Wednesday, July 22, 2015
Thursday, July 2, 2015
अब बदलेंगे इंदौर में भाजपा के राजनीतिक समीकरण
- हेमंत पाल
इंदौर की भारतीय जनता पार्टी राजनीति करीब दो दशकों से एक ही ढर्रे पर चल रही थी! सारे समीकरण 'ताई' और 'भाई' के आसपास की बनते, बिगड़ते रहते थे! यही कारण था कि यहाँ क सोच इससे आगे नहीं बढ़ सका! पार्टी की राजनीति लम्बे समय से 'ताई' और 'भाई' तक ही केंद्रित रही! 'ताई' यानी सुमित्रा महाजन और 'भाई' हैं कैलाश विजयवर्गीय! पार्टी के जो भी नेता अपना जरा भी वजूद रखते थे, वे इन दोनों में से किसी एक के खेमें में शामिल होकर अपनी पहचान बनाते रहे! पिछले 15 सालों में इनके अलावा किसी और भाजपा नेता ने अपनी अलग पहचान बनाई हो, ऐसा नहीं लगा!
'ताई' और 'भाई' में शह और मात का खामोश खेल करीब डेढ़ दशक तक चला! ऐसे कई मौके आए, जब लगा कि इनके समीकरण उलझेंगे, पर ऐसा हुआ नहीं! लेकिन, पिछले लोकसभा चुनाव में अचानक इंदौर की भाजपा राजनीति में कुछ ऐसा घटा कि 'भाई' ने 'ताई' सहारा दिया! दोनों के साथ आने से कई नए समीकरण बने! स्थानीय राजनीति को समझने वाले भी हतप्रभ थे, पर इसके पीछे छुपे मंतव्य को नहीं समझ सके! उन्हें लगा कि शहर के जो दो दिग्गज हमेशा एक-दूसरे के पैरों के नीचे से जमीन खींचने की कोशिश में रहते थे, वे साथ कैसे हो लिए? सवाल अहम था, पर जवाब किसी के पास नहीं था! इसके बाद से इंदौर की भाजपा राजनीति में जो नया दौर चला, उसकी अगली कड़ी ही कैलाश विजयवर्गीय का भाजपा का राष्ट्रीय महासचिव बनना है! इंदौर 'में ताई' और 'भाई' के बीच में दूरी बढाकर कई नेताओं ने फायदे की फसल काटी है! शायद यही कारण था कि सही वक़्त पर दोनों एक जाजम पर आ गए!
जिले के महू क्षेत्र से विधायक कैलाश विजयवर्गीय का भाजपा की राजनीति में अलग रुतबा हैं। उनके पास अभी प्रदेश में नगरीय प्रशासन विभाग का दायित्व है। विजयवर्गीय ने संकेत भी दिए हैं कि वे मंत्री पद छोड़ देंगे! क्योंकि, वे अब अपना पूरा समय केंद्र की राजनीति में ही लगाना चाहते हैं! उन्होंने साफ कहा कि वे मंत्री पद से मुक्त होना चाहते हैं। पार्टी वैसे भी एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत पर विश्वास करती है।
यही कारण है कि विजयवर्गीय के राष्ट्रीय महासचिव बनने के बाद इंदौर की राजनीति में कई बदलाव आने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता! अब इंदौर के किसी विधायक को मंत्री पद दिया जा सकता है! क्योंकि, विजयवर्गीय को संगठन में लिए जाने के प्रदेश में एक मंत्री पद खाली हो जाएगा! ऐसे में सबसे पहले नाम आता हैं महेंद्र हार्डियां का, दूसरे नंबर पर रमेश मेंदोला का और सबसे अंत में सुदर्शन गुप्ता को मौका मिल सकता हैं! महेंद्र हाडियां पहले भी शिवराज सरकार में मंत्री रह चुके हैं। स्वास्थ्य राज्य मंत्री के तौर पर उन्होने काम भी अच्छा किया था! वहीं, विजयवर्गीय के संगठन में जाने के बाद उनके सबसे नजदीक कहे जाने वाले विधायक रमेश मेंदोला भी प्रमुख दावेदारो में हैं! वे प्रदेश में रिकॉर्ड मतो से जीते भी थे। तीसरे स्थान पर हैं सुदर्शन गुप्ता जो कि मुख्यमंत्री के गुड लिस्ट में कोटे के हैं।
हरियाणा के विधानसभा चुनाव के बाद से ही ये संभावना थी कि कैलाश विजयवर्गीय को पार्टी में कोई बड़ी जिम्मेदारी मिल सकती हैं। हरियाणा से यूं तो मध्यप्रदेश से कोई लेना-देना नहीं, पर कैलाश विजयवर्गीय के प्रभारी होने की वजह से सभी का ध्यान वहां लगा था! समर्थकों का भी और विरोधियों का भी!
हरियाणा में किसी को बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं थी, क्योंकि तब विधानसभा में भाजपा के पास सिर्फ 4 सीट थीं। मोदी लहर के अलावा यह विजयवर्गीय के चुनाव मैनेजमेंट का भी कमाल रहा कि भाजपा ने 47 सीटें जीतकर अपने दम पर पहली बार हरियाणा में भाजपा सरकार बनाने का इतिहास रच डाला। इस जीत के बाद राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी में कैलाश विजयवर्गीय का कद शिखर पर पहुँच गया! इसके बाद से ही उनका शाह-टीम में उनका शामिल होना तय माना जा रहा था!
पार्टी अध्यक्ष अमित शाह द्वारा महासदस्यता अभियान का प्रभारी बनाकर 9 राज्यों की जिम्मेदारी सौंपने के बाद से इस बात को बल भी मिला था कि विजयवर्गीय के लिए दिल्ली में कुछ चल रहा है! वही हुआ भी! अब जहाँ प्रदेश की राजनीति में नए समीकरण बनेंगे, वहीं इंदौर की राजनीति भी नई करवट लेगी! देखना है कि ये ऊंट किस करवट बैठता है?
Wednesday, July 1, 2015
खुरदुरी खाकी से घबराने लगा इंदौर!
- हेमंत पाल
किसी नेता की जन-लोकप्रियता का पैमाना क्या होता है? इस सवाल के जवाब में कई तर्क और उद्धरण दिए जा सकते हैं। लेकिन, इसका सबसे सटीक जवाब होगा 'जनता की दुखती नब्ज को छू लेना!' भाजपा के कद्दावर नेता, मंत्री और पार्टी की केंद्रीय समिति में महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने एक बार फिर वही किया! इंदौर में पुलिस के अघोषित रात्रि कर्फ्यू पर उन्होंने करारी चोट की! एक बड़े पुलिस अधिकारी को लिखी चिट्ठी में विजयवर्गीय ने लिखा कि पुलिस का खौफ सिर्फ और सिर्फ सामान्य जनता पर है, अपराधियों पर तो बिल्कुल ही नहीं! रात 11 बजे शहर बंद करने का निर्णय लेने से पहले आपने एक भी जनप्रतिनिधि से बात नहीं की?
सामान्यतः देखा गया है कि जब भी कोई बड़ा पुलिस अधिकारी शहर में नया आता है, वो बजाए जनता से सौजन्यता वाले सम्बंध बनाने के, खौफ के जरिए अपना प्रभाव ज़माने की कोशिश करता है। वही सब इन दिनों इंदौर में देखा जा रहा है। जिस वर्दी से गुंडों, बदमाशों और समाज के असामाजिक तत्वों को खौफ खाना चाहिए, उस खाकी वर्दी से आम लोग भयभीत हैं! शहर की सभी प्रमुख सड़कों पर पुलिसिया आतंक का माहौल है! भीड़ भरी सड़कों के बीच बैरियर लगाकर बंदूकधारी पुलिस जवान नजर आ रहे हैं! ये ट्राफिक सुधार की कोई कोशिश है, कानून व्यवस्था के सुधार का प्रयोग या फिर भय का बाज़ार लगाने की, समझ नहीं आता!
जिस तरह कहा जाता है कि ताले चोरों के लिए नहीं लगाए जाते! उसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि पुलिस गुंडों और बदमाशों पर काबू करने के लिए भी नहीं होती! क्योंकि, उन्हें सब पता होता है कि पुलिस कहाँ है और कहाँ नहीं! यदि पुलिस इतनी ही तत्पर और सजग है तो इंदौर में अपराधों पर अंकुश क्यों नहीं लग सका? पिछले कुछ समय से इंदौर देश के बड़े अपराधियों की गतिविधियों का अड्डा जैसा बन गया है! प्रदेश में सबसे ज्यादा अपराधों के लिए कुख्यात हो चुके इस शहर की जनता को पुलिस के खौफ की नहीं, भरोसे की ज्यादा जरुरत है। रात 11 बजे से शहर को बंद करा देने या सडकों पर बंदूक थामे खाकी के उतर जाने से शहर में शांति शायद नहीं आएगी!
मालवा के इस बढ़ते शहर की अपनी अलग ही तासीर है। इंदौर सौजन्यता भरी व्यवहार कुशलता और खाने-पीने के शौकीन लोगों के लिए जाना जाता है। खाना-पीना यहाँ एक शौक जैसा है। और देर रात तक खाने की दुकाने खुली रहना यहाँ की परंपरा में शुमार! सिर्फ कानून-व्यवस्था के नाम पर किसी शहर की परंपराओं को बदलना तार्किक नहीं कहा जा सकता! कैलाश विजयवर्गीय ने भी अपनी चिट्ठी में लिखा है कि 'यह आपने इसलिए किया है कि सैकड़ों वर्षों से चली आ रही शहर की परंपराओं और तासीर से परिचित नहीं हैं! आपसे पहले किसी ने भी शहर की इस आदत को बदलने की कोशिश नहीं की, क्योंकि वे जानते थे या हम सब जानते हैं कि अपराध वे लोग नहीं करते जो देर रात दुकानों में खाते-पीते या खरीदारी करते हैं।'
पुलिस की इस 'नाटकीय' सख्ती के बाद यदि इंदौर में अपराध के आंकड़े कम हो जाते या होने वाले अपराधों के आरोपी पकड़ लिए जाते तो पुलिस की इस सख्ती को लोग हाथो-हाथ लेते! पर, ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा! जहाँ पुलिस होगी, वहां से तो असामाजिक छूमंतर हो ही जाते हैं! ऐसे में पुलिस के हत्थे वो आम आदमी ही आते हैं! जो दुपहिया वाहनों पर चलते हैं और अपनी खुशियाँ सराफे, 56-दुकान या ऐसे ही अपने इलाके के बाजार में चाट-पकौड़ी खाकर मानते हैं! लेकिन, जब पुलिस 11 बजे दुकानें बंद करवा दे और सडकों पर डंडा फटकारने लगे तो लोग कहाँ जाएंगे! परेशान लोगों और व्यापारियों के लिए कैलाश विजयवर्गीय ने जो कदम उठाया वो सत्ता और विपक्ष के उन नेताओं के लिए सबक है जो जनता के नेता होने का दम्भ तो भरते हैं पर, ऐसे वक़्त में खामोश रहते हैं! पुलिस के बहाने एक बार फिर इस जन-नेता ने लोगों के दिल में अपना ख़म ठोंक दिया!
न पार्टी जीती न उम्मीदवार, जीते शिवराज!
गरोठ उपचुनाव
- हेमंत पाल
गरोठ में भाजपा आंकड़ों में जरूर जीत गई हो, पर कई मायनों में इस जीत ने पार्टी को आईना दिखा दिया! इसे भाजपा उम्मीदवार चंदरसिंह सिसौदिया या पार्टी की जीत कतई नहीं कहा जा सकता! ये सिर्फ और सिर्फ मुख्यमंत्री की छवि और उनकी कोशिशों की जीत है। डेढ़ साल पहले जिस भाजपा ने कांग्रेस उम्मीदवार को 25 हज़ार वोटों से हराया था, इस उपचुनाव में वही जीत घटकर आधी रह गई! वो भी करीब एक महीने तक पूरी पार्टी और सरकार के जुटने के बाद! मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान यदि प्रचार के के अलावा चुनाव प्रबंधन में खुद को नहीं लगाते तो ये जीत आसान नहीं थी!
संगठन का चंदरसिंह सिसौदिया को उम्मीदवार बनाने का फैसला सही नहीं कहा जा सकता! इस फैसले ने पार्टी के लिए जातिगत समीकरणों को नुकसान ही पहुँचाया। क्योंकि, पूरे इलाके में सौंधिया ठाकुरों को लेकर लोगों में नाराजी है। इलाके की कमजोर जातियों में उनके प्रति भय, खौफ का मौहाल है। इसलिए जातिगत समीकरणों के लिहाज से भाजपा का ये दांव उल्टा पड गया! भाजपा के जो वोट घटे, उसमें एक बड़ा कारण ये भी है। गरोठ क्षेत्र में सौंधिया ठाकुरों के अलावा वैश्य और जैन समाज के वोटर्स का दबदबा है। ये पहली बार हुआ कि गरोठ के इस उपचुनाव में वैश्य वोटर्स भाजपा से काफी हद तक कट गया! शायद ये पहली बार हुआ कि भाजपा का परंपरागत वैश्य वोट बैंक खिसका हो! कांग्रेस उम्मीदवार सुभाष सोजतिया खुद जैन हैं, इसलिए जैन वोटर्स का पलड़ा उनकी तरफ झुकना स्वाभाविक था, वही हुआ भी! कांग्रेस ने भी अपनी कोशिशों में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन, उपचुनाव में सत्ताधारी पार्टी को जो फ़ायदा मिलता है, वो भाजपा को भी मिला। इसके बावजूद भाजपा ने जैन वोटर्स में जो सेंध लगाई, वो शिवराज सिंह के अपने प्रयासों से मिले!
चंदरसिंह सिसौदिया को लेकर पार्टी के स्थानीय संगठन में भी विरोध था। पार्टी का एक बड़ा धड़ा सिसौदिया की उम्मीदवारी के खिलाफ था! इसका समय रहते पता भी लग गया! भाजपा ने कुछ पद बांटकर इस खदबदाते विरोध को दबाने की कोशिश भी की, लेकिन बात बनी नहीं! उम्मीदवारी के ही एक दावेदार राजेश चौधरी ने प्रचार के बीच में उसके और मुख्यमंत्री के बीच हुई बातचीत को सोशल मीडिया पर सार्वजनिक करके मौहाल बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी! इस सबके पीछे एक कारण ये भी है कि भाजपा में बढ़ते 'ठाकुरवाद' से पार्टी में नाराजी पनप रही है! इसे भी पार्टी को गंभीरता से लेना होगा।
भाजपा भले ही जीत को लेकर उत्साहित हो, पर सारे दमखम के बावजूद जीत आधी रह जाना पार्टी के लिए खतरे की घंटी है। सरकार प्रदेश में विकास के लाख दावे करे, पर गरोठ इलाके की हालत देखकर लगता नहीं कि यहाँ कुछ हुआ है। भानपुरा के लोग तो वहाँ के मुख्य मार्ग की हालत से ही बेहद खफा हैं! इस क्षेत्र में न तो सड़कें बनी और ना विकास के कोई काम हुए! ऊपर से किसानों का फसल बोनस बंद कर दिए जाने और भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर भी सरकार के प्रति लोगों का गुस्सा दिखाई दिया! इसका असर जीत का अंतर घटने से साफ़ भी हो जाता है।
मतदान के हफ्तेभर पहले तक यहाँ हार-जीत का अनुमान लगाना आसान नहीं था! इंटेलिजेंस और सीआईडी की रिपोर्ट भी संभवतः इसी तरफ इशारा कर रही थी। सबसे चौंकाने वाली रिपोर्ट तो खुद भाजपा संगठन का इंटरनल सर्वे था! जिसमें पार्टी की जीत पर संदेह व्यक्त किया गया था! प्रचार बंद होने के अंतिम दिन तक भाजपा की जीत संदिग्ध ही रही! शायद यही कारण था कि मुख्यमंत्री जो प्रचार के अंतिम दिन राजधानी लौटने वाले थे, रात रुक गए! उन्होंने वहाँ बूथ स्तर तक की छोटी-छोटी बैठकें ली! मुख्यमंत्री कोई रिस्क लेना नहीं चाह रहे थे! शिवराज सिंह की इस सक्रियता का ही नतीजा था कि आज गरोठ में भाजपा की जीत का परचम लहरा रहा है!
2003 में भाजपा सरकार में आई थी! इसके बाद से अभी तक 18 उपचुनाव हुए हैं! इनमें से 12 बार भाजपा जीती और 6 बार उसे वोटर्स ने हरा दिया! भाजपा के सामने गरोठ 19वां उपचुनाव था! छह राउंड की मतगणना के बाद पहली बार कांग्रेस 200 वोटों से आगे आई, लेकिन ये बढ़त बरक़रार नहीं रख सकी!
किसका झंडा गड़ेगा, कोई दावा नहीं, असमंजस बरक़रार!
गरोठ विधानसभा उपचुनाव
- हेमंत पाल
गरोठ में मतदान की सेज सज चुकी है। गुरुवार शाम 5 बजे से प्रचार का शोर भी थम गया! महीनेभर के धुंआधार प्रचार के बाद अब हार-जीत का गणित मतदाता के पाले में है। सड़क पर अपना प्रचार दम दिखाने के बाद अब मतदाताओं के प्रभावित करने की कोशिशें चल रही है। भाजपा को राज्य सरकार के कामकाज से जीत का भरोसा है! उधर, कांग्रेस ने सरकार की कमजोरी दिखाकर मतदाताओं से अपना मानस बदलने की कोशिश की है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और भाजपा संगठन ने गरोठ में जीत का झंडा गाड़ने के लिए सारा दम लगा दिया! उधर, कांग्रेस ने भी प्रचार में कोई कमी नहीं रखी! दिग्विजय सिंह, कमलनाथ ने अपना पूरा जोर लगा दिया! जबकि, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने तो यहाँ डेरा दाल दिया था! इस नजरिए से कहा जा सकता है कि दोनों ही पार्टियों ने प्रचार में कोई कमी नहीं रखी!
चुनाव प्रचार के अलावा कांग्रेस और भाजपा ने एक दूसरे के गढ़ों में सेंध लगाने की भी कोशिशें की! भाजपा और संघ में उम्मीदवार को लेकर जो अनबन शुरू में दिखाई दी थी, कांग्रेस में उस दिशा में भी अपना दांव चला है! लेकिन, कहा नहीं जा सकता कि कांग्रेस अपनी इस रणनीति में किस हद तक कामयाब होगा! भाजपा ने भी कांग्रेस उम्मीदवार सुभाष सोजतिया के गढ में पलीता लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी! करीब 20 दिन के धुँवाधार चुनाव प्रचार और सेंधमारी के बाद अभी तक की स्थिति में कहा नहीं जा सकता कि जीत का झंडा किसके पाले में गड़ेगा! नतीजा चाहे जो हो, पर हार-जीत का अंतर बहुत बड़ा शायद न हो, जैसा राजेश यादव की जीत में दिखाई दिया था!
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने उपचुनाव मामले में मुख्य निर्वाचन आयुक्त को पत्र लिखकर मंदसौर में पदस्थ कुछ सरकारी अधिकारियों की शिकायत भी की थी! उनका आरोप था कि ये अधिकारी उपचुनाव को प्रभावित कर सकते हैं। यादव ने पत्र में मंदसौर के संयुक्त मुख्य निवार्चन अधिकारी, राज्य स्तरीय नोडल अधिकारी और मौजूदा जिला निवार्चन अधिकारी को लेकर आशंका जताई थी! अरुण यादव का कहना था कि संयुक्त निर्वाचन पदाधिकारी एसएस बंसल मंदसौर की गरोठ विधानसभा क्षेत्र के ही रहने वाले हैं। जबकि, राज्यस्तरीय नोडल अधिकारी संजय सिंह भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष अजयप्रताप सिंह के रिश्तेदार है।
मंदसौर जिले में आजादी के बाद से ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) का खासा दखल रहा है। यही कारण है कि भाजपा विधायक राजेश यादव के निधन से खाली हुए गरोठ विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में भी संघ की भूमिका महत्वपूर्ण है। राजनीतिक मिजाज को देखें तो गरोठ पर कभी किसी एक दल का लंबे समय तक वर्चस्व नहीं रहा! 1990 से अब तक हुए 6 विधानसभा चुनावों में तीन बार भाजपा और तीन बार ही कांग्रेस ने जीत दर्ज की है। राजेश यादव के निधन से गरोठ के लिए फिर उपचुनाव हो रहा है। ये उपचुनाव भाजपा विधायक के निधन के कारण हो रहा है, इसलिए स्वाभाविक तौर पर सहानुभूमि का लाभ भाजपा को मिलने की थोड़ी संभावना है। शिवराज सिंह चौहान प्रदेश में 12 साल से काबिज हैं, इसका फायदा भी भाजपा उम्मीदवार चंदनसिंह सिसौदिया को मिल सकता है। लेकिन, राजनीतिक मिजाज और भाजपा के प्रति लोगों की बेरुखी के कारण किसी भी पार्टी की जीत का दावा नहीं किया जा सकता!
1990 के बाद अब तक हुए 6 चुनावों में से 3 बार कांग्रेस के जिस नेता ने जीत दर्ज की वे सुभाष सोजतिया हैं। सोजतिया का गरोठ में अच्छा प्रभाव भी है। 2008 में उन्होंने राजेश यादव को तो हराया ही, इससे पहले 1993 तथा 1998 के चुनाव में भी उन्होंने लगातार जीत दर्ज की। 1993 में भाजपा उम्मीदवार हरकचंद हरसोला साढ़े 3 हजार, जबकि 98 में भाजपा के राधेश्याम मांदलिया को 21 हजार से ज्यादा वोटों से हराया था। मांदलिया 1990 में कांग्रेस के सुभाष अग्रवाल को लगभग साढ़े 12 हजार वोटों के अंतर से हराकर विधायक बने थे।
जहाँ तक सरकारी तैयारियों की बात है तो गरोठ क्षेत्र की सीमाएं सील की जा चुकी है! निर्वाचन के दौरान कानून व्यवस्था सामान्य बनाए रखने हेतु धारा 144 के प्रतिबंधात्मक आदेश जारी किए गए हैं। इसके अलावा विधानसभा क्षेत्र की धर्मशाला, होटल, सराय, लॉज, सामुदायिक भवन, रेस्ट हाउस, रिसोर्ट, धार्मिक स्थलों एवं निजी आवासों पर रह रहे बाहरी क्षेत्र के व्यक्ति को निर्वाचन इलाका उपरोक्त अवधि के लिए खाली कराना होगा। गरोठ विधानसभा उपचुनाव में 2 लाख 18 हजार 246 मतदाता (1 लाख 12 हजार 421 पुरूष मतदाता एवं 1 लाख 05 हजार 824 महिला मतदाता) अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे। इस उपचुनाव के लिए गरोठ विधानसभा क्षेत्र में कुल 261 मतदान केन्द्र बनाए गए हैं। विधानसभा क्षेत्र को कुल 41 जोन में बांटा गया है।
'भूरिया राजनीति' के एक ध्रुव का अस्त होना!
- हेमंत पाल
आदिवासी इलाके झाबुआ में करीब तीन दशक से 'भूरिया राजनीति' चल रही है। पार्टी चाहे कांग्रेस हो भारतीय जनता पार्टी दोनों ही भूरियाओं के प्रभाव से मुक्त नहीं रही! प्रदेश की राजनीति पर कांतिलाल भूरिया का कब्ज़ा था, तो केंद्र की राजनीति दिलीप सिंह भूरिया के हवाले थी! अपने छह बार के संसदीय कार्यकाल में से पांच बार दिलीपसिंह भूरिया कांग्रेस के टिकट पर ही संसद में पहुंचे! 1972 में पेटलावद विधानसभा से वे कांग्रेस के विधायक भी रहे। लेकिन, एक समय ऐसा भी आया जब दिलीप सिंह को लगा कि कांग्रेस में कांतिलाल भूरिया का वजन बढ़ रहा है तो वे कांग्रेस से नाराज होकर बाहर आ गए। इसी दौरान प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से आदिवासी मुख्यमंत्री के मुद्दे पर उनके मतभेद भी हो गए थे। भूरिया ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और भाजपा में शामिल हो गए।
इस बात का दावा नहीं किया जा सकता कि वे कभी आदिवासियों के एक छत्र और जमीनी नेता रहे! उन्हें हमेशा ही अपने प्रतिद्वंदी 'भूरिया' से चुनौती मिलती रही! लेकिन, देश की राजनीति में उनकी पहचान हमेशा निष्कलंक विशुद्ध आदिवासी नेता की ही बनी रही! प्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री की पहली बात उन्होंने ही उठाई थी! तब कांग्रेस में 'ठाकुर राजनीति' का जोर था। कांग्रेस ने इस मांग को साफ़ नाकारा तो नहीं, पर इसे गंभीरता से भी नहीं लिया! यही वो मुद्दा था कि दिग्विजय सिंह से उनके मतभेद हो गए! नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस में कांतिलाल भूरिया की पूछ-परख बढ़ गई और दिलीप सिंह को हाशिए पर धकेला जाने लगा!
दिलीप सिंह भूरिया 1998 में कांग्रेस छोड़कर में भाजपा में चले गए! भाजपा ने 1998 के लोकसभा चुनाव में दिलीप सिंह को झाबुआ सीट से टिकट दिया, पर वे अपने चिर-प्रतिद्वंदी कांतिलाल भूरिया से चुनाव हार गए! अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में उन्हें 'राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग' का अध्यक्ष भी बनाया गया था। एक मौका ऐसा भी आया जब मतभेदों के चलते वे भाजपा से भी रूठ गए और 'गोंडवाना गणतंत्र पार्टी' का दामन थाम लिया! लेकिन, इस क्षेत्रीय पार्टी उनका मन ज्यादा दिन नहीं लगा! वे फिर घूमफिर कर भाजपा में आ गए! 2014 का चुनाव जीतकर वह एक बार फिर संसद पहुंचे थे।
बार-बार पार्टी बदलने का नतीजा ये हुआ कि झाबुआ में उनका जनाधार दरक गया! इलाके के लोग भी इस बात को स्वीकारते हैं कि 2014 का लोकसभा चुनाव भी दिलीपसिंह भूरिया अपने दम पर नहीं जीते! उन्हें 'मोदी-आँधी' का सहारा नहीं होता, तो उनके लिए जीतना आसान नहीं होता! इसके अलावा उन्होंने आदिवासियों की शराब पीने की आदत का भी कई बार खुला विरोध किया! इस कारण भी आदिवासियों का एक बड़ा तबका उनके खिलाफ था! इसलिए कि शराब को आदिवासी बुराई नहीं मानते! सीमावर्ती गुजरात की दाहोद लोकसभा सीट के तत्कालीन सांसद सोमजीभाई डामोर से भी उनका इस मुद्दे पर सीधा विरोध था! पिछले दिनों पंचायत चुनाव में उनके बेटे जसवंत सिंह की हार से भी साबित हो गया था कि दिलीप सिंह भूरिया की जड़ें कमजोर हो रही है! इसका कारण ये भी हो सकता है कि आदिवासियों में भाजपा के प्रति मोह भंग हो रहा है! पर, इस सच का लिट्मस-टेस्ट झाबुआ लोकसभा उप-चुनाव के नतीजे से ही होगा!
देखा जाए तो भारतीय जनता पार्टी पर इन दिनों उप-चुनाव की काली छाया लगातार मंडरा रही है! पार्टी एक चुनाव से मुक्त हो भी नहीं पाती कि दूसरे उप चुनाव के हालात बन जाते हैं! अभी गरोठ विधानसभा उप-चुनाव का मतदान भी नहीं हुआ कि पहले देवास विधानसभा और अब झाबुआ लोकसभा चुनाव की स्थितियां निर्मित हो गई! मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का भी ज्यादातर वक़्त चुनाव के लिए रोड-शो करने में ही बीत रहा है! देवास में भी चुनौती कम नहीं है और न झाबुआ में!
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