बीते कुछ सालों में महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश की तरह मध्यप्रदेश के किसानों में भी आत्महत्या की प्रवृत्ति ज्यादा बढ़ी है। इन राज्यों में ज्यादातर इलाकों में किसान वर्षा जल से होने वाली सिंचाई पर निर्भर है। महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्यों के आत्महत्या करने वाले किसान नकदी फसल मसलन, कपास, सूरजमुखी, मूंगफली और गन्ना उगा रहे थे। जबकि, मध्यप्रदेश में बेमौसम बरसात और सूखे के कारण ख़राब हुई फसल के अलावा उत्पादन की बढ़ी हुई लागत के कारण किसानों को कर्ज लेना पड़ा। जब वे कर्ज न चुका पाने की स्थिति में आए तो हताशा में आत्महत्या जैसी कायरता करने को मजबूर हो रहे हैं! ऐसे में सरकार को जो कदम उठाए जाना थे, उनमें देरी की गई! संवेदना के नकली आँसू बहाए गए और नौकरशाही ने तो स्थिति की गंभीरता को मजाक ही बना दिया!
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हेमंत पाल
मध्यप्रदेश इन दिनों की किसानों की आत्महत्याओं को लेकर माहौल गरमाया हुआ है। जो घटनाएँ पहले आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में आम थी, अब मध्यप्रदेश भी उस लिस्ट में शामिल हो गया। लगातार तीन सालों से बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि और पाले से बर्बाद हो रही फसलों के कारण किसानों को राहत नहीं मिल पा रही है। यही कारण है कि वे हताशा में आत्महत्या कर रहे हैं। किसान संघ का दावा है कि मध्यप्रदेश में पिछले 6 महीने में 2200 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की! जबकि, एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो) ने भी तीन महीने पहले जारी अपने आंकड़ों में 700 किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा बताया था। इसके बाद से कई किसानों ने मौत को गले लगा लिया! सवाल उठ रहा है कि इन किसानों की मौत का जिम्मेदार कौन है? सरकार या फिर भगवान, जिसने मौसम के चक्र को इतना बिगाड़ दिया कि बारिश के मौसम में आग बरसती है।
मध्यप्रदेश में अभी तक कितने किसानों ने आत्महत्या की, इसका कोई वास्तविक सरकारी आंकड़ा सामने नहीं आया! आएगा भी नहीं, क्योंकि सरकार अपनी किरकिरी कराने लिए ऐसा कोई आंकड़ा सामने आने देना भी नहीं चाहेगी! इसका पता लगाना कठिन भी है! क्योंकि, रोज ही किसानों की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं। पर सरकार मानने को तैयार नहीं कि इन सभी किसानों ने फसल की बर्बादी के कारण ही आत्महत्या की है। किसानों की मज़बूरी को मुख्यमंत्री ने जिस गंभीरता और संवेदना लिया उससे इंकार नहीं, पर सरकार के मंत्रियों की अनर्गल बयानबाजी कम नहीं हो रही! इन मंत्रियों को आत्महत्या भी मजाक लग रही है। फिर, अफसरों ने जिस तरह मुख्यमंत्री के आदेश को हवा उड़ाया वो भी सरकारी संवेदनहीनता का सबूत है। किसानों की समस्याएं जानने के लिए गांव जाकर रात बिताने के मुख्यमंत्री के आदेश को अफसरों ने 'कैंपिंग' या 'सूखा पर्यटन' की तरह लिया! चंबल एवं बुंदेलखंड में किसानों की आत्महत्या की ख़बरें सबसे ज्यादा हैं। भिंड जिले में रोज कोई खबर आ रही है। एक कलेक्टर ने विवादित बयान तक दे दिया कि किसान ज्यादा बच्चे पैदा कर लेते हैं और उनका पालन-पोषण नहीं कर पाते हैं, तो आत्महत्या करके सरकार को बदनाम करते हैं। कांग्रेस प्रवक्ता केके मिश्रा का कहना है कि 'खुद को किसान पुत्र कहने वाले मुख्यमंत्री किसानों के प्रति कितने संवेदनशील हैं, ये अफसरों के रवैये से जाहिर हो गया! मुख्यमंत्री शाब्दिक जुगाली से किसानों को राहत देना चाहते हैं, जो संभव नहीं है।'
कहा जा रहा है कि प्रदेश सरकार अनाज उत्पादन में 'केंद्रीय-सम्मान' लेकर किसानों की बदहाली को छुपा रही है। किसानों को समय पर मुआवजा तक नहीं दिया जा रहा है। किसानों की आत्महत्या की मुख्य वजह है खेती में लगातार घाटा होना और कर्ज से दबना ही है! उधर, प्रदेश में एशियाई विकास बैंक के कर्जे से चल रहे बिजली सुधारों की स्थिति सुधरने के बजाए बिगड़ ज्यादा रही है। अनाप-शनाप बिजली के बिल और कुर्की की घटनाएं सामने आ रही हैं। किसानों की मोटर साइकल बिजली का बिल न भरने पर कुर्की वाले उठाकर ले जा रहे हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि किसानों पर ज्यादतियां किस हद तक बढ़ रही हैं। बढ़ती लागत, घटती उपज, खाद-बीज का गहराता संकट, बिजली-पानी की समस्या और उपज का वाजिब मूल्य न मिलने से किसान परेशान हैं। ऐसे में किसान विरोधी नीतियां और बेरहम बाजार के चक्रव्यूह में फंसे किसानों के पास जान देने के अलावा कोई चारा नहीं बचता! कर्ज माफी के वादों के बावजूद किसान लगातार कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। कर्ज वसूली, कुर्की की आशंका से परेशान हैं और आत्महत्या जैसे कदम उठाने पर मजबूर है। आत्महत्याएं तो कुछ किसानों ने ही की, लेकिन संकट सभी किसानों पर हैं।
किसानों की आत्महत्या को लेकर सरकार गंभीर नहीं है, ये बात नहीं! इस दिशा में देश में कई पहल हुई है। किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं को लेकर डॉ ऋतम्भरा हैब्बर (सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीजस, स्कूल ऑव सोशल साईंसेज, टीआईआईएस) द्वारा प्रस्तुत 'ह्यूमन सिक्युरिटी एंड द केस ऑव फार्मर ऐन एक्सपोलेरेशन (2007) नामक शोध के अनुसार किसानों की आत्महत्या की घटना को मानवीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से देखने की जरुरत है। अगर इस कोण से देखा जाए तो पता चलेगा कि किसानों की आत्महत्या की घटनाएं ठीक उस वक्त हुईं, जब देश के ग्रामीण अंचलों में आर्थिक और सामाजिक रुप से मददगार साबित होने वाली बुनियादी संरचनाएं ढह रही हैं। हरित क्रांति, वैश्वीकरण और उदारीकरण की वजह से ढांचागत बदलाव आए हैं! मगर अधिकारी किसानों की आत्महत्या की व्याख्या के क्रम में इन बदलावों की अनदेखी करते हैं। साधारण किसानों की आजीविका की सुरक्षा के लिए फौरी तौर पर उपाय किए जाने चाहिए थे! लेकिन, इस पहलू की उपेक्षा हुई। आत्महत्या की व्याख्या करने के क्रम में ज्यादा जोर मनोवैज्ञानिक कारणों पर दिया गया।
कुछ साल पहले 'ऑल इंडिया बॉयोडायनेमिक एंड ऑर्गेनिक फार्मिंग एसोसिएशन' ने महाराष्ट्र के जालना जिले के किसानों की आत्महत्या की खबर पर चिन्ता जताते हुए मुंबई हाईकोर्ट को एक पत्र लिखा था! इस पत्र पर संज्ञान लेते हुए कोर्ट ने 'टाटा इंस्टीट्यूट ऑव सोशल साईंसेज' को एक सर्वेक्षण करने को कहा! इस सर्वेक्षण के आधार पर कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से किसानों की आत्महत्या की घटना पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के लिए कहा। टाटा इंस्टीट्यूट ऑव सोशल साईंसेज की सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया था कि किसानों की आत्महत्या की मुख्य वजह उत्पादन लागत में हुई असहनीय बढ़ोत्तरी और कर्जदारी है। दूसरी तरफ 'इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑव डेपलपमेंट रिसर्च' (आईजीडीआर) के शोध में किसानों की आत्महत्या का संबंध सरकार या उसकी नीतियों से नहीं जोड़ा गया था! आईजीडीआर की शोध रपट में कहा गया कि सरकार को ग्रामीण विकास योजनाओं के जरिए गांवों में ज्यादा हस्तक्षेप करना चाहिए। साथ ही वहाँ गैर-खेतिहर कामों का विस्तार किया जाना चाहिए।
सीपी चंद्रशेखर और जयति घोष द्वारा प्रस्तुत एक रपट 'बर्डेन ऑव फार्मरस् डेट' में कहा गया था कि किसानों के ऊपर कर्जदारी उनकी आत्महत्या के बड़े कारणों में एक है। बच्चों की शादी-ब्याह के की वजह से लिया जाने वाला कर्ज उनकी पैदावार से होने वाली आवक से जुड़ा होता है! लेकिन, किसानों द्वारा लिए गए कुल कर्ज में इस कारण से लिए कर्ज की हिस्सेदारी अपेक्षाकृत कम (11 फीसदी) है। यानी किसानों पर जो कर्ज है वो उनकी खेत की जरुरत से ज्यादा जुड़ा है। देश के किसानों की बड़ी संख्या सूदखोरों से कर्ज लेने के लिए बाध्य होती है। इस सबके बावजूद मध्यप्रदेश जैसी सरकार की कोशिशें आग लगने पर पानी डालने जैसी ज्यादा दिखाई देती हैं। इस दिशा में जो ठोस कार्रवाई की जरुरत है, उसका भारी अभाव नजर आता है।
(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)
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