Sunday, October 5, 2025

फिल्म का दुखद अंत, सफलता का फार्मूला

      फिल्मों का दुखद अंत दर्शकों को इसलिए पसंद आता है, क्योंकि ऐसे अंत उनकी भावनाओं को गहराई से छूता है। इनमें जीवन की सच्चाइयों का अधिक प्रामाणिक चित्रण जो दिखाई देता है। माना जाता है कि दुखद अंत दर्शकों को अपने जीवन की समस्याओं और भावनाओं से जोड़ता है। जब फिल्म के किरदारों को दुख झेलते हुए दिखाया जाता है, तो दर्शक उस किरदार से सहानुभूति महसूस करते हैं। यह भावनात्मक जुड़ाव आनंद का स्रोत बन जाता है, भले ही उसमें दुख हो। ये फिल्में दर्शकों को अपनी ज़िंदगी और रिश्तों पर विचार करने के लिए भी प्रेरित करती हैं। शोध बताते हैं कि दुखद अंत देखने के बाद दर्शक अपने जीवन के सकारात्मक पहलुओं को ज्यादा गंभीरता से महसूस करते हैं। उन्हें संतोष मिलता है कि असल जीवन फिल्मों की तरह दुखद नहीं है। जो कठिनाई उन्होंने नहीं झेली, उसका एहसास होता है। दर्शकों को फिल्म का सुखद अंत देखकर कई बार लगता है कि उनकी समस्याएं असामान्य हैं, जबकि दुखद अंत यथार्थ है। असल जीवन का हमेशा 'हैप्पी एंडिंग' नहीं होता, इसलिए वे दुखद अंत को ज्यादा वास्तविक मानते हैं।
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- हेमंत पाल

    हिंदी फिल्मों के दर्शक की मानसिकता बेहद अजीब है। उन्हें किस फिल्म की कहानी पसंद आएगी, इस बात दावा कभी कोई नहीं कर सका। सामान्य धारणा है कि मनोरंजन के मूड से थियेटर आने वाला दर्शक चाहता है कि जब वो निकले तो मुस्कुराता हुआ बाहर आए। आशय यह कि फिल्म का अंत सुखद हो। हीरो-हीरोइन का मिलन हो, खलनायक को पुलिस पकड़ ले जाए, मामला कोर्ट में हो तो फैसला हीरो के हक़ में हो, सास-बहू का झगड़ा निपट जाए और हीरो-हीरोइन ढाई घंटे तक जिस भी संकट से घिरे हों, वो आखिरी के कुछ मिनटों में दूर हो जाए। दर्शकों को वे फ़िल्में ज्यादा पसंद हैं, जो उन्हें तसल्ली दे। जिन समस्याओं वो दर्शक खुद जूझ रहा हो, वो नहीं चाहता कि उसका मनोरंजन भी वैसा ही हो। लेकिन, इसे अपवाद माना जाना चाहिए कि फिल्म इतिहास की ज्यादातर कालजयी फिल्मों का अंत दुखद ही रहा। प्रेम कथाओं के मशहूर फ़िल्में देवदास, मुग़ल-ए-आजम, प्यासा और 'लैला मजनूं' में हीरो-हीरोइन का मिलन नहीं होता और दर्शक मायूस होकर रह जाता है। जबकि, अमिताभ-जया की 'मिली' और राजेश खन्ना की 'आनंद' के दुखांत की वजह लाइलाज बीमारी रहा।        
     हाल ही में आई सबसे बड़ी हिट फिल्म 'सैयारा' का अंत भी दुखद है। लेकिन, इस फिल्म ने सफलता का रिकॉर्ड बना दिया। यह फिल्म अधूरी मोहब्बत और दर्द भरी जुदाई की कहानी है, जिसका क्लाइमेक्स दर्शकों को अंदर तक सालता है। ऐसी और भी कई फ़िल्में हैं, जिनका अंत दुखद और भावनात्मक रहा। असफल प्रेम, जीवन संघर्ष या न्याय की तलाश जिनके प्रमुख विषय रहे। इन फिल्मों की कहानियों को प्रेम के अलावा सामाजिक मुद्दों और जीवन की जटिलताओं से जोड़कर गढ़ा गया, जिसका दर्शकों पर जबरदस्त गहरा भावनात्मक असर हुआ। ऐसी फिल्मों की कहानियां दर्शकों की आंखें गीली कर देती हैं, जिनका अंत भावनात्मक होता है। याद किया जाए तो देवदास (तीन बार बनी), दिल बेचारा, आशिकी-2, तेरे नाम और 'एक दूजे के लिए' देखने के बाद दर्शक दुखी जरूर हुए, पर फिल्म हिट हुई। इन फिल्मों ने दर्शकों को अपनी भावनाएं खुलकर महसूस और व्यक्त करने का जरिया मुहैया कराया। दरअसल, ऐसे पलों में दर्शक खुद के जीवन की कद्र करना या अपनी तकलीफों को छोटा समझना सीखते हैं। दुखद अंत वाली फिल्में न सिर्फ सफल होती हैं, बल्कि समय के साथ यादगार भी बनती हैं।
    सवाल उठता है कि दुखांत फिल्मों की सफलता का कारण क्या है! इस सवाल का कोई एक या सीधा जवाब नहीं हो सकता। इसलिए कि मानवीय भावनाओं से गहरा जुड़ाव, यथार्थवाद और दर्शकों को झकझोर देने वाली कहानियां ज्यादा पसंद आती है। ऐसी फिल्में दर्शकों की भावनाओं को गहराई से छूती हैं। दर्द, विरह और अपूर्ण प्रेम जैसी भावनाएं लगभग हर व्यक्ति ने किसी न किसी रूप में महसूस की हैं। जब कोई कहानी इन पहलुओं को ईमानदारी से पेश करती है, तो दर्शक उसमें खुद को महसूस करते हैं, जिससे फिल्म उनके दिल में जगह बना लेती है। देखा गया है, कि सच्चाई और यथार्थ का चित्रण हर दौर का दर्शक हमेशा पसंद करता है। फिल्म का दुखद अंत दर्शकों को झकझोरता है। यही झटका फिल्म और उसके पात्रों को लंबे समय तक जेहन में बैठाता है। ऐसी कहानियां अक्सर अमर और 'क्लासिक' मानी जाती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि सकारात्मक अंत वाली कहानियां दर्शक को असल ज़िंदगी से दूर लगती हैं, जबकि दुखद अंत की फिल्मों में जीवन की वास्तविक जटिलता दिखाई देती है, जिसे लोग सच्चा मानते हैं। ऐसे अंत दर्शकों को यह अहसास कराते हैं, कि हर कहानी का अंत सुखद नहीं होता, जो जीवन की हकीकत के काफी करीब है।
    वे फ़िल्में जिनके क्लाइमैक्स ने दर्शकों को बेहद दुःखी किया और कई बार भावुक भी कर दिया। 'गंगा जमुना' (1961) फिल्म दो भाइयों गंगा और जमुना की कहानी है, जो विद्रोह और बलिदान पर केंद्रित है। फिल्म का अंत जमुना की मौत से होता है। 'अमर प्रेम' (1972) भी अत्यंत भावुक अंत के लिए जानी जाती है जिसमें शशि कपूर और शर्मिला टैगोर के किरदार मिल नहीं पाते। 'देवदास' (2002) में देवदास पारो के प्रेम में टूटकर शराबी हो जाता है और उसके घर के बाहर ही अंतिम सांस लेता है। 'तेरे नाम' (2003) का नायक सलमान खान (राधे) मानसिक संतुलन खो बैठता है और अपनी प्रेमिका की मृत्यु के बाद पूरी तरह टूट जाता है। 'कल हो न हो' (2003) में शाहरुख खान का किरदार अमन अपनी बीमारी छुपाते हुए अपने प्यार को हमेशा के लिए खो देता है। 'वीर-जारा' (2004) की कहानी सालों की दूरी और दर्द भरी जुदाई के बाद सुखांत के बावजूद, प्रेम की कसक और बलिदान रोम-रोम को दुख से भर देता है। 'फना' (2006) में ज़ूनी के प्रेमी रेहान को देश की सुरक्षा के लिए मरना पड़ता है।
     'रॉकस्टार' (2011) में जॉर्डन और हीर के प्रेम की दुखद परिणति दर्शकों के दिल में गहराई तक उतरती है। 'आशिकी-2' (2013) राहुल और आरोही की प्रेम कहानी है, जो राहुल की आत्महत्या के साथ खत्म होती है और आरोही अकेली रह जाती है। 'रांझणा' (2013) में कुंदन अपनी मोहब्बत ज़ोया के लिए अपनी जान दे देता है, लेकिन फिर भी उसे मोहब्बत नहीं मिल पाती। 'गोलियों की रासलीला : राम-लीला' (2013) के कथानक में राम और लीला दोनों को दुनिया की नफरत भेंट चढ़ा देती है। 'लुटेरा' (2013) भी वह कहानी थी, जिसमें वरुण की मौत, पाखी के जीवन में एक दुखद मोड़ छोड़ जाती है। 'बाजीराव मस्तानी' (2015) में पेशवा बाजीराव और मस्तानी दोनों की अंतिम घड़ी भी साथ आती है, लेकिन वह प्रेम में पूरी नहीं हो पाते।
    प्रेम कथाओं के अलावा सामाजिक और पारिवारिक दुखांत कथानकों ने भी दर्शकों को प्रभावित किया। ऐसी फिल्मों में अमिताभ और जया भादुड़ी की फिल्म 'अभिमान' (1973) भी है, जिसमें गायक दम्पत्ति के रिश्ते में दरार आने से उनकी कहानी भावनात्मक हो जाती है। 1983 में आई गुलजार की फिल्म 'मासूम' एक अवैध संतान की अस्वीकार्यता परिवार में दर्द देती है। 2003 में आई अमिताभ-हेमा की फिल्म 'बागबान' में उम्रदराज दम्पत्ति अपने ही बच्चों से उपेक्षित हो जाते हैं। इसके अलावा ऐसी अन्य फ़िल्में हैं संजू, सनम तेरी कसम, बदला, हाईवे, पद्मावत, इश्क़जादे, क्यों कि, मेरी प्यारी बिंदू, मसान और द लंच बॉक्स जैसी फ़िल्में हैं। इन फिल्मों की ट्रैजिक एंडिंग ने दर्शकों को रुला दिया था। दुखद प्रेम और पारिवारिक कथाएं जीवन के ज़्यादा गहरे, जटिल विषयों जैसे प्रेम, हानि, कुर्बानी और मानवीय मजबूरियों का चित्रण करती हैं। दर्शकों को ये विषय खुद के जीवन अनुभवों के ज्यादा करीब महसूस होते हैं। ऐसी फिल्में दर्शकों को अपने भीतर दबी हुई भावनाओं को बाहर निकालने का भी मौका देती हैं। आंसू बहाना, दुख महसूस करना ये सब आत्मा की भावनात्मक शुद्धि का हिस्सा है, जिसे देखने के बाद हल्कापन या राहत मिलती है।
    दुखद अंत वाली फिल्मों में कुछ विशिष्ट कथा तत्व बार-बार देखने को मिलते हैं, जो दर्शकों में गहरा भावनात्मक प्रभाव छोड़ते हैं। सबसे सामान्य है अपूर्ण प्रेम या जुदाई। प्रेम कहानियों में अक्सर मुख्य पात्रों का एक-दूसरे से बिछड़ना, अलग हो जाना या उनका प्रेम पूरा न हो पाना प्रमुख रहता है। किसी प्रिय पात्र का बिछुड़ जाना, परिवार या मित्र की हानि या मुख्य का कुछ अमूल्य खो देना कथा को दुखद बनाता है। फिल्म के नायक या कोई अन्य प्रमुख पात्र किसी बड़े मकसद या अन्य पात्रों की भलाई के लिए खुद का बलिदान दे देता है, जिससे उसका अंत होता है। फिल्म के किरदारों का जीवन की कठिन परिस्थितियों में मानसिक या भावनात्मक रूप से टूटना, अकेलापन, अवसाद या समाज से कट जाना भी इस शैली के सामान्य आम तत्व हैं। कथानक के अंत में पात्रों की इच्छाएं पूरी नहीं होतीं और उनके ख्वाब अधूरे रह जाते हैं, जिससे कथा में निराशा का भाव उत्पन्न होता है। फिल्म की कहानी में अक्सर जीवन के कठिन, कटु और यथार्थ पहलुओं को दिखाया जाता है, जिससे दर्शक कहानी को अपनी असल जिंदगी से जोड़ पाते हैं।
     इन फिल्मों में सुखद समाधान की जगह किरदारों को उनकी समस्या के साथ ही छोड़ दिया जाता है या कोई उम्मीद नहीं दिखाई जाती। दुखद अंत वाली फिल्मों में प्रेम में विफलता, मृत्यु, बलिदान, अकेलापन, अधूरी इच्छाएं, कठोर यथार्थ और समाधान की कमी सबसे सामान्य कथा तत्व हैं, जो इन्हें भावनात्मक रूप से गहरा और यादगार बनाते हैं। अनारकली (1953), प्यासा (1957), सुजाता (1959) और बंदिनी (1963) वे शुरुआती ट्रैजिक फिल्में हैं जिनमें प्रेम, सामाजिक बाधाएं या व्यक्तिगत त्रासदी के कारण नायक-नायिका का मिलन नहीं हो पाता या अंत में मृत्यु हो जाती है, जिससे कहानी एक यादगार दुखद मोड़ पर समाप्त होती है। हिंदी सिनेमा की शुरुआती दुखद अंत वाली फिल्मों ने न केवल दर्शकों को भाव-विह्वल कर दिया, बल्कि ट्रेजेडी को भी हिंदी फिल्मी जगत का आवश्यक अंग बना दिया। इनमें देवदास, अनारकली, मुगल-ए-आज़म आदि ने ट्रैजिक एंडिंग का चलन स्थापित किया, जिसे आगे की अनेक फिल्मों ने अपनाया।
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