आज यदि किसी से सवाल किया जाए कि इंदौर का नेता कौन है? तो शायद सोचना पड़ेगा कि किसका नाम लिया जाए? क्योंकि, शहर में भाजपा के चार विधायक होते हुए भी किसी का पूरे शहर पर प्रभाव नहीं लगता! कैलाश विजयवर्गीय के पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनने और दिल्ली चले जाने से शहर में राजनीतिक खालीपन नजर आने लगा है। आठ बार की सांसद और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने वोटों की गिनती से जीत का रिकॉर्ड बनाया हो, पर उन्होंने कभी खुद को इंदौर के जनप्रतिनिधि के रूप में नहीं उभारा! आज भी इंदौर के आम लोगों से सांसद का जुड़ाव या जीवंत संपर्क नहीं है। भाजपा के शहर अध्यक्ष कैलाश शर्मा को तो ज्यादातर लोग चेहरे से भी नहीं जानते! कुछ ऐसी ही स्थिति कांग्रेस में भी है।
कहने को प्रमोद टंडन शहर अध्यक्ष हैं, पर वे भी कहने को! उनका ज्यादातर वक़्त और ऊर्जा अपनी ही पार्टी में खुद को विरोधियों से बचाने में ही खर्च होता है। ऐसे माहौल में नौकरशाही का ताकतवर होना स्वाभाविक है।
राऊ क्षेत्र से कांग्रेस के विधायक जीतू पटवारी हैं, पर उनकी सक्रियता को गिनती में नहीं लिया जा सकता! क्योंकि, वो पूरी तरह प्रायोजित होती है। उनके धरने, प्रदर्शनों से कोई राजनीतिक हलचल नहीं होती!
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हेमंत पाल
इंदौर में पिछले कुछ महीनों से अजीब सा राजनीतिक सन्नाटा है। ये सन्नाटा मातमी जैसा है। कहीं कोई सुगबुगाहट या हलचल नजर नहीं आ रही! ये हालत दोनों ही पार्टियों में है। प्रदेश में भाजपा की सरकार है, पर कोई नेता अपनी सक्रियता दिखाने को आतुर नहीं लगता। शहर में कहने को भाजपा के चार विधायक हैं, पर कहीं कोई हलचल नहीं! अभी किसी तूफान का भी अंदेशा नहीं, कि उससे पहले या बाद के सन्नाटे का अनुमान लगाया जाए! स्पष्ट कहा जा सकता है कि इससे पहले शहर में जो राजनीतिक हलचल दिखाई देती थी, उसका कारण सिर्फ कैलाश विजयवर्गीय थे। उनके इंदौर से जाने के बाद शहर की राजनीतिक जीवंतता को ग्रहण सा लग गया!
कोई एक नेता किसी शहर को कितना चैतन्य रख सकता है, ये कैलाश विजयवर्गीय के दिल्ली चले जाने के बाद इंदौर को महसूस हुआ है। उनके पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनने और मंत्री पद छोड़ देने के बाद शहर में राजनीतिक सुप्तता जैसी स्थिति है। इसलिए कि बाकी के चारों भाजपा विधायक सुदर्शन गुप्ता, उषा ठाकुर, महेंद्र हार्डिया और रमेश मेंदोला अपने-अपने इलाकों तक सीमित हैं।
कैलाश विजयवर्गीय ने पिछले दो दशक से ज्यादा समय से इंदौर में अपनी राजनीतिक चातुर्यता से यहाँ की नब्ज को कब्जे में रखा! उनके काम करने और संपर्कों की शैली भी ऐसी है कि किसी को कभी नहीं लगा कि वे पार्टी और सरकार में बड़ा असर रखते हैं। वे जिस भी राजनीतिक या अराजनीतिक कार्यक्रम में होते हैं, माहौल बना देते हैं। उनके रहते लोगों को कभी किसी नेता की कमी महसूस नहीं हुई। अब जरूर लोग ये मानने लगे हैं कि शहर में राजनीतिक रिक्तता आ गई है। कैलाश विजयवर्गीय की कमी खलने का एक कारण ये भी कि लोगों के सामने अब कोई ऐसा नेता नहीं है, जो उनकी निजी समस्याओं को निपटने में उनकी मदद कर सके! अभी जो नेता इंदौर में हैं, उनसे लोगों के संतुष्ट न हो पाने के अलग-अलग कारण हैं। किसी नेता के मिल न पाने से लोग नाराज हैं, कोई लोगों की समस्याएं सुनने में रूचि नहीं लेता तो कुछ नेता ऐसे भी हैं, जो हमेशा हमेशा अपने गुर्गों से ही घिरे रहते है!
दो-ढाई दशक पहले तक कैलाश विजयवर्गीय का कार्यक्षेत्र (विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-2) इंदौर के सबसे पिछड़े इलाकों में था। परदेशीपुरा, नंदानगर, क्लर्क कॉलोनी, सुखलिया और मालवा मिल, कल्याण मिल को इंदौर की पॉश कॉलोनी में रहने वाले लोग बैकवर्ड एरिया कहते थे। इस बात से विजयवर्गीय अनभिज्ञ नहीं थे! उन्हें पता था कि मिल मजदूरों वाले उनके कार्यक्षेत्र से इंदौर के लोग कटकर रहते हैं। एक चुनावी सभा में विजयवर्गीय ने कहा भी था कि यदि में चुनाव जीता तो लोग खरीददारी के लिए राजबाड़ा जाना भूल जाएंगे! आज वो स्थिति आ भी गई! उन्होंने इस इलाके की कमान सँभालते ही पहला काम ये किया कि परदेशीपुरा, नंदानगर और पाटनीपुरा जैसे इलाके को व्यावसायिक रूप देना शुरू किया! धीरे-धीरे इस इलाके में व्यावसायिक गतिविधियाँ आकार लेने लगी! आज यहाँ सभी बड़े ब्रांड्स के शोरूम और दुकानें हैं। इंदौर के सराफा बाजार जैसी यहाँ सोने-चाँदी की कई बड़ी दुकानें हैं। अपने इलाके का चेहरा बदलने की कोशिश को सिर्फ राजनीति नहीं कहा जा सकता! कुछ मायनों में ये राजनीति तो थी, पर उसके पीछे दूरदृष्टि थी! जिस परदेशीपुरा के लोगों को अपना पता बताने में संकोच होता था, आज उन्हें वही पता बताने में फख्र होता है। दरअसल, ये एक नेता का स्तुतिगान नहीं, उनकी उस राजनीतिक शैली की बानगी है जिसका बाकी नेताओं में घोर अभाव नजर आता है। लेकिन, उनकी इस कार्य शैली की सराहना करने वाले कम, आलोचक ज्यादा हैं!
यदि बात कांग्रेस की राजनीति की जाए तो इंदौर में महेश जोशी और कृपाशंकर शुक्ला ने जिस तरह की राजनीति की है, वो कोई दूसरा नहीं कर सका! इन दोनों नेताओं ने दमदारी से शहर में बरसों तक कांग्रेस को एक सूत्र में बाँधे रखा! चुनावी राजनीति में ये दोनों नेता बहुत ज्यादा सफल भले ही न हो सके हों, पर शहर में कांग्रेस की मौजूदगी इनके कारण ही नजर आती रही! महेश जोशी ने अब अपने आपको राजनीति से अलग ही कर लिया, पर कृपाशंकर शुक्ला आज भी हर राजनीतिक और सरकारी आयोजनों में दिख जाते हैं। आज भी उनकी आवाज में वो खनक मौजूद है, जो किसी और नेता में नहीं! इसके बाद कोई नेता इस ऊँचाई पर नहीं पहुँचा! इसका कारण था कि कांग्रेस गुटों में बाँट गई और क्षत्रपों ने कमान संभालकर घर की फ़ौज मारना शुरू कर दी! आज स्थिति यह है कि पार्टी के हर कार्यक्रम में पार्टी टुकड़ों में बंटी नजर आती है। हो सकता है भाजपा में राजनीतिक सन्नाटा अस्थाई हो, पर कांग्रेस तो अब हमेशा ही इस स्थिति को भोगने अभिशप्त है! इसलिए कि पार्टी में कोई नया नेतृत्व उभर नहीं पा रहा है, और जो बचे हैं वो भी किनारे होने लगे!
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(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक' हैं)
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