हेमंत पाल
सामाजिक स्थिति, नए संदर्भ और जीवन से जुड़े हर पहलू को हिन्दी फिल्मों ने अपने अपने तरीके से छुआ है। जिन फ़िल्मी विषयों ने दर्शकों में भावनाओं के रंग भरे, उनमें से एक है देशभक्ति! ब्लैक एंड व्हाइट से लगाकर आज मल्टीप्लेक्स फिल्मों के ज़माने तक देशभक्ति सबसे जीवंत विषय की तरह उपयोग किया जाता रहा है। आजादी के बाद बनी फिल्मों में आजादी का संघर्ष और स्वतंत्रता सैनानियों पर केंद्रित फ़िल्में ज्यादा बनती रही! इन फिल्मों ने ही नई पीढ़ी को आजादी के नायकों की कुर्बानी का अहसास कराया! साथ ही यह संदेश भी दिया कि जीवन में मातृभूमि सर्वोपरि है। लेकिन, अब देशभक्ति को कई नए संदर्भों में परोसा जा रहा है। फिर वो बॉर्डर हो, लक्ष्य हो, एलओसी कारगिल, रंग दे बसंती हो या कुछ साल पहले आई रिचर्ड एटिनबरो की 'गाँधी!' इन सभी फिल्मों की कहानी का केंद्रीय तत्व देशभक्ति ही रहा!
देशभक्ति जैसे विषय पर आधारित सबसे ज्यादा फ़िल्में 1940 से 1960 के बीच बनी! भारत छोड़ो आंदोलन पर 1940 में ‘शहीद’ आई। इस फिल्म के गीत ‘वतन की राह पे वतन के नौजवां शहीद हों’ को मोहम्मद रफी और खान मस्ताना की आवाज ने अमर कर दिया! आज भी जब कोई इस गीत को सुनता है तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं! 1950 में बनी ‘समाधि’ में सुभाषचंद्र बोस के आह्वान पर अशोक कुमार को उनकी सेना में शामिल होते दर्शाया गया! अशोक कुमार सिंगापुर पहुंचते हैं, जहां सामने ब्रिटिश सेना की तरफ से उनका बड़ा भाई उनसे युद्ध करता है। 1951 में बनी ‘आंदोलन’ में बापू का सत्याग्रह, साइमन कमीशन, वल्लभभाई पटेल का बारदोली आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन दिखाया गया था। 1952 में ‘आनंदमठ’ आई, जिसमें लता मंगेशकर का गाया ‘वन्दे मातरम’ लोकप्रिय हुआ।1953 में सोहराब मोदी ने ‘झांसी की रानी’ बनाकर स्वतंत्रता संग्राम को जीवंत कर दिया था।
बॉलीवुड में देश भक्ति की फिल्मों का दूसरा दौर आया 1990 और 2000 के दशक में! इस दौरान देश भक्ति को लेकर कई फिल्में बनी! हिंदी फिल्म उद्योग ने इस दौरान बॉर्डर, एलओसी कारगिल, द लीजेंड ऑफ भगत सिंह और द राइजिंग : बेस्ड ऑफ मंगल पांडेय जैसी कई फिल्में बनाईं! इन सभी की कहानी आजादी के सैनानियों और युद्धों पर आधारित थीं। इन फिल्मों की सफलता से समाज में आ रहे उस बदलाव का पता चलता है कि दर्शक अपने आसपास के सामाजिक विषयों को नए संदर्भों में देखना चाहता हैं। जिस तरह से नई पीढ़ी का सोच बदल रहा है, देशभक्ति दर्शाने के तरीकों में बदलाव आना लाजिमी है। जेपी दत्ता ने 'बॉर्डर' में जो देश भक्ति दिखाई वो तत्कालीन परिस्थितियों में इसलिए जरुरी थी कि उस दौर में पाकिस्तान सबसे कट्टर दुश्मन था। फिर एक देशभक्ति 'रंग दे बसंती' वाली थी, जिसमें युवाओं में भरे देश प्रेम की भावना थी। फिल्म में युवा एक भ्रष्ट नेता को मार देते हैं। आशय ये कि समय के साथ-साथ फिल्मों में देशभक्ति का एक नया रूप सामने आने लगा है, जरुरत है इसे दर्शाने की!
आमिर खान ने 2005 में देश के 1857 के पहले स्वतंत्रता विद्रोह और इसके नायक मंगल पांडे पर फिल्म बनाई। इंटरनेट की दुनिया में जी रही नई पीढ़ी ने फिल्म देखकर ही जाना कि मंगल पांडे ने कैसे ब्रिटिश फौज से मुकाबला किया और खुद को खत्म करने की कोशिश की? इस पीढ़ी में से ज्यादातर लोग शायद फिल्म से पहले मंगल पांडे को इस रूप में जानते भी नहीं होंगे। आमिर की ‘मंगल पांडे’ ने ही युवाओं को अहसास कराया कि जिस आजादी में वे उन्मुक्तता से सांस ले रहे हैं, वह उन्हें मंगल पांडे जैसे लोगों से ही मिली है। आजादी के संघर्ष में शहीद होने वाले रिश्तों में तो हमारे अपने नहीं होंगे! लेकिन, इनकी अहमियत को महसूस कराने में फिल्मों की भूमिका अहम थी!
देशभक्ति पर बनी फ़िल्में अपने प्रासंगिक विषय के कारण ही पसंद नहीं की जाती! इसके किरदार भी फिल्मों की तरह दर्शकों के दिल में बस जाते हैं। चाहे वह 'शहीद' और 'पूरब पश्चिम' में मनोज कुमार हों, 'हिन्दुस्तान की कसम' में राजकुमार हों, 'सरफरोश' में आमिर खान हों, लक्ष्य' में रितिक रोशन हो या 'लीजेंड ऑफ भगत सिंह' में अजय देवगन! इस तरह की फिल्मों ने युवाओं में सेना में शामिल होने का जज्बा भी सिखाया! 1970 मनोज कुमार ने 'पूरब और पश्चिम' बनाकर जो देशभक्ति दिखाई, उसके बाद मनोज कुमार को दर्शक इसी रूप में पहचानने लगे! अपनी इसी पहचान के बाद मनोज कुमार ने उपकार, क्रांति, रोटी कपडा और मकान जैसी कई हिट फिल्में दीं। इसके बाद ही उन्हें `मिस्टर भारत` कहकर पुकारा जाने लगा! अभी भी देशभक्ति का छोंक लगाकर फ़िल्में बनाने का दौर खत्म नहीं हुआ! चक दे इंडिया, रंग दे बसंती, लक्ष्य इसी श्रेणी फ़िल्में हैं।
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