Wednesday, July 1, 2015

'भूरिया राजनीति' के एक ध्रुव का अस्त होना!

- हेमंत पाल 
   आदिवासी इलाके झाबुआ में करीब तीन दशक से 'भूरिया राजनीति' चल रही है। पार्टी चाहे कांग्रेस हो भारतीय जनता पार्टी दोनों ही भूरियाओं के प्रभाव से मुक्त नहीं रही! प्रदेश की राजनीति पर कांतिलाल भूरिया का कब्ज़ा था, तो केंद्र की राजनीति दिलीप सिंह भूरिया के हवाले थी! अपने छह बार के संसदीय कार्यकाल में से पांच बार दिलीपसिंह भूरिया कांग्रेस के टिकट पर ही संसद में पहुंचे! 1972 में पेटलावद विधानसभा से वे कांग्रेस के विधायक भी रहे। लेकिन, एक समय ऐसा भी आया जब दिलीप सिंह को लगा कि कांग्रेस में कांतिलाल भूरिया का वजन बढ़ रहा है तो वे कांग्रेस से नाराज होकर बाहर आ गए। इसी दौरान प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से आदिवासी मुख्यमंत्री के मुद्दे पर उनके मतभेद भी हो गए थे। भूरिया ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और भाजपा में शामिल हो गए। 
   इस बात का दावा नहीं किया जा सकता कि वे कभी आदिवासियों के एक छत्र और जमीनी नेता रहे! उन्हें हमेशा ही अपने प्रतिद्वंदी 'भूरिया' से चुनौती मिलती रही! लेकिन, देश की राजनीति में उनकी पहचान हमेशा निष्कलंक विशुद्ध आदिवासी नेता की ही बनी रही! प्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री की पहली बात उन्होंने ही उठाई थी! तब कांग्रेस में 'ठाकुर राजनीति' का जोर था। कांग्रेस ने इस मांग को साफ़ नाकारा तो नहीं, पर इसे गंभीरता से भी नहीं लिया! यही वो मुद्दा था कि दिग्विजय सिंह से उनके मतभेद हो गए! नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस में कांतिलाल भूरिया की पूछ-परख बढ़ गई और दिलीप सिंह को हाशिए पर धकेला जाने लगा! 
   दिलीप सिंह भूरिया 1998 में कांग्रेस छोड़कर में भाजपा में चले गए! भाजपा ने 1998 के लोकसभा चुनाव में दिलीप सिंह को झाबुआ सीट से टिकट दिया, पर वे अपने चिर-प्रतिद्वंदी कांतिलाल भूरिया से चुनाव हार गए! अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में उन्हें 'राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग' का अध्यक्ष भी बनाया गया था। एक मौका ऐसा भी आया जब मतभेदों के चलते वे भाजपा से भी रूठ गए और 'गोंडवाना गणतंत्र पार्टी' का दामन थाम लिया! लेकिन, इस क्षेत्रीय पार्टी उनका मन ज्यादा दिन नहीं लगा! वे फिर घूमफिर कर भाजपा में आ गए! 2014 का चुनाव जीतकर वह एक बार फिर संसद पहुंचे थे। 
  बार-बार पार्टी बदलने का नतीजा ये हुआ कि झाबुआ में उनका जनाधार दरक गया! इलाके के लोग भी इस बात को स्वीकारते हैं कि 2014 का लोकसभा चुनाव भी दिलीपसिंह भूरिया अपने दम पर नहीं जीते! उन्हें 'मोदी-आँधी' का सहारा नहीं होता, तो उनके लिए जीतना आसान नहीं होता! इसके अलावा उन्होंने आदिवासियों की शराब पीने की आदत का भी कई बार खुला विरोध किया! इस कारण भी आदिवासियों का एक बड़ा तबका उनके खिलाफ था! इसलिए कि शराब को आदिवासी बुराई नहीं मानते! सीमावर्ती गुजरात की दाहोद लोकसभा सीट के तत्कालीन सांसद सोमजीभाई डामोर से भी उनका इस मुद्दे पर सीधा विरोध था! पिछले दिनों पंचायत चुनाव में उनके बेटे जसवंत सिंह की हार से भी साबित हो गया था कि दिलीप सिंह भूरिया की जड़ें कमजोर हो रही है! इसका कारण ये भी हो सकता है कि आदिवासियों में भाजपा के प्रति मोह भंग हो रहा है! पर, इस सच का लिट्मस-टेस्ट झाबुआ लोकसभा उप-चुनाव के नतीजे से ही होगा!   
  देखा जाए तो भारतीय जनता पार्टी पर इन दिनों उप-चुनाव की काली छाया लगातार मंडरा रही है! पार्टी एक चुनाव से मुक्त हो भी नहीं पाती कि दूसरे उप चुनाव के हालात बन जाते हैं! अभी गरोठ विधानसभा उप-चुनाव का मतदान भी नहीं हुआ कि पहले देवास विधानसभा और अब झाबुआ लोकसभा चुनाव की स्थितियां निर्मित हो गई! मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का भी ज्यादातर वक़्त चुनाव के लिए रोड-शो करने में ही बीत रहा है! देवास में भी चुनौती कम नहीं है और न झाबुआ में!

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