जब देशभर में दिवाली का त्यौहार मनाया जा रहा था, सिनेमा का एक दीपक बुझ गया। जिसने दशकों तक दर्शकों को गुदगुदाया और ठहाके लगाने को मजबूर किया वो कलाकार चुपचाप चल दिया। जिसने जीवन भर सिनेमा के दर्शकों को हंसाया, वो इतनी गुमनामी से विदा हो गया कि किसी को खबर तक नहीं होने दी। क्योंकि, ये उनकी आखिरी इच्छा थी, जिसे उनकी पत्नी ने निभाया। 84 साल की उम्र में असरानी का निधन हो गया। साढ़े 300 फिल्मों में अलग-अलग किरदार निभाने वाले असरानी को असल पहचान मिली कॉमेडी से। लेकिन, 'शोले' में जेलर की छोटी सी भूमिका में उनका अभिनय इतना जीवंत था, कि वो आज भी भुलाया नहीं जा सका। हिटलर जैसी मूंछों और हाथ में छड़ी लेकर असरानी ने अपने किरदार को जिस तरह जिया, उसके सामने एक बार तो अमिताभ और धर्मेंद्र भी फीके पड़ गए थे।
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- हेमंत पाल
हिंदी फिल्मों के कुछ एक्टर ऐसे हुए, जिनके कुछ किरदार मील का पत्थर बन गए। ऐसा ही एक यादगार किरदार है 'अंग्रेजों के ज़माने का जेलर' यानी 'शोले' के असरानी। 70 के दशक से फिल्मों में आए गोवर्धन असरानी ने कई सालों तक परदे पर कॉमिक कैरेक्टर जिया। उन्होंने अपने अभिनय जीवन में सहज हास्य और जीवंत संवाद डिलीवरी के जरिए सिनेमा में अपनी पहचान बनाई। असरानी की अदाकारी केवल फिल्मों तक सीमित नहीं थी, बल्कि दिल्ली की रामलीला में भी उन्होंने नारद मुनि, रावण के मंत्री जैसे किरदार निभाकर कई बार दर्शकों का दिल जीता। उन्होंने सिर्फ हिंदी के सिनेमा में ही कॉमेडी नहीं की, बल्कि गुजराती, राजस्थानी समेत कई भाषाओं की फिल्मों में काम किया और निर्देशन में भी हाथ आजमाया। उनका 'शोले' का किरदार यादगार इसलिए बन गया कि उस रोल में उनकी बेहतरीन कॉमिक टाइमिंग रही। असरानी ने अपना अभिनय सिर्फ कॉमेडी तक ही सीमित नहीं रखा, उन्होंने गंभीर और चरित्र भूमिकाएं भी निभाईं, जिससे उनके अभिनय की गहराई और बहुमुखी प्रतिभा दिखाई दी। यहां तक कि उनकी कॉमेडी में भी गहराई और संवेदनशीलता झलकती थी, जो उन्हें हास्य कलाकार नहीं, बल्कि महान कलाकार बनाती थी।
असरानी की कॉमेडी में हल्के-फुल्के मजाक तक सीमित नहीं थी। उसमें समाज की सच्चाइयों और मानव स्वभाव की कमजोरियों पर भी व्यंग्य छिपा होता था। वे मजाक उड़ाने के बजाए चरित्र की कमजोरियों को समझाने और दर्शाने में दक्ष थे। इसलिए असरानी की कॉमेडी शैली को बहुत नैचुरल, टाइम्ड, विनम्र और सामाजिक-संदेशवाहक माना जाता रहा। इसीलिए उन्हें हिंदी सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित हास्य कलाकारों में से एक माना जाता रहा। उनकी कॉमिक भूमिका जीवन के यथार्थ को व्यंग्य से जोड़ती है, जिससे दर्शक उन्हें केवल हंसाने वाला नहीं, बल्कि सोचने वाला भी पाते थे। असरानी की कॉमेडी सहज और स्वाभाविक होती थी। वे जोकर या ओवर-द-टॉप से हास्य छिड़कने वाले कलाकार नहीं थे। बल्कि, वे अपनी भूमिका में पूरी तरह डूबकर उस किरदार की नाटकीयता और ह्यूमर को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करते थे। असरानी की कॉमिक टाइमिंग शानदार थी।
उनकी डायलॉग डिलीवरी में एक खास रिदम और पंच लाइन होती थी, जो दर्शक को इस तरह गुदगुदाती थी, कि वो हंसने पर मजबूर हो जाता था। उनका अंदाज और टाइमिंग वाले संवाद प्रभावशाली होते थे। असरानी ने सिनेमा में सिर्फ कॉमेडी ही नहीं की। उन्होंने निर्देशन की कमान भी संभाली। 1977 में एक सेमी बायोग्राफिकल फिल्म 'चला मुरारी हीरो बनने' बनाई। पर, इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। इसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी। बाद में सलाम मेमसाब, हम नहीं सुधरेंगे, दिल ही तो है और 'उड़ान' फिल्में बनाई। असरानी ने पिया का घर, मेरे अपने, परिचय, बावर्ची, नमक हराम, अचानक, अनहोनी जैसी कई बड़ी फिल्मों में अलग तरह के किरदार निभाए। हालांकि दर्शकों ने उन्हें कॉमेडियन के रोल में ही ज्यादा पसंद किया। 1972 में आई फिल्म 'कोशिश' और 'चैताली' में असरानी ने निगेटिव भूमिकाएं भी की। किंतु, दर्शकों के दिमाग उनकी कॉमिक इमेज ऐसी बनी, जिसे भुलाया नहीं जा सका और यही उनके लिए फायदेमंद भी रहा।
उनकी कॉमेडी में जीवन के व्यंग्य और सामाजिक वास्तविकता झलकती थी, इसलिए उनका हास्य केवल मनोरंजन का माध्यम न होकर समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण रखता था। 'शोले' के जेलर वाले रोल में वे बिना ज़ोर-शोर के भी हंसाने में कामयाब रहे। वे मुखर थे, लेकिन कभी भी कॉमेडी में अधीरता या बेवजह के शोरगुल का सहारा नहीं लिया। उनका अभिनय शालीन और संयमित होने के साथ ऐसा होता था, जो दर्शकों के बीच माहौल को हल्का-फुल्का और दिल खुश करने वाला होता रहा। उनके समकालीन रहे महमूद की कॉमेडी वाले सीन ऊर्जावान और विज़ुअली प्रमोटेड कॉमेडी के लिए जाने जाते थे। इसके अलावा जॉनी लीवर या राजपाल यादव से भी उनकी तुलना की जाए, तो असरानी का अंदाज ज्यादा क्लासिक, रियल और नैचुरल था। उनकी कॉमेडी में कभी फूहड़ता नहीं दिखाई दी। महमूद और असरानी हिंदी सिनेमा के दो अलग-अलग कॉमेडी स्टाइल के धुरंधर कलाकार थे। जहां महमूद का अंदाज एनर्जेटिक था, वहीं असरानी की कॉमेडी हंसाने के बाद सोचने को भी मजबूर करती थी। इन दोनों कॉमेडियन ने हिंदी फिल्मों में कॉमेडी को नई पहचान दी, लेकिन उनकी शैली और प्रस्तुति के तरीके में काफी अंतर था।
सिनेमा से जुड़ी कोई भी विधा हो। यदि कलाकार में दम हो, तो वो अपने जीवन में कुछ ऐसा अजूबा कर जाता है, जो मील का पत्थर बन जाता है। असरानी ने भी अपने करियर में करीब 350 फिल्मों में काम किया। लेकिन, 'शोले' (1975) में उनके जेलर के किरदार ने उन्हें अलग ही पहचान दी। उनका हिटलर जैसा लुक, छड़ी उठाने का अंदाज और संवाद 'आधे इधर जाओ, आधे इधर जाओ और बाकी हमारे पीछे आओ' कॉमेडी का मास्टरपीस माना जाता है। फिल्म के इस दृश्य को हिंदी सिनेमा के सबसे यादगार कॉमिक सीन में गिना जाता है। फिल्म में अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र की एक्टिंग की जितनी चर्चा हुई, उतनी ही असरानी के जेलर वाले रोल की भी हुई। 'हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं' इस डायलॉग ने कोने-कोने में वो गूंज पैदा कर दी थी। जिसने भी असरानी को देखा और सुना वो उनकी तारीफ किए बिना खुद को रोक नहीं सका। कोई विश्वास नहीं करेगा, पर अमिताभ बच्चन की कई फिल्मों में तो असरानी ने बराबरी की रोल निभाए थे। जैसे 'अभिमान' में जिसमें उन्होंने कॉमेडी नहीं की, बल्कि चरित्र अभिनेता का रोल किया था।
फिल्मों में असरानी के डायलॉग सटीक और प्रभावशाली होते थे, जिसकी पंचलाइन इतनी स्वाभाविक होती थी कि बिना कहे भी हंसा देते थे। उनकी कॉमिक टाइमिंग उनकी ह्यूमर की आत्मा थी। हर संवाद और एक्सप्रेशन का समय इतना परफेक्ट होता था कि दर्शक हंसी रोक नहीं पाते। उनकी कॉमेडी केवल मजाक तक सीमित नहीं था, बल्कि सामाजिक और मानवीय कमजोरियों पर व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण से भी था, जो सोचने पर मजबूर करता था। उनका ह्यूमर असामान्य नहीं, बल्कि जीवन के नियमित पहलुओं में पूरी तरह प्राकृतिक ढंग से दिखाया जाता था, जो हर वर्ग के दर्शक पसंद करते थे। उनकी एक्टिंग में शारीरिक हाव-भाव, मुंह बनाना और चेहरे के एक्सप्रेशन भी हास्य को और प्रभावी बनाते थे। यही तत्व मिलकर असरानी के ह्यूमर को गहराई, सूक्ष्मता और निरंतरता प्रदान करते थे, जिससे उनकी कॉमेडी आज भी यादगार और असरदार मानी जाती है। चुपके-चुपके (1975) में असरानी का विट्टी और क्लेवर किरदार ऐसा था, जिसने बड़े कलाकारों के बीच अपनी कॉमेडी से अलग पहचान बनाई। धमाल (2007) जैसी फिल्मों में असरानी ने पुलिस इंस्पेक्टर के रूप में कमाल की कॉमेडी की। भूल भुलैया, ऑल द बेस्ट और 'जैसी करनी वैसी भरनी' जैसी फिल्मों में भी असरानी के मजेदार कॉमेडी सीन बहुत लोकप्रिय हैं। कादर खान के साथ असरानी की जोड़ी ने भी कई धमाकेदार कॉमेडी सीन दिए।
गोवर्धन असरानी का जन्म 1941 को जयपुर में हुआ। उनके पिता एक कॉरपेट कंपनी में मैनेजर के पद पर नौकरी करते थे। अपनी पढ़ाई-लिखाई भी उन्होंने यहीं की। लेकिन, उनका झुकाव फिल्मों की तरफ ज्यादा था। उन्होंने पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में दाखिला लेने का मन बनाया और एक्टिंग करने का सोचा और घर से भागकर मुंबई आ गए। उससे पहले उन्होंने दो-तीन साल तक जयपुर आकाशवाणी में काम किया फिर पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में एडमिशन लिया। असरानी जहां एक्टिंग सीख रहे थे, वहीं डायरेक्टर ऋषिकेश मुखर्जी आया करते थे। उनसे असरानी का पहले से परिचय था। ऋषिकेश मुखर्जी की टीम में गुलजार भी थे। उन्हें लगा कि शायद बात बन जाए। उन दिनों ऋषिकेश मुखर्जी फिल्म 'गुड्डी' के लिए जया भादुड़ी को खोज रहे थे। बात आगे बढ़ी, तो ऋषिकेश मुखर्जी ने असरानी को वही रोल दिया, जो वे चाहते थे।
इससे पहले 1967 में असरानी 'हरे कांच की चूड़ियां' फिल्म में एक रोल कर चुके थे। पर, इस फिल्म से असरानी को कोई पहचान नहीं मिली। इसके बाद उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी की 'सत्यकाम' में भी काम किया। उन्हें इंतजार था ऐसी फिल्म का जिससे उनके करियर को दिशा मिले। ये हुआ 'गुड्डी' के साथ। इसके बाद उनके करियर की गाड़ी चल पड़ी। एक के बाद एक फिल्में मिलने लगी। शोर, रास्ते का पत्थर, बावर्ची, सीता और गीता और 'अभिमान' समेत कई फिल्मों में काम किया। खास बात यह कि उनकी एक्टिंग इतनी कमाल थी कि फिल्मकार उनके लिए कोई न कोई रोल लिख ही देते थे। इसके बाद 1975 में असरानी को अपने करियर की सबसे बड़ी फिल्म मिली 'शोले' जिसने उन्हें अंग्रेजों के ज़माने के जेलर की यादगार पहचान देकर उस किरदार को अमर कर दिया।
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