प्रदेश में आदिवासियों की बड़ी आबादी होने के बावजूद उनका राजनीतिक सशक्तिकरण के ठोस प्रयास नहीं हुए! मध्य प्रदेश की आबादी में बड़ी हिस्सेदारी (20%) आदिवासियों की है। ये वर्ग राजनीतिक उद्धार के लिए हमेशा तरसता रहा है। शायद इसलिए कि बरसों तक मध्यप्रदेश का ज़्यादातर हिस्सा सामंतों के चंगुल में रहा! इस कारण बाक़ी लोग दोहरी या तिहरी ग़ुलामी में रहे! राजा, जागीरदार और ज़मींदार अंग्रेजों के गुलाम हुआ करते थे! और उनकी ग़ुलाम यही आदिवासी और समाज की दबी-कुचली जनता थी। जिस तरह राजे, रजवाड़े अभी भी खुद को सामंती संस्कारों से मुक्त नहीं कर पाए, उसी तरह आदिवासी समाज के जहन से भी ग़ुलामी की बू नहीं गई! प्रदेश के ज़्यादातर हिस्से रजवाड़ों के अधीन थे, इस कारण समांतियों ने अपने इलाक़ों में कभी राजनीतिक चेतना को उभरने का मौका ही नहीं दिया! क्योकि, वे कोई ऐसी राजनीतिक चेतना जागृत होने ही नहीं देना चाहते थे, जो बाद में उनके सामने सर उठा सके! मध्य प्रदेश के बारे में हमेशा यह आंकड़ा सामने रखा जाता है कि राज्य की कुल आबादी का करीब 20 प्रतिशत आदिवासी हैं। सवाल यह है कि जिस मानव जाति की आबादी 1.5316 करोड़ है, क्या उन्हें अपना राजनीतिक अधिकार मिल सका है?
मध्यप्रदेश में लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीतकर सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी का रवैया भी वैसा ही रहा, जैसा कांग्रेस का था। सत्ता पर कब्जा जमाए रखने के लिए भाजपा के थिंक टैंक सक्रिय हो गए है कि कैसे आदिवासी नेताओं को बरगला कर उन्हें उलझाया जाता रहे। इन्हीं थिंक टैंकों ने सत्ता और संगठन को ऐसे कार्यक्रम को ऐसे प्लान आयोजित करने का सुझाव दिया है जिनके बहाने कांग्रेस का परम्परागत माने जाने वाले वाला वोट बैकं भाजपा से जुड़ा रहे। कुछ हद तक भाजपा अपनी इस योजना में सफल भी रही है! कांग्रेस की और झुकाव रखने वाला ये थोकबंद वोट अब भाजपा के झंडे के नीचे खड़ा है! पार्टी नेताओं की कोशिश कांग्रेस के इस परम्परागत आदिवासी वोट बैंक को अपनी तरफ खींचने की है। आदिवासी इलाकों की हालत देखकर समझा जा सकता है, कि वहां कितना और कैसा विकास हुआ है! राजनीतिक ताकत की कमी होने से ये वर्ग नौकरशाहों की झिड़की खाने को भी अभिशप्त है।
मध्य प्रदेश में आदिवासी ही नहीं दलित, पिछड़े वर्ग, महिला या अल्पसंख्यक आंदोलनों की भी कमी रही है। जब तक ये आंदोलन सशक्त नहीं होंगे, तब तक इनमें से नेतृत्व उभरकर सामने नहीं आएगा और तब तक मध्यप्रदेश में लोकतंत्र भी मज़बूत नहीं होगा! माना जाए तो इसके लिए प्रदेश की भौगोलिक स्थिति भी ज़िम्मेदार हैं। प्रदेश के किसी भी इलाके को सम्पूर्ण आदिवासी बेल्ट नहीं कहा जा सकता! इस कारण उनके नेतृत्व की आकांक्षा कमज़ोर हो गई हो! प्रदेश में जमुना देवी, शिवभानु सिंह सोलंकी और उनके पुत्र सूरजभान सिंह सोलंकी, अरविंद नेताम, उर्मिला सिंह, दिलीप सिंह भूरिया, कांतिलाल भूरिया, फग्गन सिंह कुलस्ते जैसे आदिवासी नेता हुए हैं! शिवभानुसिंह सोलंकी और जमुना देवी तो अच्छे पद तक पहुंचे! वहीं कांतिलाल भूरिया केंद्र में मंत्री और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हैं। इनके अलावा आदिवासियों में अभी तक ऐसा कोई नेता नहीं हुआ जो अपना वजूद बना सका हो। ये भी दुर्भाग्य है कि आदिवासी समाज से अगर कोई बड़ा नेता बनता भी है, तो वो उन लोगों को भूल जाता हैं, जिनके दम पर चुनाव जीतकर आया हैं! फिर ये ऊपर की राजनीति करने लगते हैं! इसके लिए काफी हद तक सिर्फ़ आदिवासी नेता ही ज़िम्मेदार हैं। कांग्रेस ने ढेरों वादों के बावजूद मध्यप्रदेश में आत्मनिर्भर आदिवासी राजनीतिक नेतृत्व को कभी उभरने नहीं दिया! कुछ उभरे भी तो उन आदिवासी नेताओं को आत्मसात कर लिया!
मध्यप्रदेश में आदिवासियों और दलितों में कोई तालमेल न होना भी इस वर्ग के राजनीतिक दोहन एक बड़ा कारण है! जिससे यहां कोई संयुक्त आंदोलन नहीं उभर पाया! आदिवासियों के अलावा मध्य प्रदेश में दलित आंदोलन भी उभरकर सामने नहीं आ सका! जबकि, इसके पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में दलित आंदोलन ने जड़ें पकड़ी हैं और साल 2007 में मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी ने अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल किया।
मध्यप्रदेश में आदिवासियों के नाम पर तो सभी दल अपनी राजनीति तो चमकाते रहे हैं! लेकिन जब भी प्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने की मांग उठती है तो नेता उसे अनसुनी करके टाल जाते हैं। प्रदेश के आदिवासी नेता भी चाहते हैं कि प्रदेश में किसी आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए, लेकिन, उनकी सुनता कौन है! एक मौका शिवभानुसिंह सोलंकी को मिला जरूर था, लेकिन तब अर्जुन सिंह प्रदेश के मुखिया बन गए! देखा जाए तो मध्यप्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग सही भी है। 50 में से 20 जिले आदिवासी बहुल हैं। राज्य में डेढ़ करोड़ आदिवासी हैं। 47 विधानसभा और 6 लोकसभा क्षेत्र आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं! इस स्थिति में किसी आदिवासी का मुख्यमंत्री बनाया जाना कहाँ गलत होगा? आदिवासियों की सत्ता में भागीदारी भी लगातार बढ़ रही है।
मध्यप्रदेश की राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि यहां आदिवासी नेतृत्व तेजी से उभरता है और फिर अचानक गायब हो जाता है। अपनी संख्या बढ़ाने के लिए राजनीतिक दल आदिवासियों को मौका देते हैं, लेकिन मुख्यधारा की राजनीति तक पहुंचने से पहले ही उसके पर कतर दिए जाते हैं। आदिवासी नेता भी इस बात का आरोप लगाते रहे हैं कि उन्हें मुख्यधारा से गायब किया जा रहा है। हालांकि, कांग्रेस ने आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया को पार्टी की कमान सौंपी भी थी! शिवराज सिंह के मंत्रिमंडल में भी आदिवासी चेहरे हैं, फिर भी अभी तक जैसा सशक्त नेतृत्व उभरकर सामने आना चाहिए था, वह नहीं आ पाया! लगता भी नहीं कि कोई राजनीतिक दल आदिवासियों को उनका जायज हक़ देगा! इसके लिए उन्हें खुद ही सड़क पर आना होगा।
मध्यप्रदेश में आदिवासियों की उपेक्षा का ही नतीजा है कि प्रदेश में पृथक गौंडवाना राज्य की मांग उठी थी। दो दशक पहले आदिवासियों के उत्थान के नाम पर गठित 'गौंडवाना गणतंत्र पार्टी' ने अलग गौंडवाना राज्य की मांग उठाकर आदिवासियों को उद्वेलित जरूर किया था, पर इसका कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिला! आदिवासी बाहुल्य मध्यप्रदेश में आदिवासियों के उत्थान के लिए सन् 1991 में हीरासिंह मरकाम ने गौंडवाना गणतंत्र पार्टी का गठन किया था। आदिवासियों के विकास का नारा बुलंद किया था इसलिये इसे उन इलाकों में अच्छी लोकप्रियता मिली जो आदवासी बाहुल्य जिले कहे जाते थे धीरे-धीरे 'गौडवाना गणतंत्र पार्टी ने आदिवासियों के बीच अपनी ताकत बढ़ानी शुरू की और इतनी ताकत पैदा कर ली कि उसके संस्थापक हीरासिंह मरकाम कोरबा के तानापार जो अब मध्यप्रदेश के विभाजन के बाद छत्तीसगढ में है से मध्यावधि चुनाव जीतकर विधायक भी बन गए। लेकिन, ये किस्सा अब पुराना गया! मध्यप्रदेश में यदि आदिवासियों को अपनी ताकत के अनुरूप राजनीतिक हैसियत पाना है, तो उन्हें खुद ही पाने हक़ के लिए संघर्ष करना पड़ेगा! क्योकि, राजनीति में किसी को बिना मांगे कभी कुछ नहीं मिलता है और ना मिलेगा!
---
No comments:
Post a Comment