Friday, October 31, 2025

दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे : सिनेमा के परदे पर चिर रोमांस के तीन दशक

    आदित्य चोपड़ा निर्देशित फिल्म 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' ने बीते 20 अक्टूबर को 30 साल पूरे किए। इसे हिंदी सिनेमा जगत की सबसे रोमांटिक फिल्मों में गिना जाता है। यही वजह है, कि यह फिल्म आज भी हर पीढ़ी के दर्शकों के दिलों पर राज करती है। शाहरुख खान और काजोल की जोड़ी ने इसमें राज और सिमरन के किरदारों को अमर कर दिया। फिल्म ने न सिर्फ फिल्मों में रोमांस की नई परिभाषा दी, बल्कि भारतीय समाज की सांस्कृतिक और पारिवारिक स्थितियों को भी दर्शाया। फिल्म में यूरोप की पृष्ठभूमि में रिश्तों की जटिलताओं और पारंपरिक मूल्य प्रणाली के बीच अजब संतुलन नजर आया। साथ ही इस फिल्म ने रोमांटिक फिल्मों के लिए भी एक बेंचमार्क तय किया और इसीलिए यह सदाबहार प्रेम कहानियों में गिनी जाती है।
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- हेमंत पाल

   फिल्मों में रोमांस एक स्थाई भाव है। फिल्म का कथानक कुछ भी हो, उसमें नायक-नायिका के रोमांस का प्रसंग जरूर होता है। आज भी जब किसी रोमांटिक फिल्म का ज़िक्र किया जाता है, तो बात 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' पर आकर रुक जाती है। इसलिए कि यह फिल्म परदे पर चिर-रोमांस का प्रतीक है। 1995 में रिलीज होने के बाद से दर्शकों के दिलों में बसी और राज और सिमरन की ऑन-स्क्रीन केमिस्ट्री पर टिकी है। फिल्म की सफलता और तीन दशकों की लोकप्रियता के पीछे कई कारण हैं। इसमें शाहरुख खान और काजोल का अभिनय, आदित्य चोपड़ा का सधा हुआ निर्देशन और दर्शकों के लिए एक अनोखी और रोमांचक प्रेम कहानी है। यह पारंपरिक प्रेम कहानियों से हटकर है, जहां राज सिमरन के पिता को मनाता है, ताकि वे शादी के लिए राजी हों। यह फिल्म 30 साल से मुंबई के एक सिनेमाघर में चल रही है, जो इसकी लोकप्रियता को प्रत्यक्ष प्रमाण है। 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' ने प्रेम कहानियों का एक नया ट्रेंड उस समय सेट किया, जब एक्शन और अपराध कथाओं वाली फिल्में ज्यादा पसंद की जाती थीं।
       तीन दशक पहले यह फिल्म रोमांस की एक परिपक्व और पारिवारिक कहानी के रूप में सामने आई थी। फिल्म के गानों ने बरसों तक लुभाया। इसके एक संवाद 'बड़े बड़े देशों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती हैं' आज भी कई बार बातचीत में उपयोग किया जाता है। सबसे रोचक है क्लाइमैक्स जब सिमरन का पिता बेटी को राज के साथ जाने की इजाजत देता है और वो भागकर ट्रेन पकड़ती है। वो दृश्य आज भी दर्शकों के दिल में बसा है। इसे हिंदी सिनेमा की सबसे लोकप्रिय फिल्मों में एक माना जाता है। इसकी कहानी दो एनआरआई युवाओं राज और सिमरन पर केंद्रित है। दोनों स्विट्जरलैंड में संयोग से मिलते हैं, जहां ट्रेन यात्रा के दौरान दोनों में मोहब्बत हो जाती है। फिल्म में पंजाब के खेत, स्विस पहाड़ियां और पारंपरिक भारतीय संस्कृति का शानदार मेलजोल है। ये पहली बार था, जब किसी हिंदी फिल्म में एनआरआई जीवन को इतने रोमांटिक तरीके से दिखाया गया। यह फिल्म सिर्फ दो किरदारों के बीच गुंथी हुई प्रेम कहानी नहीं, बल्कि इसमें मजबूत महिला पात्रों की भूमिका भी है जो पारंपरिक सीमाओं के बीच अपनी आजादी के पल खोजती हैं। यह फिल्म रोमांस को एक सांस्कृतिक और भावनात्मक प्रतीक बनाती है। फिल्म न केवल मील का पत्थर है, बल्कि प्रेम, परिवार, सम्मान और परंपरा के बीच संतुलन की एक जीती-जागती कहानी भी है।
    इस फिल्म के बनने की कहानी भी रोचक है। आदित्य चोपड़ा ने इस फिल्म से निर्देशन की शुरुआत की। किंतु, इससे पहले स्क्रिप्ट लिखने में ही तीन साल लग गए। देरी का एक कारण यह भी रहा कि शाहरुख खान को राज के किरदार के लिए मनाने में मुश्किल हुई। क्योंकि, वे 'दर्शन' जैसी सीरियस फिल्म में बिजी थे। फिर भी यश चोपड़ा को भरोसा था कि यह फिल्म शाहरुख को सुपरस्टार बनाएगी और उनका यह भरोसा सही साबित हुआ। फिल्म में सिमरन के रोल के लिए काजोल को चुना गया, जो 'बाजीगर' में शाहरुख़ के सामने विलेन बन चुकी थी। फिल्म का बजट उस समय के हिसाब 20 करोड़ रुपए था, जो उस समय के हिसाब से बहुत बड़ा था। फिल्म की आउटडोर शूटिंग स्विट्जरलैंड और लंदन के बाद पंजाब में हुई। 200 दिन की शूटिंग के दौरान कई दिलचस्प किस्से भी हुए। एक गाने 'गाड़ी चलाओ बाबू' के लिए ट्रेन को रोका गया था। फिल्म की कहानी, निर्देशन और अभिनय के साथ ही इसके संगीत ने भी फिल्म को अमर बनाया। फिल्म का टाइटल सांग 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' सबसे पसंद किया गया। 30 साल में इन गानों से एक हजार करोड़ से ज्यादा कमाई हुई। 
    'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' की सफलता और फिल्म के यादगार बनने के पीछे लोकप्रिय और सांस्कृतिक प्रभाव वाले कुछ सीन का भी खास योगदान हैं। इनमें ट्रेन और स्टेशन का वो क्लाइमैक्स सीन जहां राज ट्रेन से झांकता है और सिमरन का हाथ पकड़कर उसे ट्रेन पकड़ने के लिए भागने में मदद करता है। इस सीन में परिवार और प्यार के बीच की जटिलता, भावनात्मक संबंध और आज़ादी की भावना को खूबसूरती से दर्शाया गया। अमरीश पुरी का डायलॉग 'जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी' आज भी याद किया जाता है और यह भारतीय पिता-दृश्य में बदलाव की दास्तां कहता है। दूसरा सीन राज और सिमरन की पहली मुलाकात का है, जो कई बार फिल्मों में दोहराया गया। इस सीन में प्रेम की अनायास शुरुआत और युवाओं के उस दौर की बेफिक्री को दर्शाया गया। फिल्म में परिवार की अहमियत को दिखाते हुए, राज सिमरन के पिता का आशीर्वाद लेने की कोशिश करता है, जो भारतीय संस्कृति में सम्मान और पारंपरिकता का संदेश देता है। 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' ने भारतीय और प्रवासी भारतीय समाज में परिवार, प्रेम, और सम्मान के बीच संतुलन बनाने की भी कोशिश की। इसने भारतीय संस्कृति को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई और भारतीय प्रवासी समुदाय के लिए गर्व का विषय बनी।
      20 अक्टूबर 1995 को जब यह फिल्म रिलीज हुई तो काफी धमाल किया था। 5 स्क्रीन पर रिलीज हुई इस फिल्म ने पहले हफ्ते में 10.25 करोड़ कमाए थे। फिल्म ने देश में 102 करोड़, विदेश में 61 करोड़ यानी कुल 163 करोड़ की कमाई की और 1995 की यह सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बनी थी। आज तक भी यह सबसे ज्यादा चलने वाली हिंदी फिल्म है। फिल्म ने अभी तक कई रिकॉर्ड बनाए। यह पहली भारतीय फिल्म थी, जिसने विदेश में 50 करोड़ कमाए। ऑस्कर में भी नामांकन मिला। फिल्म ने 3 फिल्मफेयर अवॉर्ड सर्वश्रेष्ठ फिल्म, निर्देशक और संगीत का जीता। शाहरुख को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता नहीं मिला, लेकिन लोकप्रियता मिली। अमरीश पुरी का 'पाजी' डायलॉग तो आज भी लोकप्रिय है। फिल्म ने फैमिली वैल्यूज को बढ़ावा दिया।
     राज और सिमरन का रेलवे स्टेशन वाला सीन प्यार करने वालों के साथ परंपरागत परिवारों के लिए भी एक मिसाल माना जाता है। फिल्म के गाने, डायलॉग और सरसों के खेत यादगार हिस्सा बन गए। इस फिल्म का थोड़ा सा अंश हर उस रोमांटिक फिल्म में मौजूद है, जो उसके बाद बनी। ‘सिमरन’ कई भारतीय लड़कियों में आज भी जिंदा है, जो अपने परिवार की मर्जी को मानती हैं, पर दिल में आजादी भी चाहती हैं। यही वजह है कि यह फिल्म आज भी दर्शकों के दिलों को छूती है। क्लाईमैक्स में जब सिमरन के पिता कहते हैं 'जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी' तो यह सिर्फ डायलॉग नहीं रहता, बल्कि साहस और प्यार का प्रतीक बन जाता है। 
     जब कोई फिल्म 30 साल तक लोगों के दिलों में रहती है, तो वह सिर्फ कहानी नहीं रहती, बल्कि एक पूरी पीढ़ी की सोच और प्यार की परिभाषा बन जाती है।'डीडीएलजे' ने शाहरुख और काजोल की जोड़ी को हिंदी सिनेमा का सबसे लोकप्रिय ऑन-स्क्रीन कपल बना दिया, इसमें कोई शक नहीं। यह फिल्म धीरे-धीरे सांस्कृतिक मील का पत्थर बन चुकी है, जिसने दर्शकों को यह विश्वास दिलाया कि सच्चा प्यार हमेशा जीतता है। जब कोई फिल्म एक घटना बन जाती है, तो वह सिर्फ कहानी नहीं रहती, भावना बन जाती है। आदित्य चोपड़ा की दूरदृष्टि फिल्म की असली ताकत थी। परिवार, परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाना और दिल की बात सुनने का साहस, ये विषय कभी पुराने नहीं होते।
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Wednesday, October 22, 2025

अंग्रेजों के ज़माने के जेलर जीवन से रिटायर

    जब देशभर में दिवाली का त्यौहार मनाया जा रहा था, सिनेमा का एक दीपक बुझ गया। जिसने दशकों तक दर्शकों को गुदगुदाया और ठहाके लगाने को मजबूर किया वो कलाकार चुपचाप चल दिया। जिसने जीवन भर सिनेमा के दर्शकों को हंसाया, वो इतनी गुमनामी से विदा हो गया कि किसी को खबर तक नहीं होने दी। क्योंकि, ये उनकी आखिरी इच्छा थी, जिसे उनकी पत्नी ने निभाया। 84 साल की उम्र में असरानी का निधन हो गया। साढ़े 300 फिल्मों में अलग-अलग किरदार निभाने वाले असरानी को असल पहचान मिली कॉमेडी से। लेकिन, 'शोले' में जेलर की छोटी सी भूमिका में उनका अभिनय इतना जीवंत था, कि वो आज भी भुलाया नहीं जा सका। हिटलर जैसी मूंछों और हाथ में छड़ी लेकर असरानी ने अपने किरदार को जिस तरह जिया, उसके सामने एक बार तो अमिताभ और धर्मेंद्र भी फीके पड़ गए थे। 
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- हेमंत पाल

     हिंदी फिल्मों के कुछ एक्टर ऐसे हुए, जिनके कुछ किरदार मील का पत्थर बन गए। ऐसा ही एक यादगार किरदार है 'अंग्रेजों के ज़माने का जेलर' यानी 'शोले' के असरानी। 70 के दशक से फिल्मों में आए गोवर्धन असरानी ने कई सालों तक परदे पर कॉमिक कैरेक्टर जिया। उन्होंने अपने अभिनय जीवन में सहज हास्य और जीवंत संवाद डिलीवरी के जरिए सिनेमा में अपनी पहचान बनाई। असरानी की अदाकारी केवल फिल्मों तक सीमित नहीं थी, बल्कि दिल्ली की रामलीला में भी उन्होंने नारद मुनि, रावण के मंत्री जैसे किरदार निभाकर कई बार दर्शकों का दिल जीता। उन्होंने सिर्फ हिंदी के सिनेमा में ही कॉमेडी नहीं की, बल्कि गुजराती, राजस्थानी समेत कई भाषाओं की फिल्मों में काम किया और निर्देशन में भी हाथ आजमाया। उनका 'शोले' का किरदार यादगार इसलिए बन गया कि उस रोल में उनकी बेहतरीन कॉमिक टाइमिंग रही। असरानी ने अपना अभिनय सिर्फ कॉमेडी तक ही सीमित नहीं रखा, उन्होंने गंभीर और चरित्र भूमिकाएं भी निभाईं, जिससे उनके अभिनय की गहराई और बहुमुखी प्रतिभा दिखाई दी। यहां तक कि उनकी कॉमेडी में भी गहराई और संवेदनशीलता झलकती थी, जो उन्हें हास्य कलाकार नहीं, बल्कि महान कलाकार बनाती थी। 
    असरानी की कॉमेडी में हल्के-फुल्के मजाक तक सीमित नहीं थी। उसमें समाज की सच्चाइयों और मानव स्वभाव की कमजोरियों पर भी व्यंग्य छिपा होता था। वे मजाक उड़ाने के बजाए चरित्र की कमजोरियों को समझाने और दर्शाने में दक्ष थे। इसलिए असरानी की कॉमेडी शैली को बहुत नैचुरल, टाइम्ड, विनम्र और सामाजिक-संदेशवाहक माना जाता रहा। इसीलिए उन्हें हिंदी सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित हास्य कलाकारों में से एक माना जाता रहा। उनकी कॉमिक भूमिका जीवन के यथार्थ को व्यंग्य से जोड़ती है, जिससे दर्शक उन्हें केवल हंसाने वाला नहीं, बल्कि सोचने वाला भी पाते थे। असरानी की कॉमेडी सहज और स्वाभाविक होती थी। वे जोकर या ओवर-द-टॉप से हास्य छिड़कने वाले कलाकार नहीं थे। बल्कि, वे अपनी भूमिका में पूरी तरह डूबकर उस किरदार की नाटकीयता और ह्यूमर को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करते थे। असरानी की कॉमिक टाइमिंग शानदार थी। 
    उनकी डायलॉग डिलीवरी में एक खास रिदम और पंच लाइन होती थी, जो दर्शक को इस तरह गुदगुदाती थी, कि वो हंसने पर मजबूर हो जाता था। उनका अंदाज और टाइमिंग वाले संवाद प्रभावशाली होते थे। असरानी ने सिनेमा में सिर्फ कॉमेडी ही नहीं की। उन्होंने निर्देशन की कमान भी संभाली। 1977 में एक सेमी बायोग्राफिकल फिल्म 'चला मुरारी हीरो बनने' बनाई। पर, इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। इसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी। बाद में सलाम मेमसाब, हम नहीं सुधरेंगे, दिल ही तो है और 'उड़ान' फिल्में बनाई। असरानी ने पिया का घर, मेरे अपने, परिचय, बावर्ची, नमक हराम, अचानक, अनहोनी जैसी कई बड़ी फिल्मों में अलग तरह के किरदार निभाए। हालांकि दर्शकों ने उन्हें कॉमेडियन के रोल में ही ज्यादा पसंद किया। 1972 में आई फिल्म 'कोशिश' और 'चैताली' में असरानी ने निगेटिव भूमिकाएं भी की। किंतु, दर्शकों के दिमाग उनकी कॉमिक इमेज ऐसी बनी, जिसे भुलाया नहीं जा सका और यही उनके लिए फायदेमंद भी रहा।
    उनकी कॉमेडी में जीवन के व्यंग्य और सामाजिक वास्तविकता झलकती थी, इसलिए उनका हास्य केवल मनोरंजन का माध्यम न होकर समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण रखता था। 'शोले' के जेलर वाले रोल में वे बिना ज़ोर-शोर के भी हंसाने में कामयाब रहे। वे मुखर थे, लेकिन कभी भी कॉमेडी में अधीरता या बेवजह के शोरगुल का सहारा नहीं लिया। उनका अभिनय शालीन और संयमित होने के साथ ऐसा होता था, जो दर्शकों के बीच माहौल को हल्का-फुल्का और दिल खुश करने वाला होता रहा। उनके समकालीन रहे महमूद की कॉमेडी वाले सीन ऊर्जावान और विज़ुअली प्रमोटेड कॉमेडी के लिए जाने जाते थे। इसके अलावा जॉनी लीवर या राजपाल यादव से भी उनकी तुलना की जाए, तो असरानी का अंदाज ज्यादा क्लासिक, रियल और नैचुरल था। उनकी कॉमेडी में कभी फूहड़ता नहीं दिखाई दी। महमूद और असरानी हिंदी सिनेमा के दो अलग-अलग कॉमेडी स्टाइल के धुरंधर कलाकार थे। जहां महमूद का अंदाज एनर्जेटिक था, वहीं असरानी की कॉमेडी हंसाने के बाद सोचने को भी मजबूर करती थी। इन दोनों कॉमेडियन ने हिंदी फिल्मों में कॉमेडी को नई पहचान दी, लेकिन उनकी शैली और प्रस्तुति के तरीके में काफी अंतर था।   
    सिनेमा से जुड़ी कोई भी विधा हो। यदि कलाकार में दम हो, तो वो अपने जीवन में कुछ ऐसा अजूबा कर जाता है, जो मील का पत्थर बन जाता है। असरानी ने भी अपने करियर में करीब 350 फिल्मों में काम किया। लेकिन, 'शोले' (1975) में उनके जेलर के किरदार ने उन्हें अलग ही पहचान दी। उनका हिटलर जैसा लुक, छड़ी उठाने का अंदाज और संवाद 'आधे इधर जाओ, आधे इधर जाओ और बाकी हमारे पीछे आओ' कॉमेडी का मास्टरपीस माना जाता है। फिल्म के इस दृश्य को हिंदी सिनेमा के सबसे यादगार कॉमिक सीन में गिना जाता है। फिल्म में अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र की एक्टिंग की जितनी चर्चा हुई, उतनी ही असरानी के जेलर वाले रोल की भी हुई। 'हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं' इस डायलॉग ने कोने-कोने में वो गूंज पैदा कर दी थी। जिसने भी असरानी को देखा और सुना वो उनकी तारीफ किए बिना खुद को रोक नहीं सका। कोई विश्वास नहीं करेगा, पर अमिताभ बच्चन की कई फिल्मों में तो असरानी ने बराबरी की रोल निभाए थे। जैसे 'अभिमान' में जिसमें उन्होंने कॉमेडी नहीं की, बल्कि चरित्र अभिनेता का रोल किया था।  
      फिल्मों में असरानी के डायलॉग सटीक और प्रभावशाली होते थे, जिसकी पंचलाइन इतनी स्वाभाविक होती थी कि बिना कहे भी हंसा देते थे। उनकी कॉमिक टाइमिंग उनकी ह्यूमर की आत्मा थी। हर संवाद और एक्सप्रेशन का समय इतना परफेक्ट होता था कि दर्शक हंसी रोक नहीं पाते। उनकी कॉमेडी केवल मजाक तक सीमित नहीं था, बल्कि सामाजिक और मानवीय कमजोरियों पर व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण से भी था, जो सोचने पर मजबूर करता था। उनका ह्यूमर असामान्य नहीं, बल्कि जीवन के नियमित पहलुओं में पूरी तरह प्राकृतिक ढंग से दिखाया जाता था, जो हर वर्ग के दर्शक पसंद करते थे। उनकी एक्टिंग में शारीरिक हाव-भाव, मुंह बनाना और चेहरे के एक्सप्रेशन भी हास्य को और प्रभावी बनाते थे। यही  तत्व मिलकर असरानी के ह्यूमर को गहराई, सूक्ष्मता और निरंतरता प्रदान करते थे, जिससे उनकी कॉमेडी आज भी यादगार और असरदार मानी जाती है। चुपके-चुपके (1975) में असरानी का विट्टी और क्लेवर किरदार ऐसा था, जिसने बड़े कलाकारों के बीच अपनी कॉमेडी से अलग पहचान बनाई। धमाल (2007) जैसी फिल्मों में असरानी ने पुलिस इंस्पेक्टर के रूप में कमाल की कॉमेडी की। भूल भुलैया, ऑल द बेस्ट और 'जैसी करनी वैसी भरनी' जैसी फिल्मों में भी असरानी के मजेदार कॉमेडी सीन बहुत लोकप्रिय हैं। कादर खान के साथ असरानी की जोड़ी ने भी कई धमाकेदार कॉमेडी सीन दिए।
    गोवर्धन असरानी का जन्म 1941 को जयपुर में हुआ। उनके पिता एक कॉरपेट कंपनी में मैनेजर के पद पर नौकरी करते थे। अपनी पढ़ाई-लिखाई भी उन्होंने यहीं की। लेकिन, उनका झुकाव फिल्मों की तरफ ज्यादा था। उन्होंने पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में दाखिला लेने का मन बनाया और एक्टिंग करने का सोचा और घर से भागकर मुंबई आ गए। उससे पहले उन्होंने दो-तीन साल तक जयपुर आकाशवाणी में काम किया फिर पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में एडमिशन लिया। असरानी जहां एक्टिंग सीख रहे थे, वहीं डायरेक्टर ऋषिकेश मुखर्जी आया करते थे। उनसे असरानी का पहले से परिचय था। ऋषिकेश मुखर्जी की टीम में गुलजार भी थे। उन्हें लगा कि शायद बात बन जाए। उन दिनों ऋषिकेश मुखर्जी फिल्म 'गुड्डी' के लिए जया भादुड़ी को खोज रहे थे। बात आगे बढ़ी, तो ऋषिकेश मुखर्जी ने असरानी को वही रोल दिया, जो वे चाहते थे।
    इससे पहले 1967 में असरानी 'हरे कांच की चूड़ियां' फिल्म में एक रोल कर चुके थे। पर, इस फिल्म से असरानी को कोई पहचान नहीं मिली। इसके बाद उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी की 'सत्यकाम' में भी काम किया। उन्हें इंतजार था ऐसी फिल्म का जिससे उनके करियर को दिशा मिले। ये हुआ 'गुड्डी' के साथ। इसके बाद उनके करियर की गाड़ी चल पड़ी। एक के बाद एक फिल्में मिलने लगी। शोर, रास्ते का पत्थर, बावर्ची, सीता और गीता और 'अभिमान' समेत कई फिल्मों में काम किया। खास बात यह कि उनकी एक्टिंग इतनी कमाल थी कि फिल्मकार उनके लिए कोई न कोई रोल लिख ही देते थे। इसके बाद 1975 में असरानी को अपने करियर की सबसे बड़ी फिल्म मिली 'शोले' जिसने उन्हें अंग्रेजों के ज़माने के जेलर की यादगार पहचान देकर उस किरदार को अमर कर दिया।   
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दिवाली का उत्सव यानी प्रतीकों का सामंजस्य

- हेमंत पाल

     दिवाली घर-आंगन की साज-सज्जा, पूजा, पारिवारिक समागम और सामाजिक समरसता का त्यौहार है। यही वजह है कि इस त्यौहार से जुड़ी फिल्मों में भारतीय संस्कृति नजर आती है। बरसों से फिल्मों में हमेशा से दिवाली को बहुत खास और रंगीन अंदाज में दिखाया जाता रहा है। ये ऐसा त्यौहार है, जो हमेशा पारिवारिक मेलजोल, खुशी, भावनात्मक पुनर्मिलन और रोशनी के प्रतीकों के साथ प्रस्तुत किया जाता है। यह त्यौहार सिनेमा के रूप में भारतीय संस्कृति की आत्मा दर्शाता है। लेकिन, एक खास बात यह कि दिवाली पहली बार परदे पर कब दिखाई गई, यह बताना मुश्किल है। लेकिन, 1960 की फिल्म 'जुगनू' का गाना 'मेरा तुम्हारा सबका यहां ...' एक दिवाली दृश्यों के उदाहरणों में गिना जाता है। 1990 के दशक और 2000 के बाद दिवाली दृश्य विशेष रूप से पारिवारिक गीतों और इमोशनल दृश्यों के साथ हर दशक की बड़ी फिल्मों में दिखाई दिए। हम आपके हैं कौन (1994) में दिवाली पर परिवार के साथ 'धिक ताना' जैसे गाने से उत्सव और सामूहिकता का जश्न दिखाई दिया। 
    'चाची 420' (1997) में पटाखों से दुर्घटना के सीन और बच्चों की सुरक्षा के जरिए दिवाली की रियलिटी की झलक दिखाई गई। 'तारे ज़मीं पर' (2007) फिल्म में दिवाली के मौके पर अकेलेपन और घर की याद की भावनाएं बयां की गईं, जिससे त्यौहार का संवेदनशील पक्ष उजागर हुआ। 'वास्तव' (1999) में फिल्म का मुख्य किरदार अपने परिवार से दिवाली पर मिलता है और 'पचास तोला सोना' जैसा डायलॉग को त्यौहार के अलग ही रंग से जोड़ता है। 2001 की फिल्म 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया' का गीत 'आई है दिवाली सुनो जी घरवाली' जैसे मस्तीभरे गाने के साथ आम लोगों की दिवाली भी दिखाई गई।
     फ़िल्मी कथानकों में दिवाली का त्यौहारों कुछ अलग है। होली या जन्माष्टमी के प्रसंग फिल्मों में धूम, मस्ती और कहानी में मोड़ का कारण बनते हैं, पर दिवाली कहानी का हिस्सा होते हुए, कई फिल्मों में प्रतीकात्मक और भावनात्मक अर्थ रखता है। रोमांटिक व पारिवारिक फिल्मों में त्यौहार के दृश्य परिवार, भारतीय परंपरा और भावनात्मक पुनर्मिलन के प्रतीक रहे हैं। दिवाली के दृश्यों वाली और उस थीम को दर्शाने वाली कई यादगार फिल्में हिंदी सिनेमा के उस इतिहास में दर्ज हैं, जो ब्लैक एंड व्हाइट से आजतक फैला हुआ है। इस त्यौहार को प्रतीकात्मकता और बदलते दृष्टिकोण के रूप में भी देखा गया। यही वजह है कि दिवाली के दृश्य कई बार घर वापसी, एकजुटता, नई शुरुआत और पारिवारिक मूल्यों के प्रतीक बने। नई फिल्मों में जहां भव्यता, पटाखों और भव्य सेट्स की भरमार दिखती है, वहीं 'तारे जमीं पर' जैसी कुछ फ़िल्में दिवाली के इमोशनल या सामाजिक पहलुओं को भी उजागर करती हैं। 
      ऐसे में 'जंजीर' का प्रसंग अलग ही है, जिसमें नायक अमिताभ बच्चन बचपन में दिवाली के धमाकों के बीच अपने माता-पिता की हत्या होते देख लेता है और पूरी फिल्म में खलनायक को खोजता है। दरअसल, फ़िल्मी कथानकों में दिवाली को न केवल जश्न, बल्कि भावनाओं, मेल-मिलाप और पारिवारिक रिश्तों के गहरे प्रतीकों के साथ चित्रित किया गया। इस कारण यह त्यौहार फिल्मों में भारतीय जीवनशैली और संवेदनाओं का अभिन्न हिस्सा बना। फिल्मों में दिवाली के बदलते सामाजिक अर्थों को समय के साथ बहुत गहराई और विविधता के साथ दिखाने के प्रयोग किए गए। पहले, ज्यादातर फिल्मों में दिवाली पारंपरिक, पारिवारिक आयोजन के रूप में मनती थी। 
      हाल के दशकों में यह बदलाव घर वापसी, सामाजिक सामंजस्य और आंतरिक संघर्षों का प्रतीक बन गई। पारंपरिक रूप से आधुनिक संदर्भों में सामाजिक विकास से तात्पर्य है पुनर्मिलन और आपसी मेल-मिलाप। यह भी कहा जा सकता है, कि दिवाली का प्रतीक लंबे अरसे बाद घर लौटना, परिवार का मिलना और गिले-शिकवे दूर करने का बहाना भी बन गया। 'कभी खुशी कभी गम' में राहुल (शाहरुख़ खान) की घर वापसी दिवाली के मौके पर दिखाई गई, जिससे त्योहार परिवार और रिश्तों की शक्ति का वाहक बन गया। जबकि, 'मोहब्बतें' में यही भावनात्मक मोड़ लाता है। दिवाली पर पारिवारिक प्रसंग कई फिल्मों में कहानी में मोड़ लाता है जिसमें रिश्ते बदलते हैं, चरित्रों की सोच और भावनाएं नई दिशा की तरफ मुड़ती हैं। याद किया जाए तो राजश्री की फिल्म 'हम आपके हैं कौन' में कुछ ऐसा ही था। 
       2001 की फिल्म 'कभी ख़ुशी कभी गम' में दिवाली पूजन, घर की सजावट, पारिवारिक पुनर्मिलन दर्शाया गया जिसमें जया बच्चन अपने बेटे शाहरुख के लौटने का इंतजार बेहद भावुक तरीके से करती दिखाई देती है। यह दृश्य प्रतिष्ठित और परिवार के पुनर्मिलन एवं भारतीय भावनाओं को दर्शाने वाली दिवाली के प्रतीक से जोड़ता है। इसी तरह यश चोपड़ा की फिल्म 'मोहब्बतें' में दिवाली के मौके पर 'जोड़ों में बंधन है' गीत सुनाई देता है, जो पारिवारिक रिश्तों, रोशनी और उल्लास के उत्सव का अहसास कराता है। जबकि, 'वास्तव' में संजय दत्त दिवाली पर परिवार से जिस तरह मिलते हैं, वह सामाजिक-आर्थिक संघर्ष के बीच उत्सव की गर्माहट का प्रतीक हैं। 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' (1995) ऐसी फिल्म रही, जो दिवाली पर रिलीज होकर सबसे ज्यादा सफल फिल्मों में गिनी जाती है और आज भी दिवाली के अवसर पर बॉक्स ऑफिस की मिसाल मानी जाती है।
    आज के दौर की फिल्मों में दिवाली केवल त्यौहार तक सीमित नहीं है, बल्कि आत्ममंथन, बदलाव और सामाजिक चेतना का उपाय भी बनती दिखाई दी। 'स्वदेश' में फिल्म के नायक के भीतर यह उत्सव देश से जुड़ाव और बदलाव का प्रतीक बनता है। जबकि 'तारे जमीं पर' में अकेलापन, परिवार की चिंता और अंतत: स्वीकृति की भावना दिखाई दी। सामाजिक संदर्भ में इस फिल्म को देखा जाए, तो 'वास्तव' जैसी फिल्मों में दिवाली अपराध और सामाजिक सच्चाई से जुड़े दृश्यों पर भी केंद्रित है, जिससे यह सिर्फ खुशी नहीं, सामाजिक जटिलताओं का प्रतीक भी बनती है। पुराने समय की फिल्मों में साधारण पारिवारिक उत्सव और पूजा के छोटे सीमित होते थे। जबकि, अब ये दृश्य भव्य पार्टियों, आधुनिकता और रिश्तों की जटिलताएं दिवाली के आस-पास बुनी जाती हैं। विशेष परिस्थितियों में दिवाली के प्रसंग ने 'अनुराग' या 'वक्त' जैसी फिल्मों में सामाजिक टूटन या त्रासदी की भूमिका भी निभाई, जिससे त्योहार में संवेदना और जीवन की सच्चाइयां दिखती हैं। 
     फिल्मों में दिवाली केवल रोशनी और उल्लास का ही उत्सव नहीं, बल्कि पुनर्मिलन, व्यक्तिगत विकास, सामाजिक विचार और संबंधों की विविधता का रूपक बनी है। समय के साथ दिवाली में सामाजिक बदलाव, भावनात्मक गहराई और समकालीन समाज के सवालों को भी फिल्मों में बखूबी से पिरोया गया। 1990 के दशक और 2000 के बाद दिवाली दृश्य विशेष रूप से पारिवारिक गानों और इमोशनल दृश्यों के साथ हर दशक की बड़ी फिल्मों में दिखाई देने लगे। यह भी गौर करने वाली बात है कि नई फिल्मों में जहां भव्यता, पटाखों और भव्य सेट्स की भरमार दिखती है, वहीं कुछ फिल्में दिवाली के इमोशनल या सामाजिक पहलुओं को भी उजागर करती हैं।  जहां तक दिवाली के प्रतीक और रीति-रिवाजों का सवाल है, तो फिल्मों में प्रतीकों और रीति-रिवाजों को अक्सर रंगीन, भावनात्मक और पारिवारिक भावनाओं के साथ प्रस्तुत किया गया। इन दृश्यों में परंपरागत पूजा, दीपक-दीये, पटाखे, मिठाइयां, रंगोली और पारिवारिक मिलन जैसे त्योहार के मूल तत्व प्रमुखता से दिखाए जाते रहे हैं। दिवाली के प्रमुख प्रतीक के रूप में घर की सजावट में दीपक 'कभी खुशी कभी ग़म' में भव्य सजावट और दीयों की कतारें दिखाई दी। 
      कई फिल्मों में महिलाएं और बच्चे मिलकर रंगोली बनाते दिखाई देते रहे। रंगीन और कलात्मक रंगोली घर के आंगन, प्रवेश द्वार और पूजा स्थल के पास बनाई जाती है। इसी तरह परिवार के सदस्यों के साथ लक्ष्मी-गणेश पूजन और आरती 'हम आपके हैं कौन' और 'कभी खुशी कभी ग़म' में दिखाई दी। 'चाची 420' और 'गोलमाल 3' में फुलझड़ी और पटाखों से हल्के-फुल्के हादसे फिल्माए गए। ऐसे उत्सव पर परिवार के सामूहिक भोज का भी अपना अलग महत्व है। ऐसे दृश्य 'हम आपके हैं कौन' और 'मोहब्बतें' के गानों में दिखाई दिए। दिवाली के मौके पर बिछुड़े परिवारों का मिलन, पुराने गिले-शिकवे दूर होना 'कभी खुशी कभी ग़म' और 'वास्तव' में दिखाया गया है। इस नजरिए से कहा जा सकता है कि फिल्मों में दिवाली सिर्फ रोशनी, दीपक, सजावट और पटाखों तक सीमित नहीं है। बल्कि, प्रतीकात्मक रूप से इन सभी प्रसंगों का अपना अलग महत्व है। कहा जा सकता है कि दिवाली मनाने का तरीका सिर्फ समाज में ही नहीं, फ़िल्मी कथानकों में भी बदला है।   
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फिल्मों के कथानक को मोड़ देता करवा चौथ

- हेमंत पाल

    हिंदी फिल्मों में करवा चौथ का त्यौहार पति-पत्नी के प्रेम और समर्पण की भावना को रेखांकित करने का सांस्कृतिक प्रतीक बन गया। इस बहाने त्योहार की लोकप्रियता में भी इजाफा और यह उत्सव अब देशभर में मनाया जाने लगा। करवा चौथ को फिल्मों ने पारंपरिक धार्मिक व्रत से सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सव में बदल दिया। यह आज समाज में बेहद लोकप्रिय हो चुका और लगातार बढ़ रहा है। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि हिंदी फिल्मों में करवा चौथ को भावनात्मक, पारंपरिक और रोमांटिक अंदाज में दिखाया गया है। फिल्मी दृश्यों में यह त्योहार पति-पत्नी के रिश्ते, प्यार, विश्वास और बलिदान का प्रतीक तो बनाता ही है, दर्शकों के दिल में भी खास जगह बना ली। कई फिल्मों में करवा चौथ के बहाने रिश्तों की मजबूती, संघर्ष और विश्वास को खूबसूरती से दिखाया गया। फिल्मों के इन दृश्यों की पारंपरिक पोशाक, पूजा की थाली, छलनी और चंद्रमा के इंतजार के दृश्य भारतीय संस्कृति की गहराई को प्रस्तुत करते हैं। आधुनिक फिल्मों में भी यह त्यौहार प्रेम और समर्पण की नई परिभाषा देता है, जैसे 'एनीमल' जैसी फिल्म में करवा चौथ का लंबा भावनात्मक दृश्य है। 
      यदि यह पड़ताल की जाए कि फिल्मों में करवा चौथ का चलन कब शुरू हुआ! तो इतिहास बताता है कि इसे पहली बार 1964-1965 में आई ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म 'बहू बेटी' में दिखाया गया था। इसमें करवा चौथ व्रत का जश्न फिल्माए गए गाने 'आज है करवा चौथ सखी' के जरिए दिखाया था। इस गाने को आशा भोसले ने गाया और इसमें माला सिन्हा और मुमताज की अदाकारी थी। इसके बाद 1970-80 के दशक में कई फिल्मों में करवा चौथ के दृश्य देखे गए। लेकिन, व्रत को लोकप्रिय बनाने और इसे प्रचलित करने में 90 के दशक से लेकर 2000 के बाद की फिल्मों का बड़ा योगदान रहा। करवा चौथ के दृश्य फिल्मों में अकसर रोमांटिक और पारिवारिक भावनाओं को उभारने के लिए फिल्माए जाते रहे हैं। खासतौर पर उन फिल्मों में जहां पति-पत्नी के बीच दूरियां रहती है या रिश्तों में तनाव उभरता है। जैसे दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, हम दिल दे चुके सनम, कभी खुशी कभी ग़म, बागवान, हम आपके हैं कौन और 'बाबुल' में करवा चौथ के सीन बेहद यादगार और लोकप्रिय रहे। इन फिल्मों ने करवा चौथ के व्रत को न केवल उत्तर भारत में बल्कि चारों तरफ लोकप्रिय बना दिया। 
     सबसे पहले करवा चौथ का फिल्मांकन फिल्म 'बहू बेटी' में जरूर हुआ, जिसे एक गीत जरिए दर्शाया था। 1978 में पहली बार 'करवा चौथ' नाम से पूरी फिल्म बनी, जिसके निर्देशक थे रामलाल हंस। 1990-2000 के दशक में 'करवा चौथ' का चलन कुछ ज्यादा बढ़ा। खासकर दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995) और 'हम दिल दे चुके सनम' (1999) जैसी फ़िल्में इन्हें ज्यादा फिल्माया। देखा जाए तो अभी तक दर्जनों फिल्मों में 'करवा चौथ' के दृश्य देखे गए, जो त्योहार की लोकप्रियता और सांस्कृतिक महत्व दर्शाते हैं। 1960-70 के शुरुआती दौर में 'करवा चौथ' त्यौहार का पारंपरिक स्वरूप सामने आया। उस दौर में करवा चौथ को धार्मिक और पारिवारिक व्रत के रूप में दिखाया गया। इस त्योहार पर में महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए निर्जला व्रत करती हैं। 1990-2000 के दौर में इसमें रोमांटिक और सामाजिक बदलाव दिखाई दिया। 90 के दशक में यश चोपड़ा जैसे निर्देशकों की फिल्मों ने करवा चौथ को रोमांटिक और ग्लैमरस रूप में प्रस्तुत करना शुरू किया। 
    'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' और 'हम दिल दे चुके सनम' जैसी फिल्मों ने करवा चौथ के सीन को बेहद लोकप्रिय बनाया, जहां पति-पत्नी के बीच के प्रेम और त्याग को नाटकीय और भावुक अंदाज में दिखाया गया। इसके साथ ही इस त्योहार की पारंपरिकता में आधुनिकता का समावेश हुआ, व्रत के पीछे के भाव और रिश्तों की गहराई को दिखाया गया। लेकिन, 2000 के बाद इसका रूप विविधता वाला हो गया और इसमें व्यवसायीकरण दिखाई देने लगा। फिल्मों में करवा चौथ के दृश्य अब पारंपरिक व्रत से आगे बढ़कर फैशन, ग्लैमर और कंज्यूमैरिज्म का हिस्सा बन गए। कई फिल्मों में करवा चौथ में सामाजिक और वैवाहिक मुद्दों को भी छुआ जाता रहा है। साथ ही गाने, सजावट और त्योहार की प्रस्तुति में बदलाव आया, जो दर्शकों के सांस्कृतिक अनुभव को नया रूप देता है। फिल्मों के साथ ही टीवी सीरियलों ने भी इस त्योहार को घर-घर में पहुंचा दिया। 
      करवा चौथ पर बनी फिल्मों के कुछ यादगार दृश्य ऐसे हैं, जो पति-पत्नी के प्रेम, त्याग और पारिवारिक भावनाओं को अद्भुत ढंग से दर्शाते हैं। 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' में शाहरुख खान और काजोल का छत पर करवा चौथ मनाते हुए सीन बेहद लोकप्रिय है। इसमें काजोल की भूमिका एक चालाक और प्रेमपूर्ण पत्नी की रही, जो व्रत के दिन बीमार बनकर शाहरुख को चुपके से पानी पिलाती है। 'हम दिल दे चुके सनम' में सलमान खान और ऐश्वर्या राय का करवा चौथ सीन पारंपरिक गुजराती रीति-रिवाजों के साथ, खूबसूरती से फिल्माया गया। फिल्म में करवा चौथ का सीन दो बार आता है, जिसमें ऐश्वर्या राय अपने पति के लिए व्रत रखती है। 'कभी खुशी कभी ग़म' में कई परिवारों के साथ करवा चौथ का भव्य रूप दिखाया गया। काजोल, शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, ऋतिक रोशन और करीना कपूर के करवा चौथ वाले सीन भव्यता और पारिवारिक भावना से भरपूर हैं। जबकि, 'बागबान' के कथानक में हेमा मालिनी पति अमिताभ बच्चन से दूर होने के बावजूद करवा चौथ का व्रत रखती है। फिल्म का भावुक और यादगार दृश्य पति-पत्नी के प्रेम और समर्पण को दर्शाता है। ऐसे दृश्यों में 'बाबुल' भी ऐसी ही फिल्म है, जिसमें सलमान खान, रानी मुखर्जी, अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी के साथ करवा चौथ के सीन में पति-पत्नी दोनों अपनी-अपनी पार्टनर के लिए व्रत रखते हैं, जो एक अलग ही भावनात्मक दृश्य है।
      करिश्मा कपूर और सुष्मिता सेन फिल्म 'बीबी नंबर-1' में सलमान खान के लिए व्रत रखती हैं। इसमें करवा चौथ त्यौहार नाटकीय बदलाव लेकर आता है। फिल्म 'इश्क विश्क' में शाहिद कपूर और अमृता राव के बीच करवा चौथ का सीन रोमांटिक मोड़ बनता है, जब शाहिद को पता चलता है कि अमृता ने उसके लिए व्रत रखा है। आमिर खान और करिश्मा कपूर की फिल्म 'राजा हिंदुस्तानी' में करवा चौथ का दृश्य अपनी भावुकता के लिए यादगार बन गया। सलमान खान और प्रीति ज़िंटा की फिल्म 'दिल ने जिसे अपना कहा' में करवा चौथ सीन ने भी दर्शकों के दिलों को छुआ था। 'हम तुम्हारे हैं सनम' फिल्म में भी करवा चौथ का प्रसंग प्रेम और पारिवारिक रिश्तों को बखूबी से दर्शाता है। इन फिल्मों के ये सभी दृश्य सिनेमा में करवा चौथ के महत्व और सांस्कृतिक रंग को परिभाषित करने में सफल रहे। खासकर शाहरुख-काजोल के 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' और सलमान-ऐश्वर्या के 'हम दिल दे चुके सनम' के इस त्योहार के दृश्य सबसे अधिक क्लासिक और फेमस माने जाते हैं। साथ ही ये प्रसंग इस त्यौहार को हिंदी सिनेमा में एक प्रेम और समर्पण के प्रतीक के रूप में लोकप्रिय बनाने में सहायक रहे। 
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Tuesday, October 14, 2025

जीवन का सच दिखाने वाला सिनेमा कहां गुम

      सिनेमा को मनोरंजन का सशक्त माध्यम माना जाता है। लेकिन, मनोरंजन का आशय सिर्फ मन बहलाव नहीं होता। प्रेम कहानियों, नाच-गाने और मारधाड़ के बाद फिल्म का सुखांत ही मनोरंजन नहीं होता। जीवन के यथार्थ, लोगों की पीड़ा और सच्चाई से रूबरू होना भी मनोरंजन का एक अहम हिस्सा है। इन फिल्मों की कहानियां ख़ास इसलिए होती है, साथ ही ये अपनी या अपने आसपास की लगती है। इन फिल्मों में शोषण, अंधविश्वास और धार्मिक पाखंड पर चोट, युवा वर्ग का असंतोष, महिलाओं पर अत्याचार, भेदभाव जैसे कई सामाजिक मुद्दे दिखाई देते हैं। लेकिन, धीरे-धीरे जीवन का सच दिखाने वाली ये फ़िल्में परदे से लोप हो गई। 
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- हेमंत पाल

   मानांतर सिनेमा जीवन का यथार्थ बहुत गहराई से दिखाता रहा है। यह हिंदी सिनेमा का वह पक्ष है, जिसमें आम आदमी के जीवन की जद्दोजहद, सामाजिक असमानता और बदलाव को सही ढंग से दर्शाया जाता है। ऐसे सिनेमा को 'आर्ट सिनेमा' या 'नया सिनेमा' नाम भी दिया गया। फिल्मों के कथानक का यह चलन 1950 के दशक में पश्चिम बंगाल से शुरू हुआ और बाद में इसे हिंदी समेत हर भाषा के सिनेमा ने अपनाया। इसका मकसद जीवन के कठोर यथार्थ, समाज के हाशिए पर खड़े वर्गों, दलितों, महिलाओं, और गरीबों की समस्याओं को दर्शकों के सामने लाना रहा, जिससे दर्शक खुद को जुड़ा महसूस करे। इसकी यथार्थ परक कहानियां आम लोगों की सामाजिक और आर्थिक जिंदगी से जुड़ी होती हैं। मसलन गरीबी, बेरोजगारी, जातिगत भेदभाव, और स्त्री-पुरुष संबंध। 
      ये फिल्में वास्तविक लोकेशनों पर शूट की जाती हैं और संवाद व किरदार स्वाभाविक होते हैं। ऐसी फिल्मों का निर्माण भी साधारण और वास्तविक होता है। श्याम बेनेगल की फ़िल्में अंकुर, मंथन और भूमिका, मणि कौल की 'उसकी रोटी' और 'दुविधा' के अलावा सत्यजीत रे की 'पाथेर पांचाली' के साथ मृणाल सेन, ऋत्विक घटक जैसे निर्देशक इस आंदोलन के अग्रणी रहे। इनकी फिल्मों में व्यावसायिकता की बजाय कलात्मकता, गहराई और सामाजिक प्रतिरोध देखने को मिलता है। पर, आज ऐसा सिनेमा लुप्त होने लगा। बरसों से ऐसी कोई फिल्म नजर ही नहीं आई। 
      ऐसी फ़िल्में जीवन का यथार्थ दिखाती है जैसे 'अंकुर' (श्याम बेनेगल) खेतिहरों और गरीब तबके की ज़िंदगी की सच्चाई को दिखाती है। 'उसकी रोटी' (मणि कौल) और 'माया दर्पण' (कुमार साहनी) ग्रामीण भारत की गहन समस्याओं को बेहद संवेदनशीलता से प्रस्तुत करती हैं। वास्तव में समानांतर सिनेमा ने ही गंभीर दर्शकों को फिल्मों के ज़रिए आम आदमी की पीड़ा को लेकर सोचने पर मजबूर किया। महिलाओं और वंचित वर्गों की भूमिका, विद्रोह और स्वतंत्र पहचान को बड़े संवेदनशील तरीके से उजागर किया गया। समानांतर सिनेमा का मकसद दर्शक को यथार्थ के करीब लाना और सांस्कृतिक-सामाजिक बदलाव की चेतना को जगाना रहा है यह भारतीय समाज के 'सच्चे आईने' का काम करती है। दरअसल, समानांतर सिनेमा जीवन का यथार्थ बड़े सशक्त ढंग से दर्शाता है। यही इसकी सबसे बड़ी खासियत भी है। ऐसे सिनेमा का मुख्य केंद्र यथार्थवादी विषय रहा है, जिसमें आम आदमी के जीवन, उसकी समस्याओं, गरीबी, वर्ग भेद, सामाजिक अन्याय, महिला समस्याएं और राजनीतिक परिस्थितियाँ दिखायी जाती हैं।
      इन फिल्मों में किरदार और कथानक बहुत वास्तविक व स्वाभाविक होते हैं। इसमें गैर-पेशेवर कलाकार होते हैं, जिनसे कथानक की वास्तविकता गहराई से सामने आती है। पारंपरिक सिनेमा की तरह मनोरंजन या सपनों की दुनिया पर नहीं, बल्कि समाज की सच्चाइयों को विषय वस्तु बनाकर, बदलाव और सवाल उठाए जाते हैं। नारी सशक्तिकरण, जातिवाद, अशिक्षा, शहरी-ग्रामीण भेद, आर्थिक विषमताएं ऐसे मुद्दे समानांतर सिनेमा की पहचान रहे हैं। ऐसी फिल्मों की मुख्य विशेषताओं में मुद्दों और पात्रों की वास्तविकता को महत्व देना होता है। सादगीपूर्ण कला निर्देशन, प्राकृतिक प्रकाश, लंबे शॉट्स, और धीमी गति की कहानी ताकि दर्शक सोच सके और उससे जुड़ाव महसूस करे। सत्यजीत रे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक, श्याम बेनेगल जैसे निर्माता-निर्देशकों ने इस धारा को स्थापित किया। 
    समानांतर सिनेमा ने फिल्म को सामाजिक बदलाव और जागरूकता का माध्यम बनाया। यथार्थ दिखाने की शैली ने भारतीय दर्शकों के साथ साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंच तक वास्तविकता की गूंज पहुंचाई। इस प्रकार, समानांतर सिनेमा जीवन के यथार्थ के विविध पहलुओं को बिना बनावटीपन के प्रस्तुत करने के लिए जाना जाता है, और यही इसकी ताकत है। समानांतर सिनेमा को जीवन का यथार्थ कहा जरूर गया, लेकिन माना नहीं गया। क्योंकि, समानांतर सिनेमा का कैमरा हमेशा दमित और शोषित वर्ग पर ही फोकस होता रहा है। जबकि, सिर्फ दमन और शोषण ही समाज का यथार्थ नहीं है! समाज के यथार्थ में खुशी और गम दोनों शामिल होते हैं। फकत गम को ही समाज का यथार्थ या समानांतर सिनेमा का सच नहीं माना जा सकता। यदि समाज के यथार्थ में जीवन के सभी पक्षों को शामिल किया जाए, तो इसे समानांतर नहीं यथार्थवादी सिनेमा कहना ज्यादा उचित होगा। यदि इसमें 'अंकुर' शामिल है, तो 'हम साथ साथ है' को भी शामिल किया जा सकता है। समझा जाता है कि हमारा समानांतर सिनेमा इटैलियन न्यू रियलिज्म, फ्रांस के फ्रेंच न्यू वेव और जापान के न्यू वेव सिनेमा से प्रभावित रहा। 
     भारतीय सिनेमा में भी यथार्थवादी झलक बहुत पुरानी बात रही। ऐसी फिल्मों की नींव 1920 से 30 के दशक में ही पड़ गई थी। 1925 में बाबूराव पेंटर ने अपनी मूक फिल्म 'सावकारी पाश' बनाई, जिसमें वी शांताराम ने गरीब किसान का किरदार निभाया था। ये किसान अपनी जमीन एक साहूकार को देने के लिए मजबूर हो जाता है और गांव छोड़कर शहर में मिल मजदूर बन जाता है! इसे भारत की पहली समानांतर फिल्म माना जाता है। महिलाओं की दुर्दशा पर भी 1937 में बनी फिल्म 'दुनिया ना माने' भी ऐसी ही फिल्म थी। लेकिन, ये परंपरा तब आगे नहीं पढ़ सकी। 1940 से 1960 के दशक में समानांतर सिनेमा ने फिर करवट ली। इस दौर में उसे सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, बिमल राय, मृणाल सेन, ख्वाजा अहमद अब्बास, चेतन आनंद और वी शांताराम ने पल्लवित किया। इन फिल्मों पर साहित्य की गहरी छाप थी। चेतन आनंद ने 1946 में 'नीचा नगर' जैसी फिल्म बनाई, जिसे कॉन फिल्म फेस्टिवल में ग्रैंड प्राइज मिला था। इस परम्परा को ही बाद में श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, अदूर गोपालकृष्णन तथा गिरीश कासरवल्ली ने बढ़ाया। 
     ऐसी फ़िल्में बनाने वाले फिल्मकारों में गुरुदत्त भी थे, जिन्होंने कला और फार्मूला सिनेमा को जोड़ने का काम किया। उनकी फिल्म 'प्यासा' को हिंदी सिनेमा की कालजयी फिल्म माना जाता है। अमेरिका की 'टाइम' पत्रिका ने इसे 'ऑल टाइम बेस्ट 100 मूवी' में जगह दी है। लेकिन, कला फिल्मों से व्यावसायिक सफलता पाने में ऋषिकेश मुखर्जी की भी कोई बराबरी नहीं कर सकता। इस तरह की फिल्मों के दर्शकों का एक विशेष वर्ग होता है। दर्शकों का दायरा सीमित होने के कारण इन फिल्मों की व्यावसायिक सफलता संदिग्ध हमेशा ही मानी गई। लेकिन, कई कला फिल्में ऐसी हैं, जिन्हें बॉक्स ऑफिस पर अच्छी सफलता मिली। आजादी के बाद 50 और 60 के दशक में सिनेमा दो धाराओं में बंट गया। एक धारा में सामाजिक सरोकार के चिंतन को स्थान दिया गया। दूसरी धारा में मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा बढ़ा! इसे मुख्यधारा का सिनेमा कहा गया। दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे, जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. दर्शकों ने समानांतर सिनेमा को व्यावसायिक सिनेमा से इतर हटकर एक नए विकल्प के रूप में देखा।
    हिंदी में समानांतर सिनेमा की नई शुरुआत 1969 में मृणाल सेन की फिल्म 'भुवन सोम' को माना जाता है। 1976 में मृणाल ने 'मृगया' बनाई, जो मिथुन चक्रवर्ती की पहली फिल्म थी। जिसमें मिथुन ने एक आदिवासी क्रांतिकारी का किरदार निभाया था, जो पत्नी के यौन शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है। बाद में सत्यजीत रे ने हिंदी में पहले ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और बाद में ‘सद्गति’ बनाई। सत्यजीत रे के फ़िल्मी कथ्य में एक अलग ही शिल्प होता था। सुंदर छायांकन, विलक्षण दृष्टि बोध और दृश्य संयोजन के मामले में तो वे सदैव अनन्य रहे। 1953 में आई बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’ ने समीक्षकों की प्रशंसा के साथ व्यावसायिक सफलता भी प्राप्त की थी। इसे कॉन फेस्टिवल (1954) में भी अंतर्राष्ट्रीय सम्मान भी मिला। इसके बाद बिमल रॉय ने बिराज बहू, देवदास, सुजाता और 'बंदिनी' फिल्में बनाई। 1970 और 1980 के दौरान समानांतर सिनेमा ने जमकर विकास किया। श्याम बेनेगल शैली के फिल्मकारों का हौसला बुलंद हुआ! इसी दौर में शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, रेहाना सुल्तान, साधु मैहर, अमोल पालेकर, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर, गिरीश कर्नाड के साथ समय-समय पर रेखा और हेमा मालिनी का भी सानिध्य मिला।
    श्याम बेनेगल समानांतर सिनेमा के नवसृजन के प्रमुख हस्ताक्षर बने। उन्होंने 1973 में पहली फिल्म 'अंकुर' बनाई। गांवों में शहरी घुसपैठ के परिणामों पर बनी यह फिल्म सफल रही। 1975 में बेनेगल ने 'निशांत' और 1976 में 'मंथन' बनाई। 'मंथन' को भी राष्ट्रीय पुरस्कार नवाजा गया। उनकी मंडी, कलयुग और 'जुनून' भी बेहद चर्चित रही। जुड़े गोविंद निहलानी भी इसी रास्ते पर आगे बढ़े और ऐसी ही फिल्में बनाई। निहलानी की 1981 में आई 'आक्रोश' को दर्शकों के साथ समीक्षकों ने भी सराहा। पुलिस की विवशता पर अर्धसत्य, वायुसेना पर विजेता, मिल मालिक और मजदूरों के आपसी संघर्ष पर आघात, समाज के नवधनाढ्य वर्ग के खोखलेपन पर 'पार्टी' और आतंकवाद पर 'द्रोहकाल' बनाई। 
    1980 में मणि कौल ने गजानन माधव मुक्तिबोध की रचना पर 'सतह से उठता आदमी' का निर्माण किया। 1983 में कुंदन शाह ने कालजयी फिल्म 'जाने भी दो यारों' बनाई। 1984 में सईद अख्तर मिर्जा ने 'मोहन जोशी हाजिर हो' और 'अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है' बनाकर नए रास्ते खोले। 1986 में केतन मेहता ने स्मिता पाटिल को लेकर 'मिर्च मसाला' बनाई। लेकिन, 2000 के बाद फिर यथार्थवादी सिनेमा के घोड़े बदले अंदाज में परदे पर दौड़े। इस दौर में प्रायोगिक फिल्मों के नाम से नए प्रयोग हुए। मणिरत्नम ने 'दिल से' और 'युवा' बनाई तो नागेश कुकुनूर ने 'तीन दीवारें' और डोर परदे पर उतारी। सुधीर मिश्रा की हजारों ख्वाहिशें ऐसी, जानू बरूआ की मैने गाँधी को नहीं मारा, नंदिता दास की फिराक, ओनिर की 'माय ब्रदर निखिल' और 'बस एक पल' ने माहौल बदलना शुरू किया। 
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Sunday, October 5, 2025

फिल्म का दुखद अंत, सफलता का फार्मूला

      फिल्मों का दुखद अंत दर्शकों को इसलिए पसंद आता है, क्योंकि ऐसे अंत उनकी भावनाओं को गहराई से छूता है। इनमें जीवन की सच्चाइयों का अधिक प्रामाणिक चित्रण जो दिखाई देता है। माना जाता है कि दुखद अंत दर्शकों को अपने जीवन की समस्याओं और भावनाओं से जोड़ता है। जब फिल्म के किरदारों को दुख झेलते हुए दिखाया जाता है, तो दर्शक उस किरदार से सहानुभूति महसूस करते हैं। यह भावनात्मक जुड़ाव आनंद का स्रोत बन जाता है, भले ही उसमें दुख हो। ये फिल्में दर्शकों को अपनी ज़िंदगी और रिश्तों पर विचार करने के लिए भी प्रेरित करती हैं। शोध बताते हैं कि दुखद अंत देखने के बाद दर्शक अपने जीवन के सकारात्मक पहलुओं को ज्यादा गंभीरता से महसूस करते हैं। उन्हें संतोष मिलता है कि असल जीवन फिल्मों की तरह दुखद नहीं है। जो कठिनाई उन्होंने नहीं झेली, उसका एहसास होता है। दर्शकों को फिल्म का सुखद अंत देखकर कई बार लगता है कि उनकी समस्याएं असामान्य हैं, जबकि दुखद अंत यथार्थ है। असल जीवन का हमेशा 'हैप्पी एंडिंग' नहीं होता, इसलिए वे दुखद अंत को ज्यादा वास्तविक मानते हैं।
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- हेमंत पाल

    हिंदी फिल्मों के दर्शक की मानसिकता बेहद अजीब है। उन्हें किस फिल्म की कहानी पसंद आएगी, इस बात दावा कभी कोई नहीं कर सका। सामान्य धारणा है कि मनोरंजन के मूड से थियेटर आने वाला दर्शक चाहता है कि जब वो निकले तो मुस्कुराता हुआ बाहर आए। आशय यह कि फिल्म का अंत सुखद हो। हीरो-हीरोइन का मिलन हो, खलनायक को पुलिस पकड़ ले जाए, मामला कोर्ट में हो तो फैसला हीरो के हक़ में हो, सास-बहू का झगड़ा निपट जाए और हीरो-हीरोइन ढाई घंटे तक जिस भी संकट से घिरे हों, वो आखिरी के कुछ मिनटों में दूर हो जाए। दर्शकों को वे फ़िल्में ज्यादा पसंद हैं, जो उन्हें तसल्ली दे। जिन समस्याओं वो दर्शक खुद जूझ रहा हो, वो नहीं चाहता कि उसका मनोरंजन भी वैसा ही हो। लेकिन, इसे अपवाद माना जाना चाहिए कि फिल्म इतिहास की ज्यादातर कालजयी फिल्मों का अंत दुखद ही रहा। प्रेम कथाओं के मशहूर फ़िल्में देवदास, मुग़ल-ए-आजम, प्यासा और 'लैला मजनूं' में हीरो-हीरोइन का मिलन नहीं होता और दर्शक मायूस होकर रह जाता है। जबकि, अमिताभ-जया की 'मिली' और राजेश खन्ना की 'आनंद' के दुखांत की वजह लाइलाज बीमारी रहा।        
     हाल ही में आई सबसे बड़ी हिट फिल्म 'सैयारा' का अंत भी दुखद है। लेकिन, इस फिल्म ने सफलता का रिकॉर्ड बना दिया। यह फिल्म अधूरी मोहब्बत और दर्द भरी जुदाई की कहानी है, जिसका क्लाइमेक्स दर्शकों को अंदर तक सालता है। ऐसी और भी कई फ़िल्में हैं, जिनका अंत दुखद और भावनात्मक रहा। असफल प्रेम, जीवन संघर्ष या न्याय की तलाश जिनके प्रमुख विषय रहे। इन फिल्मों की कहानियों को प्रेम के अलावा सामाजिक मुद्दों और जीवन की जटिलताओं से जोड़कर गढ़ा गया, जिसका दर्शकों पर जबरदस्त गहरा भावनात्मक असर हुआ। ऐसी फिल्मों की कहानियां दर्शकों की आंखें गीली कर देती हैं, जिनका अंत भावनात्मक होता है। याद किया जाए तो देवदास (तीन बार बनी), दिल बेचारा, आशिकी-2, तेरे नाम और 'एक दूजे के लिए' देखने के बाद दर्शक दुखी जरूर हुए, पर फिल्म हिट हुई। इन फिल्मों ने दर्शकों को अपनी भावनाएं खुलकर महसूस और व्यक्त करने का जरिया मुहैया कराया। दरअसल, ऐसे पलों में दर्शक खुद के जीवन की कद्र करना या अपनी तकलीफों को छोटा समझना सीखते हैं। दुखद अंत वाली फिल्में न सिर्फ सफल होती हैं, बल्कि समय के साथ यादगार भी बनती हैं।
    सवाल उठता है कि दुखांत फिल्मों की सफलता का कारण क्या है! इस सवाल का कोई एक या सीधा जवाब नहीं हो सकता। इसलिए कि मानवीय भावनाओं से गहरा जुड़ाव, यथार्थवाद और दर्शकों को झकझोर देने वाली कहानियां ज्यादा पसंद आती है। ऐसी फिल्में दर्शकों की भावनाओं को गहराई से छूती हैं। दर्द, विरह और अपूर्ण प्रेम जैसी भावनाएं लगभग हर व्यक्ति ने किसी न किसी रूप में महसूस की हैं। जब कोई कहानी इन पहलुओं को ईमानदारी से पेश करती है, तो दर्शक उसमें खुद को महसूस करते हैं, जिससे फिल्म उनके दिल में जगह बना लेती है। देखा गया है, कि सच्चाई और यथार्थ का चित्रण हर दौर का दर्शक हमेशा पसंद करता है। फिल्म का दुखद अंत दर्शकों को झकझोरता है। यही झटका फिल्म और उसके पात्रों को लंबे समय तक जेहन में बैठाता है। ऐसी कहानियां अक्सर अमर और 'क्लासिक' मानी जाती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि सकारात्मक अंत वाली कहानियां दर्शक को असल ज़िंदगी से दूर लगती हैं, जबकि दुखद अंत की फिल्मों में जीवन की वास्तविक जटिलता दिखाई देती है, जिसे लोग सच्चा मानते हैं। ऐसे अंत दर्शकों को यह अहसास कराते हैं, कि हर कहानी का अंत सुखद नहीं होता, जो जीवन की हकीकत के काफी करीब है।
    वे फ़िल्में जिनके क्लाइमैक्स ने दर्शकों को बेहद दुःखी किया और कई बार भावुक भी कर दिया। 'गंगा जमुना' (1961) फिल्म दो भाइयों गंगा और जमुना की कहानी है, जो विद्रोह और बलिदान पर केंद्रित है। फिल्म का अंत जमुना की मौत से होता है। 'अमर प्रेम' (1972) भी अत्यंत भावुक अंत के लिए जानी जाती है जिसमें शशि कपूर और शर्मिला टैगोर के किरदार मिल नहीं पाते। 'देवदास' (2002) में देवदास पारो के प्रेम में टूटकर शराबी हो जाता है और उसके घर के बाहर ही अंतिम सांस लेता है। 'तेरे नाम' (2003) का नायक सलमान खान (राधे) मानसिक संतुलन खो बैठता है और अपनी प्रेमिका की मृत्यु के बाद पूरी तरह टूट जाता है। 'कल हो न हो' (2003) में शाहरुख खान का किरदार अमन अपनी बीमारी छुपाते हुए अपने प्यार को हमेशा के लिए खो देता है। 'वीर-जारा' (2004) की कहानी सालों की दूरी और दर्द भरी जुदाई के बाद सुखांत के बावजूद, प्रेम की कसक और बलिदान रोम-रोम को दुख से भर देता है। 'फना' (2006) में ज़ूनी के प्रेमी रेहान को देश की सुरक्षा के लिए मरना पड़ता है।
     'रॉकस्टार' (2011) में जॉर्डन और हीर के प्रेम की दुखद परिणति दर्शकों के दिल में गहराई तक उतरती है। 'आशिकी-2' (2013) राहुल और आरोही की प्रेम कहानी है, जो राहुल की आत्महत्या के साथ खत्म होती है और आरोही अकेली रह जाती है। 'रांझणा' (2013) में कुंदन अपनी मोहब्बत ज़ोया के लिए अपनी जान दे देता है, लेकिन फिर भी उसे मोहब्बत नहीं मिल पाती। 'गोलियों की रासलीला : राम-लीला' (2013) के कथानक में राम और लीला दोनों को दुनिया की नफरत भेंट चढ़ा देती है। 'लुटेरा' (2013) भी वह कहानी थी, जिसमें वरुण की मौत, पाखी के जीवन में एक दुखद मोड़ छोड़ जाती है। 'बाजीराव मस्तानी' (2015) में पेशवा बाजीराव और मस्तानी दोनों की अंतिम घड़ी भी साथ आती है, लेकिन वह प्रेम में पूरी नहीं हो पाते।
    प्रेम कथाओं के अलावा सामाजिक और पारिवारिक दुखांत कथानकों ने भी दर्शकों को प्रभावित किया। ऐसी फिल्मों में अमिताभ और जया भादुड़ी की फिल्म 'अभिमान' (1973) भी है, जिसमें गायक दम्पत्ति के रिश्ते में दरार आने से उनकी कहानी भावनात्मक हो जाती है। 1983 में आई गुलजार की फिल्म 'मासूम' एक अवैध संतान की अस्वीकार्यता परिवार में दर्द देती है। 2003 में आई अमिताभ-हेमा की फिल्म 'बागबान' में उम्रदराज दम्पत्ति अपने ही बच्चों से उपेक्षित हो जाते हैं। इसके अलावा ऐसी अन्य फ़िल्में हैं संजू, सनम तेरी कसम, बदला, हाईवे, पद्मावत, इश्क़जादे, क्यों कि, मेरी प्यारी बिंदू, मसान और द लंच बॉक्स जैसी फ़िल्में हैं। इन फिल्मों की ट्रैजिक एंडिंग ने दर्शकों को रुला दिया था। दुखद प्रेम और पारिवारिक कथाएं जीवन के ज़्यादा गहरे, जटिल विषयों जैसे प्रेम, हानि, कुर्बानी और मानवीय मजबूरियों का चित्रण करती हैं। दर्शकों को ये विषय खुद के जीवन अनुभवों के ज्यादा करीब महसूस होते हैं। ऐसी फिल्में दर्शकों को अपने भीतर दबी हुई भावनाओं को बाहर निकालने का भी मौका देती हैं। आंसू बहाना, दुख महसूस करना ये सब आत्मा की भावनात्मक शुद्धि का हिस्सा है, जिसे देखने के बाद हल्कापन या राहत मिलती है।
    दुखद अंत वाली फिल्मों में कुछ विशिष्ट कथा तत्व बार-बार देखने को मिलते हैं, जो दर्शकों में गहरा भावनात्मक प्रभाव छोड़ते हैं। सबसे सामान्य है अपूर्ण प्रेम या जुदाई। प्रेम कहानियों में अक्सर मुख्य पात्रों का एक-दूसरे से बिछड़ना, अलग हो जाना या उनका प्रेम पूरा न हो पाना प्रमुख रहता है। किसी प्रिय पात्र का बिछुड़ जाना, परिवार या मित्र की हानि या मुख्य का कुछ अमूल्य खो देना कथा को दुखद बनाता है। फिल्म के नायक या कोई अन्य प्रमुख पात्र किसी बड़े मकसद या अन्य पात्रों की भलाई के लिए खुद का बलिदान दे देता है, जिससे उसका अंत होता है। फिल्म के किरदारों का जीवन की कठिन परिस्थितियों में मानसिक या भावनात्मक रूप से टूटना, अकेलापन, अवसाद या समाज से कट जाना भी इस शैली के सामान्य आम तत्व हैं। कथानक के अंत में पात्रों की इच्छाएं पूरी नहीं होतीं और उनके ख्वाब अधूरे रह जाते हैं, जिससे कथा में निराशा का भाव उत्पन्न होता है। फिल्म की कहानी में अक्सर जीवन के कठिन, कटु और यथार्थ पहलुओं को दिखाया जाता है, जिससे दर्शक कहानी को अपनी असल जिंदगी से जोड़ पाते हैं।
     इन फिल्मों में सुखद समाधान की जगह किरदारों को उनकी समस्या के साथ ही छोड़ दिया जाता है या कोई उम्मीद नहीं दिखाई जाती। दुखद अंत वाली फिल्मों में प्रेम में विफलता, मृत्यु, बलिदान, अकेलापन, अधूरी इच्छाएं, कठोर यथार्थ और समाधान की कमी सबसे सामान्य कथा तत्व हैं, जो इन्हें भावनात्मक रूप से गहरा और यादगार बनाते हैं। अनारकली (1953), प्यासा (1957), सुजाता (1959) और बंदिनी (1963) वे शुरुआती ट्रैजिक फिल्में हैं जिनमें प्रेम, सामाजिक बाधाएं या व्यक्तिगत त्रासदी के कारण नायक-नायिका का मिलन नहीं हो पाता या अंत में मृत्यु हो जाती है, जिससे कहानी एक यादगार दुखद मोड़ पर समाप्त होती है। हिंदी सिनेमा की शुरुआती दुखद अंत वाली फिल्मों ने न केवल दर्शकों को भाव-विह्वल कर दिया, बल्कि ट्रेजेडी को भी हिंदी फिल्मी जगत का आवश्यक अंग बना दिया। इनमें देवदास, अनारकली, मुगल-ए-आज़म आदि ने ट्रैजिक एंडिंग का चलन स्थापित किया, जिसे आगे की अनेक फिल्मों ने अपनाया।
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