Friday, October 30, 2015

आत्महत्या करते किसान, पिकनिक मनाती सरकार!


 बीते कुछ सालों में महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश की तरह मध्यप्रदेश के किसानों में भी आत्महत्या की प्रवृत्ति ज्यादा बढ़ी है। इन राज्यों में ज्यादातर इलाकों में किसान वर्षा जल से होने वाली सिंचाई पर निर्भर है। महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्यों के आत्महत्या करने वाले किसान नकदी फसल मसलन, कपास, सूरजमुखी, मूंगफली और गन्ना उगा रहे थे। जबकि, मध्यप्रदेश में बेमौसम बरसात और सूखे के कारण ख़राब हुई फसल के अलावा उत्पादन की बढ़ी हुई लागत के कारण किसानों को कर्ज लेना पड़ा। जब वे कर्ज न चुका पाने की स्थिति में आए तो हताशा में आत्महत्या जैसी कायरता करने को मजबूर हो रहे हैं! ऐसे में सरकार को जो कदम उठाए जाना थे, उनमें देरी की गई! संवेदना के नकली आँसू बहाए गए और नौकरशाही ने तो स्थिति की गंभीरता को मजाक ही बना दिया! 
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हेमंत पाल  

  मध्यप्रदेश इन दिनों की किसानों की आत्महत्याओं को लेकर माहौल गरमाया हुआ है। जो घटनाएँ पहले आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में आम थी, अब मध्यप्रदेश भी उस लिस्ट में शामिल हो गया। लगातार तीन सालों से बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि और पाले से बर्बाद हो रही फसलों के कारण किसानों को राहत नहीं मिल पा रही है। यही कारण है कि वे हताशा में आत्महत्या कर रहे हैं। किसान संघ का दावा है कि मध्यप्रदेश में पिछले 6 महीने में 2200 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की! जबकि, एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो) ने भी तीन महीने पहले जारी अपने आंकड़ों में 700 किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा बताया था। इसके बाद से कई किसानों ने मौत को गले लगा लिया! सवाल उठ रहा है कि इन किसानों की मौत का जिम्मेदार कौन है? सरकार या फिर भगवान, जिसने मौसम के चक्र को इतना बिगाड़ दिया कि बारिश के मौसम में आग बरसती है। 
  मध्यप्रदेश में अभी तक कितने किसानों ने आत्महत्या की, इसका कोई वास्तविक सरकारी आंकड़ा सामने नहीं आया! आएगा भी नहीं, क्योंकि सरकार अपनी किरकिरी कराने  लिए ऐसा कोई आंकड़ा सामने आने देना भी नहीं चाहेगी! इसका पता लगाना कठिन भी है! क्योंकि, रोज ही किसानों की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं। पर सरकार मानने को तैयार नहीं कि इन सभी किसानों ने फसल की बर्बादी के कारण ही आत्महत्या की है। किसानों की मज़बूरी को मुख्यमंत्री ने जिस गंभीरता और संवेदना लिया उससे इंकार नहीं, पर सरकार के मंत्रियों की अनर्गल बयानबाजी कम नहीं हो रही! इन मंत्रियों को आत्महत्या भी मजाक लग रही है। फिर, अफसरों ने जिस तरह मुख्यमंत्री के आदेश को हवा उड़ाया वो भी सरकारी संवेदनहीनता का सबूत है। किसानों की समस्याएं जानने के लिए गांव जाकर रात बिताने के मुख्यमंत्री के आदेश को अफसरों ने 'कैंपिंग' या 'सूखा पर्यटन' की तरह लिया! चंबल एवं बुंदेलखंड में किसानों की आत्महत्या की ख़बरें सबसे ज्यादा हैं। भिंड जिले में रोज कोई खबर आ रही है। एक कलेक्टर ने विवादित बयान तक दे दिया कि किसान ज्यादा बच्चे पैदा कर लेते हैं और उनका पालन-पोषण नहीं कर पाते हैं, तो आत्महत्या करके सरकार को बदनाम करते हैं। कांग्रेस प्रवक्ता केके मिश्रा का कहना है कि 'खुद को किसान पुत्र कहने वाले मुख्यमंत्री किसानों के प्रति कितने संवेदनशील हैं, ये अफसरों के रवैये से जाहिर हो गया! मुख्यमंत्री शाब्दिक जुगाली से किसानों को राहत देना चाहते हैं, जो संभव नहीं है।' 
  कहा जा रहा है कि प्रदेश सरकार अनाज उत्पादन में 'केंद्रीय-सम्मान' लेकर किसानों की बदहाली को छुपा रही है। किसानों को समय पर मुआवजा तक नहीं दिया जा रहा है। किसानों की आत्महत्या की मुख्य वजह है खेती में लगातार घाटा होना और कर्ज से दबना ही है! उधर, प्रदेश में एशियाई विकास बैंक के कर्जे से चल रहे बिजली सुधारों की स्थिति सुधरने के बजाए बिगड़ ज्यादा रही है। अनाप-शनाप बिजली के बिल और कुर्की की घटनाएं सामने आ रही हैं। किसानों की मोटर साइकल बिजली का बिल न भरने पर कुर्की वाले उठाकर ले जा रहे हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि किसानों पर ज्यादतियां किस हद तक बढ़ रही हैं। बढ़ती लागत, घटती उपज, खाद-बीज का गहराता संकट, बिजली-पानी की समस्या और उपज का वाजिब मूल्य न मिलने से किसान परेशान हैं। ऐसे में किसान विरोधी नीतियां और बेरहम बाजार के चक्रव्यूह में फंसे किसानों के पास जान देने के अलावा कोई चारा नहीं बचता! कर्ज माफी के वादों के बावजूद किसान लगातार कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। कर्ज वसूली, कुर्की की आशंका से परेशान हैं और आत्महत्या जैसे कदम उठाने पर मजबूर है। आत्महत्याएं तो कुछ किसानों ने ही की, लेकिन संकट सभी किसानों पर हैं। 
  किसानों की आत्महत्या को लेकर सरकार गंभीर नहीं है, ये बात नहीं! इस दिशा में देश में कई पहल हुई है। किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं को लेकर डॉ ऋतम्भरा हैब्बर (सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीजस, स्कूल ऑव सोशल साईंसेज, टीआईआईएस) द्वारा प्रस्तुत 'ह्यूमन सिक्युरिटी एंड द केस ऑव फार्मर ऐन एक्सपोलेरेशन (2007) नामक शोध के अनुसार किसानों की आत्महत्या की घटना को मानवीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से देखने की जरुरत है। अगर इस कोण से देखा जाए तो पता चलेगा कि किसानों की आत्महत्या की घटनाएं ठीक उस वक्त हुईं, जब देश के ग्रामीण अंचलों में आर्थिक और सामाजिक रुप से मददगार साबित होने वाली बुनियादी संरचनाएं ढह रही हैं। हरित क्रांति, वैश्वीकरण और उदारीकरण की वजह से ढांचागत बदलाव आए हैं! मगर अधिकारी किसानों की आत्महत्या की व्याख्या के क्रम में इन बदलावों की अनदेखी करते हैं। साधारण किसानों की आजीविका की सुरक्षा के लिए फौरी तौर पर उपाय किए जाने चाहिए थे! लेकिन, इस पहलू की उपेक्षा हुई। आत्महत्या की व्याख्या करने के क्रम में ज्यादा जोर मनोवैज्ञानिक कारणों पर दिया गया।
  कुछ साल पहले 'ऑल इंडिया बॉयोडायनेमिक एंड ऑर्गेनिक फार्मिंग एसोसिएशन' ने महाराष्ट्र के जालना जिले के किसानों की आत्महत्या की खबर पर चिन्ता जताते हुए मुंबई हाईकोर्ट को एक पत्र लिखा था! इस पत्र पर संज्ञान लेते हुए कोर्ट ने 'टाटा इंस्टीट्यूट ऑव सोशल साईंसेज' को एक सर्वेक्षण करने को कहा! इस सर्वेक्षण के आधार पर कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से किसानों की आत्महत्या की घटना पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के लिए कहा। टाटा इंस्टीट्यूट ऑव सोशल साईंसेज की सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया था कि किसानों की आत्महत्या की मुख्य वजह उत्पादन लागत में हुई असहनीय बढ़ोत्तरी और कर्जदारी है। दूसरी तरफ 'इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑव डेपलपमेंट रिसर्च' (आईजीडीआर) के शोध में किसानों की आत्महत्या का संबंध सरकार या उसकी नीतियों से नहीं जोड़ा गया था! आईजीडीआर की शोध रपट में कहा गया कि सरकार को ग्रामीण विकास योजनाओं के जरिए गांवों में ज्यादा हस्तक्षेप करना चाहिए। साथ ही वहाँ गैर-खेतिहर कामों का विस्तार किया जाना चाहिए।
  सीपी चंद्रशेखर और जयति घोष द्वारा प्रस्तुत एक रपट 'बर्डेन ऑव फार्मरस् डेट' में कहा गया था कि किसानों के ऊपर कर्जदारी उनकी आत्महत्या के बड़े कारणों में एक है। बच्चों की शादी-ब्याह के की वजह से लिया जाने वाला कर्ज उनकी पैदावार से होने वाली आवक से जुड़ा होता है! लेकिन, किसानों द्वारा लिए गए कुल कर्ज में इस कारण से लिए कर्ज की हिस्सेदारी अपेक्षाकृत कम (11 फीसदी) है। यानी किसानों पर जो कर्ज है वो उनकी खेत की जरुरत से ज्यादा जुड़ा है। देश के किसानों की बड़ी संख्या सूदखोरों से कर्ज लेने के लिए बाध्य होती है। इस सबके बावजूद मध्यप्रदेश जैसी सरकार की कोशिशें आग लगने पर पानी डालने जैसी ज्यादा दिखाई देती हैं। इस दिशा में जो ठोस कार्रवाई  की जरुरत है, उसका भारी अभाव नजर आता है। 
(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)
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Thursday, October 29, 2015

पेटलावद हादसे के बाद भी भाजपा का पलड़ा भारी!



रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव
   
रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव और देवास विधानसभा चुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टी के लिए प्रतिष्ठा का सवाल है। कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के सामने खुद को स्थापित आदिवासी नेता साबित करने की चुनौती है। जबकि, मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को झाबुआ में एक बार फिर भाजपा की पकड़ साबित करना है। यहाँ भाजपा की संभावित उम्मीदवार निर्मला भूरिया को मुख्यमंत्री की इसी छवि का फ़ायदा मिलने का भरोसा है। पेटलावद हादसे के बाद शिवराज सिंह ने जो सक्रियता और संवेदनशीलता दिखाई उससे भाजपा के पक्ष में पलड़ा झुकता दिखाई दे रहा है। इसके अलावा देशभर में चर्चित व्यापमं घोटाले की सीबीआई जांच के बाद यह पहला चुनाव है, जिससे व्यापमं घोटाले के असर का अनुमान लगाया जा सकेगा! मध्यप्रदेश के सबसे चर्चित व्यापमं घोटाले का सबसे ज्यादा असर भी इस क्षेत्र में हैं। उधर, देवास विधानसभा के उपचुनाव में भाजपा में परिवारवाद खिलाफ शरद पाचुनकर के विद्रोह की आशंका से नए समीकरण बनने के आसार दिखाई दे रहे हैं।  
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 - हेमंत पाल 
 सांसद दिलीपसिंह भूरिया के निधन के बाद से ही रतलाम-झाबुआ लोकसभा सीट के उपचुनाव की हलचल है। चुनाव की औपचारिक घोषणा के बाद अब ये हलचल जंग में तब्दील हो जाएगी! दोनों ही बड़े दलों ने अपनी चुनावी तैयारियों के लिए ताल ठोंक ली है। कांग्रेस के संभावित उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया ने तो जनसम्पर्क एक एक दौर भी पूरा कर लिया! जबकि, ये नितांत भी सच है कि भाजपा के पास डंके की चोट पर ये चुनाव जीत सकने वाला ताकतवर दावेदार नहीं है। भाजपा अपने संगठन और मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के दम पर ही चुनाव जीतने का दावा कर सकती है। यही कर भी रही है। जबकि, कांग्रेस के पास भी एक ही उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया के अलावा कोई और नाम नहीं है। केंद्र में मंत्री रह चुके कांतिलाल पिछला चुनाव हार चुके हैं! पर, कांग्रेस की मजबूरी है कि इस आदिवासी इलाके में उसके पास और कोई ऐसा नेता नहीं है, जिसकी पूरे इलाके में पकड़ हो! भाजपा की तरफ से दिलीपसिंह भूरिया की पुत्री और विधायक निर्मला भूरिया ही सबसे प्रमुख दावेदार दिखाई दे रही है। पेटलावद हादसे के बाद शिवराज सरकार ने जो काम किए उससे भाजपा की पकड़ इस सीट पर और ज्यादा मजबूत हुई है। 
  भाजपा के पास निर्मला भूरिया को उम्मीदवार बनाना एक तरह से फायदे का सौदा है। इसके पीछे कई राजनीतिक और सामाजिक कारण भी हैं! जैसे स्व. दिलीपसिंह भूरिया को श्रद्धांजलि के रूप मे वोट मांगे जा सकेंगे। निर्मला पांच बार की विधायक हैं और पिता के कारण उनका नाम लोकसभा के हर इलाके में परिचित करवाने में दिक्कत भी नहीं आएगी! निर्मला भी उसी भील जनजाति की हैं, जिससे कांग्रेस उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया आते हैं।
   शिवराज अपने हर दौरे मे निर्मला भूरिया को साथ में लेकर घूमते हैं, और स्व. दिलीपसिंह की बेटी के रूप मे परिचय भी करवाते रहे। राखी से पहले पेटलावद मे शिवराज ने निर्मला से राखी बंधाई, जिससे यह साफ  हुआ कि अब भाई बनकर निर्मला के लिए वोट मांगेंगे। ताजा हालात के मुताबिक झाबुआ और आलीराजपुर जिले मे कांग्रेस कड़ी टक्कर देने की स्थिति में है। जबकि, झाबुआ विधानसभा में भाजपा बेहद कमजोर है। पेटलावद में भी मुकाबला करीब बराबरी का ही है। यही हाल थादंला में भी है। संसदीय क्षेत्र के तीसरे जिले रतलाम में कांग्रेस की हालत ख़राब है। रतलाम की दोनों विधानसभाओं शहर और ग्रामीण में भाजपा प्रतिद्वंदी कांग्रेस से बहुत आगे है। यदि कांग्रेस रतलाम को सँभालने में कामयाब हुई, तो ये उपचुनाव बराबरी पर आ सकता है! 
  पेटलावद में हुए विस्फोटक कांड के बाद जिस तरह के हालात बने थे, एक बार ये लगा था कि भाजपा को इस घटना से बड़ा नुकसान हो सकता है! इसके दो बड़े कारण थे! एक तो यह कि जिस राजेंद्र कासवां को इस घटना का सबसे बड़ा दोषी माना जा रहा है, उसके बारे में ये कहा गया कि वो भाजपा से जुड़ा है। इस कारण एक बारगी लोगों में जमकर रोष भी उभरा! फिर, ये खबर भी जंगल में आग की तरह पसरी कि उसे किसी भाजपा नेता ने ही फरार होने में मदद की है। लेकिन, वक़्त के साथ ये बात दब गई! दूसरा बड़ा कारण ये था कि गांव के बीच इतनी बड़ी मात्रा में विस्फोटक जमा था और प्रशासन को पता नहीं चला, ये कैसे संभव है! इसे लेकर भी लोग बेहद नाराज हैं! राजेंद्र काँसवा आज भी फरार है और बीच शहर में विस्फोटकों के जखीरे के लिए कौन से अधिकारी जिम्मेदार है, इन दोनों सवालों के जवाब आज भी  नहीं मिले हैं? पर, हादसे के बाद मुख्यमंत्री ने पेटलावद आकर स्थिति तरह काबू में किया, वो तारीफ़ के काबिल है! जिस गांव में करीब 100 लोग एक विस्फोट की घटना में मारे गए हों, वहां हालात को नियंत्रित करना आसान नहीं था! लेकिन, शिवराज सिंह अपनी सूझबूझ से लोगों को ये समझाने में कामयाब रहे, कि जो हुआ वो एक दुर्घटना थी! मुख्यमंत्री को अहसास हो गया था कि यदि स्थिति को तत्काल संभाला नहीं गया, तो इससे बड़ा राजनीतिक नुकसान हो सकता है! प्रभावितों को राहत, आर्थिक मदद और बीमा क्लैम के मामले निपटाने में सरकार ने जिस तरह की तत्परता दिखाई, उसके पीछे छुपे राजनीतिक कारणों को आसानी से समझा जा सकता है! 
   जहाँ तक राजनीतिक नुकसान-फायदे की बात है, कांग्रेस इस दुर्घटना को भी राजनीतिक नजरिए से भुना नहीं सकी! इलाके में इतना बड़ा हादसा हो गया और कांग्रेस सरकार और प्रशासन को ठीक से कटघरे में भी खड़ा नहीं कर सकी! प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव और कांतिलाल भूरिया ने कोशिश तो की, पर वे अपनी रणनीति में सफल नहीं हो सके! प्रदेश सरकार के मदद के पैकेज और चुस्ती-फुर्ती के आगे कांग्रेस का विरोध का पैंतरा फीका पड़ गया! आश्चर्य नहीं कि इस घटना से भाजपा को फ़ायदा मिले और कांग्रेस पर उसकी निष्क्रियता भारी पड़ जाए! 
   जहाँ तक चुनावी आंकड़ेबाजी का सवाल है, 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया ने भाजपा के दिलीपसिंह भूरिया को 57,780 वोटों से हराया था। भाजपा उम्मीदवार दिलीपसिंह भूरिया को 2,51,255 वोट मिले थे! वहीं, कांतिलाल को 3,08,923 वोट! 2014 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा ने दिलीपसिंह भूरिया और कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया को चुनाव लड़ाया गया। इस चुनाव में दिलीपसिंह भूरिया ने 1 लाख 8447 वोटों से जीत हासिल की। कांग्रेस के कब्जे में रहने वाली यह लोकसभा सीट मोदी लहर में कारण पहली बार भाजपा के पास आई थी। 
   दिलीपसिंह भूरिया लंबे समय तक कांग्रेस से चुनाव लड़ते रहे है। कांग्रेस शासन काल में केन्द्रीय मंत्री भी रहे। एनडीए शासन काल में कांग्रेस छोडक़र भाजपा में शामिल हुए और जनजाति आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बनाए गए थे। 2005 में दिलीप सिंह भूरिया भाजपा का दामन छोडक़र अजय भारत पार्टी और गोंडवाना गणतंंत्र पार्टी में भी पदाधिकारी रहे। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की डूबती नैया देखकर वे एक बार फिर 2008 में भाजपा में शामिल हो गए थे। इस दौरान कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया ने इस क्षेत्र में मजबूत जनाधार तैयार कर लिया था। यह बात अलग है कि 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के सामने कांतिलाल नहीं टिक सके थे। 
    इस बार रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टी के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है। कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया के सामने खुद को स्थापित और पकड़वाला आदिवासी नेता साबित करने की चुनौती है। जबकि, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने प्रदेशभर में अपने विजय रथ को आगे बढऩे की चुनौती है। देशभर में चर्चित व्यापमं घोटाले की सीबीआई जांच के बाद यह पहला चुनाव है, जिससे व्यापमं घोटाले के असर का अनुमान लगाया जा सकेगा! मध्यप्रदेश के सबसे चर्चित व्यापमं घोटाले का सबसे ज्यादा असर भी इस क्षेत्र में हैं। भाजपा यदि भूरिया की बेटी को टिकट देती है तो कुछ सहानुभूति वोट मिलने की संभावनाएं हैं, लेकिन ये सहानुभूति व्यापमं के असर को कितना कम कर पाएगी यह तो वक्त ही बताएगा! लोकसभा चुनाव के लगभग 22 माह बाद होने वाले इस चुनाव में राजनीतिक हालात भी बदले हैं। क्षेत्र में दिलीपसिंह भूरिया की निष्क्रियता से मतदाता और कार्यकर्ता काफी परेशान रहे है। समस्याओं के समाधान के लिए लोगों को बार-बार भोपाल के चक्कर लगाने पड़े है।
    भाजपा ने काफी पहले से अपने मतदाताओं को साधने के प्रयास हर स्तर पर तेज कर दिए हैं। पिछले दो माह से भाजपा ने इस क्षेत्र में संगठनात्मक आयोजनों का सिलसिला तेज कर दिया है। संगठन महामंत्री अरविन्द मेनन प्रदेशाध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान एवं मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने भी इस क्षेत्र के दौरे  किए है। झाबुआ की इस सीट पर खुद मुख्यमंत्री पैनी नजर बनाए हैं। इस सीट पर दो दर्जन से अधिक विधायकों को भाजपा ने तैनात किया है। बाद में तीन दर्जन विधायकों और आधा दर्जन मंत्रियों को भी यहां लगाया जाएगा। प्रदेश संगठन मंत्री अरविंद मेनन सीट से जुड़े तीनों जिलों झाबुआ, आलीराजपुर और रतलाम की बैठकें ले चुके हैं। संगठन ने मुख्यमंत्री की सभाएं तीनों जिलों की सभी विधानसभाओं में कराने का प्लान तैयार किया है। झाबुआ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा कराए जाने की भी तैयारी है। हाल ही में कनकेश्वरी देवी की कथा के आयोजन ने भी भाजपा के एक्शन प्लान  मजबूती दी है। 
  कांग्रेस ने अभी कोई बड़ा आयोजन इस क्षेत्र में नहीं किया है। लेकिन, कांग्रेस के संभावित प्रत्याशी कांतिलाल भूरिया ने भी अपनी सक्रियता इस क्षेत्र में बढ़ा दी है। रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव के परिणाम भाजपा और कांग्रेस की भावी राजनीति के लिए महत्वपूर्ण होंगे। भाजपा की तैयारी और क्षेत्र में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की सक्रियता को देखते हुए कांग्रेस ने भी चुनाव का होमवर्क शुरू कर दिया है। कांग्रेस ने अपने करीब दो दर्जन विधायक, पूर्व विधायक और पूर्व सांसदों को यहां पर लगा दिया। इस टीम को कई जिम्मेदारी दी गई। पार्टी ने औपचारिक घोषणा तो नहीं की पर कांतिलाल भूरिया को उम्मीदवार बनाए जाने की लगभग हरी झंडी दे चुकी है। प्रत्याशी बनाए जाने का भरोसा मिलने ही भूरिया भी क्षेत्र में जनसम्पर्क करने में जुट गए हैं। 
देवास में भाजपा का परिवारवाद 
   देवास महाराजा स्व. तुकोजीराव पवार की मृत्यु के बाद देवास विधानसभा सीट के लिए भी रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव के साथ मतदान होना है। भाजपा ने यहाँ से स्व. पवार की पत्नी गायत्री राजे पवार के चुनाव लड़ने के संकेत दिए हैं। जबकि, कांग्रेस ने अभी तक उम्मीद्वार को लेकर पत्ते नहीं खोले! लेकिन, अब ये मुकाबला इसलिए दिलचस्प हो गया, क्योंकि यहाँ से मराठा सरदार और भाजपा के ही पूर्व नेता शरद पाचुनकर ने चुनाव लड़ने का एलान कर दिया। पाचुनकर कहा कि वे वशंवाद और परिवारवाद का दंश देवास को नहीं झेलने देंगे। देवास इलाके के सभी भाजपा विधायक किसी न किसी परिवार की देन हैं। उन्होंने आरोप लगाया की पार्टी अपने सिद्धांतों पर नहीं चल रही। सोनकच्छ से भाजपा विधायक राजेंद्र वर्मा के पिता पूर्व सांसद रहे हैं। हाटपिपलिया से पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के पुत्र दीपक जोशी वंशवाद की देन हैं। खातेगांव-कन्नोद से विधायक आशीष शर्मा के पिता भी भाजपा से जुड़े हैं। यह सब परिवारवाद ही तो है! पाचुनकर के चुनाव लड़ने की घोषणा से भाजपा की संभावित उम्मीदवार गायत्री राजे पवार की परेशानी बढ़ सकती हैं। उनका पुत्र हत्या के एक मामले में फरार है। ऐसे में मराठा सरदार का विरोध चुनाव में मुश्किलें पैदा कर सकता है। क्योंकि, पार्टी में गायत्री राजे को लेकर बहुमत जैसी स्थिति नहीं है। क्योंकि, वे पार्टी की प्राथमिक सदस्य भी नहीं है। जहाँ तक सहानुभूति की बात है तो अब देवास में फिलहाल ऐसा कोई माहौल नहीं है।  
   यहाँ कांग्रेस टिकट को लेकर दिग्गज नेताओं के कारण परेशान दिख रही है। प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव टिकट को लेकर कई बैठकें कर चुके हैं! लेकिन, तीन-चार नामों की दावेदारी के कारण टिकट को लेकर तकरार है। यहाँ दिग्विजय सिंह, कमलनाथ अपने अपने समर्थकों की उम्मीदवारी लेकर जोर लगा रहे हैं। ऐसी स्थिति में प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव के लिए फैसला लेना मुश्किल है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव का कहना है कि टिकट का अंतिम निर्णय कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का होगा। लेकिन, इस कड़वे सच को भी स्वीकारना होगा कि देवास में कांग्रेस पूरी तरह मुकाबले से बाहर है। शरद पाचुनकर ने यदि भाजपा उम्मीदवार के खिलाफ विरोध कर भी दिया, तो भी कांग्रेस इस विद्रोह से कोई फ़ायदा ले सकेगी, ऐसी उम्मीद नहीं है। 
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(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)
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Saturday, October 17, 2015

भारत मैच जीता, पर सिंधिया की टीम हारी!



इंदौर में भारत और दक्षिण अफ्रीका के बीच हुए वन-डे क्रिकेट मैच में भारत ने प्रतिद्वंदी टीम को हरा दिया हो, पर इस आयोजन के पीछे हुई राजनीति में ज्योतिरादित्य सिंधिया की आयोजक टीम हार गई! मैच के टिकट जिस तरह बेचे और सौजन्य पास जिस तरह बाटें गए, लोगों में आक्रोश का पारा सिर के ऊपर निकल गया! मध्यप्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन (एमपीसीए) पर कालाबाजारियों से टिकट बिकवाने के सीधे आरोप लगाए गए। ये पूरी प्रक्रिया पारदर्शी थी। टिकट बेचने का तरीका भी गलत था और सौजन्य पास देने में भी अपने 'गुट' को आगे रखा गया! इस पर भी सबसे गंभीर मसला एमपीसीए के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया के व्यवहार को लेकर सामने आया! उन्होंने न तो कांग्रेस के नेताओं की नाराजी दूर करने की कोई कोशिश की और न भाजपा नेताओं को सौजन्य पास लौटाने से रोका! ये सामान्य शिष्टाचार का मामला था, जिसका निर्वहन नहीं किया गया! इसका कांग्रेस और खुद सिंधिया की राजनीति पर कहाँ और कैसा असर पड़ेगा, अभी इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता! लेकिन, ये तय है कि  क्रिकेट मैच की इस राजनीति से प्रदेश की राजनीति लम्बे समय तक खदबदाती रहेगी!
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- हेमंत पाल 


   राजनीति के खेल में कितनी राजनीति होती है, ये देशभर को पता है। मध्यप्रदेश भी क्रिकेट की इस राजनीति से अछूता नहीं है। लेकिन, ये पहला मौका है जब इंदौर में हुए वन-डे क्रिकेट मैच में भाजपा और कांग्रेस के दो बड़े नेताओं के बीच की राजनीति की खाई चौड़ी हो गई! साथ ही कांग्रेस की जो राजनीति गुटों में बंटी थी, और ज्यादा बिखर गई! मध्यप्रदेश कांग्रेस के नेता और मध्यप्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन (एमपीसीए) के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया के बारे में इसी कॉलम में मैंने एक बार लिखा था कि 'वे दिल्ली में राजनीति का शतरंज खेलते हैं और मध्यप्रदेश में क्रिकेट की राजनीति करते हैं।' ये बात अब पूरी तरह साबित भी हो गई! इंदौर में भारत और दक्षिण अफ्रीका के बीच हुए क्रिकेट मैच में सिंधिया का रुख न तो नेता जैसा था, न खिलाडी जैसा! वे पूरी तरह अपने सामंती व्यवहार के कारण 'महाराजा' बने रहे! ऐसे महाराजा जिसे जरा भी झुकना और किसी की सलाह मानना पसंद नहीं! यहाँ तक कि उन्होंने खुद की पार्टी के नेताओं और विपक्ष के लोगों से भी सामान्य शिष्टाचार्य निभाने की जरुरत नहीं समझी! 
    इंदौर में हुए इस मैच में टिकटों और सौजन्य पासों को लेकर काफी विवाद हुआ! टिकट जिस तरह बेचे गए और सौजन्य पास बांटे गए, उस पर उंगलिया उठती रही और बवाल होता रहा! एमपीसीए के अध्यक्ष होने के नाते ज्योतिरादित्य सिंधिया का दायित्व था कि वे इस सारे मामले में मध्यस्थता करके मामले को ठंडा करते, पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया! उन्होंने अपने राजनीतिक शागिर्दों के हाथ में सौजन्य-पासों की कमान सौंपकर कांग्रेस की गुटबाजी को और हवा दे दी! इसे किसी भी नजरिए से सिंधिया की राजनीतिक या प्रबंधकीय सफलता नहीं कहा जा सकता! यदि कोई नेता किसी खेल गतिविधि में संलग्न होता है, तब भी वह अपनी राजनीतिक पहचान से अलग नहीं हो सकता! यदि इस क्रिकेट मैच आयोजन की सफलता का श्रेय सिंधिया को दिया जाएगा, तो मैच से जुडी खामियाँ भी उनके खाते में ही दर्ज होंगी! इस का मैच के टिकटों का मसला कब और कहाँ सिंधिया और कांग्रेस की राजनीति को प्रभावित करेगा, कहा नहीं जा सकता! लेकिन, ये तय है कि इंदौर की भविष्य की राजनीति पर ये मैच गहरा असर डालेगा!   
   मध्यप्रदेश की राजनीति में भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और इंदौर डिवीजन क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष कैलाश विजयवर्गीय की अपनी अलग साख है। वे टिकट मामले में खुद की उपेक्षा से इतने खफा हो गए कि इस वन-डे मैच के टिकट एमपीसीए को लौटा दिए! इससे पहले विजयवर्गीय ने मैच के टिकटों को लेकर अपने समर्थकों से सोशल मीडिया पर माफी मांगी! कैलाश विजयवर्गीय के टिकट लौटाए जाने के फैसले पर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कहा है कि कुछ लोगों में स्पोर्ट्समैनशिप नहीं है। खेल में राजनीति नहीं होना चाहिए, लेकिन राजनीति में गेम स्पिरिट होना चाहिए! हालांकि, कुछ लोगों में इसका अभाव है। ये विजयवर्गीय की गुगली पर सिंधिया का शॉट जरूर था, पर इसे बॉउंड्री पर कैच कर लिया गया! विजयवर्गीय ने टिकट लौटाकर जो गुगली फेंकी थी, उसका असर भाजपा के अलावा कांग्रेस के नेताओं पर भी हुआ! इंदौर नगर निगम के सभापति अजय नरुका ने भी व्यक्तिगत रूप से सिंधिया से मिलकर उन्हें दिए टिकट लौटा दिए! इसका अनुसरण कुछ और स्थानीय भाजपा नेताओं ने भी किया! दरअसल, ये सब सिंधिया की उस सामंती ठसक का जवाब ही था, जो विजयवर्गीय समर्थकों ने उन्हें दिया!       
  ज्योतिरादित्य सिंधिया और कैलाश विजयवर्गीय के बीच कोई सीधी राजनीतिक प्रतिद्वंदिता नहीं है। इसके पीछे भी क्रिकेट ही है। मध्यप्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के दो बार के चुनाव में सिंधिया ने विजयवर्गीय को हराया है। यही कारण है कि जब भी मध्यप्रदेश में क्रिकेट को लेकर कोई राजनीति होती है, ये दोनों नेता आमने-सामने आ जाते हैं। सिंधिया ने राजनीतिक रूप से ताकतवर कैलाश विजयवर्गीय को एमपीसीए के चुनाव में दो बार कड़ी शिकस्त दी, पर उनकी राजनीति इससे कहीं प्रभावित नहीं हुई! इसके दूरगामी राजनीतिक परिणाम जरूर हुए और ये विवाद उसी की एक परिणति कही जा रही है। 
    मैच के टिकटों के वितरण को लेकर गड़बड़ियां सामने आई तो 'इंदौर डिवीजन क्रिकेट एसोसिएशन' के अध्यक्ष कैलाश विजयवर्गीय और 'मध्यप्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन' के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया की बयानबाजी सामने आई! विजयवर्गीय ने अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा कि 'आज सुबह से इंदौर के अनेक लोगों के फोन मेरे पास आ रहे हैं, आमजन को शुल्क देकर भी क्रिकेट मैच के टिकट नहीं मिल पा रहे हैं और कुछ लोग टिकट ब्लैक में बेच रहे हैं।' हम इंदौर शहर के लोग शर्मिंदा हैं!' विजयवर्गीय ने अपनी दूसरी पोस्ट में लिखा 'जब भी इंदौर में क्रिकेट मैच हुआ है, मैंने स्टेडियम में कार्यकताओं के साथ ही मैच देखा! इस बार मध्यप्रदेश क्रिकेट एशोसिएशन ने भारत-दक्षिण अफ्रीका मैच के टिकट देने में असमर्थता व्यक्त की! मैं सभी कार्यकर्ताओं से क्षमा प्रार्थी हूँ। बिहार चुनाव में व्यस्त होने के कारण में भी मैच देखने नहीं आ पाऊंगा, मेरा परिवार भी घर बैठकर मैच देखेगा। सभी कार्यकर्ताओं से अनुरोध है कि आप लोग भी घर बैठकर ही टेलीविजन पर मैच का आनंद लें।'
  इस पूरे मामले का सबसे दिलचस्प पहलू ये भी कि भाजपा नेताओं की ही तरह कांग्रेस के नेता भी ज्योतिरादित्य सिंधिया से नाराज हुए। पूर्व सांसद और कांग्रेस के बड़े नेता सज्जन वर्मा तो सिंधिया से इतने खफा हो गए कि न  देखने गए और न इंदौर में ही टिके! वे शहर से ही बाहर चले गए! इंदौर के करीब सभी बड़े कांग्रेसी नेता स्टेडियम से नदारद रहे। इन नेताओं की ये नाराजी दूर करने की भी कोशिश नहीं की गई! यदि ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक इस टिकट प्रपंच से अलग रहते तो शायद विवाद इतना नहीं बढ़ता! लेकिन, पूर्व विधायक तुलसी सिलावट और शहर कांग्रेस अध्यक्ष प्रमोद टंडन ने जिस तरह मैच के ' मुफ्त पास' बाटें उससे विवाद ज्यादा बढ़ा! इन दोनों नेताओ ने भी ये सारे 'पास' अपने चेलों को दिए! आशय यह कि इस पूरे मैच में 'महाराजा' और उनकी 'प्रजा' का ही जलवा दिखा! 
  मैच के टिकटों के मामले में आरोपों से घिरने पर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कहा कि इस मामले की जांच होगी! लेकिन, तब तक स्थिति बदल चुकी थी! दो दिनों से शहर में टिकट वितरण व्यवस्था बुरी तरह बिगडऩे से क्रिकेट प्रेमियों में भारी आक्रोश रहा! वहीं राजनीतिक संगठनों से जुड़े कुछ लोग विरोध करने उतर आए!   करीब 27 हजार दर्शकों की क्षमता वाले होल्कर स्टेडियम में मैच के टिकटों के बारे में एक महीने पहले सिंधिया ने कहा था कि हम इस मैच के ज्यादातर टिकट ऑनलाइन पद्धति से बेचने की कोशिश करेंगे! हालांकि, हम इस बात का पूरा ध्यान रखेंगे कि समाज के सभी तबकों के लोगों को मैच के टिकट खरीदने में कोई दिक्कत न हो। लिहाजा हम पारंपरिक तरीके से भी टिकट बेचेंगे।’ इसके बावजूद न तो लोगों को ऑनलाइन तरीके से टिकट मिले न पारंपरिक तरीके से! जिन बैंकों को ये काम सौंपा गया था वे भी इंतजाम सके! पुलिसवालों पर भी आरोप है कि उन्होंने व्यवस्था की आड़ में टिकट खरीदे और उन्हें ब्लैक करवाया!   
   अब, जबकि ये वन-डे मैच हो गया, भारत ये मैच जीत गया है! अब कांग्रेस के अंदर राजनीति का खेल शुरू होगा! सिंधिया के खिलाफ भाजपा को जो विरोध करना था, वो तो उसने अपने तरीके से दर्ज करा भी दिया! लेकिन, लगता है अभी बिखरी कांग्रेस में और बिखराव होना बाकी है। इस बात से इंकार नहीं कि सिंधिया की फेस-वैल्यू जबरदस्त है, पर इस वैल्यू से राजनीति की तराजू में पार्टी का पलड़ा भारी नहीं हो जाता! सिंधिया ने जिस तरह क्रिकेट के खेल में अपनी गुटबाजी का तड़का लगाया है, कांग्रेस के कई नेता बेहद नाराज हैं। तुलसी सिलावट और प्रमोद टंडन को छोड़ दिया जाए, तो इंदौर के सभी बड़े कांग्रेसी नेताओं ने तलवार की धार तेज कर ली! ये नेता लम्बे समय तक अपनी उपेक्षा को शायद भूल नहीं पाएंगे! जब भी मौका मिलेगा इसका बदला निकाला जा सकता है। एक गौर करने वाली बात ये भी है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ इंदौर की सांसद और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन और महापौर शालिनी गौड़ दिखाई देना! इन दोनों का मैच देखने आना कोई शासकीय मजबूरी हो सकती है! पर, कयास लगाने वालों ने इसे भी कैलाश विजयवर्गीय विरोधी राजनीति का एक हिस्सा ही बताया है।     
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(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)

Sunday, October 11, 2015

इंदौर में राजनीतिक सन्नाटे जैसा माहौल!


   आज यदि किसी से सवाल किया जाए कि इंदौर का नेता कौन है? तो शायद सोचना पड़ेगा कि किसका नाम लिया जाए? क्योंकि, शहर में भाजपा के चार विधायक होते हुए भी किसी का पूरे शहर पर प्रभाव नहीं लगता! कैलाश विजयवर्गीय के पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनने और दिल्ली चले जाने से शहर में राजनीतिक खालीपन नजर आने लगा है। आठ बार की सांसद और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने वोटों की गिनती से जीत का रिकॉर्ड बनाया हो, पर उन्होंने कभी खुद को इंदौर के जनप्रतिनिधि के रूप में नहीं उभारा! आज भी इंदौर के आम लोगों से सांसद का जुड़ाव या जीवंत संपर्क नहीं है। भाजपा के शहर अध्यक्ष कैलाश शर्मा को तो ज्यादातर लोग चेहरे से भी नहीं जानते! कुछ ऐसी ही स्थिति कांग्रेस में भी है। 
राऊ क्षेत्र से कांग्रेस के विधायक जीतू पटवारी हैं, पर उनकी सक्रियता को गिनती में नहीं लिया जा सकता! क्योंकि, वो पूरी तरह प्रायोजित होती है। उनके धरने, प्रदर्शनों से कोई राजनीतिक हलचल नहीं होती! 
कहने को प्रमोद टंडन शहर अध्यक्ष हैं, पर वे भी कहने को! उनका ज्यादातर वक़्त और ऊर्जा अपनी ही पार्टी में खुद को विरोधियों से बचाने में ही खर्च होता है। ऐसे माहौल में नौकरशाही का ताकतवर होना स्वाभाविक है।  
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हेमंत पाल 
   इंदौर में पिछले कुछ महीनों से अजीब सा राजनीतिक सन्नाटा है। ये सन्नाटा मातमी जैसा है। कहीं कोई सुगबुगाहट या हलचल नजर नहीं आ रही! ये हालत दोनों ही पार्टियों में है। प्रदेश में भाजपा की सरकार है, पर कोई नेता अपनी सक्रियता दिखाने को आतुर नहीं लगता। शहर में कहने को भाजपा के चार विधायक हैं, पर कहीं कोई हलचल नहीं! अभी किसी तूफान का भी अंदेशा नहीं, कि उससे पहले या बाद के सन्नाटे का अनुमान लगाया जाए! स्पष्ट कहा जा सकता है कि इससे पहले शहर में जो राजनीतिक हलचल दिखाई देती थी, उसका कारण सिर्फ कैलाश विजयवर्गीय थे। उनके इंदौर से जाने के बाद  शहर की राजनीतिक जीवंतता को ग्रहण सा लग गया!
अपनी व्यस्तता के कारण वे स्थानीय राजनीति से कट से गए हैं। इसका असर इंदौर में साफ़ दिखाई देने लगा! 
  कोई एक नेता किसी शहर को कितना चैतन्य रख सकता है, ये कैलाश विजयवर्गीय के दिल्ली चले जाने के बाद इंदौर को महसूस हुआ है। उनके पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनने और मंत्री पद छोड़ देने के बाद शहर में राजनीतिक सुप्तता जैसी स्थिति है। इसलिए कि बाकी के चारों भाजपा विधायक सुदर्शन गुप्ता, उषा ठाकुर, महेंद्र हार्डिया और रमेश मेंदोला अपने-अपने इलाकों तक सीमित हैं। 
भाजपा के ये चारों विधायक भी तभी नजर आते हैं, जब भाजपा का कोई बड़ा नेता इंदौर में होता है। मुख्यमंत्री के इंदौर आने पर भी सुदर्शन गुप्ता ही उनके साथ दिखाई देते हैं, वो भी हाजरी पूर्ति तक! 
    कैलाश विजयवर्गीय ने पिछले दो दशक से ज्यादा समय से इंदौर में अपनी राजनीतिक चातुर्यता से यहाँ की नब्ज को कब्जे में रखा! उनके काम करने और संपर्कों की शैली भी ऐसी है कि किसी को कभी नहीं लगा कि वे पार्टी और सरकार में बड़ा असर रखते हैं। वे जिस भी राजनीतिक या अराजनीतिक कार्यक्रम में होते हैं, माहौल बना देते हैं। उनके रहते लोगों को कभी किसी नेता की कमी महसूस नहीं हुई। अब जरूर लोग ये मानने लगे हैं कि शहर में राजनीतिक रिक्तता आ गई है। कैलाश विजयवर्गीय की कमी खलने का एक कारण ये भी कि लोगों के सामने अब कोई ऐसा नेता नहीं है, जो उनकी निजी समस्याओं को निपटने में उनकी मदद कर सके! अभी जो नेता इंदौर में हैं, उनसे लोगों के संतुष्ट न हो पाने के अलग-अलग कारण हैं। किसी नेता के मिल न पाने से लोग नाराज हैं, कोई लोगों की समस्याएं सुनने में रूचि नहीं लेता तो कुछ नेता ऐसे भी हैं, जो हमेशा हमेशा अपने गुर्गों से ही घिरे रहते है! 
   दो-ढाई दशक पहले तक कैलाश विजयवर्गीय का कार्यक्षेत्र (विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-2) इंदौर के सबसे पिछड़े इलाकों में था। परदेशीपुरा, नंदानगर, क्लर्क कॉलोनी, सुखलिया और मालवा मिल, कल्याण मिल को इंदौर की पॉश कॉलोनी में रहने वाले लोग बैकवर्ड एरिया कहते थे। इस बात से विजयवर्गीय अनभिज्ञ नहीं थे! उन्हें पता था कि मिल मजदूरों वाले उनके कार्यक्षेत्र से इंदौर के लोग कटकर रहते हैं। एक चुनावी सभा में विजयवर्गीय ने कहा भी था कि यदि में चुनाव जीता तो लोग खरीददारी के लिए राजबाड़ा जाना भूल जाएंगे! आज वो स्थिति आ भी गई! उन्होंने इस इलाके की कमान सँभालते ही पहला काम ये किया कि परदेशीपुरा, नंदानगर और पाटनीपुरा जैसे इलाके को व्यावसायिक रूप देना शुरू किया! धीरे-धीरे इस इलाके में व्यावसायिक गतिविधियाँ आकार लेने लगी! आज यहाँ सभी बड़े ब्रांड्स के शोरूम और दुकानें हैं। इंदौर के सराफा बाजार जैसी यहाँ सोने-चाँदी की कई बड़ी दुकानें हैं। अपने इलाके का चेहरा बदलने की कोशिश को सिर्फ राजनीति नहीं कहा जा सकता! कुछ मायनों में ये राजनीति तो थी, पर उसके पीछे दूरदृष्टि थी! जिस परदेशीपुरा के लोगों को अपना पता बताने में संकोच होता था, आज उन्हें वही पता बताने में फख्र होता है। दरअसल, ये एक नेता का स्तुतिगान नहीं, उनकी उस राजनीतिक शैली की बानगी है जिसका बाकी नेताओं में घोर अभाव नजर आता है। लेकिन, उनकी इस कार्य शैली की सराहना करने वाले कम, आलोचक ज्यादा हैं! 
  यदि बात कांग्रेस की राजनीति की जाए तो इंदौर में महेश जोशी और कृपाशंकर शुक्ला ने जिस तरह की राजनीति की है, वो कोई दूसरा नहीं कर सका! इन दोनों नेताओं ने दमदारी से शहर में बरसों तक कांग्रेस को एक सूत्र में बाँधे रखा! चुनावी राजनीति में ये दोनों नेता बहुत ज्यादा सफल भले ही न हो सके हों, पर शहर में कांग्रेस की मौजूदगी इनके कारण ही नजर आती रही! महेश जोशी ने अब अपने आपको राजनीति से अलग ही कर लिया, पर कृपाशंकर शुक्ला आज भी हर राजनीतिक और सरकारी आयोजनों में दिख जाते हैं। आज भी उनकी आवाज में वो खनक मौजूद है, जो किसी और नेता में नहीं! इसके बाद कोई नेता इस ऊँचाई  पर नहीं पहुँचा! इसका कारण था कि कांग्रेस गुटों में बाँट गई और क्षत्रपों ने कमान संभालकर घर की फ़ौज मारना शुरू कर दी! आज स्थिति यह है कि पार्टी के हर कार्यक्रम में पार्टी टुकड़ों में बंटी नजर आती है। हो सकता है भाजपा में राजनीतिक सन्नाटा अस्थाई हो, पर कांग्रेस तो अब हमेशा ही इस स्थिति को भोगने  अभिशप्त है! इसलिए कि पार्टी में कोई नया नेतृत्व उभर नहीं पा रहा है, और जो बचे हैं वो भी किनारे होने लगे! 
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(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक' हैं)
        

Friday, October 2, 2015

आदिवासियों को हक़ और राजनीतिक हैसियत का इंतजार!

 राजनीतिक पार्टियां चाहे जो भी हों, उनके सोच में बहुत ज्यादा फर्क नहीं होता! मध्यप्रदेश में जब कांग्रेस की सरकार थी, तब विपक्ष में बैठी भाजपा उस पर ठाकुरों और ब्राह्मणों की पार्टी होने का आरोप लगाती थी! लेकिन, आज भाजपा भी उसी राह पर है! भाजपा संगठन के बड़े पदों पर ऊँची जाति के नेता काबिज हैं और मंत्रिमंडल में भी सामंती रसूख वाले बैठे हैं! उन आदिवासियों की कहीं पूछ परख नहीं, जो जीवनभर से पार्टी के झंडे उठा रहे हैं! इस लिहाज से कहा जा सकता है कि आदिवासियों को उनकी हैसियत के मुताबिक हक़ देने में कांग्रेस और भाजपा दोनों की रणनीति में ख़ास अंतर नहीं है! प्रदेश में 20 फीसदी आबादी वाले आदिवासियों को हमेशा ही वोट-बैंक समझा जाता रहा है! चुनाव के वक़्त आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग भी राजनीतिक हथकंडे से ज्यादा नहीं होती! शायद इसलिए कि दोनों ही पार्टियों के आदिवासी नेताओं ने अभी तक अपनी ताक़त का अहसास नहीं कराया! जब तक ऐसा नहीं होगा, आदिवासी वोट-बैंक ही बने रहेंगे!    

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हेमंत पाल 

    मध्यप्रदेश की राजनीति का अपना कुछ अलग ही ढर्रा है। यहाँ सरकार और विपक्ष में बैठने वाले राजनीतिक दलों के सोच और कार्यप्रणाली में ख़ास फर्क नहीं है! जब एक दल विपक्ष में होता  है, तो दूसरे को जिस काम लिए कोसता है, सत्ता में आने पर वो भी वही करने लगता है। यही कारण है कि प्रदेश की जनता को दोनों दलों में कोई फर्क नजर नहीं आता! मध्यप्रदेश की राजनीति पूरी तरह दो दलों पर केंद्रित होने से सत्ता पलट का खो-खो खेल चलता रहता है। ऐसा ही एक मुद्दा है प्रदेश की राजनीति में आदिवासियों को प्रतिनिधत्व देने का! कांग्रेस ने जब तक राज किया, किसी आदिवासी नेता को एक ऊंचाई से आगे नहीं बढ़ने दिया! शिवभानुसिंह सोलंकी और जमुनादेवी उप मुख्यमंत्री की कुर्सी तक तो पहुंचे, पर मुख्यमंत्री नहीं बन पाए! कुछ यही काम भाजपा ने भी किया! जबकि, हमेशा ही ये राग आलापा जाता है कि आदिवासियों विकास करना है। उन्हें मुख्यधारा में लाना है। उनको राजनीति में सही जगह दिलाना है। लेकिन, दोनों दलों में से किसी ने भी ऐसा नहीं किया! राजनीतिक दलों के लिए आदिवासी हमेशा ही वोट बैंक से ज्यादा नहीं रहे! कांग्रेस और भाजपा दोनों ने इस समाज का राजनीतिक दोहन करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी! सब्जबाग तो खूब दिखाए पर उनके लिए किया कुछ नहीं! 

   प्रदेश में आदिवासियों की बड़ी आबादी होने के बावजूद उनका राजनीतिक सशक्तिकरण के ठोस प्रयास नहीं हुए! मध्य प्रदेश की आबादी में बड़ी हिस्सेदारी (20%) आदिवासियों की है। ये वर्ग राजनीतिक उद्धार के लिए हमेशा तरसता रहा है। शायद इसलिए कि बरसों तक मध्यप्रदेश का ज़्यादातर हिस्सा सामंतों के चंगुल में रहा! इस कारण बाक़ी लोग दोहरी या तिहरी ग़ुलामी में रहे! राजा, जागीरदार और ज़मींदार अंग्रेजों के गुलाम हुआ करते थे! और उनकी ग़ुलाम यही आदिवासी और समाज की दबी-कुचली जनता थी। जिस तरह राजे, रजवाड़े अभी भी खुद को सामंती संस्कारों से मुक्त नहीं कर पाए, उसी तरह आदिवासी समाज के जहन से भी ग़ुलामी की बू नहीं गई! प्रदेश के ज़्यादातर हिस्से रजवाड़ों के अधीन थे, इस कारण समांतियों ने अपने इलाक़ों में कभी राजनीतिक चेतना को उभरने का मौका ही नहीं दिया! क्योकि, वे कोई ऐसी राजनीतिक चेतना जागृत होने ही नहीं देना चाहते थे, जो बाद में उनके सामने सर उठा सके!  मध्य प्रदेश के बारे में हमेशा यह आंकड़ा सामने रखा जाता है कि राज्य की कुल आबादी का करीब 20 प्रतिशत आदिवासी हैं। सवाल यह है कि जिस मानव जाति की आबादी 1.5316 करोड़ है, क्या उन्हें अपना राजनीतिक अधिकार मिल सका है?
  मध्यप्रदेश में लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीतकर सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी का रवैया भी वैसा ही रहा, जैसा कांग्रेस का था। सत्ता पर कब्जा जमाए रखने के लिए भाजपा के थिंक टैंक सक्रिय हो गए है कि कैसे आदिवासी नेताओं को बरगला कर उन्हें उलझाया जाता रहे। इन्हीं थिंक टैंकों ने सत्ता और संगठन को ऐसे कार्यक्रम को ऐसे प्लान आयोजित करने का सुझाव दिया है जिनके बहाने कांग्रेस का परम्परागत माने जाने वाले वाला वोट बैकं भाजपा से जुड़ा रहे। कुछ हद तक भाजपा अपनी इस योजना में सफल भी रही है! कांग्रेस की और झुकाव रखने वाला ये थोकबंद वोट अब भाजपा के झंडे के नीचे खड़ा है! पार्टी नेताओं की कोशिश कांग्रेस के इस परम्परागत आदिवासी वोट बैंक को अपनी तरफ खींचने की है। आदिवासी इलाकों की हालत देखकर समझा जा सकता है, कि वहां कितना और कैसा विकास हुआ है! राजनीतिक ताकत की कमी होने से ये वर्ग नौकरशाहों की झिड़की खाने को भी अभिशप्त है। 
     मध्य प्रदेश में आदिवासी ही नहीं दलित, पिछड़े वर्ग, महिला या अल्पसंख्यक आंदोलनों की भी कमी रही है। जब तक ये आंदोलन सशक्त नहीं होंगे, तब तक इनमें से नेतृत्व उभरकर सामने नहीं आएगा और तब तक मध्यप्रदेश में लोकतंत्र भी मज़बूत नहीं होगा! माना जाए तो इसके लिए प्रदेश की भौगोलिक स्थिति भी ज़िम्मेदार हैं। प्रदेश के किसी भी इलाके को सम्पूर्ण आदिवासी बेल्ट नहीं कहा जा सकता! इस कारण उनके नेतृत्व की आकांक्षा कमज़ोर हो गई हो! प्रदेश में जमुना देवी, शिवभानु सिंह सोलंकी और उनके पुत्र सूरजभान सिंह सोलंकी, अरविंद नेताम, उर्मिला सिंह, दिलीप सिंह भूरिया, कांतिलाल भूरिया, फग्गन सिंह कुलस्ते जैसे आदिवासी नेता हुए हैं! शिवभानुसिंह सोलंकी और जमुना देवी तो अच्छे पद तक पहुंचे! वहीं कांतिलाल भूरिया केंद्र में मंत्री और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हैं। इनके अलावा आदिवासियों में अभी तक ऐसा कोई नेता नहीं हुआ जो अपना वजूद बना सका हो। ये भी दुर्भाग्य है कि आदिवासी समाज से अगर कोई बड़ा नेता बनता भी है, तो वो उन लोगों को भूल जाता हैं, जिनके दम पर चुनाव जीतकर आया हैं! फिर ये ऊपर की राजनीति करने लगते हैं! इसके लिए काफी हद तक सिर्फ़ आदिवासी नेता ही ज़िम्मेदार हैं। कांग्रेस ने ढेरों वादों के बावजूद मध्यप्रदेश में आत्मनिर्भर आदिवासी राजनीतिक नेतृत्व को कभी उभरने नहीं दिया! कुछ उभरे भी तो उन आदिवासी नेताओं को आत्मसात कर लिया! 
  मध्यप्रदेश में आदिवासियों और दलितों में कोई तालमेल न होना भी इस वर्ग के राजनीतिक दोहन एक बड़ा कारण है! जिससे यहां कोई संयुक्त आंदोलन नहीं उभर पाया! आदिवासियों के अलावा मध्य प्रदेश में दलित आंदोलन भी उभरकर सामने नहीं आ सका! जबकि, इसके पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में दलित आंदोलन ने जड़ें पकड़ी हैं और साल 2007 में मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी ने अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल किया। 
  मध्यप्रदेश में आदिवासियों के नाम पर तो सभी दल अपनी राजनीति तो चमकाते रहे हैं! लेकिन जब भी प्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने की मांग उठती है तो नेता उसे अनसुनी करके टाल जाते हैं। प्रदेश के आदिवासी नेता भी चाहते हैं कि प्रदेश में किसी आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए, लेकिन, उनकी सुनता कौन है! एक मौका शिवभानुसिंह सोलंकी को मिला जरूर था, लेकिन तब अर्जुन सिंह प्रदेश के मुखिया बन गए! देखा जाए तो मध्यप्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग सही भी है। 50 में से 20 जिले आदिवासी बहुल हैं। राज्य में डेढ़ करोड़ आदिवासी हैं। 47 विधानसभा और 6 लोकसभा क्षेत्र आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं! इस स्थिति में किसी आदिवासी का मुख्यमंत्री बनाया जाना कहाँ गलत होगा? आदिवासियों की सत्ता में भागीदारी भी लगातार बढ़ रही है।  
   मध्यप्रदेश की राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि यहां आदिवासी नेतृत्व तेजी से उभरता है और फिर अचानक गायब हो जाता है। अपनी संख्या बढ़ाने के लिए राजनीतिक दल आदिवासियों को मौका देते हैं, लेकिन मुख्यधारा की राजनीति तक पहुंचने से पहले ही उसके पर कतर दिए जाते हैं। आदिवासी नेता भी इस बात का आरोप लगाते रहे हैं कि उन्हें मुख्यधारा से गायब किया जा रहा है। हालांकि, कांग्रेस ने आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया को पार्टी की कमान सौंपी भी थी! शिवराज सिंह के मंत्रिमंडल में भी आदिवासी चेहरे हैं, फिर भी अभी तक जैसा सशक्त नेतृत्व उभरकर सामने आना चाहिए था, वह नहीं आ पाया! लगता भी नहीं कि कोई राजनीतिक दल आदिवासियों को उनका जायज हक़ देगा! इसके लिए उन्हें खुद ही सड़क पर आना होगा।  
    मध्यप्रदेश में आदिवासियों की उपेक्षा का ही नतीजा है कि प्रदेश में पृथक गौंडवाना राज्य की मांग उठी थी। दो दशक पहले आदिवासियों के उत्थान के नाम पर गठित 'गौंडवाना गणतंत्र पार्टी' ने अलग गौंडवाना राज्य की मांग उठाकर आदिवासियों को उद्वेलित जरूर किया था, पर इसका कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिला! आदिवासी बाहुल्य मध्यप्रदेश में आदिवासियों के उत्थान के लिए सन् 1991 में हीरासिंह मरकाम ने गौंडवाना गणतंत्र पार्टी का गठन किया था। आदिवासियों के विकास का नारा बुलंद किया था इसलिये इसे उन इलाकों में अच्छी लोकप्रियता मिली जो आदवासी बाहुल्य जिले कहे जाते थे धीरे-धीरे 'गौडवाना गणतंत्र पार्टी ने आदिवासियों के बीच अपनी ताकत बढ़ानी शुरू की और इतनी ताकत पैदा कर ली कि उसके संस्थापक हीरासिंह मरकाम कोरबा के तानापार जो अब मध्यप्रदेश के विभाजन के बाद छत्तीसगढ में है से मध्यावधि चुनाव जीतकर विधायक भी बन गए। लेकिन, ये किस्सा अब पुराना गया! मध्यप्रदेश में यदि आदिवासियों को अपनी ताकत के अनुरूप राजनीतिक हैसियत पाना है, तो उन्हें खुद ही पाने हक़ के लिए संघर्ष करना पड़ेगा! क्योकि, राजनीति में किसी को बिना मांगे कभी कुछ नहीं मिलता है और ना मिलेगा!
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मध्यप्रदेश में तीसरे मोर्चे के लिए कोई दरवाजा नहीं!


- हेमंत पाल 

   मध्यप्रदेश देश के उन चंद बड़े राज्यों में से है, जहाँ क्षेत्रीय पार्टियों का कोई अस्तित्व नहीं है! यहाँ पूरी तरह दो दलीय राजनीतिक व्यवस्था कायम है। प्रदेश की राजनीति में तीसरे मोर्चे जैसे विकल्प के लिए कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। पिछले 20 सालों में कोई भी ग़ैर-कांग्रेसी या ग़ैर-भाजपा पार्टियां मिलकर भी कभी 20 से ज़्यादा सीटें नहीं ला पाई! जबकि, पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र में कई ताकतवर क्षैत्रीय पार्टियों के कारण कई बार साझा सरकारें बन चुकी हैं! मध्यप्रदेश में कोई क्षेत्रीय पार्टी क्यों नहीं पनप सकी, इसका सबसे बड़ा कारण यहाँ क्षेत्रीय पार्टियों की कमान किसी भरोसेमंद और अपनी अलग पहचान रखने वाले नेता के हाथ में न होना है! इसके अलावा भौगोलिक स्थिति के साथ जातिगत समीकरणों को भी एक बड़ा कारण माना जा सकता है। जबकि, यहाँ 70 के दशक में संविद सरकार जैसा असफल प्रयोग हो चुका है। अभी भी ऐसे कोई आसार नजर नहीं आते, कि मध्यप्रदेश में किसी क्षैत्रीय पार्टी को अपना प्रभाव दिखाने और सरकार बनाने का मौका मिल सकता है! 

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     प्रदेश में कोई तीसरी पार्टी मतदाताओं के दिल में अपनी पैठ क्यों नहीं बना सकी? इस सवाल का एक जवाब ये भी माना जा सकता है कि जब भी कांग्रेस और भाजपा के अलावा किसी क्षेत्रीय पार्टी ने अपनी पहचान बनाने की कोशिश की, पार्टी की कमान किसी ऐसे नेता के हाथ में रही जिसकी प्रदेश स्तर पर कोई अलग पहचान नहीं थी! बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की कमान जिसे भी दी गई, उन्हें अपने इलाके से बाहर कोई जानता भी नहीं था! उमा भारती जरूर अकेली ऐसी नेता थी, जिसने 'जनशक्ति पार्टी' अपने दम पर खड़ी की थी, लेकिन उसके पीछे भाजपा को नुकसान पहुँचाना पहला मकसद था, न कि तीसरी ताकत बनने की कोई मंशा थी! अपनी पहचान को आधार बनाकर क्षेत्रीय राजनीतिक ताकत बनने का जो काम दक्षिणी राज्यों हुआ है, ऐसा कहीं और नहीं! करूणानिधि, जयललिता, एमजी रामचंद्रन, चिरंजीवी जैसे नेताओं के पीछे अपनी फ़िल्मी इमेज थी! इन लोगों ने अपने फैन्स को वोटरों में बदल देने का चमत्कार किया! उत्तरप्रदेश में यही काम मुलायमसिंह यादव और मायावती ने जातीय नेता बनकर किया! ठाकुरों और ब्राह्मणों को अपना दम दिखाने के लिए मुलायमसिंह यादव ने ओबीसी और मायावती ने निचली जातियों को समेटकर सत्ता पर कब्ज़ा किया! जबकि, मध्यप्रदेश में कहीं कोई संभावना नजर नहीं आती! 
    मध्यप्रदेश में हमेशा ही सत्ता की चाभी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के इर्दगिर्द ही घूमती रही है। 1956 के बाद पहली बार सत्ता कांग्रेस के हाथ से आपातकाल के बाद 1977 में फिसली थी! 2003 से पहले तक राज्य में गैर-कांग्रेसी सरकारें तो बनीं, पर पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई! 2003 में सत्ता में आई भाजपा ने न केवल पांच साल का कार्यकाल पूरा किया, बल्कि लगातार दूसरी बार सत्ता में भी आई! प्रदेश में 1993 तक भाजपा के साथ गैर-कांग्रेसी दलों में जनता पार्टी व जनता दल का प्रभाव रहा है। उसके बाद भाजपा को छोड़कर बाकी गैर-कांग्रेसी दलों खासकर समाजवादी विचारधारा के दलों में ज्यादा ही टूट हुई! इसलिए कि समाजवादियों ने सत्ता का सुख पाने के लिए कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा का दामन थाम लिया। 
    मध्यप्रदेश में समाजवादी विचारधारा के अलावा और दलित वर्ग का वोट बैंक भी है! इस बात को ध्यान में रखकर ही आपातकाल के दौरान मध्यप्रदेश में समाजवादी विचारधारा के झंडाबरदार और जबलपुर से सांसद रह चुके जनता दल (यू) के अध्यक्ष शरद यादव ने समाजवादियों को जोड़ने की मुहिम तेज की थी! लेकिन, बाद में उनकी कोशिश भी कामयाब नहीं हुई! क्योंकि, प्रदेश में समाजवादी तो है, किंतु उनके पास सक्षम नेतृत्व की कमी है! वहीं, कांग्रेस व भाजपा के अलावा अन्य किसी पार्टी के पास न तो असरदार संगठन है न मुखिया! 
  प्रदेश में समाजवादियों की हालत पर नजर दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि 1977 के चुनाव में जनता पार्टी ने 320 विधानसभा सीटों (तब छत्तीसगढ़ अलग नहीं हुआ था) में से 230 पर कब्जा जमाया था! इनमें जीतने वाले लगभग 100 समाजवादी थे। उसके बाद 1980 व 85 के चुनाव गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने अलग-अलग झंडे थामकर चुनाव लड़ा तथा सत्ता कांग्रेस के हाथ में पहुंच गई। फिर इन पार्टियों ने 1990 में मिलकर चुनाव लड़ा व सत्ता हांसिल कर ली। इस चुनाव में जनता दल ने 28 सीटों पर जीत दर्ज की थी। 
  उत्तर प्रदेश में अपने जातीय समीकरणों के कारण राजनीतिक ताकत बनकर उभरी बहुजन समाज पार्टी ने मध्यप्रदेश में तीसरी ताकत के रूप में लोकसभा सीट जीतकर अपना खाता 1991 में एक सामान्य सीट से खोला! बसपा के भीम सिंह ने रीवा से कांग्रेस और भाजपा उम्मीदवारों को हराकर लोकसभा में दाख़िला लिया था। इस प्रदर्शन में इज़ाफ़ा करते हुए 1996 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने मध्यप्रदेश से दो सीटें जीत ली थीं। रीवा से बुद्धसेन पटेल ने चुनाव जीता, जबकि सतना से बसपा के सुखलाल कुशवाहा ने बाज़ी मारी। सुखलाल कुशवाहा के प्रदर्शन को इसलिए भी याद किया जाता है, क्योंकि हारने वालों में प्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्री कांग्रेस के क़द्दावर नेता अर्जुन सिंह और भाजपा के वीरेंद्र कुमार सकलेचा शामिल थे। इसके बाद बसपा ने प्रदेश में जनाधार बढ़ाने की कोशिशें की! इस दौरान बसपा पर यह आरोप भी लगा कि उसने कांग्रेस और भाजपा दोनों से सौदेबाजी करके कई स्थानों पर उम्मीदवार तक नहीं लड़ाए। इसके बाद भी बसपा का असर कम नहीं हुआ! 
   इसके बाद उम्मीद की जाने लगी थी कि भविष्य के चुनाव में बुंदेलखंड और विंध्य प्रदेश की कुछ सीटों पर बसपा उम्मीदवार अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहेंगे! दलित मतदाता तो पार्टी से तो प्रभावित थे, लेकिन असरदार प्रत्याशी न होने से बड़ा चमत्कार नहीं हो सका! 2008 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 14. 05 प्रतिशत वोट के साथ 7 सीटें जीती थी! मूलतः उत्तरप्रदेश से उभरी ये पार्टी मध्यप्रदेश के सीमावर्ती इलाके में अपना असर जरूर रखती है! लेकिन, पार्टी का ग्राफ अपने गृह प्रदेश में ही लगातार गिरता गया! उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी से हारने के बाद मायावती की इस पार्टी का आधार कमजोर हुआ है। पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा को 20% वोट तो मिले पर उसका एक भी उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब नहीं हुआ! 
    बसपा ने मध्यप्रदेश में भी उत्तरप्रदेश की तर्ज पर जातीय समीकरणों की 'सामाजिक समरसता' की मुहिम चलाई थी। उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे इलाकों बघेलखंड, बुंदेलखंड और चंबल इलाके में मायावती का असर भी रहा है। इन इलाकों के अगड़े तबकों के नेता लंबे समय तक मायावती की चौखट पर हाजिरी बजाते रहे हैं। लेकिन, कभी लगा नहीं कि मायावती की बसपा मध्यप्रदेश में कोई राजनीतिक चमत्कार कर सकती है। प्रदेश में मायावती के जातीय समीकरण भले ही पूरी तरह सफल न हो पाए हों, पर उसका 'सर्व समाज' का नारा कभी न कभी असर दिखा सकता है! 
   मुलायमसिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने भी एक बार 8 विधानसभा सीटें जीतकर सदन में तीसरे नंबर पर थी। लेकिन, जल्दी ही उसके चार विधायक पार्टी छोड़ गए हैं। समाजवादी पार्टी का यादव फार्मूला जो उत्तरप्रदेश में कामयाब रहा, वो मध्यप्रदेश में नहीं चल सकता! इसका कारण ये भी है की अभी मध्यप्रदेश में जातिवादी राजनीति का जहर लोगों के दिमाग तक नहीं चढ़ा है। आदिवासियों के नाम पर बनी 'गोंडवाना गणतंत्र पार्टी' भी कमाल नहीं कर सकी! जबकि, आरक्षण विरोध लेकर बनी 'समानता दल' भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं। 
  2003 में भाजपा को आसमान फाड़ बहुमत से सत्ता में लाने वाली उमा भारती भी क्षैत्रिय पार्टी बनाकर अपनी जातिवादी ताकत दिखाने का एक असफल प्रयोग कर चुकी है। उमा भारती ने 2008 में भारतीय जनशक्ति पार्टी (भाजश) बनाकर भाजपा को चुनौती दी थी! लोधी समाज की नेता होने के नाते उन्होंने असर भी दिखाया, पर वे भाजपा को अपनी जड़ों से हिलाने में सफल नहीं हो सकीं! प्रदेश की 89 सीटों पर लोधी समाज का असर है। उस चुनाव में भाजपा प्रत्याशी रामकृष्ण कुसमारिया, जंयत मलैया, बृजेन्द्रसिंह, हरिशंकर खटीक, मुश्किल से अपनी सीट बचा सके थे। चंदला क्षेत्र से तो भाजपा के एक पूर्व मंत्री मात्र 958 मतों से जीते थे। इसी तरह टीकमगढ़, बड़ामलहरा और राजनगर में भाजपा प्रत्याशियों की जमानत जब्त होने का कारण भाजश प्रत्याशी ही थे। हालांकि, उमा भारती को भी टीकमगढ़ से हार का मुंह देखना पड़ा था। उमा की भाजश ने बड़ामलहरा, खरगापुर में जीत हांसिल की, वहीं टीकमगढ, जतारा, चंदला में उसके प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे। इसी तरह बंडा, महाराजपुर में भाजपा की हार का कारण भी भाजश को माना गया। सागर संभाग में भाजश को 12.37 प्रतिशत मत मिले थे, जिसमें छतरपुर जिले में 14.09, दमोह में 6.65, पन्ना में 18.24, सागर में 9.30 एवं टीकमगढ़ जिले में 16.66 प्रतिशत मिले थे। 
  लोधी समाज की संख्या के आधार पर इनके चुनावी समीकरणों को उलटफेर करने के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो मध्यप्रदेश में 89 विधानसभा क्षेत्रों पर इस समाज का असर है। लोधी समाज के प्रदेश में करीब 80 लाख मतदाता हैं। बालाघाट में सर्वाधिक संख्या लेाधी समाज की है, जो चुनावी हार-जीत में महत्वपूर्ण होते हैं। बुंदेलखंड की अधिकांश सीटों पर भी इस समाज का खास असर है। समाज की इस ताकत के बावजूद उमा भारती की मध्यप्रदेश में क्षैत्रिय पार्टी बनाकर राज करने की रणनीति कामयाब नहीं हो पाई!

छोटे राज्यों की मांग से उभरे बड़े सवाल!

    अलग बुंदेलखंड राज्य के गठन की मांग बहुत पुरानी है! मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के इस अतिपिछड़े इलाके को अलग राज्य बनाकर विकास के नए द्वार खोलने की मांग राजनीतिक दलों की तुलना में दूसरे संगठन ज्यादा उठाते रहे हैं। अभिनेता से भाजपा नेता बने राजा बुंदेला जैसे नेता बरसों से इस आंदोलन की धुरी बने हुए हैं और आज भी इस मांग में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं। पहले 'बुंदेलखंड कांग्रेस' जरिए वे मांग को उठा चुके हैं। अब 'बुंदेलखंड यूनाइटेड फ्रंट' का गठन करके अपनी इस मांग के साथ फिर मैदान में उतरे राजा बुंदेला का कहना है कि केंद्र सरकार राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करके बुंदेलखंड राज्य बनाने की दिशा में पहल करती है, तो बुंदेलखंड को आत्मनिर्भर होने में ज्यादा व समय नहीं लगेगा! इससे बुंदेलखंड को दोहन से मुक्ति भी मिलेगी। जनता का जीवन स्तर भी सुधरेगा और बेरोजगारी दूर होगी। इसके प्रस्तावित नक्शे पर मध्यप्रदेश के सागर संभाग में आने वाले छतरपुर, टीकमगढ़, सागर, पन्ना, दमोह के साथ दतिया और यूपी के बुंदेलखंड से जुड़े झांसी, महोबा, हमीरपुर, बांधा, चित्रकूट, ललितपुर, जालौन जिले को जोड़कर दिखाया जाता रहा है।
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- हेमंत पाल 
   आंध्र प्रदेश को विभाजित कर पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण का फैसला होने के बाद देश के अन्य भागों में छोटे राज्यों के लिए दशकों से चलते आ रहे आंदोलनों में नई जान आई थी। लेकिन, वक़्त ने इसे फिर पीछे धकेल दिया! अब मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र को अलग राज्य का दर्जा दिए जाने की सुगबुगाहट फिर शुरू हो गई! इस हलचल की वजह क्या है, अभी इस बारे में दावे से कुछ कहा नहीं सकता। पर, केंद्र और राज्य की भाजपा सरकार इस मुद्दे पर फिर विचार करने के मूड में है। इस घटनाक्रम को देखते हुए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या अब केंद्र सरकार को दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करना चाहिए? जो नए राज्यों के पुनर्गठन की समस्या का राजनीतिक, भाषाई, सांस्कृतिक और भौगोलिक सभी पहलुओं का गहराई से अध्ययन करे! ताकि, इस आधार पर सरकार भविष्य में नए और छोटे राज्यों के निर्माण के बारे में सुविचारित मानक नीति तैयार करके उस पर अमल हो सके! गोरखालैंड, विदर्भ, कार्बी आंगलांग, बोडोलैंड, पूर्वांचल, पश्चिम प्रदेश, अवध प्रदेश, हरित प्रदेश और बुंदेलखंड जैसे कई नए राज्यों की मांग के समर्थन में आंदोलनों का लम्बा दौर चला है। 

  उमा भारती के अलावा भाजपा ने छोटे राज्यों को लेकर अपने पत्ते कभी नहीं खोले! लोकसभा चुनाव पहले उमा भारती ने पार्टी के तत्कालीन दो प्रवक्ताओं शाहनवाज हुसैन और मीनाक्षी लेखी की मौजूदगी में राज्य पुनर्गठन आयोग की जिस तरह पैरवी की उसे भाजपा की पार्टी लाइन माना गया था। क्योंकि, बुंदेलखंड का गठन मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के जिलों को मिलाकर होना है। मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है। उमा भारती की मानें तो राज्य पुनर्गठन आयोग को फिर से बनाया जाए और अलग राज्य बनाने के जितने भी अन्य प्रस्ताव फैसले से वंचित रह गए हैं उन पर भी विचार किया जाए। उसी समय कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव मधुसूदन मिस्त्री ने भी कहा था कि उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व के कान में पृथक बुंदेलखंड राज्य का मुद्दा डाल दिया है। तेलंगाना राज्य को जब कांग्रेस कार्यसमिति मंजूरी दे रही थी, तब इस मुद्दे की आेर उन्होंने बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने की ओर नेतृत्व का ध्यान खींचा! भाजपा की बात करें तो मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान पिछले विधानसभा चुनाव में ही पृथक बुंदेलखंड की मांग से इंकार कर चुके हैं।  
   यदि बुंदेलखंड चुनावी मुद्दा बनता है तो शिवराज सिंह ही नहीं, अखिलेश यादव को भी इसकी कोई गाइडलाइन बनाना ही होगी। सवाल यह है कि नेताओं की सोच क्या मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के मतदाताओं के गले उतरेगी? छोटे राज्य के गठन से विकास को एक नई दिशा मिली है तो पृथक बुंदेलखंड की मांग को भी जनता का समर्थन मिलना चाहिए! सवाल यह भी है कि छत्तीसगढ़ के तौर पर मध्यप्रदेश का एक बंटवारा पहले ही हो चुका है, ऐसे में सागर संभाग के पांच जिलों को खोना मप्र को गंवारा होगा? बड़ा सवाल यह है कि इस अतिपिछड़े क्षेत्र में बिखरी पड़ी प्राकृतिक संपदा से क्या बुंदेलखंड आत्मनिभर हो जाएगा? पृथक बुंदेलखंड की मांग सिर्फ सियासी होगी या फिर वाकई में क्षेत्र के विकास में यह विकल्प निर्णायक भूमिका निभा सकता है? 
 तेलंगाना के गठन के तत्कालीन यूपीए सरकार के फैसले ने देश के दूसरे हिस्सों में अलग राज्यों की मांग में चल रहे आंदोलनों को भड़का दिया था। इस्तीफों का दौर भी चला और सड़क पर विरोध भी हुआ! कोई खुश हुआ तो कोई दुखी! इस बात की आशंका भी थी। क्योंकि, ऐसे राजनीतिक फैसले सभी को खुश नहीं कर सकते! ऐसे में सवाल उठता है कि देश की आजादी के बाद से हमेशा ही अलग राज्यों की मांगें क्यों उठती रही है? इस तरह की मांगों के पीछे वोट की राजनीति है या फिर कोई और कारण? इन आंदोलनों के लिए क्या सिर्फ राज्यों की सांस्कृतिक और भौगोलिक भिन्नता ही जिम्मेदार है या फिर इसके पीछे कोई और कारण भी है?    
    समाजशास्त्रियों के तर्क हैं कि समाज के अगड़े-पिछड़े के बीच तनाव, शोषण, भाषा और संस्कृति पर मंडराते खतरे, मुख्यधारा से कट जाने का खतरा और आजादी में खलल जैसे कारण ही अलग राज्य की मांगों को हवा दे रही है। लेकिन, इस तरह की मांगों के साथ जब भी राजनीति जुड़ती है तो आंदोलन की यह चिंगारी आग की शक्ल में सबकुछ जला डालती है। लंबे समय से देश के विभिन्न अंचलों से भाषाई, भौगोलिक और जातिगत आधार पर अलग राज्यों की मांग उठती रही है। कुछ मांगें तो आजादी से पहले की हैं और कुछ आजादी के बाद की! पश्चिम बंगाल के पर्वतीय क्षेत्र दार्जिलिंग में सबसे पहले 1907 में गोरखा समुदाय के लिए अलग राज्य की मांग उठी थी! अलग गोरखालैंड की मांग कर रहे 'गोरखा जनमुक्ति मोर्चा' के प्रमुख विमल गुरुंग कहते हैं, कि दार्जिलिंग तो कभी बंगाल का हिस्सा रहा ही नहीं! 
    इतिहास भी इस बात का गवाह है। गोरखाओं की खत्म होती पहचान बनाए रखने के लिए गोरखालैंड जरूरी है। लेकिन, केंद्र सरकार ने कभी भी इन आंदोलनों को गंभीरता से नहीं लिया! कभी आंदोलनों को बल प्रयोग से दबाया गया तो कभी समझौतों के जरिए। किसी भी राजनीतिक दल की सरकार ने समस्या की तह तक जाने की कोशिश नहीं की! असम के 'बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल' के सदस्य हाग्रामा मोहिलारी का कहना है कि असम में रहकर बोडो जनजाति की पहचान ख़त्म होने वाली है। सरकार ने अलग काउंसिल का लालच भले दिया हो, पर अलग राज्य के बिना बोडो जनजाति की पहचान को बनाए रखना संभव नहीं! देश की आजादी के बाद राज्यों के पुनर्गठन की सबसे बड़ी कवायद 1953 में 'राज्य पुनर्गठन आयोग' बनाकर की गई थी! इसके तहत राज्यों की सीमाएं भाषाई आधार पर तय की जानी थी। भाषाई आधार का नतीजा ये हुआ कि भौगोलिक बसावट, क्षेत्रफल, आबादी और भाषा के अलावा दूसरी सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति जैसे मसलों को आयोग ने महत्व नहीं दिया! यही कारण था कि कुछ सालों बाद ही असंतोष पनपने लगा! 
   चार साल बाद ही मुंबई (तब बंबई) से अलग करके गुजरात को अलग राज्य का दर्जा दिया गया। इसके छह साल बाद पंजाब को तीन हिस्सों में बांटकर हरियाणा और हिमाचल प्रदेश बनाना पड़ा। देश में छोटे राज्यों के लिए नए सिरे से उठने वाली मांगों के लिए तीन बातें ख़ास तौर पर जिम्मेदार हैं। पहली वजह जाति और धर्म के आधार पर देश के सामाजिक ताने-बाने का राजनीतिकरण होना है। पिछले कुछ सालों में क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ा है, जो लोगों की भावनाओं को भड़काकर मांग को आंदोलन का स्वरूप देने लगे हैं। चुनावी राजनीति में बड़े दल भी अपने क्षेत्रीय एजेंडे के तहत अलगाववाद की भावना को बढ़ावा देने में पीछे नहीं हैं! दूसरा कारण है देश में एकसमान विकास का अभाव! ऐसी स्थिति में यह भावना प्रबल हो जाती है कि अलग राज्य होने की स्थिति में क्षेत्र और वहां के लोगों के विकास की गति तेज होगी! क्योंकि, ये आम धारणा है कि विकसित इलाकों में निजी निवेश होता है, जिससे इलाके का विकास होता है। पिछड़े इलाके विकास की दौड़ में इसीलिए और पिछड़ते रहते हैं! 
   अपने लिए अलग राज्य की मांग का समर्थन करने वालों के पास अपनी दलीलें हैं। मांग का समर्थन करने वाले कहते हैं कि छोटे राज्यों से सुशासन सुनिश्चित करने के अलावा विकास की गति भी तेज हो सकती है। गोरखा आंदोलन से जुड़े नेताओं का कहना है कि राजधानी से दूर होने की वजह से सरकार और प्रशासन का ध्यान इलाके की समस्याओं और विकास की ओर नहीं जाता। इन आंदोलनकारियों का ये भी कहना है कि छोटे राज्यों की विकास दर दूसरे राज्यों से बेहतर है। अपनी बात के समर्थन में वे छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड का हवाला देते हैं जिनकी औसतन सालाना वृद्धि दर दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान अपने मूल राज्यों (जिनसे अलग होकर उनका गठन हुआ था) के मुकाबले बेहतर रही। ऐसी मांगों का विरोध करने वाले इसे देश की एकता व अखंडता पर खतरा मानते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कहना है कि दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र बंगाल का अभिन्न हिस्सा रहा है। कुछ इलाके को मिलाकर यदि गोरखालैंड बना भी दिया गया, तो संसाधान कहां से आएंगे? छोटे राज्यों के गठन से राजनीतिक व सामाजिक अस्थिरता भी बढ़ेगी! झारखंड इसका ताजा उदाहरण है जहां हर साल सरकार गिर या बदल जाती है। लेकिन, सिर्फ राजनीतिक अस्थिरता को आधार बनाकर छोटे राज्यों के पक्ष को नाकारा नहीं जा सकता! 
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(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं।

प्रदेश कांग्रेसियों में अपराजय 'दिग्विजय'



- हेमंत पाल 

   किसी नेता को जब पार्टी के बाहर और भीतर की राजनीति को सही तरीके से सम्भालना आए, तभी उसे 'दिग्विजय' नेता कहा जाता है! इस मायने में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह को सबसे सही नेता कहा जा सकता है, जिनका पार्टी में जलवा बरक़रार है। वे असल में राजा हैं! व्यवहार से भी और कार्यप्रणाली से भी! प्रदेश में कांग्रेस के लिए वे ही खेवनहार बन सकते हैं। विवादों को सीने पर झेलना और फिर उन्हें फ़ुटबाल की मानिंद उछाल देना, ये सिर्फ दिग्विजय सिंह लिए ही संभव है। यही है असल 56 इंच का सीना! वे जो भी बात कहते हैं, उसमें न तो लाग-लपेट या दुराव-छुपाओ नहीं होता! राजनीति में ये बिरला ही उदहारण है कि कोई नेता पार्टी का समर्थन और जनता का साथ होने के बावजूद 10 साल लिए स्वतः वनवास ले ले! इसके बाद जब लौटे तो पूरे दम ख़म के साथ!  
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   मध्यप्रदेश में कांग्रेस की राजनीति दिग्विजय सिंह के आसपास ही घूमती है। कभी उनके समर्थन में तो कभी विरोध में! 12 साल पहले तक जिस दिग्गी राजा की प्रदेश में तूती बोलती थी, अब कांग्रेस की राजनीति उनके विरोध और समर्थन पर आकर सिमट गई है। कांग्रेस के इस नेता की सबसे बड़ी खासियत ये है कि आप उसका विरोध कर सकते हो, उनको अनदेखा कर सकते हो, पर उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते! मध्यप्रदेश में उनकी सत्ता को गए 12 गए, पर आज भी वे ख़बरों की सुर्खियां बने रहते हैं! इन दिनों वे फिर चर्चा में हैं! कांग्रेस की प्रदेश कार्यकारिणी को लेकर उभरे मतभेद और प्रदेश में पार्टी खस्ता हालत के वक़्त में वे ही उम्मीद की किरण बने हुए हैं। 
   दिग्विजय सिंह की छवि पार्टी के बाकी नेताओं से कुछ अलग है। कांग्रेस के कुछ नेता उन्हें प्रदेश में कांग्रेस के बंटाधार का अकेला दोषी मानते हैं। उनका कहना है कि अपने दस साल के कार्यकाल में दिग्गी राजा ने ऐसा कुछ नहीं किया कि जनता उन्हें और कांग्रेस को फिर मौका दे! सड़क, बिजली और पानी ये तीनों ऐसे मामले हैं, जिन्हें लेकर दिग्विजय सिंह को कोसने वाले कम नहीं हैं! लेकिन, ये कहने और सोचने वाले भी कम नहीं हैं, जिन्हें आज भी मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह का कोई विकल्प नजर नहीं आता! ये कहने वाले भी सामने आने लगे हैं कि प्रदेश में कांग्रेस को फिर जीवन देना है, तो दिग्विजय सिंह को ही कमान सौंपना पड़ेगी! इसलिए कि कांग्रेस में उन्हें अकेला ऐसा नेता माना जाता है, जो जमीन से जुड़े हैं और प्रदेशभर में सैकड़ों कार्यकर्ताओं को उनके नाम से जानते हैं। ये उनकी ऐसी खासियत है जिसका हर कोई लोहा मानता है! आज शायद ही प्रदेश में ऐसा कोई नेता नहीं होगा, जो पार्टी कार्यकर्ताओं को नाम से पुकारता हो और जिसकी एक आवाज पर भीड़ जमा हो जाती है। 
 सार्वजनिक रूप से भाजपा के नेता दिग्विजय सिंह बारे में कोई भी टिप्पणी करते हों, पर भाजपा यदि कांग्रेस के किसी नेता से भयभीत होती है, तो वो दिग्गी राजा हैं! उसके बयानों को लेकर अकसर सवाल किए जाते हैं। लेकिन, शायद किसी को याद नहीं होगा कि दिग्विजय सिंह अपने किसी बयान से कभी पलटे हों, या बयान के पक्ष में सबूत देने में आनाकानी की हो! कांग्रेस में ऐसे बड़े नेताओं की बहुत कमी है, जो खुलकर भाजपा और संघ पर हमले करते हों! दिग्विजय सिंह पार्टी की इस कमी को पूरा करते हैं। शायद यही कारण है कि कांग्रेस उनके खिलाफ उठने वाली लहरों से किनारा कर लेती है। जब वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे, उन्होंने कहा था कि आतंकवादी घटनाओं में आरएसएस से जुड़े लोग शामिल हैं! तब उनके इस बयान की जमकर आलोचना हुई! पर, दिग्विजय सिंह अपने इस आरोप पर लगातार कायम रहे! इसके अलावा मुंबई हमले में पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे के मामले में भी उन्होंने कहा था कि मुझे करकरे ने फोन करके आरएसएस के कुछ लोगों के आतंकवादी घटनाओं में शामिल होने की जानकारी दी थी! बाद में कॉल डिटेल देकर उन लोगों के मुँह बंद कर दिए थे, जो इसे कोरी गप्प बता रहे थे। दिल्ली के 'बाटला हाउस' मामले में भी दिग्विजय सिंह आखरी तक अपनी बात पर अड़े रहे कि ये एनकाउंटर है। तात्पर्य ये कि आज कांग्रेस में ऐसा कौनसा नेता है, जिसका होमवर्क और संपर्कों का दायरा और बयानों के पक्ष में तथ्य जुटाने का काम परफेक्ट हो!
   उनके निशाने पर हमेशा भाजपा और संघ रहे हैं, इस बात से इंकार नहीं! लेकिन, दिग्विजय सिंह ने कई बार अपनी ही पार्टी के नेताओं को भी कटघरे में खड़ा करने से गुरेज नहीं किया! याद कीजिए, जब कांग्रेस शासन के दौरान नक्सली समस्या उन्होंने अपनी ही सरकार के गृहमंत्री पी चिदम्बरम के विचारों पर अपना पक्ष एक अखबार में लिखकर ख़ारिज किया था! दिग्विजय अपने बयानों को लेकर कभी माफ़ी की मुद्रा में आए हों, ऐसा भी नजर नहीं आया! कई बार लोगों को लगता भी है कि कांग्रेस हाईकमान ने दिग्विजय सिंह को इतनी छूट कैसे दे रखी है कि वे बयानों के तीर से किसी का भी शिकार कर देते हैं! इस पर भी पार्टी कभी कुछ नहीं बोलती! यहाँ तक कि पार्टी उनके बयानों से पल्ला भी नहीं झाड़ती? दरअसल, दिग्विजय सिंह की सबसे बड़ी ताक़त भी यही है कि वे अपनी ही पार्टी और विपक्ष आँख में किरकिरी बने रहते हैं! 
    दिग्विजय सिंह पार्टी के प्रवक्ता नहीं महासचिव हैं। पर वे जिस तरह कांग्रेस के प्रवक्ता की तरह विपक्ष पर प्रहार करते हैं, विपक्ष के पास तिलमिलाने के अलावा और कुछ नहीं रहता! उनके पास प्रभार तो कर्नाटक और कुछ अन्य राज्यों का है, पर उनका निशाना हमेशा ही मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार, आरएसएस और हिन्दू कट्टरपंथी नेता रहे हैं। वे जिस तरह हर मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं और संघ, भाजपा पर तीखे हमले करते हैं! भाजपा और संघ को जवाब देना मुश्किल हो जाता है। कई बार कांग्रेस ने उनके बयानों से किनारा भी किया! पर, बयानबाजी पर अंकुश कभी नहीं लगाया! इसलिए भी कि आज पार्टी में कोई प्रवक्ता या नेता नहीं है जो तरह के तथ्यात्मक बयान देने की हिम्मत रखता हो! उन्होंने जो कहा उसपर आखरी तक अड़े भी रहे। 
  कांग्रेस फोरम में भी दिग्विजय सिंह ने अपनी बात को हमेशा दमदारी से ही रखा है। राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की सबसे पहली वकालत करने वाले दिग्विजय सिंह ही तो थे। इसके बाद ही ये माना जाने लगा था कि इस बयान के पीछे उनकी मंशा कितनी गहरी है! क्योँकि, राहुल को प्रधानमंत्री बनाने के सुझाव का विरोध तो कोई कर नहीं सकता था! अलबत्ता, पार्टी में उनके विरोधियों ने दिग्विजय सिंह पर छुपकर तीर चलाने से किनारा जरूर कर लिया! इसके साथ ही दिग्विजय सिंह राहुल गांधी के अघोषित सलाहकार भी माने जाने लगे! 
   कांग्रेस में दिग्विजय विरोधियों की कमी नहीं है। 2003 में जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस हारी थी, इस नेता खिलाफ पार्टी के भीतर जमकर विषवमन हुआ! वो ऐसा वक़्त था, जब दिग्विजय सिंह लम्बे समय तक खामोश रहे और दस साल तक खुद को मध्यप्रदेश की राजनीति से अलग कर लिया! आज ये राजनीतिक विश्लेषण का विषय हो सकता है कि दिग्विजय सिंह का वो फैसला सही था या गलत? लेकिन, ये एक तरह से पार्टी के उन नेताओं के लिए चुनौती भी थी, कि मध्यप्रदेश का मैदान खुला पड़ा है, चाहो तो कब्ज़ा कर सकते हो! पर, कोई सामने नहीं आया! यही स्थिति आज भी है। बाद के दो विधानसभा चुनाव में पार्टी ने कई प्रयोग कर लिए, कोई फ़ायदा नहीं हुआ! चाहे सुरेश पचौरी हों, कमलनाथ हों या ज्योतिरादित्य सिंधिया किसी ने भी कोई ऐसा काम नहीं किया कि भाजपा को बैकफुट पर आने के लिए मजबूर होना पड़ा हो! जबकि, इनमे से कोई भी नेता दिग्विजय सिंह से कमजोर नहीं है! फिर भी कोई प्रदेश में अपना प्रभाव बना सकने में कामयाब नहीं हुआ! एक ख़ास बात ये भी है कि दिग्विजय सिंह ने कभी पार्टी विरोधियों पर पलटवार नहीं किया! ऐसे मौके भी आए तो वे सामने नहीं आए!  
   आज, जबकि प्रदेश में कांग्रेस के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लग चुका है, सभी की उम्मीदों की आखिरी किरण दिग्विजय सिंह ही हैं। लेकिन, ये फैसला कांग्रेस हाईकमान को ही करना है कि प्रदेश में सुप्तावस्था में पड़ी पार्टी को संजीवनी देने की जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह को सौंपी जाती है, या फिर कोई नया प्रयोग किया जाता है। क्योंकि, अब वो वक़्त आ गया है, जब कांग्रेस को कोई फैसला करना ही होगा कि प्रदेश में पार्टी की भूमिका कौन तय करे? दिग्विजय सिंह या फिर कोई और?
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