रेणी में रखा जाता है। आलोचकों के हिसाब से कई फ़िल्मी आलोचक इसे धर्मेंद्र के करिअर का बेस्ट परफॉर्मेंस कहकर ‘सत्यकाम’ में उनके आदर्शवादी, अंदर से टूटे हुए नायक की भूमिका को सबसे ऊंचा दर्जा देते हैं। लेकिन, अब इस हरफनमौला अभिनेता की हर भूमिका का खाता बंद हो गया। अब जबकि, धर्मेंद्र हमारे बीच नहीं हैं, उन्हें उनकी फिल्मों के किरदार से ही हमेशा याद किया जाता रहेगा।
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Monday, November 24, 2025

ये है 21वीं सदी की सबसे पसंदीदा फिल्म

   

   'इंटरनेट मूवी डाटाबेस' ने बीते 25 सालों की सबसे सफल फिल्मों में 'थ्री इडियट्स' को श्रेष्ठ फिल्म माना। इस फिल्म ने देश के एजुकेशन सिस्टम पर गंभीर सवाल उठाने के साथ पेरेंट्स के हालात और उनकी दिमागी स्थिति को भी दिखाया। फिल्म में कोई ज्ञान का संदेश नहीं दिया गया था, दर्शक को इसमें भरपूर मनोरंजन मिला। यही वजह है कि स्टूडेंट्स से लेकर उनके पैरेंट्स तक को इस फिल्म ने गहराई से छुआ। क्योंकि, दर्शकों ने फिल्म के जरिए जो महसूस किया वो सिनेमाघर से बाहर निकलकर ही किया। सिर्फ देश में ही नहीं, दुनिया के कई देशों में भी इस फिल्म को पसंद किया गया। इस फिल्म में आमिर खान ने सिस्टम के खिलाफ बगावत का प्रतीक बन गए 'रैंचो' का किरदार निभाया है।  
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- हेमंत पाल

     यदि पुराने फिल्म दर्शकों से सवाल किया जाए कि बीते 25 सालों में उनकी सबसे ज्यादा पसंदीदा फिल्म कौन सी है, तो निश्चित रूप से सभी के जवाब एक नहीं होंगे। क्योंकि, फिल्मों को लेकर हर दर्शक का नजरिया अलग होता है। किसी को रोमांटिक फिल्म पसंद है, तो किसी को एक्शन वाली। ऐसे दर्शक भी कम नहीं हैं, जिनकी पहली पसंद सामाजिक कथानकों वाली फ़िल्में होती है। साथ ही कॉमेडी फ़िल्में के मुरीद भी कम नहीं। फ़िल्में मनोरंजन का जरिया जरूर होती है, पर बात सिर्फ वहीं तक सीमित नहीं है। आज के संदर्भ में पसंदीदा फिल्म का नाम तलाशा जाए, तो कारोबारी सफलता और फिल्म देखने वालों की पसंद के आधार पर ये फिल्म है 'थ्री इडियट्स!' इस फिल्म को देश ही नहीं दुनियाभर के दर्शकों ने भी बेहद पसंद किया। आईएमडीबी ने दुनियाभर की 'ग्लोबल टॉप 250' फिल्मों की जो सूची बनाई, उसमें राजकुमार हिरानी की फिल्म 'थ्री इडियट्स' (2009) भी है। आईएमडीबी (इंटरनेट मूवी डाटाबेस) के अनुसार आमिर खान की इस फिल्म को 21वीं सदी की सबसे बड़ी हिट फिल्म माना गया है। 
     आईएमडीबी की इस रिपोर्ट को 250 मिलियन मंथली यूजर्स से मिले डाटा के आधार पर तैयार किया गया। रिपोर्ट में बताया गया कि ‘थ्री इडियट्स’ ने अपने वर्ल्डवाइड पेज व्यूज और नॉन-इंडियन व्यूअर्स की इंगेजमेंट के आधार पर यह उपलब्धि हासिल की। स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म जैसे नेटफ्लिक्स और अमेजन प्राइम ने इसे ग्लोबल ऑडियंस तक पहुंचाया, जहां ये नॉन-इंडियन व्यूअर्स के बीच भी छाई रही। 'आईएमडीबी' आज ऐसा प्लेटफॉर्म बन गया, जो सिनेमा के दर्शकों को बताता है कि सिनेमाघरों और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर किन फिल्मों को ज्यादा पसंद किया गया और इन्हें दर्शकों से सबसे ज्यादा रेटिंग मिली। यह भी सच है कि दर्शक इन दिनों फिल्म देखने का फैसला 'आईएमडीबी' रेटिंग के हिसाब से करते हैं। 'आईएमडीबी' ने अपनी पिछले 25 साल की टॉप फिल्मों के बारे में बताया कि 2000 के बाद रिलीज हुई फिल्मों को व्यूज के आधार पर रैंक किया गया है। 130 फिल्मों पर आधारित इस रिपोर्ट में हर साल की 5 फिल्मों को शामिल किया गया था, जिन्हें डेटासेट कहा गया।
    'आईएमडीबी' की रिपोर्ट में सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर भारतीय फिल्म '3 इडियट्स' को चुना गया। यह फिल्म इंजीनियरिंग कॉलेज के कैंपस में स्टूडेंट्स की जिंदगी, उनकी दोस्ती और भविष्य के सपनों की कहानी पर बनी है। फिल्म के नायक आमिर खान हैं, जिन्हें इंडस्ट्री का 'मिस्टर परफेक्शनिस्ट' कहा जाता है। आमिर खान ने अपनी फिल्मों से हमेशा दर्शकों को चौंकाया है। उनकी इस फिल्म ने 21वीं सदी में हिंदी फिल्मों में दूसरों के मुकाबले सबसे ज्यादा सफलता पायी। 'ग्लोबल टॉप 250' फिल्मों की लिस्ट में इस फिल्म को 85 वें स्थान पर जगह मिली, जो किसी भी भारतीय फिल्म के लिए अभी तक की सबसे ऊंची रैंक है। सामान्यतः अमिताभ बच्चन, शाहरुख़ खान, सलमान खान और रणबीर कपूर जैसे सितारे फिल्मों में छाए रहते हैं। 
     इनके मुकाबले आमिर खान बेहद सीमित और चुनिंदा फ़िल्में करते हैं। पर, उनकी इस फिल्म ने सभी सितारों को पीछे छोड़ दिया। यही वजह है कि ये फिल्म 21वीं सदी की सबसे पॉपुलर और सबसे ज्यादा देखी जाने वाली भारतीय हिंदी फिल्म बन गई। विदेशी दर्शकों के बीच इस फिल्म की दीवानगी इतनी है कि यह इंटरनेट पर हर साल ट्रेंड कर जाती है। चीन, ताईवान, साउथ कोरिया और मिडिल ईस्ट जैसे सिनेमा मार्केट में भी 'थ्री इडियट्स' को दर्शकों का प्यार मिला। चीन में तो यह अभी तक की सबसे ज्यादा हिट इंडियन फिल्म साबित हुई है। 
    चेतन भगत के उपन्यास 'फाइव पॉइंट समवन' पर आधारित राजकुमार हिरानी की यह फिल्म 2009 में रिलीज हुई थी। इसमें आमिर खान ने सिस्टम के खिलाफ बगावत का प्रतीक बन गए 'रैंचो' का किरदार निभाया। '3 इडियट्स' की सफलता का पैमाना इतना हाई है, कि इसने आमिर की दूसरी फिल्मों जैसे तारे जमीं पर, माय नेम इज खान, साथ ही 'मॉनसून वेडिंग' को भी पीछे छोड़ा। ये फिल्में इंटरनेशनल ऑडियंस में भी पॉपुलर रहीं। लेकिन, इसका स्कोर 60 से नीचे रहा। आमिर की फिल्मों का क्रॉस-कल्चरल अपील ही उन्हें 'ग्लोबल स्टार' बनाता है। दरअसल, इस फिल्म ने साबित किया कि अगर कहानी में दम हो और उससे मिलने वाला संदेश सही हो, तो फिल्म को सफल होने से रोका नहीं जा सकता। '3 इडियट्स' के बारे में कहा जाता है कि यह सिर्फ फिल्म नहीं, एक इमोशन है!' फिल्म में आमिर के साथ आर माधवन, शरमन जोशी, करीना कपूर, बोमन ईरानी और ओमी वैद्य ने अपने अभिनय से जान डाल दी।
    यह फिल्म क्रिटिकल और कमर्शियल दोनों रूप से जबरदस्त हिट रही। बॉक्स ऑफिस पर 200 करोड़ से ज्यादा की कमाई की और कई अवॉर्ड झटके। फिल्म ने दुनियाभर में करीब 400 करोड़ से ज्यादा की कमाई की। अपने समय काल में यह फिल्म इंडस्ट्री की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बनी थी। इस फिल्म की एक सबसे बड़ी खासियत यह भी रही कि इसके डायलॉग ने दर्शकों को बहुत प्रभावित किया। आल इज वेल, सफलता के पीछे मत भागो, काबिलियत बढ़ाओ ... सफलता ज़रूर तुम्हारे पीछे आएगी' जैसे प्रभावशाली डायलॉग आज भी युवाओं के लिए सफलता का मंत्र बने हैं। इस फिल्म को उस साल बेस्ट फिल्म सहित 6 फिल्मफेयर अवार्ड मिले थे। 
     2020 से 2025 तक रिलीज हुई टॉप फिल्मों की लिस्ट पर नजर डालें, तो इसमें बड़े सुपरस्टार की फ़िल्में कम ही है। 2020 में जहां सुशांत सिंह राजपूत की 'दिल बेचारा' ने बाजी मारी, वहीं 2021 में साउथ के सितारे अल्लू अर्जुन की 'पुष्पा' टॉप पर रही। 2022 में कन्नड़ कलाकार यश की केजीएफ चैप्टर 2, 2023 में रणबीर कपूर की 'एनिमल' टॉप पर रही। जबकि, 2023 में शाहरुख खान की तीन फिल्में पठान, जवान और 'डंकी' रिलीज हुई। 2024 में अल्लू अर्जुन की 'पुष्पा 2' टॉप पर रही, जिसने बॉक्स ऑफिस पर भी धुआंधार कलेक्शन किया। 'आईएमडीबी' की लिस्ट में 2000 से 2004 तक लगातार शाहरुख की फिल्मों का कब्जा रहा। 2000 में मोहब्बतें, 2001 में कभी खुशी कभी गम, 2002 में देवदास, 2003 में कल हो न हो और 2004 में वीर जारा ने टॉप पर रहीं। इसके अलावा इस लिस्ट में आमिर खान की तारे जमीन पर (2007), 3 ईडियट्स (2009), पीके (2014), दंगल (2016) जैसी फिल्में भी रिलीज ईयर के हिसाब से टॉप पर रहीं।
     बीतें 25 सालों में टॉप पर रहने वाली फिल्मों की लिस्ट इस प्रकार रही। मोहब्बतें (2000), कभी खुशी कभी गम (2001), देवदास (2002), कल हो न हो (2003), वीर-जारा (2004), ब्लैक (2005), धूम-2 (2006), तारे जमीं पर (2007), रब ने बना दी जोड़ी (2008), 3 इडियट्स (2009), माय नेम इज खान (2010), जिंदगी न मिलेगी दोबारा (2011), गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012), द लंचबॉक्स (2013), पीके (2014), बाहुबली (2015), दंगल (2016), बाहुबली-2 (2017), केजीएफ (2018), उरी (2019), दिल बेचारा (2020), पुष्पा-1 (2021), केजीएफ-2 (2022), एनिमल (2023), पुष्पा-2 (2024) और सैयारा (2025) 
     'आईएमडीबी' की रिपोर्ट में साल 2000 से 2025 की सबसे पॉपुलर फिल्मों के बारे में बताया गया। खास बात यह कि 2025 में अक्षय कुमार-अरशद वारसी की 'जॉली एलएलबी', ऋतिक रोशन-जूनियर एनटीआर की 'वॉर 2' और रजनीकांत की 'कुली' जैसी फिल्में रिलीज हुईं। लेकिन, इन तमाम बड़े सितारों की फिल्म को एक नए एक्टर की फिल्म सैयारा' ने पछाड़ दिया। इसके साथ अहान पांडे ने डेब्यू किया है। 'सैयारा' ने इस लिस्ट में विक्की कौशल की 'छावा' को पछाड़ा है, जो लिस्ट में दूसरे नंबर पर रही। इस साल की टॉप फिल्मों की लिस्ट में महावतार नरसिम्हा तीसरे, ड्रैगन चौथे और सुपरस्टार रजनीकांत की 'कुली' पांचवे नंबर पर रही।
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Tuesday, November 11, 2025

कई रूपों में याद किए जाते रहेंगे धर्मेंद्र

   चरित्रों का सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव धर्मेंद्र की भूमिकाओं में साफ़ दिखाई दिया। जिसमें पवित्रता, हास्य, नैतिकता और रोमांस का अनूठा संयोजन रहा, जिसने कई पीढ़ियों को प्रभावित किया। 'सत्यकाम' भारतीय समाज में ईमानदारी की मिसाल बनी, वहीं 'शोले' और 'चुपके चुपके' में उनका ह्यूमरस पक्ष हमेशा याद किया जाएगा। धर्मेंद्र के किरदार आज भी भारतीय सिनेमा की विरासत में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और फिल्मों के नायकत्व की पहचान को नया आयाम दिया।

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- हेमंत पाल

    हर फिल्म अभिनेता को याद करने की एक वजह होती है। अमिताभ बच्चन को यंग एंग्री मैन के रूप में जाना जाता है, ऋषि कपूर पहचान डांसिंग हीरो की थी तो राजकुमार को उनके अलग ही अंदाज के लिए है। लेकिन, धर्मेंद्र के साथ ऐसी कोई पहचान नहीं जुड़ी। 'शोले' का वीरू मस्तमौला था 'सत्यवान' में उनका किरदार ईमानदार, नैतिक संघर्षरत व्यक्ति का था। बंदिनी में वे संवेदनशील डॉक्टर की भूमिका में थे, तो 'चुपके-चुपके' में वे उस प्रोफ़ेसर परिमल त्रिपाठी के रोल में थे, जिसने हल्की-फुल्की कॉमेडी से दर्शकों को गुदगुदाया। धर्मेंद्र के करियर की विशिष्ट भूमिकाएं उनकी बहुमुखी प्रतिभा, नायकत्व और संवाद अदायगी के लिए जानी जाती हैं। उनके कुछ किरदार बॉलीवुड के सबसे यादगार और प्रभावशाली माने जाते हैं।.धर्मेंद्र ने एक्शन हीरो के तौर पर भी अपनी छवि बनाई। मेरा गाँव मेरा देश, प्रतिज्ञा, जुगनू, समाधि, राजा जानी, और 'हुकूमत' में यह साफ दिखाई भी दिया, जिससे वे 'ही मैन' कहे जाते रहे।
      धर्मेंद्र हिंदी सिनेमा के सबसे लोकप्रिय और प्रभावशाली सितारों में रहे। उनका फिल्म करियर छह दशकों से अधिक समय तक चला। उन्होंने 300 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया। 1966 में ‘फूल और पत्थर’ से धर्मेंद्र को जबरदस्त लोकप्रियता मिली, इसके बाद वे 'एक्शन हीरो' और 'ही-मैन' के रूप में पहचान गए। 1970 के दशक में वे सबसे ज़्यादा कमाई करने वाले सितारों में शामिल थे और एक साल में ही 9 से 12 फिल्में रिलीज़ होने का रिकॉर्ड भी उनके नाम रहा था। ‘शोले’ (1975) में वीरू का किरदार उनके करियर की सबसे बड़ी पहचान बना। लेकिन, वे सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहे। सत्यकाम, चुपके-चुपके, मेरा गाँव मेरा देश, धरमवीर, सीता और गीता, द बर्निंग ट्रेन, हुकूमत, प्रतिज्ञा, नौकर बीवी का जैसी फिल्मों के लिए भी उन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा।
     धर्मेंद्र ने रोमांटिक, एक्शन, कॉमेडी, थ्रिलर हर शैली की फिल्मों में सफलता पाई। लेकिन, ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों ने उनके करियर को नई ऊंचाई दी। 'सत्यकाम' और 'चुपके-चुपके' इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। धर्मेंद्र हिंदी सिनेमा का एक ऐसा सितारा हैं, जिन्होंने अभिनय, एक्शन, रोमांस और सामाजिक संदेश वाली फिल्मों के माध्यम से चाहने वालों के दिलों में गहरी छाप छोड़ी। उनकी विरासत सदा बॉलीवुड में अमिट रहेगी। धर्मेंद्र ने कई फिल्मों में हास्य, जोश और भावुकता का अद्भुत मिश्रण पेश किया। उनकी ऐसी भूमिकाएं हिंदी सिनेमा की सबसे प्रतिष्ठित भूमिकाओं में आती है।.'सत्यकाम' में धर्मेंद्र ने ईमानदार, नैतिक संघर्षरत व्यक्ति का रोल निभाया, जिसे आलोचकों और दर्शकों दोनों ने सर्वश्रेष्ठ मान्यता दी। जबकि, 'बंदिनी' में उन्होंने संवेदनशील डॉक्टर का किरदार निभाया तो 'चुपके-चुपके' में मानवीय मूल्यों और सहानुभूति के प्रतीक.प्रोफेसर परिमल त्रिपाठी बने, जिसमें हल्की-फुल्की कॉमेडी में उनकी अभिनय क्षमता का हास्य रूप सामने आया। 'फूल और पत्थर' का शाका में वे नेकदिल इंसान के रोल में दिखाई दिए। 'अनुपमा' का राम रोमांटिक और संवेदनशील चरित्र था जिसका चर्चित काव्यात्मक अंदाज दर्शक आज भी नहीं भूले।
    धर्मेंद्र ऐसे अभिनेता हैं, जिन्होंने हर भूमिका, हर जॉनर में अपने अभिनय का जादू बिखेरा और हिंदी सिनेमा की परंपरा को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। एक्शन, रोमांस, कॉमेडी और ड्रामा हर भूमिका में बेजोड़ अदाकारी की और अपनी बहुमुखी प्रतिभा से दर्शकों को हमेशा प्रभावित किया। उन्होंने 'फूल और पत्थर' और 'मेरा गांव मेरा देश' जैसी फिल्मों में सख्त और साहसी नायक का किरदार निभाया, वहीं 'चुपके चुपके' और 'प्रतिज्ञा' में हल्का-फुल्का रोल अदा किया, जिससे उनकी कॉमिक टाइमिंग सामने आई। 'शोले' में चुलबुले लेकिन निडर वीरु और 'अनुपमा' में विचारशील लेखक बनकर उन्होंने अपने अभिनय की गहराई को दर्शाया। 'हकीकत' जैसी फिल्म में युद्ध के दृश्यों और भावनाओं को, और 'लोफर' जैसी फिल्मों में रोमांटिक व कॉमिक किरदार को उन्होंने जीवंत बनाया।
     धर्मेन्द्र 'ही मैन' के नाम से मशहूर रहे हैं, लेकिन एक्शन के साथ भावनात्मक और हास्य भूमिका में भी वे उतने ही सशक्त दिखे। उनके करियर में 300 से अधिक फिल्में हैं। उनके खाते में पद्मभूषण जैसे सम्मान के साथ कई यादगार ब्लॉकबस्टर फिल्में भी हैं। 1997 में फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के साथ, हिंदी सिनेमा में योगदान के लिए उन्हें कई पुरस्कार मिले। उन्‍होंने हर दौर में अपनी छवि को बरकरार रखते हुए फिल्मों में सक्रियता बनाए रखी। चरस, शोले, राजपूत, कातिलों के कातिल और 'समधी' आदि इसी का प्रमाण है। उनकी एक्टिंग स्टाइल में सहजता, इमोशन और दर्शकों से जुड़ने की क्षमता हमेशा कायम रही। उनकी की अभिनय शैली में समय के साथ गहरी परिपक्वता और विविधता आई। शुरुआती दौर में वे रोमांटिक और संवेदनशील किरदारों के लिए पहचाने गए। 1970 के दशक में एक्शन हीरो के रूप में उनका बोलबाला हुआ और बाद के सालों में उन्होंने भावनात्मक और चरित्र प्रधान भूमिकाएं की। धर्मेन्द्र की छवि रोमांटिक हीरो और संवेदनशील पात्रों की रही। अनुपमा, बंदिनी और 'हकीकत' जैसी फिल्मों में उनके अभिनय में मासूमियत, सहजता और कोमलता प्रमुख रही। लेखकों तथा निर्देशकों के निर्देशन में उन्होंने साहित्यिक, दार्शनिक और आदर्शवादी किरदारों को गहराई से निभाया।
      धर्मेंद्र का शुरुआत समय संघर्ष से भरा रहा। 8 दिसंबर 1935 को पंजाब में जन्मे इस कलाकार के फिल्मी सफर की शुरुआत 1960 में अर्जुन हिंगोरानी की फिल्म 'दिल भी तेरा हम भी तेरे' से हुई थी। शुरुआती दौर में उन्हें साधारण भूमिकाएं मिलीं, लेकिन जल्दी ही उनके अभिनय और व्यक्तित्व ने दर्शकों को आकर्षित करना शुरू कर दिया। उम्र बढ़ने के साथ धर्मेन्द्र ने सपोर्टिंग और चरित्र प्रधान भूमिकाएँ निभानी शुरू की। प्यार किया तो डरना क्या, लाइफ इन अ मेट्रो, अपने और 'यमला पगला दीवाना' जैसी फिल्मों में अपनापन, विनम्रता और हँसमुख अंदाज देखने को मिला। भावनात्मक दृश्य निभाने में नयापन और अनुभव की परछाई उनके अभिनय में साफ झलकी। धर्मेन्द्र के अभिनय का हर दौर, बदलते सामाजिक और फिल्मी चलनों के हिसाब से ढलता गया। कभी रोमांटिक, कभी एक्शन, कभी हास्य और अंत में पारिवारिक किरदारों में उनकी सादगी और गहराई दर्शकों के दिलों में आज भी ताजा है। इसी दौर में उनकी अनोखे किरदारों में आत्मविश्वास, ऊर्जा और ‘ही-मैन’ वाली मर्दानगी छवि जुड़ गई। लेकिन, अब इस हरफनमौला अभिनेता की हर भूमिका का खाता बंद हो गया। अब धर्मेंद्र को उनकी फिल्मों से याद किया जाता रहेगा।  
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'हक़' से फिर चर्चित हुआ इंदौर का शाहबानो विवाद

- हेमंत पाल 

      फिल्मों के साथ कानूनी विवाद जुड़े होना नई बात नहीं है। ऐसी फिल्मों की कहानी बहुत लंबी है। ऐसी कई फ़िल्में हैं, जो रिलीज से पहले कानूनी झमेलों में फंसी और निपटारे के बाद ही ही उन्हें परदे का मुंह देखना नसीब हुआ। कई फ़िल्में तो इतनी ज्यादा उलझन में आई कि वास्तविक फिल्म कभी रिलीज ही नहीं हो सकी। ऐसी फिल्मों में आपातकाल के दौर की फिल्म 'किस्सा कुर्सी का' विवाद सबसे ज्यादा चर्चित हुआ। उसके बाद भी कई फिल्मों को लेकर ऐसे विवाद हुए। ताजा दौर में इमरजेंसी, जॉली एलएलबी-3, छावा और मराठी फिल्म 'फुले' भी ऐसे मसलों में फंसकर निकली। 
     नया विवाद इंदौर के चर्चित शाहबानो प्रकरण पर आधारित फिल्म 'हक़' को लेकर उठा, जिसने मुस्लिम महिलाओं के अधिकार की नींव रखी।  इस मसले पर 1985 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर नई बहस छेड़ दी थी। तीन तलाक की प्रथा के खिलाफ उनकी लड़ाई ने न सिर्फ व्यक्तिगत न्याय की मांग की, बल्कि यह फैसला पूरे समाज के लिए मिसाल बना। इसके 33 साल बाद, जब 2019 में तीन तलाक को अवैध घोषित करने वाला कानून लागू हुआ, तो यह शाहबानो की उस जीत का प्रतीक था, जो अलख उन्होंने जगाई थी। अब इस संघर्ष की कहानी बड़े परदे उतारी गई, जिस पर कानूनी विवाद हुआ। लेकिन, हाई कोर्ट ने इसे स्वीकार नहीं किया और फिल्म की रिलीज को हरी झंडी दिखाई। फिल्म 'हक' के जरिए अब दुनिया तीन तलाक को कोर्ट ले जाने वाली शाहबानो के संघर्ष की कहानी देखेगी। 
     यह फिल्म एक ड्रामा है, जो मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले से प्रेरित है। फिल्म पर्सनल लॉ और सेक्युलर लॉ के बीच की बहस को सामने लाती है। इसमें इमरान हाश्मी और यामी गौतम की मुख्य भूमिकाएं हैं। दरअसल, 'हक़' की कहानी जिग्ना वोरा की किताब 'बानो: भारत की बेटी' पर आधारित एक काल्पनिक और नाटकीय कहानी है। जबकि, वास्तव में यह घटना शाहबानो बेगम के पुरुष प्रधान समाज में अपने स्वाभिमान और हक़ के लिए लड़ी सच्ची घटना है। यह बहस मुस्लिम समाज में आज भी प्रासंगिक है। इस फिल्म में ये मुद्दे गंभीरता से उठाए गए हैं कि क्या न्याय के अवसर सभी के लिए समान नहीं होना चाहिए! अब एक राष्ट्र, एक कानून का समय आ गया! व्यक्तिगत आस्था और धर्मनिरपेक्ष कानून के बीच की कैसी रेखा होना चाहिए यह मुद्दा भी उठा। 
   इसके अलावा यह सवाल भी उठा कि क्या अब समान नागरिक संहिता की जरूरत महसूस नहीं हो रही। फिल्म ने ऐसे कई सवालों को पुरजोर तरीके से उठाया है। 'हक़' बनाने वाली जंगली पिक्चर्स ने हमेशा ही ऐसी फिल्में बनाई है, जो सामान्य से कुछ अलग होती हैं और समाज के पुराने नियमों को चुनौती देती हैं। राज़ी, तलवार और 'बधाई दो' जैसी फिल्में बनाने के बाद जंगली पिक्चर्स ने अब मुस्लिम महिलाओं के इस मुद्दे को उठाया। 'आर्टिकल 370' के बाद यामी गौतम 'हक़' में नए कलेवर में दिखाई दी। फिल्म में वे ऐसी मुस्लिम महिला की भूमिका में है, जो अन्याय के सामने झुकने से इंकार करती है। वह गलत तरीके से बेसहारा की गई औरत की भूमिका में है, जो अपने और अपने बच्चों के लिए धारा 125 के तहत अपने 'हक' की मांग करते हुए कोर्ट में एक बड़ी लड़ाई लड़ती है और अंततः जीतती है।
     परित्यक्ता मुस्लिम महिलाओं को भरण-पोषण की राशि पाने के अधिकार की नींव जिस शाहबानो केस से ही पड़ी थी, उस पर बनी फिल्म 'हक' को रिलीज से पहले कानूनी विवाद का सामना करना पड़ा। शाहबानो की बेटियों ने फिल्म की कहानी पर ऐतराज जताया। फिल्म में उनकी मां के निजी जीवन को दिखाया गया, जिस पर उन्होंने आपत्ति उठाई। सुप्रीम कोर्ट तक संघर्ष करने वाली इंदौर की महिला शाहबानो की बेटियों ने फिल्म पर ऐतराज जताया है कि फिल्म में उनकी मां के निजी जीवन को दिखाया गया है। उनका तर्क था कि फिल्म बनाने के लिए उनसे अनुमति नहीं ली गई। इस कारण फिल्म 'हक' की रिलीज पर रोक लगाने की मांग की गई। लेकिन, मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने फिल्म 'हक' की रिलीज पर रोक लगाने से इनकार कर दिया।
    विवादों से परे शाहबानो की कहानी हमेशा याद दिलाएगी कि एक महिला की दृढ़ता कानून, समाज और परंपरा तीनों को बदलने की ताकत रखती है। अदालत ने कहा कि यह फिल्म स्पष्ट रूप से काल्पनिक और नाटकीय रूपांतरण है। फिल्म 1985 के सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले से भी प्रेरित है। फैसले में कहा कि फिल्म के डिस्क्लेमर में यह साफ लिखा है कि यह एक काल्पनिक रचना है, जो किसी व्यक्ति की सच्ची कहानी नहीं है। इसलिए इसे गलत चित्रण या मनगढ़ंत कहानी नहीं कहा जा सकता। अदालत ने माना कि जब कोई फिल्म वास्तविक घटनाओं से प्रेरित होती है, तो उसमें कुछ रचनात्मक छूट दी जा सकती है, और केवल कुछ व्यक्तिगत या नाटकीय विवरण जोड़ने से उसे आपत्तिजनक नहीं कहा जा सकता। 
      'हक़' के अलावा भी कई फिल्मों को लेकर अदालती विवाद हुए हैं। प्रतीक गांधी और पत्रलेखा की फिल्म ‘फुले' पर भी ‘ब्राह्मणों' के अपमान का आरोप लगा और विवाद हुआ। ब्राह्मण समुदाय ने फिल्म के खिलाफ आपत्ति जताई और उन्हें अपमानित करने का आरोप लगाया, विरोध के बाद सेंसर बोर्ड ने फिल्म में कई कट लगाए और आखिरकार सिनेमाघरों में दर्शकों के सामने फिल्म आने में सफल रही। 'फुले' सामाजिक कार्यकर्ता ज्योतिराव गोविंदराव फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित है, जिन्होंने जातिगत भेदभाव के खिलाफ और महिलाओं के शिक्षा के अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी थी। फिल्म ‘इमरजेंसी' भी विवाद में फंसी। कंगना रनौत निर्देशित और अभिनीत फिल्म में वह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के किरदार में नजर आई थीं। 1975 में लगाए गए 'इमरजेंसी' पर आधारित फिल्म की रिलीज को लेकर काफी विवाद हुआ। विरोध करने वालों ने ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ के आरोप लगाए थे। सेंसर ने कुछ कट के बाद फिल्म की रिलीज को अनुमति दी थी।
    विक्की कौशल और रश्मिका मंदाना की ‘छावा' भी विवादों में रिलीज होने वाली फिल्मों की लिस्ट में है। लेकिन, इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 600 करोड़ का आंकड़ा भी पार किया। सनी देओल, रणदीप हुड्डा जैसे कलाकारों की फिल्म 'जाट' को लेकर भी विवाद। फिल्म के एक सीन को लेकर ईसाई समुदाय ने नाराजगी जताई और फिल्म की टीम के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कराई। समुदाय ने आरोप लगाया कि फिल्म में ईसाई समुदाय का अपमान किया गया और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाया। शाहबानो मामले पर बनी फिल्म 'हक़' में विवाद कुछ नहीं है। क्योंकि, शाहबानो प्रकरण सुप्रीम कोर्ट तक गया और वहां इस पर फैसला हुआ। यदि इस महत्वपूर्ण मामले पर फिल्म नहीं बनती, तो यह सामाजिक बदलाव सिर्फ कानूनी किताबों में दर्ज होकर रह जाता। 
     शाहबानो का जीवन संघर्ष नई पीढ़ी के सामने नहीं आ पाता। शाहबानो के संघर्ष ने ही पहली बार मुस्लिम महिलाओं के अधिकार की नींव रखी। 1985 में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की दहलीज पर एक नई बहस छेड़ी थी। तीन तलाक की प्रथा के खिलाफ उनकी लड़ाई ने न सिर्फ व्यक्तिगत न्याय की मांग की, बल्कि पूरे समुदाय के लिए एक मिसाल बन गई। 33 साल बाद, जब 2019 में ट्रिपल तलाक को अवैध घोषित करने वाला कानून लागू हुआ, तो यह भी शाहबानो की जीत का प्रतीक था। अब ये संघर्ष बड़े पर्दे पर उतरा है। यामी गौतम और इमरान हाशमी की फिल्म 'हक' के जरिए दर्शक देखेंगे कि 3 तलाक को कोर्ट ले जाने वाली शाहबानो के संघर्ष की कहानी आखिर क्या थी! 
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Friday, October 31, 2025

दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे : सिनेमा के परदे पर चिर रोमांस के तीन दशक

    आदित्य चोपड़ा निर्देशित फिल्म 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' ने बीते 20 अक्टूबर को 30 साल पूरे किए। इसे हिंदी सिनेमा जगत की सबसे रोमांटिक फिल्मों में गिना जाता है। यही वजह है, कि यह फिल्म आज भी हर पीढ़ी के दर्शकों के दिलों पर राज करती है। शाहरुख खान और काजोल की जोड़ी ने इसमें राज और सिमरन के किरदारों को अमर कर दिया। फिल्म ने न सिर्फ फिल्मों में रोमांस की नई परिभाषा दी, बल्कि भारतीय समाज की सांस्कृतिक और पारिवारिक स्थितियों को भी दर्शाया। फिल्म में यूरोप की पृष्ठभूमि में रिश्तों की जटिलताओं और पारंपरिक मूल्य प्रणाली के बीच अजब संतुलन नजर आया। साथ ही इस फिल्म ने रोमांटिक फिल्मों के लिए भी एक बेंचमार्क तय किया और इसीलिए यह सदाबहार प्रेम कहानियों में गिनी जाती है।
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- हेमंत पाल

   फिल्मों में रोमांस एक स्थाई भाव है। फिल्म का कथानक कुछ भी हो, उसमें नायक-नायिका के रोमांस का प्रसंग जरूर होता है। आज भी जब किसी रोमांटिक फिल्म का ज़िक्र किया जाता है, तो बात 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' पर आकर रुक जाती है। इसलिए कि यह फिल्म परदे पर चिर-रोमांस का प्रतीक है। 1995 में रिलीज होने के बाद से दर्शकों के दिलों में बसी और राज और सिमरन की ऑन-स्क्रीन केमिस्ट्री पर टिकी है। फिल्म की सफलता और तीन दशकों की लोकप्रियता के पीछे कई कारण हैं। इसमें शाहरुख खान और काजोल का अभिनय, आदित्य चोपड़ा का सधा हुआ निर्देशन और दर्शकों के लिए एक अनोखी और रोमांचक प्रेम कहानी है। यह पारंपरिक प्रेम कहानियों से हटकर है, जहां राज सिमरन के पिता को मनाता है, ताकि वे शादी के लिए राजी हों। यह फिल्म 30 साल से मुंबई के एक सिनेमाघर में चल रही है, जो इसकी लोकप्रियता को प्रत्यक्ष प्रमाण है। 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' ने प्रेम कहानियों का एक नया ट्रेंड उस समय सेट किया, जब एक्शन और अपराध कथाओं वाली फिल्में ज्यादा पसंद की जाती थीं।
       तीन दशक पहले यह फिल्म रोमांस की एक परिपक्व और पारिवारिक कहानी के रूप में सामने आई थी। फिल्म के गानों ने बरसों तक लुभाया। इसके एक संवाद 'बड़े बड़े देशों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती हैं' आज भी कई बार बातचीत में उपयोग किया जाता है। सबसे रोचक है क्लाइमैक्स जब सिमरन का पिता बेटी को राज के साथ जाने की इजाजत देता है और वो भागकर ट्रेन पकड़ती है। वो दृश्य आज भी दर्शकों के दिल में बसा है। इसे हिंदी सिनेमा की सबसे लोकप्रिय फिल्मों में एक माना जाता है। इसकी कहानी दो एनआरआई युवाओं राज और सिमरन पर केंद्रित है। दोनों स्विट्जरलैंड में संयोग से मिलते हैं, जहां ट्रेन यात्रा के दौरान दोनों में मोहब्बत हो जाती है। फिल्म में पंजाब के खेत, स्विस पहाड़ियां और पारंपरिक भारतीय संस्कृति का शानदार मेलजोल है। ये पहली बार था, जब किसी हिंदी फिल्म में एनआरआई जीवन को इतने रोमांटिक तरीके से दिखाया गया। यह फिल्म सिर्फ दो किरदारों के बीच गुंथी हुई प्रेम कहानी नहीं, बल्कि इसमें मजबूत महिला पात्रों की भूमिका भी है जो पारंपरिक सीमाओं के बीच अपनी आजादी के पल खोजती हैं। यह फिल्म रोमांस को एक सांस्कृतिक और भावनात्मक प्रतीक बनाती है। फिल्म न केवल मील का पत्थर है, बल्कि प्रेम, परिवार, सम्मान और परंपरा के बीच संतुलन की एक जीती-जागती कहानी भी है।
    इस फिल्म के बनने की कहानी भी रोचक है। आदित्य चोपड़ा ने इस फिल्म से निर्देशन की शुरुआत की। किंतु, इससे पहले स्क्रिप्ट लिखने में ही तीन साल लग गए। देरी का एक कारण यह भी रहा कि शाहरुख खान को राज के किरदार के लिए मनाने में मुश्किल हुई। क्योंकि, वे 'दर्शन' जैसी सीरियस फिल्म में बिजी थे। फिर भी यश चोपड़ा को भरोसा था कि यह फिल्म शाहरुख को सुपरस्टार बनाएगी और उनका यह भरोसा सही साबित हुआ। फिल्म में सिमरन के रोल के लिए काजोल को चुना गया, जो 'बाजीगर' में शाहरुख़ के सामने विलेन बन चुकी थी। फिल्म का बजट उस समय के हिसाब 20 करोड़ रुपए था, जो उस समय के हिसाब से बहुत बड़ा था। फिल्म की आउटडोर शूटिंग स्विट्जरलैंड और लंदन के बाद पंजाब में हुई। 200 दिन की शूटिंग के दौरान कई दिलचस्प किस्से भी हुए। एक गाने 'गाड़ी चलाओ बाबू' के लिए ट्रेन को रोका गया था। फिल्म की कहानी, निर्देशन और अभिनय के साथ ही इसके संगीत ने भी फिल्म को अमर बनाया। फिल्म का टाइटल सांग 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' सबसे पसंद किया गया। 30 साल में इन गानों से एक हजार करोड़ से ज्यादा कमाई हुई। 
    'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' की सफलता और फिल्म के यादगार बनने के पीछे लोकप्रिय और सांस्कृतिक प्रभाव वाले कुछ सीन का भी खास योगदान हैं। इनमें ट्रेन और स्टेशन का वो क्लाइमैक्स सीन जहां राज ट्रेन से झांकता है और सिमरन का हाथ पकड़कर उसे ट्रेन पकड़ने के लिए भागने में मदद करता है। इस सीन में परिवार और प्यार के बीच की जटिलता, भावनात्मक संबंध और आज़ादी की भावना को खूबसूरती से दर्शाया गया। अमरीश पुरी का डायलॉग 'जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी' आज भी याद किया जाता है और यह भारतीय पिता-दृश्य में बदलाव की दास्तां कहता है। दूसरा सीन राज और सिमरन की पहली मुलाकात का है, जो कई बार फिल्मों में दोहराया गया। इस सीन में प्रेम की अनायास शुरुआत और युवाओं के उस दौर की बेफिक्री को दर्शाया गया। फिल्म में परिवार की अहमियत को दिखाते हुए, राज सिमरन के पिता का आशीर्वाद लेने की कोशिश करता है, जो भारतीय संस्कृति में सम्मान और पारंपरिकता का संदेश देता है। 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' ने भारतीय और प्रवासी भारतीय समाज में परिवार, प्रेम, और सम्मान के बीच संतुलन बनाने की भी कोशिश की। इसने भारतीय संस्कृति को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई और भारतीय प्रवासी समुदाय के लिए गर्व का विषय बनी।
      20 अक्टूबर 1995 को जब यह फिल्म रिलीज हुई तो काफी धमाल किया था। 5 स्क्रीन पर रिलीज हुई इस फिल्म ने पहले हफ्ते में 10.25 करोड़ कमाए थे। फिल्म ने देश में 102 करोड़, विदेश में 61 करोड़ यानी कुल 163 करोड़ की कमाई की और 1995 की यह सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बनी थी। आज तक भी यह सबसे ज्यादा चलने वाली हिंदी फिल्म है। फिल्म ने अभी तक कई रिकॉर्ड बनाए। यह पहली भारतीय फिल्म थी, जिसने विदेश में 50 करोड़ कमाए। ऑस्कर में भी नामांकन मिला। फिल्म ने 3 फिल्मफेयर अवॉर्ड सर्वश्रेष्ठ फिल्म, निर्देशक और संगीत का जीता। शाहरुख को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता नहीं मिला, लेकिन लोकप्रियता मिली। अमरीश पुरी का 'पाजी' डायलॉग तो आज भी लोकप्रिय है। फिल्म ने फैमिली वैल्यूज को बढ़ावा दिया।
     राज और सिमरन का रेलवे स्टेशन वाला सीन प्यार करने वालों के साथ परंपरागत परिवारों के लिए भी एक मिसाल माना जाता है। फिल्म के गाने, डायलॉग और सरसों के खेत यादगार हिस्सा बन गए। इस फिल्म का थोड़ा सा अंश हर उस रोमांटिक फिल्म में मौजूद है, जो उसके बाद बनी। ‘सिमरन’ कई भारतीय लड़कियों में आज भी जिंदा है, जो अपने परिवार की मर्जी को मानती हैं, पर दिल में आजादी भी चाहती हैं। यही वजह है कि यह फिल्म आज भी दर्शकों के दिलों को छूती है। क्लाईमैक्स में जब सिमरन के पिता कहते हैं 'जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी' तो यह सिर्फ डायलॉग नहीं रहता, बल्कि साहस और प्यार का प्रतीक बन जाता है। 
     जब कोई फिल्म 30 साल तक लोगों के दिलों में रहती है, तो वह सिर्फ कहानी नहीं रहती, बल्कि एक पूरी पीढ़ी की सोच और प्यार की परिभाषा बन जाती है।'डीडीएलजे' ने शाहरुख और काजोल की जोड़ी को हिंदी सिनेमा का सबसे लोकप्रिय ऑन-स्क्रीन कपल बना दिया, इसमें कोई शक नहीं। यह फिल्म धीरे-धीरे सांस्कृतिक मील का पत्थर बन चुकी है, जिसने दर्शकों को यह विश्वास दिलाया कि सच्चा प्यार हमेशा जीतता है। जब कोई फिल्म एक घटना बन जाती है, तो वह सिर्फ कहानी नहीं रहती, भावना बन जाती है। आदित्य चोपड़ा की दूरदृष्टि फिल्म की असली ताकत थी। परिवार, परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाना और दिल की बात सुनने का साहस, ये विषय कभी पुराने नहीं होते।
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Wednesday, October 22, 2025

अंग्रेजों के ज़माने के जेलर जीवन से रिटायर

    जब देशभर में दिवाली का त्यौहार मनाया जा रहा था, सिनेमा का एक दीपक बुझ गया। जिसने दशकों तक दर्शकों को गुदगुदाया और ठहाके लगाने को मजबूर किया वो कलाकार चुपचाप चल दिया। जिसने जीवन भर सिनेमा के दर्शकों को हंसाया, वो इतनी गुमनामी से विदा हो गया कि किसी को खबर तक नहीं होने दी। क्योंकि, ये उनकी आखिरी इच्छा थी, जिसे उनकी पत्नी ने निभाया। 84 साल की उम्र में असरानी का निधन हो गया। साढ़े 300 फिल्मों में अलग-अलग किरदार निभाने वाले असरानी को असल पहचान मिली कॉमेडी से। लेकिन, 'शोले' में जेलर की छोटी सी भूमिका में उनका अभिनय इतना जीवंत था, कि वो आज भी भुलाया नहीं जा सका। हिटलर जैसी मूंछों और हाथ में छड़ी लेकर असरानी ने अपने किरदार को जिस तरह जिया, उसके सामने एक बार तो अमिताभ और धर्मेंद्र भी फीके पड़ गए थे। 
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- हेमंत पाल

     हिंदी फिल्मों के कुछ एक्टर ऐसे हुए, जिनके कुछ किरदार मील का पत्थर बन गए। ऐसा ही एक यादगार किरदार है 'अंग्रेजों के ज़माने का जेलर' यानी 'शोले' के असरानी। 70 के दशक से फिल्मों में आए गोवर्धन असरानी ने कई सालों तक परदे पर कॉमिक कैरेक्टर जिया। उन्होंने अपने अभिनय जीवन में सहज हास्य और जीवंत संवाद डिलीवरी के जरिए सिनेमा में अपनी पहचान बनाई। असरानी की अदाकारी केवल फिल्मों तक सीमित नहीं थी, बल्कि दिल्ली की रामलीला में भी उन्होंने नारद मुनि, रावण के मंत्री जैसे किरदार निभाकर कई बार दर्शकों का दिल जीता। उन्होंने सिर्फ हिंदी के सिनेमा में ही कॉमेडी नहीं की, बल्कि गुजराती, राजस्थानी समेत कई भाषाओं की फिल्मों में काम किया और निर्देशन में भी हाथ आजमाया। उनका 'शोले' का किरदार यादगार इसलिए बन गया कि उस रोल में उनकी बेहतरीन कॉमिक टाइमिंग रही। असरानी ने अपना अभिनय सिर्फ कॉमेडी तक ही सीमित नहीं रखा, उन्होंने गंभीर और चरित्र भूमिकाएं भी निभाईं, जिससे उनके अभिनय की गहराई और बहुमुखी प्रतिभा दिखाई दी। यहां तक कि उनकी कॉमेडी में भी गहराई और संवेदनशीलता झलकती थी, जो उन्हें हास्य कलाकार नहीं, बल्कि महान कलाकार बनाती थी। 
    असरानी की कॉमेडी में हल्के-फुल्के मजाक तक सीमित नहीं थी। उसमें समाज की सच्चाइयों और मानव स्वभाव की कमजोरियों पर भी व्यंग्य छिपा होता था। वे मजाक उड़ाने के बजाए चरित्र की कमजोरियों को समझाने और दर्शाने में दक्ष थे। इसलिए असरानी की कॉमेडी शैली को बहुत नैचुरल, टाइम्ड, विनम्र और सामाजिक-संदेशवाहक माना जाता रहा। इसीलिए उन्हें हिंदी सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित हास्य कलाकारों में से एक माना जाता रहा। उनकी कॉमिक भूमिका जीवन के यथार्थ को व्यंग्य से जोड़ती है, जिससे दर्शक उन्हें केवल हंसाने वाला नहीं, बल्कि सोचने वाला भी पाते थे। असरानी की कॉमेडी सहज और स्वाभाविक होती थी। वे जोकर या ओवर-द-टॉप से हास्य छिड़कने वाले कलाकार नहीं थे। बल्कि, वे अपनी भूमिका में पूरी तरह डूबकर उस किरदार की नाटकीयता और ह्यूमर को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करते थे। असरानी की कॉमिक टाइमिंग शानदार थी। 
    उनकी डायलॉग डिलीवरी में एक खास रिदम और पंच लाइन होती थी, जो दर्शक को इस तरह गुदगुदाती थी, कि वो हंसने पर मजबूर हो जाता था। उनका अंदाज और टाइमिंग वाले संवाद प्रभावशाली होते थे। असरानी ने सिनेमा में सिर्फ कॉमेडी ही नहीं की। उन्होंने निर्देशन की कमान भी संभाली। 1977 में एक सेमी बायोग्राफिकल फिल्म 'चला मुरारी हीरो बनने' बनाई। पर, इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। इसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी। बाद में सलाम मेमसाब, हम नहीं सुधरेंगे, दिल ही तो है और 'उड़ान' फिल्में बनाई। असरानी ने पिया का घर, मेरे अपने, परिचय, बावर्ची, नमक हराम, अचानक, अनहोनी जैसी कई बड़ी फिल्मों में अलग तरह के किरदार निभाए। हालांकि दर्शकों ने उन्हें कॉमेडियन के रोल में ही ज्यादा पसंद किया। 1972 में आई फिल्म 'कोशिश' और 'चैताली' में असरानी ने निगेटिव भूमिकाएं भी की। किंतु, दर्शकों के दिमाग उनकी कॉमिक इमेज ऐसी बनी, जिसे भुलाया नहीं जा सका और यही उनके लिए फायदेमंद भी रहा।
    उनकी कॉमेडी में जीवन के व्यंग्य और सामाजिक वास्तविकता झलकती थी, इसलिए उनका हास्य केवल मनोरंजन का माध्यम न होकर समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण रखता था। 'शोले' के जेलर वाले रोल में वे बिना ज़ोर-शोर के भी हंसाने में कामयाब रहे। वे मुखर थे, लेकिन कभी भी कॉमेडी में अधीरता या बेवजह के शोरगुल का सहारा नहीं लिया। उनका अभिनय शालीन और संयमित होने के साथ ऐसा होता था, जो दर्शकों के बीच माहौल को हल्का-फुल्का और दिल खुश करने वाला होता रहा। उनके समकालीन रहे महमूद की कॉमेडी वाले सीन ऊर्जावान और विज़ुअली प्रमोटेड कॉमेडी के लिए जाने जाते थे। इसके अलावा जॉनी लीवर या राजपाल यादव से भी उनकी तुलना की जाए, तो असरानी का अंदाज ज्यादा क्लासिक, रियल और नैचुरल था। उनकी कॉमेडी में कभी फूहड़ता नहीं दिखाई दी। महमूद और असरानी हिंदी सिनेमा के दो अलग-अलग कॉमेडी स्टाइल के धुरंधर कलाकार थे। जहां महमूद का अंदाज एनर्जेटिक था, वहीं असरानी की कॉमेडी हंसाने के बाद सोचने को भी मजबूर करती थी। इन दोनों कॉमेडियन ने हिंदी फिल्मों में कॉमेडी को नई पहचान दी, लेकिन उनकी शैली और प्रस्तुति के तरीके में काफी अंतर था।   
    सिनेमा से जुड़ी कोई भी विधा हो। यदि कलाकार में दम हो, तो वो अपने जीवन में कुछ ऐसा अजूबा कर जाता है, जो मील का पत्थर बन जाता है। असरानी ने भी अपने करियर में करीब 350 फिल्मों में काम किया। लेकिन, 'शोले' (1975) में उनके जेलर के किरदार ने उन्हें अलग ही पहचान दी। उनका हिटलर जैसा लुक, छड़ी उठाने का अंदाज और संवाद 'आधे इधर जाओ, आधे इधर जाओ और बाकी हमारे पीछे आओ' कॉमेडी का मास्टरपीस माना जाता है। फिल्म के इस दृश्य को हिंदी सिनेमा के सबसे यादगार कॉमिक सीन में गिना जाता है। फिल्म में अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र की एक्टिंग की जितनी चर्चा हुई, उतनी ही असरानी के जेलर वाले रोल की भी हुई। 'हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं' इस डायलॉग ने कोने-कोने में वो गूंज पैदा कर दी थी। जिसने भी असरानी को देखा और सुना वो उनकी तारीफ किए बिना खुद को रोक नहीं सका। कोई विश्वास नहीं करेगा, पर अमिताभ बच्चन की कई फिल्मों में तो असरानी ने बराबरी की रोल निभाए थे। जैसे 'अभिमान' में जिसमें उन्होंने कॉमेडी नहीं की, बल्कि चरित्र अभिनेता का रोल किया था।  
      फिल्मों में असरानी के डायलॉग सटीक और प्रभावशाली होते थे, जिसकी पंचलाइन इतनी स्वाभाविक होती थी कि बिना कहे भी हंसा देते थे। उनकी कॉमिक टाइमिंग उनकी ह्यूमर की आत्मा थी। हर संवाद और एक्सप्रेशन का समय इतना परफेक्ट होता था कि दर्शक हंसी रोक नहीं पाते। उनकी कॉमेडी केवल मजाक तक सीमित नहीं था, बल्कि सामाजिक और मानवीय कमजोरियों पर व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण से भी था, जो सोचने पर मजबूर करता था। उनका ह्यूमर असामान्य नहीं, बल्कि जीवन के नियमित पहलुओं में पूरी तरह प्राकृतिक ढंग से दिखाया जाता था, जो हर वर्ग के दर्शक पसंद करते थे। उनकी एक्टिंग में शारीरिक हाव-भाव, मुंह बनाना और चेहरे के एक्सप्रेशन भी हास्य को और प्रभावी बनाते थे। यही  तत्व मिलकर असरानी के ह्यूमर को गहराई, सूक्ष्मता और निरंतरता प्रदान करते थे, जिससे उनकी कॉमेडी आज भी यादगार और असरदार मानी जाती है। चुपके-चुपके (1975) में असरानी का विट्टी और क्लेवर किरदार ऐसा था, जिसने बड़े कलाकारों के बीच अपनी कॉमेडी से अलग पहचान बनाई। धमाल (2007) जैसी फिल्मों में असरानी ने पुलिस इंस्पेक्टर के रूप में कमाल की कॉमेडी की। भूल भुलैया, ऑल द बेस्ट और 'जैसी करनी वैसी भरनी' जैसी फिल्मों में भी असरानी के मजेदार कॉमेडी सीन बहुत लोकप्रिय हैं। कादर खान के साथ असरानी की जोड़ी ने भी कई धमाकेदार कॉमेडी सीन दिए।
    गोवर्धन असरानी का जन्म 1941 को जयपुर में हुआ। उनके पिता एक कॉरपेट कंपनी में मैनेजर के पद पर नौकरी करते थे। अपनी पढ़ाई-लिखाई भी उन्होंने यहीं की। लेकिन, उनका झुकाव फिल्मों की तरफ ज्यादा था। उन्होंने पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में दाखिला लेने का मन बनाया और एक्टिंग करने का सोचा और घर से भागकर मुंबई आ गए। उससे पहले उन्होंने दो-तीन साल तक जयपुर आकाशवाणी में काम किया फिर पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में एडमिशन लिया। असरानी जहां एक्टिंग सीख रहे थे, वहीं डायरेक्टर ऋषिकेश मुखर्जी आया करते थे। उनसे असरानी का पहले से परिचय था। ऋषिकेश मुखर्जी की टीम में गुलजार भी थे। उन्हें लगा कि शायद बात बन जाए। उन दिनों ऋषिकेश मुखर्जी फिल्म 'गुड्डी' के लिए जया भादुड़ी को खोज रहे थे। बात आगे बढ़ी, तो ऋषिकेश मुखर्जी ने असरानी को वही रोल दिया, जो वे चाहते थे।
    इससे पहले 1967 में असरानी 'हरे कांच की चूड़ियां' फिल्म में एक रोल कर चुके थे। पर, इस फिल्म से असरानी को कोई पहचान नहीं मिली। इसके बाद उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी की 'सत्यकाम' में भी काम किया। उन्हें इंतजार था ऐसी फिल्म का जिससे उनके करियर को दिशा मिले। ये हुआ 'गुड्डी' के साथ। इसके बाद उनके करियर की गाड़ी चल पड़ी। एक के बाद एक फिल्में मिलने लगी। शोर, रास्ते का पत्थर, बावर्ची, सीता और गीता और 'अभिमान' समेत कई फिल्मों में काम किया। खास बात यह कि उनकी एक्टिंग इतनी कमाल थी कि फिल्मकार उनके लिए कोई न कोई रोल लिख ही देते थे। इसके बाद 1975 में असरानी को अपने करियर की सबसे बड़ी फिल्म मिली 'शोले' जिसने उन्हें अंग्रेजों के ज़माने के जेलर की यादगार पहचान देकर उस किरदार को अमर कर दिया।   
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दिवाली का उत्सव यानी प्रतीकों का सामंजस्य

- हेमंत पाल

     दिवाली घर-आंगन की साज-सज्जा, पूजा, पारिवारिक समागम और सामाजिक समरसता का त्यौहार है। यही वजह है कि इस त्यौहार से जुड़ी फिल्मों में भारतीय संस्कृति नजर आती है। बरसों से फिल्मों में हमेशा से दिवाली को बहुत खास और रंगीन अंदाज में दिखाया जाता रहा है। ये ऐसा त्यौहार है, जो हमेशा पारिवारिक मेलजोल, खुशी, भावनात्मक पुनर्मिलन और रोशनी के प्रतीकों के साथ प्रस्तुत किया जाता है। यह त्यौहार सिनेमा के रूप में भारतीय संस्कृति की आत्मा दर्शाता है। लेकिन, एक खास बात यह कि दिवाली पहली बार परदे पर कब दिखाई गई, यह बताना मुश्किल है। लेकिन, 1960 की फिल्म 'जुगनू' का गाना 'मेरा तुम्हारा सबका यहां ...' एक दिवाली दृश्यों के उदाहरणों में गिना जाता है। 1990 के दशक और 2000 के बाद दिवाली दृश्य विशेष रूप से पारिवारिक गीतों और इमोशनल दृश्यों के साथ हर दशक की बड़ी फिल्मों में दिखाई दिए। हम आपके हैं कौन (1994) में दिवाली पर परिवार के साथ 'धिक ताना' जैसे गाने से उत्सव और सामूहिकता का जश्न दिखाई दिया। 
    'चाची 420' (1997) में पटाखों से दुर्घटना के सीन और बच्चों की सुरक्षा के जरिए दिवाली की रियलिटी की झलक दिखाई गई। 'तारे ज़मीं पर' (2007) फिल्म में दिवाली के मौके पर अकेलेपन और घर की याद की भावनाएं बयां की गईं, जिससे त्यौहार का संवेदनशील पक्ष उजागर हुआ। 'वास्तव' (1999) में फिल्म का मुख्य किरदार अपने परिवार से दिवाली पर मिलता है और 'पचास तोला सोना' जैसा डायलॉग को त्यौहार के अलग ही रंग से जोड़ता है। 2001 की फिल्म 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया' का गीत 'आई है दिवाली सुनो जी घरवाली' जैसे मस्तीभरे गाने के साथ आम लोगों की दिवाली भी दिखाई गई।
     फ़िल्मी कथानकों में दिवाली का त्यौहारों कुछ अलग है। होली या जन्माष्टमी के प्रसंग फिल्मों में धूम, मस्ती और कहानी में मोड़ का कारण बनते हैं, पर दिवाली कहानी का हिस्सा होते हुए, कई फिल्मों में प्रतीकात्मक और भावनात्मक अर्थ रखता है। रोमांटिक व पारिवारिक फिल्मों में त्यौहार के दृश्य परिवार, भारतीय परंपरा और भावनात्मक पुनर्मिलन के प्रतीक रहे हैं। दिवाली के दृश्यों वाली और उस थीम को दर्शाने वाली कई यादगार फिल्में हिंदी सिनेमा के उस इतिहास में दर्ज हैं, जो ब्लैक एंड व्हाइट से आजतक फैला हुआ है। इस त्यौहार को प्रतीकात्मकता और बदलते दृष्टिकोण के रूप में भी देखा गया। यही वजह है कि दिवाली के दृश्य कई बार घर वापसी, एकजुटता, नई शुरुआत और पारिवारिक मूल्यों के प्रतीक बने। नई फिल्मों में जहां भव्यता, पटाखों और भव्य सेट्स की भरमार दिखती है, वहीं 'तारे जमीं पर' जैसी कुछ फ़िल्में दिवाली के इमोशनल या सामाजिक पहलुओं को भी उजागर करती हैं। 
      ऐसे में 'जंजीर' का प्रसंग अलग ही है, जिसमें नायक अमिताभ बच्चन बचपन में दिवाली के धमाकों के बीच अपने माता-पिता की हत्या होते देख लेता है और पूरी फिल्म में खलनायक को खोजता है। दरअसल, फ़िल्मी कथानकों में दिवाली को न केवल जश्न, बल्कि भावनाओं, मेल-मिलाप और पारिवारिक रिश्तों के गहरे प्रतीकों के साथ चित्रित किया गया। इस कारण यह त्यौहार फिल्मों में भारतीय जीवनशैली और संवेदनाओं का अभिन्न हिस्सा बना। फिल्मों में दिवाली के बदलते सामाजिक अर्थों को समय के साथ बहुत गहराई और विविधता के साथ दिखाने के प्रयोग किए गए। पहले, ज्यादातर फिल्मों में दिवाली पारंपरिक, पारिवारिक आयोजन के रूप में मनती थी। 
      हाल के दशकों में यह बदलाव घर वापसी, सामाजिक सामंजस्य और आंतरिक संघर्षों का प्रतीक बन गई। पारंपरिक रूप से आधुनिक संदर्भों में सामाजिक विकास से तात्पर्य है पुनर्मिलन और आपसी मेल-मिलाप। यह भी कहा जा सकता है, कि दिवाली का प्रतीक लंबे अरसे बाद घर लौटना, परिवार का मिलना और गिले-शिकवे दूर करने का बहाना भी बन गया। 'कभी खुशी कभी गम' में राहुल (शाहरुख़ खान) की घर वापसी दिवाली के मौके पर दिखाई गई, जिससे त्योहार परिवार और रिश्तों की शक्ति का वाहक बन गया। जबकि, 'मोहब्बतें' में यही भावनात्मक मोड़ लाता है। दिवाली पर पारिवारिक प्रसंग कई फिल्मों में कहानी में मोड़ लाता है जिसमें रिश्ते बदलते हैं, चरित्रों की सोच और भावनाएं नई दिशा की तरफ मुड़ती हैं। याद किया जाए तो राजश्री की फिल्म 'हम आपके हैं कौन' में कुछ ऐसा ही था। 
       2001 की फिल्म 'कभी ख़ुशी कभी गम' में दिवाली पूजन, घर की सजावट, पारिवारिक पुनर्मिलन दर्शाया गया जिसमें जया बच्चन अपने बेटे शाहरुख के लौटने का इंतजार बेहद भावुक तरीके से करती दिखाई देती है। यह दृश्य प्रतिष्ठित और परिवार के पुनर्मिलन एवं भारतीय भावनाओं को दर्शाने वाली दिवाली के प्रतीक से जोड़ता है। इसी तरह यश चोपड़ा की फिल्म 'मोहब्बतें' में दिवाली के मौके पर 'जोड़ों में बंधन है' गीत सुनाई देता है, जो पारिवारिक रिश्तों, रोशनी और उल्लास के उत्सव का अहसास कराता है। जबकि, 'वास्तव' में संजय दत्त दिवाली पर परिवार से जिस तरह मिलते हैं, वह सामाजिक-आर्थिक संघर्ष के बीच उत्सव की गर्माहट का प्रतीक हैं। 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' (1995) ऐसी फिल्म रही, जो दिवाली पर रिलीज होकर सबसे ज्यादा सफल फिल्मों में गिनी जाती है और आज भी दिवाली के अवसर पर बॉक्स ऑफिस की मिसाल मानी जाती है।
    आज के दौर की फिल्मों में दिवाली केवल त्यौहार तक सीमित नहीं है, बल्कि आत्ममंथन, बदलाव और सामाजिक चेतना का उपाय भी बनती दिखाई दी। 'स्वदेश' में फिल्म के नायक के भीतर यह उत्सव देश से जुड़ाव और बदलाव का प्रतीक बनता है। जबकि 'तारे जमीं पर' में अकेलापन, परिवार की चिंता और अंतत: स्वीकृति की भावना दिखाई दी। सामाजिक संदर्भ में इस फिल्म को देखा जाए, तो 'वास्तव' जैसी फिल्मों में दिवाली अपराध और सामाजिक सच्चाई से जुड़े दृश्यों पर भी केंद्रित है, जिससे यह सिर्फ खुशी नहीं, सामाजिक जटिलताओं का प्रतीक भी बनती है। पुराने समय की फिल्मों में साधारण पारिवारिक उत्सव और पूजा के छोटे सीमित होते थे। जबकि, अब ये दृश्य भव्य पार्टियों, आधुनिकता और रिश्तों की जटिलताएं दिवाली के आस-पास बुनी जाती हैं। विशेष परिस्थितियों में दिवाली के प्रसंग ने 'अनुराग' या 'वक्त' जैसी फिल्मों में सामाजिक टूटन या त्रासदी की भूमिका भी निभाई, जिससे त्योहार में संवेदना और जीवन की सच्चाइयां दिखती हैं। 
     फिल्मों में दिवाली केवल रोशनी और उल्लास का ही उत्सव नहीं, बल्कि पुनर्मिलन, व्यक्तिगत विकास, सामाजिक विचार और संबंधों की विविधता का रूपक बनी है। समय के साथ दिवाली में सामाजिक बदलाव, भावनात्मक गहराई और समकालीन समाज के सवालों को भी फिल्मों में बखूबी से पिरोया गया। 1990 के दशक और 2000 के बाद दिवाली दृश्य विशेष रूप से पारिवारिक गानों और इमोशनल दृश्यों के साथ हर दशक की बड़ी फिल्मों में दिखाई देने लगे। यह भी गौर करने वाली बात है कि नई फिल्मों में जहां भव्यता, पटाखों और भव्य सेट्स की भरमार दिखती है, वहीं कुछ फिल्में दिवाली के इमोशनल या सामाजिक पहलुओं को भी उजागर करती हैं।  जहां तक दिवाली के प्रतीक और रीति-रिवाजों का सवाल है, तो फिल्मों में प्रतीकों और रीति-रिवाजों को अक्सर रंगीन, भावनात्मक और पारिवारिक भावनाओं के साथ प्रस्तुत किया गया। इन दृश्यों में परंपरागत पूजा, दीपक-दीये, पटाखे, मिठाइयां, रंगोली और पारिवारिक मिलन जैसे त्योहार के मूल तत्व प्रमुखता से दिखाए जाते रहे हैं। दिवाली के प्रमुख प्रतीक के रूप में घर की सजावट में दीपक 'कभी खुशी कभी ग़म' में भव्य सजावट और दीयों की कतारें दिखाई दी। 
      कई फिल्मों में महिलाएं और बच्चे मिलकर रंगोली बनाते दिखाई देते रहे। रंगीन और कलात्मक रंगोली घर के आंगन, प्रवेश द्वार और पूजा स्थल के पास बनाई जाती है। इसी तरह परिवार के सदस्यों के साथ लक्ष्मी-गणेश पूजन और आरती 'हम आपके हैं कौन' और 'कभी खुशी कभी ग़म' में दिखाई दी। 'चाची 420' और 'गोलमाल 3' में फुलझड़ी और पटाखों से हल्के-फुल्के हादसे फिल्माए गए। ऐसे उत्सव पर परिवार के सामूहिक भोज का भी अपना अलग महत्व है। ऐसे दृश्य 'हम आपके हैं कौन' और 'मोहब्बतें' के गानों में दिखाई दिए। दिवाली के मौके पर बिछुड़े परिवारों का मिलन, पुराने गिले-शिकवे दूर होना 'कभी खुशी कभी ग़म' और 'वास्तव' में दिखाया गया है। इस नजरिए से कहा जा सकता है कि फिल्मों में दिवाली सिर्फ रोशनी, दीपक, सजावट और पटाखों तक सीमित नहीं है। बल्कि, प्रतीकात्मक रूप से इन सभी प्रसंगों का अपना अलग महत्व है। कहा जा सकता है कि दिवाली मनाने का तरीका सिर्फ समाज में ही नहीं, फ़िल्मी कथानकों में भी बदला है।   
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फिल्मों के कथानक को मोड़ देता करवा चौथ

- हेमंत पाल

    हिंदी फिल्मों में करवा चौथ का त्यौहार पति-पत्नी के प्रेम और समर्पण की भावना को रेखांकित करने का सांस्कृतिक प्रतीक बन गया। इस बहाने त्योहार की लोकप्रियता में भी इजाफा और यह उत्सव अब देशभर में मनाया जाने लगा। करवा चौथ को फिल्मों ने पारंपरिक धार्मिक व्रत से सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सव में बदल दिया। यह आज समाज में बेहद लोकप्रिय हो चुका और लगातार बढ़ रहा है। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि हिंदी फिल्मों में करवा चौथ को भावनात्मक, पारंपरिक और रोमांटिक अंदाज में दिखाया गया है। फिल्मी दृश्यों में यह त्योहार पति-पत्नी के रिश्ते, प्यार, विश्वास और बलिदान का प्रतीक तो बनाता ही है, दर्शकों के दिल में भी खास जगह बना ली। कई फिल्मों में करवा चौथ के बहाने रिश्तों की मजबूती, संघर्ष और विश्वास को खूबसूरती से दिखाया गया। फिल्मों के इन दृश्यों की पारंपरिक पोशाक, पूजा की थाली, छलनी और चंद्रमा के इंतजार के दृश्य भारतीय संस्कृति की गहराई को प्रस्तुत करते हैं। आधुनिक फिल्मों में भी यह त्यौहार प्रेम और समर्पण की नई परिभाषा देता है, जैसे 'एनीमल' जैसी फिल्म में करवा चौथ का लंबा भावनात्मक दृश्य है। 
      यदि यह पड़ताल की जाए कि फिल्मों में करवा चौथ का चलन कब शुरू हुआ! तो इतिहास बताता है कि इसे पहली बार 1964-1965 में आई ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म 'बहू बेटी' में दिखाया गया था। इसमें करवा चौथ व्रत का जश्न फिल्माए गए गाने 'आज है करवा चौथ सखी' के जरिए दिखाया था। इस गाने को आशा भोसले ने गाया और इसमें माला सिन्हा और मुमताज की अदाकारी थी। इसके बाद 1970-80 के दशक में कई फिल्मों में करवा चौथ के दृश्य देखे गए। लेकिन, व्रत को लोकप्रिय बनाने और इसे प्रचलित करने में 90 के दशक से लेकर 2000 के बाद की फिल्मों का बड़ा योगदान रहा। करवा चौथ के दृश्य फिल्मों में अकसर रोमांटिक और पारिवारिक भावनाओं को उभारने के लिए फिल्माए जाते रहे हैं। खासतौर पर उन फिल्मों में जहां पति-पत्नी के बीच दूरियां रहती है या रिश्तों में तनाव उभरता है। जैसे दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, हम दिल दे चुके सनम, कभी खुशी कभी ग़म, बागवान, हम आपके हैं कौन और 'बाबुल' में करवा चौथ के सीन बेहद यादगार और लोकप्रिय रहे। इन फिल्मों ने करवा चौथ के व्रत को न केवल उत्तर भारत में बल्कि चारों तरफ लोकप्रिय बना दिया। 
     सबसे पहले करवा चौथ का फिल्मांकन फिल्म 'बहू बेटी' में जरूर हुआ, जिसे एक गीत जरिए दर्शाया था। 1978 में पहली बार 'करवा चौथ' नाम से पूरी फिल्म बनी, जिसके निर्देशक थे रामलाल हंस। 1990-2000 के दशक में 'करवा चौथ' का चलन कुछ ज्यादा बढ़ा। खासकर दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995) और 'हम दिल दे चुके सनम' (1999) जैसी फ़िल्में इन्हें ज्यादा फिल्माया। देखा जाए तो अभी तक दर्जनों फिल्मों में 'करवा चौथ' के दृश्य देखे गए, जो त्योहार की लोकप्रियता और सांस्कृतिक महत्व दर्शाते हैं। 1960-70 के शुरुआती दौर में 'करवा चौथ' त्यौहार का पारंपरिक स्वरूप सामने आया। उस दौर में करवा चौथ को धार्मिक और पारिवारिक व्रत के रूप में दिखाया गया। इस त्योहार पर में महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए निर्जला व्रत करती हैं। 1990-2000 के दौर में इसमें रोमांटिक और सामाजिक बदलाव दिखाई दिया। 90 के दशक में यश चोपड़ा जैसे निर्देशकों की फिल्मों ने करवा चौथ को रोमांटिक और ग्लैमरस रूप में प्रस्तुत करना शुरू किया। 
    'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' और 'हम दिल दे चुके सनम' जैसी फिल्मों ने करवा चौथ के सीन को बेहद लोकप्रिय बनाया, जहां पति-पत्नी के बीच के प्रेम और त्याग को नाटकीय और भावुक अंदाज में दिखाया गया। इसके साथ ही इस त्योहार की पारंपरिकता में आधुनिकता का समावेश हुआ, व्रत के पीछे के भाव और रिश्तों की गहराई को दिखाया गया। लेकिन, 2000 के बाद इसका रूप विविधता वाला हो गया और इसमें व्यवसायीकरण दिखाई देने लगा। फिल्मों में करवा चौथ के दृश्य अब पारंपरिक व्रत से आगे बढ़कर फैशन, ग्लैमर और कंज्यूमैरिज्म का हिस्सा बन गए। कई फिल्मों में करवा चौथ में सामाजिक और वैवाहिक मुद्दों को भी छुआ जाता रहा है। साथ ही गाने, सजावट और त्योहार की प्रस्तुति में बदलाव आया, जो दर्शकों के सांस्कृतिक अनुभव को नया रूप देता है। फिल्मों के साथ ही टीवी सीरियलों ने भी इस त्योहार को घर-घर में पहुंचा दिया। 
      करवा चौथ पर बनी फिल्मों के कुछ यादगार दृश्य ऐसे हैं, जो पति-पत्नी के प्रेम, त्याग और पारिवारिक भावनाओं को अद्भुत ढंग से दर्शाते हैं। 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' में शाहरुख खान और काजोल का छत पर करवा चौथ मनाते हुए सीन बेहद लोकप्रिय है। इसमें काजोल की भूमिका एक चालाक और प्रेमपूर्ण पत्नी की रही, जो व्रत के दिन बीमार बनकर शाहरुख को चुपके से पानी पिलाती है। 'हम दिल दे चुके सनम' में सलमान खान और ऐश्वर्या राय का करवा चौथ सीन पारंपरिक गुजराती रीति-रिवाजों के साथ, खूबसूरती से फिल्माया गया। फिल्म में करवा चौथ का सीन दो बार आता है, जिसमें ऐश्वर्या राय अपने पति के लिए व्रत रखती है। 'कभी खुशी कभी ग़म' में कई परिवारों के साथ करवा चौथ का भव्य रूप दिखाया गया। काजोल, शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, ऋतिक रोशन और करीना कपूर के करवा चौथ वाले सीन भव्यता और पारिवारिक भावना से भरपूर हैं। जबकि, 'बागबान' के कथानक में हेमा मालिनी पति अमिताभ बच्चन से दूर होने के बावजूद करवा चौथ का व्रत रखती है। फिल्म का भावुक और यादगार दृश्य पति-पत्नी के प्रेम और समर्पण को दर्शाता है। ऐसे दृश्यों में 'बाबुल' भी ऐसी ही फिल्म है, जिसमें सलमान खान, रानी मुखर्जी, अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी के साथ करवा चौथ के सीन में पति-पत्नी दोनों अपनी-अपनी पार्टनर के लिए व्रत रखते हैं, जो एक अलग ही भावनात्मक दृश्य है।
      करिश्मा कपूर और सुष्मिता सेन फिल्म 'बीबी नंबर-1' में सलमान खान के लिए व्रत रखती हैं। इसमें करवा चौथ त्यौहार नाटकीय बदलाव लेकर आता है। फिल्म 'इश्क विश्क' में शाहिद कपूर और अमृता राव के बीच करवा चौथ का सीन रोमांटिक मोड़ बनता है, जब शाहिद को पता चलता है कि अमृता ने उसके लिए व्रत रखा है। आमिर खान और करिश्मा कपूर की फिल्म 'राजा हिंदुस्तानी' में करवा चौथ का दृश्य अपनी भावुकता के लिए यादगार बन गया। सलमान खान और प्रीति ज़िंटा की फिल्म 'दिल ने जिसे अपना कहा' में करवा चौथ सीन ने भी दर्शकों के दिलों को छुआ था। 'हम तुम्हारे हैं सनम' फिल्म में भी करवा चौथ का प्रसंग प्रेम और पारिवारिक रिश्तों को बखूबी से दर्शाता है। इन फिल्मों के ये सभी दृश्य सिनेमा में करवा चौथ के महत्व और सांस्कृतिक रंग को परिभाषित करने में सफल रहे। खासकर शाहरुख-काजोल के 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' और सलमान-ऐश्वर्या के 'हम दिल दे चुके सनम' के इस त्योहार के दृश्य सबसे अधिक क्लासिक और फेमस माने जाते हैं। साथ ही ये प्रसंग इस त्यौहार को हिंदी सिनेमा में एक प्रेम और समर्पण के प्रतीक के रूप में लोकप्रिय बनाने में सहायक रहे। 
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Tuesday, October 14, 2025

जीवन का सच दिखाने वाला सिनेमा कहां गुम

      सिनेमा को मनोरंजन का सशक्त माध्यम माना जाता है। लेकिन, मनोरंजन का आशय सिर्फ मन बहलाव नहीं होता। प्रेम कहानियों, नाच-गाने और मारधाड़ के बाद फिल्म का सुखांत ही मनोरंजन नहीं होता। जीवन के यथार्थ, लोगों की पीड़ा और सच्चाई से रूबरू होना भी मनोरंजन का एक अहम हिस्सा है। इन फिल्मों की कहानियां ख़ास इसलिए होती है, साथ ही ये अपनी या अपने आसपास की लगती है। इन फिल्मों में शोषण, अंधविश्वास और धार्मिक पाखंड पर चोट, युवा वर्ग का असंतोष, महिलाओं पर अत्याचार, भेदभाव जैसे कई सामाजिक मुद्दे दिखाई देते हैं। लेकिन, धीरे-धीरे जीवन का सच दिखाने वाली ये फ़िल्में परदे से लोप हो गई। 
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- हेमंत पाल

   मानांतर सिनेमा जीवन का यथार्थ बहुत गहराई से दिखाता रहा है। यह हिंदी सिनेमा का वह पक्ष है, जिसमें आम आदमी के जीवन की जद्दोजहद, सामाजिक असमानता और बदलाव को सही ढंग से दर्शाया जाता है। ऐसे सिनेमा को 'आर्ट सिनेमा' या 'नया सिनेमा' नाम भी दिया गया। फिल्मों के कथानक का यह चलन 1950 के दशक में पश्चिम बंगाल से शुरू हुआ और बाद में इसे हिंदी समेत हर भाषा के सिनेमा ने अपनाया। इसका मकसद जीवन के कठोर यथार्थ, समाज के हाशिए पर खड़े वर्गों, दलितों, महिलाओं, और गरीबों की समस्याओं को दर्शकों के सामने लाना रहा, जिससे दर्शक खुद को जुड़ा महसूस करे। इसकी यथार्थ परक कहानियां आम लोगों की सामाजिक और आर्थिक जिंदगी से जुड़ी होती हैं। मसलन गरीबी, बेरोजगारी, जातिगत भेदभाव, और स्त्री-पुरुष संबंध। 
      ये फिल्में वास्तविक लोकेशनों पर शूट की जाती हैं और संवाद व किरदार स्वाभाविक होते हैं। ऐसी फिल्मों का निर्माण भी साधारण और वास्तविक होता है। श्याम बेनेगल की फ़िल्में अंकुर, मंथन और भूमिका, मणि कौल की 'उसकी रोटी' और 'दुविधा' के अलावा सत्यजीत रे की 'पाथेर पांचाली' के साथ मृणाल सेन, ऋत्विक घटक जैसे निर्देशक इस आंदोलन के अग्रणी रहे। इनकी फिल्मों में व्यावसायिकता की बजाय कलात्मकता, गहराई और सामाजिक प्रतिरोध देखने को मिलता है। पर, आज ऐसा सिनेमा लुप्त होने लगा। बरसों से ऐसी कोई फिल्म नजर ही नहीं आई। 
      ऐसी फ़िल्में जीवन का यथार्थ दिखाती है जैसे 'अंकुर' (श्याम बेनेगल) खेतिहरों और गरीब तबके की ज़िंदगी की सच्चाई को दिखाती है। 'उसकी रोटी' (मणि कौल) और 'माया दर्पण' (कुमार साहनी) ग्रामीण भारत की गहन समस्याओं को बेहद संवेदनशीलता से प्रस्तुत करती हैं। वास्तव में समानांतर सिनेमा ने ही गंभीर दर्शकों को फिल्मों के ज़रिए आम आदमी की पीड़ा को लेकर सोचने पर मजबूर किया। महिलाओं और वंचित वर्गों की भूमिका, विद्रोह और स्वतंत्र पहचान को बड़े संवेदनशील तरीके से उजागर किया गया। समानांतर सिनेमा का मकसद दर्शक को यथार्थ के करीब लाना और सांस्कृतिक-सामाजिक बदलाव की चेतना को जगाना रहा है यह भारतीय समाज के 'सच्चे आईने' का काम करती है। दरअसल, समानांतर सिनेमा जीवन का यथार्थ बड़े सशक्त ढंग से दर्शाता है। यही इसकी सबसे बड़ी खासियत भी है। ऐसे सिनेमा का मुख्य केंद्र यथार्थवादी विषय रहा है, जिसमें आम आदमी के जीवन, उसकी समस्याओं, गरीबी, वर्ग भेद, सामाजिक अन्याय, महिला समस्याएं और राजनीतिक परिस्थितियाँ दिखायी जाती हैं।
      इन फिल्मों में किरदार और कथानक बहुत वास्तविक व स्वाभाविक होते हैं। इसमें गैर-पेशेवर कलाकार होते हैं, जिनसे कथानक की वास्तविकता गहराई से सामने आती है। पारंपरिक सिनेमा की तरह मनोरंजन या सपनों की दुनिया पर नहीं, बल्कि समाज की सच्चाइयों को विषय वस्तु बनाकर, बदलाव और सवाल उठाए जाते हैं। नारी सशक्तिकरण, जातिवाद, अशिक्षा, शहरी-ग्रामीण भेद, आर्थिक विषमताएं ऐसे मुद्दे समानांतर सिनेमा की पहचान रहे हैं। ऐसी फिल्मों की मुख्य विशेषताओं में मुद्दों और पात्रों की वास्तविकता को महत्व देना होता है। सादगीपूर्ण कला निर्देशन, प्राकृतिक प्रकाश, लंबे शॉट्स, और धीमी गति की कहानी ताकि दर्शक सोच सके और उससे जुड़ाव महसूस करे। सत्यजीत रे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक, श्याम बेनेगल जैसे निर्माता-निर्देशकों ने इस धारा को स्थापित किया। 
    समानांतर सिनेमा ने फिल्म को सामाजिक बदलाव और जागरूकता का माध्यम बनाया। यथार्थ दिखाने की शैली ने भारतीय दर्शकों के साथ साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंच तक वास्तविकता की गूंज पहुंचाई। इस प्रकार, समानांतर सिनेमा जीवन के यथार्थ के विविध पहलुओं को बिना बनावटीपन के प्रस्तुत करने के लिए जाना जाता है, और यही इसकी ताकत है। समानांतर सिनेमा को जीवन का यथार्थ कहा जरूर गया, लेकिन माना नहीं गया। क्योंकि, समानांतर सिनेमा का कैमरा हमेशा दमित और शोषित वर्ग पर ही फोकस होता रहा है। जबकि, सिर्फ दमन और शोषण ही समाज का यथार्थ नहीं है! समाज के यथार्थ में खुशी और गम दोनों शामिल होते हैं। फकत गम को ही समाज का यथार्थ या समानांतर सिनेमा का सच नहीं माना जा सकता। यदि समाज के यथार्थ में जीवन के सभी पक्षों को शामिल किया जाए, तो इसे समानांतर नहीं यथार्थवादी सिनेमा कहना ज्यादा उचित होगा। यदि इसमें 'अंकुर' शामिल है, तो 'हम साथ साथ है' को भी शामिल किया जा सकता है। समझा जाता है कि हमारा समानांतर सिनेमा इटैलियन न्यू रियलिज्म, फ्रांस के फ्रेंच न्यू वेव और जापान के न्यू वेव सिनेमा से प्रभावित रहा। 
     भारतीय सिनेमा में भी यथार्थवादी झलक बहुत पुरानी बात रही। ऐसी फिल्मों की नींव 1920 से 30 के दशक में ही पड़ गई थी। 1925 में बाबूराव पेंटर ने अपनी मूक फिल्म 'सावकारी पाश' बनाई, जिसमें वी शांताराम ने गरीब किसान का किरदार निभाया था। ये किसान अपनी जमीन एक साहूकार को देने के लिए मजबूर हो जाता है और गांव छोड़कर शहर में मिल मजदूर बन जाता है! इसे भारत की पहली समानांतर फिल्म माना जाता है। महिलाओं की दुर्दशा पर भी 1937 में बनी फिल्म 'दुनिया ना माने' भी ऐसी ही फिल्म थी। लेकिन, ये परंपरा तब आगे नहीं पढ़ सकी। 1940 से 1960 के दशक में समानांतर सिनेमा ने फिर करवट ली। इस दौर में उसे सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, बिमल राय, मृणाल सेन, ख्वाजा अहमद अब्बास, चेतन आनंद और वी शांताराम ने पल्लवित किया। इन फिल्मों पर साहित्य की गहरी छाप थी। चेतन आनंद ने 1946 में 'नीचा नगर' जैसी फिल्म बनाई, जिसे कॉन फिल्म फेस्टिवल में ग्रैंड प्राइज मिला था। इस परम्परा को ही बाद में श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, अदूर गोपालकृष्णन तथा गिरीश कासरवल्ली ने बढ़ाया। 
     ऐसी फ़िल्में बनाने वाले फिल्मकारों में गुरुदत्त भी थे, जिन्होंने कला और फार्मूला सिनेमा को जोड़ने का काम किया। उनकी फिल्म 'प्यासा' को हिंदी सिनेमा की कालजयी फिल्म माना जाता है। अमेरिका की 'टाइम' पत्रिका ने इसे 'ऑल टाइम बेस्ट 100 मूवी' में जगह दी है। लेकिन, कला फिल्मों से व्यावसायिक सफलता पाने में ऋषिकेश मुखर्जी की भी कोई बराबरी नहीं कर सकता। इस तरह की फिल्मों के दर्शकों का एक विशेष वर्ग होता है। दर्शकों का दायरा सीमित होने के कारण इन फिल्मों की व्यावसायिक सफलता संदिग्ध हमेशा ही मानी गई। लेकिन, कई कला फिल्में ऐसी हैं, जिन्हें बॉक्स ऑफिस पर अच्छी सफलता मिली। आजादी के बाद 50 और 60 के दशक में सिनेमा दो धाराओं में बंट गया। एक धारा में सामाजिक सरोकार के चिंतन को स्थान दिया गया। दूसरी धारा में मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा बढ़ा! इसे मुख्यधारा का सिनेमा कहा गया। दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे, जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. दर्शकों ने समानांतर सिनेमा को व्यावसायिक सिनेमा से इतर हटकर एक नए विकल्प के रूप में देखा।
    हिंदी में समानांतर सिनेमा की नई शुरुआत 1969 में मृणाल सेन की फिल्म 'भुवन सोम' को माना जाता है। 1976 में मृणाल ने 'मृगया' बनाई, जो मिथुन चक्रवर्ती की पहली फिल्म थी। जिसमें मिथुन ने एक आदिवासी क्रांतिकारी का किरदार निभाया था, जो पत्नी के यौन शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है। बाद में सत्यजीत रे ने हिंदी में पहले ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और बाद में ‘सद्गति’ बनाई। सत्यजीत रे के फ़िल्मी कथ्य में एक अलग ही शिल्प होता था। सुंदर छायांकन, विलक्षण दृष्टि बोध और दृश्य संयोजन के मामले में तो वे सदैव अनन्य रहे। 1953 में आई बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’ ने समीक्षकों की प्रशंसा के साथ व्यावसायिक सफलता भी प्राप्त की थी। इसे कॉन फेस्टिवल (1954) में भी अंतर्राष्ट्रीय सम्मान भी मिला। इसके बाद बिमल रॉय ने बिराज बहू, देवदास, सुजाता और 'बंदिनी' फिल्में बनाई। 1970 और 1980 के दौरान समानांतर सिनेमा ने जमकर विकास किया। श्याम बेनेगल शैली के फिल्मकारों का हौसला बुलंद हुआ! इसी दौर में शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, रेहाना सुल्तान, साधु मैहर, अमोल पालेकर, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर, गिरीश कर्नाड के साथ समय-समय पर रेखा और हेमा मालिनी का भी सानिध्य मिला।
    श्याम बेनेगल समानांतर सिनेमा के नवसृजन के प्रमुख हस्ताक्षर बने। उन्होंने 1973 में पहली फिल्म 'अंकुर' बनाई। गांवों में शहरी घुसपैठ के परिणामों पर बनी यह फिल्म सफल रही। 1975 में बेनेगल ने 'निशांत' और 1976 में 'मंथन' बनाई। 'मंथन' को भी राष्ट्रीय पुरस्कार नवाजा गया। उनकी मंडी, कलयुग और 'जुनून' भी बेहद चर्चित रही। जुड़े गोविंद निहलानी भी इसी रास्ते पर आगे बढ़े और ऐसी ही फिल्में बनाई। निहलानी की 1981 में आई 'आक्रोश' को दर्शकों के साथ समीक्षकों ने भी सराहा। पुलिस की विवशता पर अर्धसत्य, वायुसेना पर विजेता, मिल मालिक और मजदूरों के आपसी संघर्ष पर आघात, समाज के नवधनाढ्य वर्ग के खोखलेपन पर 'पार्टी' और आतंकवाद पर 'द्रोहकाल' बनाई। 
    1980 में मणि कौल ने गजानन माधव मुक्तिबोध की रचना पर 'सतह से उठता आदमी' का निर्माण किया। 1983 में कुंदन शाह ने कालजयी फिल्म 'जाने भी दो यारों' बनाई। 1984 में सईद अख्तर मिर्जा ने 'मोहन जोशी हाजिर हो' और 'अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है' बनाकर नए रास्ते खोले। 1986 में केतन मेहता ने स्मिता पाटिल को लेकर 'मिर्च मसाला' बनाई। लेकिन, 2000 के बाद फिर यथार्थवादी सिनेमा के घोड़े बदले अंदाज में परदे पर दौड़े। इस दौर में प्रायोगिक फिल्मों के नाम से नए प्रयोग हुए। मणिरत्नम ने 'दिल से' और 'युवा' बनाई तो नागेश कुकुनूर ने 'तीन दीवारें' और डोर परदे पर उतारी। सुधीर मिश्रा की हजारों ख्वाहिशें ऐसी, जानू बरूआ की मैने गाँधी को नहीं मारा, नंदिता दास की फिराक, ओनिर की 'माय ब्रदर निखिल' और 'बस एक पल' ने माहौल बदलना शुरू किया। 
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