हेमंत पाल
समाज के प्रति फिल्मकारों की कोई जिम्मेदारी होगी, ऐसा नहीं लगता! फिल्मकारों की सबसे बड़ी ताकत उनकी सिनेमाई स्वंतत्रता है। इस स्वंतत्रता का मतलब है अपनी मर्जी के अनुरूप फिल्में बनाने और उसे दर्शकों तक पहुंचाने की! भले ही दर्शक उन्हें नकार दें! आशय यह कि स्वतंत्रता पर स्वच्छंदता हावी है! यही स्वच्छंदता आजकल फिल्मों में गालियों, सेक्स दर्शना दृश्यों, हिंसा, भौंडी कॉमेडी और गैर जरुरी आक्रोश के रूप में दिखाई दे रही है। फिल्मों में जो आक्रोश दिखता है उनमें कोई स्पष्ट उद्देश्य या वैचारिक आस्था नहीं होती! वो सिर्फ आक्रोश होता हैं। इस आक्रोश का कोई सामाजिक आधार भी नहीं होता और न कोई जिम्मेदारी होती है। जबकि, श्याम बेनेगल, केतन मेहता, गोविन्द निहलानी और प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की फिल्मों में, जिन्हें कला फिल्में या समानांतर फिल्में कहा जाता था, आक्रोश का एक सामाजिक और वैचारिक आधार होता था! लेकिन, कला या समानांतर फिल्मों ने अपना जनाधार को खो दिया! क्योंकि, माना गया कि अतिशय-यथार्थवाद के कारण ये फिल्में दर्शकों से दूर होती गईं। दर्शकों को जब ये फिल्में बोझिल लगने लगीं, तो इनमें पैसे लगाने वाले पीछे हटते गए और कला फिल्में इतिहास में चली गईं!
फिल्म में आक्रोश को व्यक्त करना बहुत आसान है! क्योंकि, उसमें यथार्थ को जस का तस रख देना होता है। लेकिन, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक या धार्मिक विसंगति या मुद्दों पर फिल्में बनाना मुश्किल काम होता है। 70 और 80 के दशक में फिल्मकारों ने समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझकर फिल्में बनाईं! पुराने दौर को देखें तो महबूब खान, हृषिकेश मुखर्जी, वासू चटर्जी, शक्ति सामंत, वी. शांताराम जैसे फिल्मकारों की फिल्मों में कला और व्यवसाय में जो संतुलन और सार्थक मिलन दिखता था, जाहिर है, उसे पाना आसान नहीं था। मौजूदा फिल्मों की एक और जमात हैं, जिनका सामाजिक सरोकार अलग ही है! लेकिन, उनकी फिल्में समाज की किसी न किसी सामाजिक, पारिवारिक विसंगति की ओर लोगों का ध्यान जरूर खींचती हैं। ये फिल्मकार स्वतंत्र हैं, स्वच्छंद नहीं! इनकी फिल्मों को दर्शक पसंद भी करते हैं। ओएमजी, मुन्ना भाई एमबीबीएस, लगे रहो मुन्ना भाई, थ्री इडियट्स, रंग दे बसंती, नो वन किल्ड जेसिका जैसी कई फिल्में ऐसी हैं, जिन्होंने अपने समय के महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए और कमाई के रिकॉर्ड भी तोड़े!
फिल्मों में कला और व्यवसाय के बीच तालमेल होना बहुत जरुरी है। इसलिए कि फिल्मों का मूल मकसद मनोरंजन होता है। दर्शक मनोरंजन के लिए ही पैसे खर्च करके सिनेमाघर तक आते है। उन्हें समाज शास्त्र का कोई ज्ञान फिल्मों से कतई नहीं चाहिए! यदि चाहिए भी तो वे फिल्मों से नहीं लेंगे! लेकिन, फिल्मों से मनोरंजन कैसा हो, ये भी एक बड़ा सवाल है! फूहड़ हास्य और अश्लील दृश्यों से भरी कोई फिल्म मनोरंजन नहीं कर सकती! जैसे ग्रैंड मस्ती, लीला, वन नाईट स्टैंड और मस्तीजादे! फिल्मों का मनोरंजन ऐसा हो जो दर्शकों की संवेदनाओं को झकझोर दे! किसी भी फिल्मकार की एक बड़ी जिम्मेदारी यह होती है कि वह समाज को बेहतर दिशा दे! नैतिकता के स्तर को ऊपर उठाने में और बच्चों को बेहतर मूल्य की समझ देने में भूमिका अदा करे! लेकिन, आज के दौर में तथाकथित कला फिल्में या आक्रोशित करने वाली फिल्में या सेक्स कॉमेडी बनाने वालों का तर्क यह रहा है कि फिल्मकारों का काम संदेश देना नहीं है, सिर्फ फिल्में बनाना है। अगर उनकी फिल्मों में अत्यधिक सेक्स, हिंसा, अश्लीलता या संबंधों की विसंगतियां दिखती हैं तो इसके लिए वे नहीं, बल्कि समाज दोषी है, क्योंकि समाज में यह सब होता है और वे समाज से ही अपनी कहानियां उठाते हैं!
फिल्मकारों को इस बात की स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वे किस तरह की फिल्म बनाना चाहते हैं! इसमें कुछ गलत भी नहीं, पर स्वतंत्रता का दुरूपयोग नहीं होना चाहिए! दुर्भाग्य से हमारी फिल्म इंडस्ट्री का अर्थशास्त्र बड़ी और मसालेदार फिल्मों को ही समर्थन देता है। ये भी सही है कि छोटी और सार्थक फिल्में देखने के इच्छुक दर्शकों का एक बड़ा समुदाय है। आज सार्थक और समाज को प्रेरित करने वाली फिल्मों के दर्शकों की संख्या अनगिनत है। लेकिन, इनकी अनदेखी करके मनोरंजन के बहाने फूहड़ता परोसना किसी भी नजरिए से ठीक नहीं है। लेकिन, फ़िल्मी स्वतंत्रता को स्वछंदता नहीं बनने दिया जाना चाहिए। व्यावसायिकता की दौड़ में भी फिल्मकारों को अपनी जिम्मेदारियों को नहीं भूलना चाहिए!
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