Sunday, August 7, 2016

बदलते फॉर्मूलों के बीच दोस्ती बरक़रार


हेमंत पाल 

  'दोस्ती' की कहानियों पर बनने वाली फ़िल्में एक तरह से फिल्मकारों के लिए बिकाऊ फार्मूला रहा है। बॉलीवुड में सबसे ज्यादा डिमांड भी ऐसे फॉर्मूले की रही! एक फिल्म हिट होते ही, उसके आसपास नई कहानियाँ गूँथी जाने लगती है! प्यार में धोखा, खून का बदला खून, प्रेम त्रिकोण, भाइयों का बिछुड़ना और फिर मिलना, दोस्ती में ग़लतफ़हमी और फिर त्याग! ये ऐसे हिट फॉर्मूले हैं जो फिल्मकारों को हमेशा रास आते रहे हैं। इनमें 'दोस्ती' का फार्मूला हर समयकाल में दर्शकों को रास आता रहा। 1964 में बनी राजश्री की फिल्म 'दोस्ती' को अपने समय की सबसे हिट फिल्म माना जाता है। उसके बाद तो दोस्ती की मिसाल वाले इस विषय को कई बार घुमा फिराकर परोसा जाता रहा! हर दौर में दोस्ती की भावना को नए-नए तरीकों से पेश किया गया! जिनमें दोस्त, शोले, चुपके-चुपके, नमक हराम, हेराफेरी, शान, सुहाग, मुकद्दर का सिकंदर, राम-बलराम, दोस्ताना, सौदागर, खुदगर्ज, दिल चाहता है, जिंदगी ना मिलेगी दोबारा, रंग दे बसंती, काई पो चे और चश्मे बद्दूर शामिल हैं।
   अमिताभ बच्चन के स्वर्णकाल की ज्यादातर फिल्मों का केंद्रीय विषय भी दोस्ती ही रहा! अमिताभ ने कई फिल्मों में दोस्ती की भावना पेश की! फिर वो चाहे जंजीर, शोले, नमक हराम, हेराफेरी, शान, सुहाग, दोस्ताना हो या मुकद्दर का सिकंदर! याद कीजिए अमिताभ के साथ हर फिल्म में कोई दोस्त जरूर रहा है। निजी जीवन में अमिताभ और विनोद खन्ना के बीच अच्छी दोस्ती के बारे में कभी पढ़ा नहीं गया, लेकिन परदे पर इन दोनों ने कई बार दोस्ती को जीवंत किया! इनमें हेराफेरी, मुकद्दर का सिकंदर जैसी फिल्में शामिल हैं। 'दोस्ताना' में शत्रुघ्न सिन्हा के साथ अमिताभ की दोस्ती मिसाल के रूप में याद की जाती है। 1975 की बनी 'शोले' में जय और वीरू की दोस्ती के जज्बे को बेहद खूबसूरती से दर्शाया गया! इस जोड़ी ने बाद में ‘चुपके-चुपके’ और ‘राम बलराम’ जैसी फिल्मों में भी दोस्ती दिखाई! 
  राजेश खन्ना के साथ अमिताभ ने ‘नमक हराम’ में दोस्ती को जीवंतता दी! शशि कपूर के साथ ईमान धरम, शान और सुहाग में अमिताभ ने यही दोस्ती निभाई! धर्मेंद्र भी उन कलाकारों में हैं, जिन्होंने कई एक्टर्स के साथ दोस्ती का किरदार अदा किया। धर्मेंद्र की दोस्ती शत्रुघ्न सिन्हा और विनोद खन्ना के साथ कई बार बनी! इसके बाद अनिल कपूर-जैकी श्रॉफ, अक्षय कुमार-सुनील शेट्टी और संजय दत्त-गोविंदा की दोस्ती पर कई फ़िल्मी कहानियाँ बनी! 1991 में सुभाष घई ने फ़िल्मी दुनिया के दो दिग्गजों दिलीप कुमार और राजकुमार को दोस्ती की डोर में बांधा और ‘सौदागर’ बनाई! इस फिल्म को भी दोस्ती के लिहाज से श्रेष्ठ फिल्म कहा जा सकता है। 
   बीच में एक दौर ऐसा भी आया, जब दोस्ती में प्यार का तड़का लगने लगा! दो दोस्तों की दोस्ती के बीच एक लड़की आ जाती है! फिर या तो गलतफहमी पनपती है या प्रेम त्रिकोण बन जाता है! क्लाइमैक्स में या तो ग़लतफ़हमी दूर हो जाती है या फिर एक दोस्त का त्याग सामने आता है! लड़की के कारण दोस्तों में टकराव का ये चलन शायद राज कपूर, राजेंद्र कुमार की फिल्म 'संगम' फिल्म से शुरू हुआ था। जो भी हो, फिल्म का अंत सुखांत ही होता रहा। याद किया जाए तो ऐसी फिल्मों की कमी भी नहीं! लेकिन, प्रयोग के तौर पर हाल ही में कुछ ऐसी फ़िल्में भी बनाई गई जिनमें दोस्ती तो थी, पर फिल्म का केंद्रीय विषय कुछ और ही था! थ्री इडियट्स, दिल चाहता है, जिंदगी ना मिलेगी दुबारा, रंग दे बसंती, कुछ कुछ होता है, दिल तो पागल है और चश्मे बद्दूर! इन फिल्मों ने दर्शकों को दोस्ती के कई नए रंग दिखाए!  
  आज की कुछ फिल्मों का कैनवास दोस्तों के सपनों के साथ उनके आंतरिक टकरावों पर भी फोकस रहा! कहीं विचारों में मतभेद होने के बावजूद दोस्त एक-दूसरे का नजरिया समझने की कोशिश करते हैं। कहीं अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक हालात वाले दोस्त एक सपने के साथ आगे बढ़ते हैं और टीम बनाकर उसे पूरा करते हैं। यही कारण है कि अब दोस्ती और विचारधारा के बदलाव की कहानियों पर भी फ़िल्में बनने लगी है। दोस्ती के बहाने कुछ अलग ढंग की कहानियाँ भी कही जा रही है। ये फ़िल्में बताती है कि जीवन में खुद से बात करना, अपने सपनों से बात करना और दोस्तों से सपनों को शेयर करना कितना जरूरी है। दोस्ती में सपनों के साथ उनके टकरावों की कहानी भी कुछ फिल्मों की कथावस्तु रही है। लेकिन, दोस्तों के बीच टकराव कही भी इतने बड़े नहीं होते कि वो पूरी दोस्ती को प्रभावित कर दें। 
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