Tuesday, October 14, 2025

जीवन का सच दिखाने वाला सिनेमा कहां गुम

      सिनेमा को मनोरंजन का सशक्त माध्यम माना जाता है। लेकिन, मनोरंजन का आशय सिर्फ मन बहलाव नहीं होता। प्रेम कहानियों, नाच-गाने और मारधाड़ के बाद फिल्म का सुखांत ही मनोरंजन नहीं होता। जीवन के यथार्थ, लोगों की पीड़ा और सच्चाई से रूबरू होना भी मनोरंजन का एक अहम हिस्सा है। इन फिल्मों की कहानियां ख़ास इसलिए होती है, साथ ही ये अपनी या अपने आसपास की लगती है। इन फिल्मों में शोषण, अंधविश्वास और धार्मिक पाखंड पर चोट, युवा वर्ग का असंतोष, महिलाओं पर अत्याचार, भेदभाव जैसे कई सामाजिक मुद्दे दिखाई देते हैं। लेकिन, धीरे-धीरे जीवन का सच दिखाने वाली ये फ़िल्में परदे से लोप हो गई। 
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- हेमंत पाल

   मानांतर सिनेमा जीवन का यथार्थ बहुत गहराई से दिखाता रहा है। यह हिंदी सिनेमा का वह पक्ष है, जिसमें आम आदमी के जीवन की जद्दोजहद, सामाजिक असमानता और बदलाव को सही ढंग से दर्शाया जाता है। ऐसे सिनेमा को 'आर्ट सिनेमा' या 'नया सिनेमा' नाम भी दिया गया। फिल्मों के कथानक का यह चलन 1950 के दशक में पश्चिम बंगाल से शुरू हुआ और बाद में इसे हिंदी समेत हर भाषा के सिनेमा ने अपनाया। इसका मकसद जीवन के कठोर यथार्थ, समाज के हाशिए पर खड़े वर्गों, दलितों, महिलाओं, और गरीबों की समस्याओं को दर्शकों के सामने लाना रहा, जिससे दर्शक खुद को जुड़ा महसूस करे। इसकी यथार्थ परक कहानियां आम लोगों की सामाजिक और आर्थिक जिंदगी से जुड़ी होती हैं। मसलन गरीबी, बेरोजगारी, जातिगत भेदभाव, और स्त्री-पुरुष संबंध। 
      ये फिल्में वास्तविक लोकेशनों पर शूट की जाती हैं और संवाद व किरदार स्वाभाविक होते हैं। ऐसी फिल्मों का निर्माण भी साधारण और वास्तविक होता है। श्याम बेनेगल की फ़िल्में अंकुर, मंथन और भूमिका, मणि कौल की 'उसकी रोटी' और 'दुविधा' के अलावा सत्यजीत रे की 'पाथेर पांचाली' के साथ मृणाल सेन, ऋत्विक घटक जैसे निर्देशक इस आंदोलन के अग्रणी रहे। इनकी फिल्मों में व्यावसायिकता की बजाय कलात्मकता, गहराई और सामाजिक प्रतिरोध देखने को मिलता है। पर, आज ऐसा सिनेमा लुप्त होने लगा। बरसों से ऐसी कोई फिल्म नजर ही नहीं आई। 
      ऐसी फ़िल्में जीवन का यथार्थ दिखाती है जैसे 'अंकुर' (श्याम बेनेगल) खेतिहरों और गरीब तबके की ज़िंदगी की सच्चाई को दिखाती है। 'उसकी रोटी' (मणि कौल) और 'माया दर्पण' (कुमार साहनी) ग्रामीण भारत की गहन समस्याओं को बेहद संवेदनशीलता से प्रस्तुत करती हैं। वास्तव में समानांतर सिनेमा ने ही गंभीर दर्शकों को फिल्मों के ज़रिए आम आदमी की पीड़ा को लेकर सोचने पर मजबूर किया। महिलाओं और वंचित वर्गों की भूमिका, विद्रोह और स्वतंत्र पहचान को बड़े संवेदनशील तरीके से उजागर किया गया। समानांतर सिनेमा का मकसद दर्शक को यथार्थ के करीब लाना और सांस्कृतिक-सामाजिक बदलाव की चेतना को जगाना रहा है यह भारतीय समाज के 'सच्चे आईने' का काम करती है। दरअसल, समानांतर सिनेमा जीवन का यथार्थ बड़े सशक्त ढंग से दर्शाता है। यही इसकी सबसे बड़ी खासियत भी है। ऐसे सिनेमा का मुख्य केंद्र यथार्थवादी विषय रहा है, जिसमें आम आदमी के जीवन, उसकी समस्याओं, गरीबी, वर्ग भेद, सामाजिक अन्याय, महिला समस्याएं और राजनीतिक परिस्थितियाँ दिखायी जाती हैं।
      इन फिल्मों में किरदार और कथानक बहुत वास्तविक व स्वाभाविक होते हैं। इसमें गैर-पेशेवर कलाकार होते हैं, जिनसे कथानक की वास्तविकता गहराई से सामने आती है। पारंपरिक सिनेमा की तरह मनोरंजन या सपनों की दुनिया पर नहीं, बल्कि समाज की सच्चाइयों को विषय वस्तु बनाकर, बदलाव और सवाल उठाए जाते हैं। नारी सशक्तिकरण, जातिवाद, अशिक्षा, शहरी-ग्रामीण भेद, आर्थिक विषमताएं ऐसे मुद्दे समानांतर सिनेमा की पहचान रहे हैं। ऐसी फिल्मों की मुख्य विशेषताओं में मुद्दों और पात्रों की वास्तविकता को महत्व देना होता है। सादगीपूर्ण कला निर्देशन, प्राकृतिक प्रकाश, लंबे शॉट्स, और धीमी गति की कहानी ताकि दर्शक सोच सके और उससे जुड़ाव महसूस करे। सत्यजीत रे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक, श्याम बेनेगल जैसे निर्माता-निर्देशकों ने इस धारा को स्थापित किया। 
    समानांतर सिनेमा ने फिल्म को सामाजिक बदलाव और जागरूकता का माध्यम बनाया। यथार्थ दिखाने की शैली ने भारतीय दर्शकों के साथ साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंच तक वास्तविकता की गूंज पहुंचाई। इस प्रकार, समानांतर सिनेमा जीवन के यथार्थ के विविध पहलुओं को बिना बनावटीपन के प्रस्तुत करने के लिए जाना जाता है, और यही इसकी ताकत है। समानांतर सिनेमा को जीवन का यथार्थ कहा जरूर गया, लेकिन माना नहीं गया। क्योंकि, समानांतर सिनेमा का कैमरा हमेशा दमित और शोषित वर्ग पर ही फोकस होता रहा है। जबकि, सिर्फ दमन और शोषण ही समाज का यथार्थ नहीं है! समाज के यथार्थ में खुशी और गम दोनों शामिल होते हैं। फकत गम को ही समाज का यथार्थ या समानांतर सिनेमा का सच नहीं माना जा सकता। यदि समाज के यथार्थ में जीवन के सभी पक्षों को शामिल किया जाए, तो इसे समानांतर नहीं यथार्थवादी सिनेमा कहना ज्यादा उचित होगा। यदि इसमें 'अंकुर' शामिल है, तो 'हम साथ साथ है' को भी शामिल किया जा सकता है। समझा जाता है कि हमारा समानांतर सिनेमा इटैलियन न्यू रियलिज्म, फ्रांस के फ्रेंच न्यू वेव और जापान के न्यू वेव सिनेमा से प्रभावित रहा। 
     भारतीय सिनेमा में भी यथार्थवादी झलक बहुत पुरानी बात रही। ऐसी फिल्मों की नींव 1920 से 30 के दशक में ही पड़ गई थी। 1925 में बाबूराव पेंटर ने अपनी मूक फिल्म 'सावकारी पाश' बनाई, जिसमें वी शांताराम ने गरीब किसान का किरदार निभाया था। ये किसान अपनी जमीन एक साहूकार को देने के लिए मजबूर हो जाता है और गांव छोड़कर शहर में मिल मजदूर बन जाता है! इसे भारत की पहली समानांतर फिल्म माना जाता है। महिलाओं की दुर्दशा पर भी 1937 में बनी फिल्म 'दुनिया ना माने' भी ऐसी ही फिल्म थी। लेकिन, ये परंपरा तब आगे नहीं पढ़ सकी। 1940 से 1960 के दशक में समानांतर सिनेमा ने फिर करवट ली। इस दौर में उसे सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, बिमल राय, मृणाल सेन, ख्वाजा अहमद अब्बास, चेतन आनंद और वी शांताराम ने पल्लवित किया। इन फिल्मों पर साहित्य की गहरी छाप थी। चेतन आनंद ने 1946 में 'नीचा नगर' जैसी फिल्म बनाई, जिसे कॉन फिल्म फेस्टिवल में ग्रैंड प्राइज मिला था। इस परम्परा को ही बाद में श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, अदूर गोपालकृष्णन तथा गिरीश कासरवल्ली ने बढ़ाया। 
     ऐसी फ़िल्में बनाने वाले फिल्मकारों में गुरुदत्त भी थे, जिन्होंने कला और फार्मूला सिनेमा को जोड़ने का काम किया। उनकी फिल्म 'प्यासा' को हिंदी सिनेमा की कालजयी फिल्म माना जाता है। अमेरिका की 'टाइम' पत्रिका ने इसे 'ऑल टाइम बेस्ट 100 मूवी' में जगह दी है। लेकिन, कला फिल्मों से व्यावसायिक सफलता पाने में ऋषिकेश मुखर्जी की भी कोई बराबरी नहीं कर सकता। इस तरह की फिल्मों के दर्शकों का एक विशेष वर्ग होता है। दर्शकों का दायरा सीमित होने के कारण इन फिल्मों की व्यावसायिक सफलता संदिग्ध हमेशा ही मानी गई। लेकिन, कई कला फिल्में ऐसी हैं, जिन्हें बॉक्स ऑफिस पर अच्छी सफलता मिली। आजादी के बाद 50 और 60 के दशक में सिनेमा दो धाराओं में बंट गया। एक धारा में सामाजिक सरोकार के चिंतन को स्थान दिया गया। दूसरी धारा में मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा बढ़ा! इसे मुख्यधारा का सिनेमा कहा गया। दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे, जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. दर्शकों ने समानांतर सिनेमा को व्यावसायिक सिनेमा से इतर हटकर एक नए विकल्प के रूप में देखा।
    हिंदी में समानांतर सिनेमा की नई शुरुआत 1969 में मृणाल सेन की फिल्म 'भुवन सोम' को माना जाता है। 1976 में मृणाल ने 'मृगया' बनाई, जो मिथुन चक्रवर्ती की पहली फिल्म थी। जिसमें मिथुन ने एक आदिवासी क्रांतिकारी का किरदार निभाया था, जो पत्नी के यौन शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है। बाद में सत्यजीत रे ने हिंदी में पहले ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और बाद में ‘सद्गति’ बनाई। सत्यजीत रे के फ़िल्मी कथ्य में एक अलग ही शिल्प होता था। सुंदर छायांकन, विलक्षण दृष्टि बोध और दृश्य संयोजन के मामले में तो वे सदैव अनन्य रहे। 1953 में आई बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’ ने समीक्षकों की प्रशंसा के साथ व्यावसायिक सफलता भी प्राप्त की थी। इसे कॉन फेस्टिवल (1954) में भी अंतर्राष्ट्रीय सम्मान भी मिला। इसके बाद बिमल रॉय ने बिराज बहू, देवदास, सुजाता और 'बंदिनी' फिल्में बनाई। 1970 और 1980 के दौरान समानांतर सिनेमा ने जमकर विकास किया। श्याम बेनेगल शैली के फिल्मकारों का हौसला बुलंद हुआ! इसी दौर में शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, रेहाना सुल्तान, साधु मैहर, अमोल पालेकर, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर, गिरीश कर्नाड के साथ समय-समय पर रेखा और हेमा मालिनी का भी सानिध्य मिला।
    श्याम बेनेगल समानांतर सिनेमा के नवसृजन के प्रमुख हस्ताक्षर बने। उन्होंने 1973 में पहली फिल्म 'अंकुर' बनाई। गांवों में शहरी घुसपैठ के परिणामों पर बनी यह फिल्म सफल रही। 1975 में बेनेगल ने 'निशांत' और 1976 में 'मंथन' बनाई। 'मंथन' को भी राष्ट्रीय पुरस्कार नवाजा गया। उनकी मंडी, कलयुग और 'जुनून' भी बेहद चर्चित रही। जुड़े गोविंद निहलानी भी इसी रास्ते पर आगे बढ़े और ऐसी ही फिल्में बनाई। निहलानी की 1981 में आई 'आक्रोश' को दर्शकों के साथ समीक्षकों ने भी सराहा। पुलिस की विवशता पर अर्धसत्य, वायुसेना पर विजेता, मिल मालिक और मजदूरों के आपसी संघर्ष पर आघात, समाज के नवधनाढ्य वर्ग के खोखलेपन पर 'पार्टी' और आतंकवाद पर 'द्रोहकाल' बनाई। 
    1980 में मणि कौल ने गजानन माधव मुक्तिबोध की रचना पर 'सतह से उठता आदमी' का निर्माण किया। 1983 में कुंदन शाह ने कालजयी फिल्म 'जाने भी दो यारों' बनाई। 1984 में सईद अख्तर मिर्जा ने 'मोहन जोशी हाजिर हो' और 'अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है' बनाकर नए रास्ते खोले। 1986 में केतन मेहता ने स्मिता पाटिल को लेकर 'मिर्च मसाला' बनाई। लेकिन, 2000 के बाद फिर यथार्थवादी सिनेमा के घोड़े बदले अंदाज में परदे पर दौड़े। इस दौर में प्रायोगिक फिल्मों के नाम से नए प्रयोग हुए। मणिरत्नम ने 'दिल से' और 'युवा' बनाई तो नागेश कुकुनूर ने 'तीन दीवारें' और डोर परदे पर उतारी। सुधीर मिश्रा की हजारों ख्वाहिशें ऐसी, जानू बरूआ की मैने गाँधी को नहीं मारा, नंदिता दास की फिराक, ओनिर की 'माय ब्रदर निखिल' और 'बस एक पल' ने माहौल बदलना शुरू किया। 
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