Friday, February 24, 2017

तीन धाराओं से जनसैलाब बनने और बंटने का सबब

- हेमंत पाल

  गुटबाजी और कांग्रेस का चोली-दामन का साथ है। जब भी कांग्रेस मध्यप्रदेश में अपने प्रतिद्वंदी के खिलाफ कमर कसने की कोशिश करती है, पार्टी की सेना अपने तीन क्षत्रपों के पीछे कतारबद्ध हो जाती है। पार्टी का झंडा भले एक है, पर धाराएं तीन है। इस बार भी कांग्रेस इस सबसे मुक्त नहीं हो सकी! राजधानी में भाजपा सरकार के खिलाफ हुए पार्टी के प्रदर्शन के दौरान भी गुटबाजी उभरकर सामने आई! गुटबाजी को पाटने की कोशिशें भी हुई, पर नेताओं के बीच की दरार छुप नहीं पाई! चार साल बाद प्रदेश कांग्रेस ने पार्टी को भाजपा के खिलाफ एकजुट दिखाने के लिए कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया सहित पार्टी के सभी बड़े नेताओं को एक मंच पर लाने की कोशिश तो की! लेकिन, यहाँ भी सारा शक्ति प्रदर्शन गुटों में बंटकर रह गया। बैनर, पोस्टर और नारे भी कांग्रेस के बजाए नेताओं के नाम से लगे। तीन नेताओं की तीन धाराओं में बंटी पार्टी यदि एकजुट प्रयास करे, तो भाजपा को चुनौती देना मुश्किल नहीं है। लेकिन, ऐसा हो नहीं पा रहा! इस आंदोलन में पार्टी ने भीड़ तो जुटा ली, पर अपनी एकजुटता नहीं दिखा पाई, जिसकी सबसे ज्यादा जरुरत है!

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  मध्यप्रदेश में कांग्रेस तीन धाराओं में विभक्त है। नदियों की तरह ये तीन धाराएं दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की जटाओं से निकलकर पूरे प्रदेश में बहती है। जब कभी पार्टी को जरुरत पड़ती है, ये धाराएं बहकर एक जगह इकठ्ठा हो जाती हैं और पार्टी का जनसैलाब बना देती है, जो कांग्रेस की ताकत के रूप में सामने आता है। भोपाल का आंदोलन भी इन धाराओं के कुछ समय के लिए एक होने का उदाहरण था। जिस दिन ये तीनों धाराएं कांगेस के झंडे के नीचे एक हो जाएंगी, किसी भी सरकार की जड़ों को उखाड़ना मुश्किल नहीं होगा! लेकिन, ऐसा हो नहीं रहा! तीनों नेता पार्टी मंच पर तो कई बार साथ दिखे, इनके दल भी मिले पर दिल नहीं! कांग्रेस नेतृत्व भी इन तीनों को एक जाजम पर बैठा पाने में सफल नहीं हो पा रहा! राजधानी में भी नेताओं के साझा प्रयास से पार्टी ने एकजुटता का प्रदर्शन तो किया, पर जब तक ये तीन धाराएं एक-दूसरे में समाहित नहीं होंगी, डेढ़ दशक से जमी जड़ों को हिला पाना आसान नहीं है।     
   भोपाल में कांग्रेस के हल्लाबोल की शुरुआत भी इन नेताओं की आपसी गुटबाजी से हुई! प्रदेशभर से पार्टी कार्यकर्ताओं राजधानी लाने की तैयारी भी अलग-अलग की गई! सीधे से कहा जाए तो तैयारी में भी गुटीय राजनीति हावी रही। कार्यकर्ताओं को कांग्रेसी न मानकर कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह गुटों में बांटकर देखा गया! उसी नतीजा था कि आंदोलन के दौरान इन कार्यकर्ताओं ने भी अपने नेता के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई! सिंधिया और कमलनाथ के समर्थकों ने अपने नेता को बड़ा दिखाने के लिए उनके पक्ष में नारेबाजी करके अपनी ताकत का प्रदर्शन किया। जो नारे पार्टी के लिए लगना थे, वे कमलनाथ और सिंधिया के जयकारे में लगे! इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कांग्रेस किस राह पर है और उसकी दिशा क्या है? दिल्ली से आए कुछ नेताओं ने कार्यकर्ताओं को किसी एक पक्ष में नारे लगाने से रोका भी! पर, तब तक इस जनसैलाब के दिलों में पड़ी दरार उभर चुकी थी। ऐसे में समझा जा सकता है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव पर क्या बीती होगी! उनका आत्मविश्वास किस हद तक डोला होगा और इस सबसे क्या पार्टी की नींव मजबूत हुई होगी? 
  राजधानी में आंदोलन के लिए लगे बैनरों और पोस्टरों में भी ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ छाए थे। अख़बारों में पार्टी आंदोलन का आह्वान करने के लिए जो विज्ञापन छपे वे भी पार्टी को कम, नेताओं का महिमा मंडन करते ज्यादा लगे! यही वो संकेत है, जो पार्टी की रणनीति और भविष्य संकेत है। तीन नेताओं की इस तिकड़ी में अबकी बार दिग्विजय सिंह खेमा कमजोर लगा। नारेबाजी में भी उनके समर्थकों की आवाज दबी रही! बैनरों, पोस्टरों में भी दिग्गी राजा का चेहरा नजर नहीं आया। प्रदेशभर से आने वाले कार्यकर्ताओं में भी वो लोग काम थे, जिन्हें दिग्विजय समर्थक माना जाता है। इस आंदोलन के दौरान हुई सभा में दिग्विजय सिंह का ये कहना 'हम सब एक साथ हैं। पार्टी के सभी नेता एकजुट हैं। पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष अरुण यादव और प्रदेश प्रभारी मोहन प्रकाश जो आदेश देंगे, उसके लिए सभी उनके साथ खड़े हैं।' समझा जा सकता है कि पार्टी के बड़े नेता को ये संदेश देने जरुरत क्यों पड़ी? यह आंदोलन भाजपा सरकार के खिलाफ था या महज कांग्रेस की एकजुटता दिखाने के लिए, यही स्पष्ट नहीं हो पाया! ये सच भी जगजाहिर है कि मध्यप्रदेश में विपक्ष सिर्फ नाम लेवा है। कांग्रेस की स्थिति पूरी तरह निष्प्रभावी है। कांग्रेस के कार्यकर्ता भी स्वीकारने लगे हैं कि यदि भाजपा मुकाबले में उतरना है तो पार्टी को तत्काल नई मजबूती देने जरुरत है! लेकिन, क्या सिर्फ पार्टी अध्यक्ष बदलने से कांग्रेस में शक्ति का संचार हो जाएगा? इस सवाल का जवाब शायद किसी के पास नहीं है!  
  आज पार्टी का एक बड़ा तबका पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपने के पक्ष में हाथ खड़े किए है। लेकिन, कोई ये नहीं बता पा रहा कि उनके पास ऐसी क्या जादू की छड़ी है, जो वे पार्टी में जान फूंक देंगे? यदि वे वास्तव में ऐसा कर सकने में समर्थ हैं, तो पार्टी हित में वो सारे कदम आज भी उठाए जा सकते हैं! कमलनाथ शिवराज और उनकी सरकार की कथित कलाकारी को नहीं चलने देने का दावा कर रहे हैं! 2018 में उनकी सरकार को उखाड़ फैंकने की बात कर रहे हैं, तो अब तक उन्होंने कुछ किया क्यों नहीं? लेकिन, कमलनाथ ने एक बात अच्छी कही कि मैं अपने ग्रामीण इलाके के दस कांग्रेसी नेताओं को रोज फोन लगाता हूँ, ताकि उनसे जीवंत संपर्क बना रहे। क्योंकि, जब तक लोग पार्टी में अपनापन महसूस नहीं करेंगें, तब तक संभव नहीं कि संगठन मजबूत बने! हम अभी तक जो चुनाव हारे उसकी वजह है कि हम स्थानीय स्तर पर संगठित नहीं हो पाए। आज नए और पुराने दोनों ही तरह के पार्टी कार्यकर्ताओं को साथ लेकर चलने की जरूरत है। यदि कमलनाथ के इस फॉर्मूले पर पार्टी चले तो चमत्कार हो सकता है!
  अभी तक ये माना जा रहा था कि आने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रदेश में किसी चेहरे को सामने रखकर वोट मांगेगी! लेकिन, अब ये बात स्पष्ट हो गई कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला! गोवा, पंजाब और उत्तरप्रदेश की तरह मध्यप्रदेश में भी पार्टी बिना चेहरे के चुनाव लड़ेगी। पार्टी का मानना है कि चुनाव में चेहरे की जरूरत नहीं होती, जनता का समर्थन चाहिए। फिलहाल पार्टी जिस स्थिति में है, उसे देखते हुए यदि कोई चेहरा सामने किया गया तो पार्टी की हालत और ज्यादा ख़राब हो जाएगी! इसलिए कि आज कांग्रेस को किसी चेहरे पर फोकस करने के बजाए तहसील, ब्लॉक और जिले स्तर पर संगठन को मजबूत करने की जरुरत ज्यादा है। भाजपा ने अपने 13-14 साल के शासन में कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान संगठन के स्तर पर ही पहुँचाया है। गाँव-गाँव में कमल छाप कांग्रेसी मौजूद हैं। पार्टी को सबसे पहले इन्हें पहचानना होगा, तभी किसी सार्थक नतीजे की उम्मीद की जा सकती है। भाजपा के खिलाफ कांग्रेस की इस कथित एकजुटता को अब नीचे तक ले जाना जरुरी है, तभी बदलाव  की जाना संभव है!  
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परदे से हाशिए पर उतरा रोमांस

- हेमंत पाल 
  मोहब्बत हिंदी फिल्मों की कहानी का स्थाई भाव रहा है! ब्लैक एंड व्हाइट से लगाकर रंगीन फिल्मों तक जो बात कॉमन रही वो है प्रेम कहानियां! फिल्मों की कहानी का आधार चाहे एक्शन हो, सामाजिक हो, कॉमेडी या फिर हॉरर! हर फिल्म में कोई न कोई लव स्टोरी जरूर होती है। बल्कि, प्रेम के बहाने ही फिल्म के कथानक को आगे बढ़ाया जाता रहा! यहाँ तक कि आजादी के संघर्ष वाली फिल्मों में भी नायक की कहीं न कहीं आँख लड़ती ही थी! लेकिन, अब लगता है जैसे हिंदी फिल्मों की कहानियों में मोहब्बत हाशिए पर आ गई! सीधे शब्दों में कहा जाए तो फिल्मों ने मोहब्बत से तलाक़ ले लिया! पिछले साल आई ज्यादातर हिट फिल्मों के कथानक में प्रेम नदारद था! यदि किसी फिल्म में प्रेम प्रसंग था भी तो महज कहानी को आगे बढ़ाने के लिए थे! फिल्म की मूल कहानी मोहब्बत के लिए सब कुछ दांव पर लगाने पर केंद्रित नहीं था।
  अब लगता है वो दिन ढल रहे हैं, जब फिल्म का पूरा कथानक हीरो-हीरोइन और खलनायक पर ही रच दिया जाता था। सामाजिक फ़िल्में बनाने के लिए पहचाने जाने वाले 'राजश्री' ने भी ग्रामीण परिवेश में कच्चे और सच्चे प्रेम को ही सबसे ज्यादा भुनाया! लेकिन, बीते साल की अधिकांश अच्छी फ़िल्में दर्शकों के बदलते नजरिए का संकेत है। जिस तरह हॉलीवुड में स्टोरी और कैरेक्टर को ध्यान में रखकर फ़िल्में बनती है, वही चलन अब बॉलीवुड में भी आने लगा! इसलिए कि नई पीढ़ी के जो दर्शक हॉलीवुड की फिल्मों को पसंद करते हैं, वे हिंदी फिल्मों में भी वही देखना चाहते हैं। शायद यही कारण है कि राजेश खन्ना के बाद रोमांटिक फिल्मों के सबसे चहेते नायक रहे शाहरुख़ खान ने भी फैन, डियर जिंदगी और रईस जैसी फिल्मों में काम करने का साहस किया। शाहरूख़ और आलिया भट्ट की 'डियर ज़िंदगी' में तो मोहब्बत नदारद ही थी। इसमें शाहरुख़ ने उम्रदराज काउंसलर किरदार निभाया है। 'फ़ैन' में तो स्टोरी ही एक हीरो और उसके एक चाहने वाले पर केंद्रित थी! और 'रईस' तो एक माफिया की ही कहानी है। अब वो वक़्त शायद चला गया जब नायक, नायिका हमेशा मिलन को बेताब रहा करते थे। 'एमएस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी' में तो पूरा फ़ोकस ही क्रिकेटर की ज़िंदगी है। दो प्रेम प्रसंग भी हैं, पर सिर्फ कहानी को आगे बढ़ाने के लिए!
 बजरंगी भाईजान, सुल्तान, दंगल, रुस्तम, नीरजा, पिंक, कहानी-2, एयरलिफ्ट, नील बटे सन्नाटा, उड़ता पंजाब, एमएस धोनी से लगाकर 'काबिल' और 'जॉली एलएलबी-2' तक में हीरोइन उपयोगिता नाम मात्र की रही। करण जौहर की फ़िल्म 'ऐ दिल है मुश्किल' में तो ब्रेकअप को सेलिब्रेट किया गया। आलिया भट्ट ने भी 'डियर ज़िंदगी' में ब्रेकअप के बाद ज़िंदगी को कहा जस्ट गो टू हेल! सलमान खान की 'बजरंगी भाईजान' और 'सुल्तान' दोनों ही फिल्मों में हीरोइन कहीं भी कहानी पर बोझ नहीं लगती! अक्षय कुमार की 'रुस्तम' वास्तव में एक प्रेम कहानी है, लेकिन उसकी कहानी का आधार कोर्ट केस ही रहता है। सोनम कपूर की फिल्म 'नीरजा' तो पूरी तरह एक एयर होस्टेस के कर्तव्य कहानी है। वास्तव में प्रेम कहानी को हाशिए पर रखने का ये ट्रेंड धीरे-धीरे आया और सफल भी हुआ! इसलिए अब समझा जा सकता है कि आगे आने वाली फिल्मों का कथानक बदला नजर आएगा। हीरो, हीरोइन फिल्म में होंगे तो, पर वे रोमांस करें ये जरुरी नहीं है।    
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Sunday, February 19, 2017

सुहास भगत की चिर खामोशी से जन्म लेते सैकड़ों सवाल


- हेमंत पाल 

यदि किसी व्यक्ति से बहुत ज्यादा उम्मीदें कर ली जाए तो उससे उदासी भी उतनी ही ज्यादा होती है। भाजपा के प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत को भी उन लोगों में गिना जा सकता है, जिनसे पार्टी कार्यकर्ताओं ने बहुत ज्यादा अपेक्षाएं की थी! लेकिन, उन्हें निराशा ही हाथ लगी! पूर्ववर्ती संगठन महामंत्री अरविंद मेनन की अतिमहत्वाकांक्षा और अपना आदमीवाद की नीति से पार्टी का एक बड़ा धड़ा लंबे समय तक नाराज रहा! उनकी रवानगी बाद लगा था कि अब सत्ता और संगठन में अनुशासन भी आएगा और अमर्यादित व्यवहार की घटनाएं भी कम होगी। लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ! सुहास भगत की ख़ामोशी और निष्क्रियता से पार्टी कार्यकर्ता निराश भी हैं और नाउम्मीद भी! कार्यकर्ताओं से उनकी दूरी दस महीने बाद भी बनी हुई है और मेनन से जुड़े लोग आज भी बरक़रार हैं! 

 मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में करीब दस महीने पहले बतौर संगठन महामंत्री सुहास भगत का आना सम्भवतः सबसे बड़ा उलटफेर था! अरविंद मेनन के कामकाज से असंतुष्ट और उपेक्षित नेताओं ने सुहास भगत से बहुत ज्यादा उम्मीदें लगाई थीं! उन्हें भरोसा था कि मेनन के कार्यकाल में उन्होंने जो उपेक्षा झेली है, नए संगठन महामंत्री उसे पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। लेकिन, जो वक़्त बीता है, उसमें तो ऐसा कुछ नजर नहीं आया! सतह पर जो दिख रहा है उसका निष्कर्ष यही निकाला जा रहा है कि भगत कार्यकर्ताओं की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे! यदि अरविंद मेनन की अतिसक्रियता और महत्वाकांक्षा उनकी प्रदेश से रवानगी का कारण बनी, तो सुहास भगत की खामोशी और निष्क्रियता से दिशा का निर्धारण होता दिखाई नहीं देता।  
    भाजपा में प्रदेश संग़ठन महामंत्री का पद राजनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण होता है! इस पद पर काबिज व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी 'संघ' की तरफ से भाजपा में भेजा जाता है। वो निरपेक्ष भाव से प्रदेश सरकार और संगठन में समन्वय का काम करता है। इस पद की भूमिका निष्पक्ष अम्पायर जैसी होती है! तलवार की धार पर चलने जैसी ये जिम्मेदारी ही उसके अनुभव का निचोड़ होती है। ये जिम्मेदारी वाला काम होता, इसलिए 'संघ' अपने अनुशासित और गंभीर प्रचारकों को ही इस काम में लगाता है। आडंबर और दिखावे से हमेशा परहेज करने वाले 'संघ' ने सुहास भगत के लिए बकायदा पद ग्रहण समारोह किया, जो अमूमन नहीं होता। इसका संकेत ये समझा गया कि अरविंद मेनन को हटाए जाने को 'संघ' भी संदेश की तरह प्रचारित करना चाहता था! लेकिन, सवाल उठता है कि क्या भगत उन सारी उम्मीदों पर खरे उतरे? क्या आम कार्यकर्ता की उनतक पहुँच है? क्या उनकी रीति-नीति को पार्टी के लोग समझ पाए हैं? क्या उन्होंने उन खामियों को दूर करने कोशिश की, जो शिकायतें मेनन रही हैं? ऐसे और भी कई अनुत्तरित सवाल हैं जो भाजपा में अंदर ही अंदर खदबदा रहे हैं!   
   'संघ' के मध्यभारत प्रांत प्रचारक रहे सुहास भगत दस महीनों में अपनी नई जिम्मेदारियों पर उतना खरे शायद नहीं उतरे, जितना उनसे उम्मीद की गई थी! अरविंद मेनन को चुनाव मैनेजमेंट का जादूगर माना गया था! तो सुहास भगत के बारे में प्रचारित किया गया था कि वे बेहतरीन संगठक हैं! लेकिन, सार्वजनिक रूप से अभी तक भगत अनुभव की कहीं छाप नजर नहीं आई! संगठन महामंत्री बनाए जाने के बाद उनके बारे में जो कुछ कहा गया था, वे उतने सजग कहीं भी और कभी भी दिखाई नहीं दिए। कहा गया था कि वे लक्ष्य के प्रति बेहद गंभीर हैं। जो करना चाहते है, उसके लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करते हैं। लेकिन, न तो उनका सरकार पर कोई कन्ट्रोल दिखाई दिया न संगठन पर! भगत की खासियत बताई गई थी कि वे जमीन से जुड़े संघी हैं। उनके कार्यकाल में 'संघ' के अनुषांगिक संगठनों ने काफी उन्नति की! ग्रामीण इलाकों में संघ की विचारधारा फलीफूली, कॉलेज छात्रों के लिए 'संघ शिक्षा वर्ग' चला तथा कुटुम्ब प्रबंधन जैसे काम हुए। सुहास भगत प्रदेशभर के संघ कार्यकर्ताओं को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं। कार्यकर्ताओं से लगातार संपर्क और सहज संवाद उनकी परिचित शैली है। लेकिन, फिलहाल वे जिस पद पर हैं, वहाँ उनकी चिर खामोशी ने सवाल खड़े कर दिए। अभी तक तो कार्यकर्ताओं से उनकी दूरी ही बनी हुई है। 
   नए संग़ठन महामंत्री को जिम्मेदारी सौंपने के बाद चर्चाएं थीं कि सत्ता और संग़ठन में बहुत कुछ बदलाव आएगा। संभागीय संगठन मंत्रियों की कमान भी 'संघ' प्रचारकों को देने के आसार थे। लेकिन, चंद बदलाव के अलावा वे कोई बड़ा फेरबदल नहीं कर पाए। मेनन के उन फैसलों पर भी कान नहीं धरे गए, जिन्हें गलत समझा गया था। संगठन महामंत्री कार्यकर्ताओं की उम्मीदों के जिस शिखर पर विराजित थे, वो शिखर अब दरकने लगा है। समझा गया था कि उनके फैसले प्रदेश भाजपा की भावी दिशा और दशा तय करेंगे! लेकिन, उनकी खामोशी ने भविष्य पर पानी फेर दिया। सरकार के कई मंत्री और संगठन के पदाधिकारी खुलेआम बगावती सुर में बोलते रहते हैं! घपलों, घोटालों और अनुशासनहीनता मर्यादा लांघने लगी है! ऐसे में कैसे उम्मीद लगाई जाए कि इस सब पर काबू करने के लिए कोई तैनात है?   
  हाल ही में हुए भाजपा के अभ्यास वर्ग के बाद अनुमान लगाया गया था कि अब भाजपा के प्रदेश संगठन में संघ का सीधा दखल दिखाई देगा। पार्टी का चेहरा भले ही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हों, और वे 'मिशन 2018' की अगुवाई करें! लेकिन, सत्ता और संगठन के बड़े पदों पर बैठे नेता और कार्यकर्ता को संगठन महामंत्री को भरोसे में लेकर फैसले लेना होंगे। जिस दायित्व के साथ सुहास भगत को पार्टी में भेजा था, अब वहां उनका दखल और दबाव देखने दोनों देखने को मिलेगा। किन्तु, ये महज भ्रम ही निकला! क्योंकि, लगा था कि इस अभ्यास वर्ग के जरिए भगत ने अपनी उपयोगिता साबित करने की कोशिश की थी। ये भी लगा था कि पार्टी पर उनकी पकड़ बनी है। फिर भी जो सामने आया वो निराशाजनक ही है। अभ्यास वर्ग में भी अनुशासनहीनता कम नहीं थी, पर उसकी अनदेखी की गई! नेता हो या कार्यकर्ता सत्ता के मद में जो मदमस्त हैं। अभ्यास वर्ग का कोई असर सत्ता या संगठन पर पड़ा होगा, ये अभी तक नजर नहीं आया! इसके पीछे सिर्फ एक कारण नजर आता है कि पार्टी में अनुशासनहीनता चरम पर है। प्रदेशभर में भाजपा कार्यकर्ता जिस तरह मर्यादा लांघ रहे हैं, कैसे उम्मीद की जाए कि इन्हें काबू करने के लिए संघ का कोई सख्त पदाधिकारी मौजूद है!  
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Sunday, February 12, 2017

डर के आगे ही अक्षय की जीत!

- हेमंत पाल 

    बॉलीवुड में असली एक्शन हीरो उसे माना जाता है, जो खुद जोखिम भरे एक्शन सीन करे! हेलीकॉप्टर से लटके, कारों के स्टंट सीन में खुद ही कार दौड़ाए और विलेन के पीछे छतों-छतों पर कूदे! लेकिन, ज्यादातर हीरो इसके लिए प्रोफेशनल स्टंटमैन को आगे कर देते हैं। उनका चेहरा वहीं दिखाई देता है, जहाँ कैमरा क्लोज़अप होता है। ऐसे में जब भी रीयल एक्शन हीरो की बात आती है, सबके जहन पहला नाम आता है अक्षय कुमार का! मार्शल आर्ट में पारंगत अक्षय के एक्शन सीन खुद करते हैं, इसलिए उनपर फिल्माए स्टंट सीन नाटकीय नहीं लगते। सबसे बड़ी बात ये कि फ़िल्मी हीरो जिस एक्शन के डर से बचकर रहते हैं, उसी को अक्षय कुमार ने अपनी ताकत बना लिया। इस कलाकार ने 1991 में 'सौगंध' से अपने करियर की शुरुआत की थी। तभी से वे अपने एक्शन सीन्स खुद ही करते हैं। अक्षय ने कई बार ये बात स्वीकार भी है कि वे जोखिम भरे दृश्यों से घबराते नहीं! इसका आशय ये भी नहीं कि उन्होंने 'डर' पर काबू पा लिया! लेकिन, फिर भी वे अपने लिए किसी दूसरे की जान जोखिम में डालना नहीं चाहते।   

  अक्षय ने कई दमदार एक्शन फिल्में की हैं। एक्शन सीन करते समय अक्षय कई बार घायल भी हुए हैं। 'सिंह इज ब्लिंग' की शूटिंग के वक़्त वे एक बड़े हादसे का शिकार हुए थे। फायर रिंग के बीच से कूदने वाला स्टंट परफॉर्म करते समय अक्षय आग की चपेट में आ गए। लेकिन, सुरक्षा साधनों के कारण बड़ा हादसा टल गया। 'राउडी राठौर' की शूटिंग  दौरान भी उनके कंधे पर गंभीर चोट आई थी। फिल्मों के अलावा स्टंट वाले टीवी रियलिटी शो 'खतरों के खिलाड़ी' में भी अक्षय ने अपने सभी स्टंट खुद ही किए। एक बार इस शो में उन्हें बिच्छू ने काट भी लिया था। फिर भी वे रुके नहीं, फर्स्ट एड के बाद उन्होंने शूटिंग शुरू कर दी। अक्षय कहते हैं कि मुझे स्टंट सीन करने में मजा आता है। अगर आपको लगता है कि आप खुद यह सीन कर सकते हैं, तो बॉडी डबल की क्या जरूरत? फिर ऐसे सीन शूट करते हुए सिक्युरिटी की भी पूरी व्यवस्था की जाती है। 
  'खतरों के खिलाड़ी' के सेट पर मुझसे बात करते हुए भी अक्षय ने खुद स्टंट करने आदत के बारे में कहा था कि 'डर' और 'हिम्मत' सब दिमाग का खेल है। जब बच्चा छोटा होता है, वो आग से नहीं डरता! क्योंकि, वो डर समझता ही नहीं! लेकिन, जब ये समझने लगता है कि आग से जल भी जाते हैं, वो दूर हो जाता है। अक्षय ने अपने बेटे का उदाहरण देते हुए बताया था कि मेरे घर में जिम ऊपरी मंजिल पर था, पर वहां जाने के लिए मैंने कभी सीढियां इस्तेमाल नहीं की! तब मैं बेटे को भी जिम में साथ ले जाता था। आते वक़्त पहले नीचे आकर मैं उससे कहता था 'कूद जाओ' और वो कूदकर मेरी गोद में आ जाता था! इसलिए कि उसे नहीं पता था कि डर क्या होता है, दूसरा मुझपर भरोसा था। जब वो बड़ा हो गया तो मेरे कहने पर भी नहीं कूदता! लेकिन, अक्षय को जिस चीज से डर लगता है वो है मैरी-गो-राउंड झूला। उन्हें उसपर बैठना बिल्कुल पसंद नहीं! क्योंकि, मैरी-गो-राउंड पर बैठने के उनका सिर चकराने लगता है। अक्षय कहते हैं कि यही समझ लो कि मैं इस झूले पर बैठने से डरता हूँ!
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'कमल' के मुकाबले कमलनाथ का दांव क्या गुल खिलाएगा?

- हेमंत पाल 


  मध्यप्रदेश में करीब सालभर से प्रदेश अध्यक्ष बदले जाने की हलचल चल रही है। हर बार पत्ते फेंटे तो जाते हैं, पर निकलते हैं कुछ जमा दो पत्ते! एक पर कमलनाथ की तस्वीर होती है, दूसरे पर ज्योतिरादित्य सिंधिया की! लेकिन, पार्टी तय नहीं कर पा रही है कि किसके नाम पर दांव खेला जाए? इस बीच कई ऐसी अड़चनें भी सामने आई, जिनके कारण अरुण यादव  जीवनदान मिलता रहा। फिलहाल उत्तर प्रदेश चुनाव ने संजीवनी बनकर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को बचा रखा है। ये तय है कि अध्यक्ष को बदला तो जाएगा, लेकिन उत्तराधिकारी कौन होगा ये जवाब किसी के पास नहीं है। क्योंकि, जो भी इस काँटों भरे ताज को धारण करेगा, उसे 2018 के विधानसभा चुनाव में नेतृत्व का इम्तिहान भी देना होगा। यदि सफलता हाथ लगी तो ताजपोशी भी होगी, वरना हार का दर्द तो झेलना है।        
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  मध्यप्रदेश में कांग्रेस अपनी ही कमजोरी से लगातार पिछड़ती जा रही है। सत्ताधारी भाजपा की कमजोरियों को अपनी ताकत बनाने की पार्टी की अब तक की कोशिशें भी कामयाब नहीं हो सकीं हैं। तीन क्षत्रपों में बंटी पार्टी के कार्यकर्ता भी कांग्रेस के नहीं, अपने नेता के प्रति ज्यादा वफादार हैं। ऐसे में पार्टी की 'मिशन 2018' की तैयारियां कैसे शुरू होगी, कहा नहीं जा सकता। लेकिन, पार्टी पहला प्रयोग प्रदेश अध्यक्ष को बदलकर करेगी। इसके लिए राजनीतिक माहौल बदलने की कोशिशें होने लगी है। पार्टी के अंदर भी एक लॉबी ये मानकर चल रही है कि अध्यक्ष की जिम्मेदारी कमलनाथ को सौंपी जा सकती है। इसमें शक़ नहीं कि कमलनाथ इस दौड़ में सबसे आगे हैं! लेकिन, ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक ये स्वीकार करने को तैयार नहीं! कमलनाथ के समर्थकों के उत्साह से भी जाहिर हो रहा है कि उनके नेता के पक्ष में सबकुछ तय हो गया है, बस घोषणा का इंतजार है। लेकिन, इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा कि कमलनाथ के पार्टी मुखिया बनने से पार्टी में कौनसा बड़ा बदलाव आएगा?    
    अरुण यादव की नियुक्ति के साथ ही कयास लगाए जाने लगे थे कि वे ज्यादा दिन इस कुर्सी पर नहीं टिकेंगे, पर उन्होंने उम्मीद से ज्यादा वक़्त निकाल लिया। तब ये सवाल भी उठे थे कि उनकी किस योग्यता ने उन्हें यहाँ तक पहुँचाया? देखा जाए तो इस बात का आकलन अभी तक नहीं हुआ! 2014 में विधानसभा चुनाव की हार के बाद पार्टी का कोई भी बड़ा नेता ये दायित्व निभाने को राजी नहीं था। लेकिन, 2018 के चुनाव नजदीक आने के साथ ही कांग्रेसियों की उम्मीदें फिर कुंचालें भरने लगी! इसका बड़ा कारण ये है कि कांग्रेस को लगने लगा है कि यदि रणनीति बनाकर मेहनत की जाए तो भाजपा को हराना मुश्किल नहीं है। नोटबंदी और चुनावी वादों से पिछड़ने से देशभर में भाजपा की साख को धक्का लगा है। इसका असर मध्यप्रदेश के चुनाव पर भी होगा। लेकिन, जिसे जंग का नेतृत्व कौन करे, इसका फैसला नहीं हो पा रहा! 
   प्रदेश में कांग्रेस का सबसे कमजोर पक्ष ये है कि वो प्रतिद्वंदी के खिलाफ मोर्चा बनाने के बजाए आपस में ही गुत्थम-गुत्था होती रहती है! 'मिशन-2018' की फुलप्रूफ रणनीति बनाने के बजाए पार्टी फिर प्रदेश अध्यक्ष पद की जोड़-तोड़ में लग गई! प्रदेश अध्यक्ष को लेकर फिर लॉबिंग शुरू हो गई! कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को अध्यक्ष बनाने को लेकर माहौल बनाया जा रहा है। पर सिंधिया का ज्यादा समर्थन दिखाई नहीं देता! पिछले विधानसभा चुनाव में भी सिंधिया समर्थकों ने उनके नेता को प्रदेश की कमान सौंपने के लिए अभियान चलाया था। लेकिन, बात चुनाव अभियान प्रभारी तक सीमित हो गई थी! जब नतीजा उम्मीद से बहुत ज्यादा ख़राब आया तो इस बार वे थोड़ा दुबके हुए हैं। फिलहाल दोनों नेताओं के अंध समर्थक अपने नेताओं के पक्ष में गुणगान करने में लग गए! पार्टी में जिस तरह की खींचतान हो रही है, उसका गलत संदेश भी जनता के बीच जा रहा है! ये भी समझा जा रहा है कि खुद का नाम उछालने के पीछे कमलनाथ और सिंधिया की सहमति भी होगी! 
  प्रदेश में भी कुर्सी पलट का दौर अवश्यम्भावी समझा जा रहा है। कमलनाथ पार्टी की दिल्ली टीम में नहीं हैं, इसलिए उन्होंने मध्यप्रदेश में खुद के लिए सम्भावनाएं खोज ली है! वे यहां पार्टी के 'मुखिया' बनकर उम्र के इस पड़ाव पर अपने राजनीतिक जीवन का आखरी दांव खेलना चाहते हैं। क्योंकि, उनकी नजर 2018 में होने वाले मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव पर है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद तीसरी संभावना दिग्विजय सिंह को लेकर भी है। आज प्रदेश में सबसे बड़ा नेटवर्क भी उनका ही है। लेकिन, लेकिन वे अब खुलकर प्रदेश की राजनीति करने के मूड में नहीं है! पार्टी भी मध्य प्रदेश में अब दिग्विजय-प्रयोग से बचना चाहती है! इसका कारण जनता में उनकी अलोकप्रियता भी माना जा सकता है। किन्तु, ये भी बात भी गले नहीं उतरती कि प्रदेश में होने वाले संभावित बदलाव में दिग्विजय सिंह का कोई दखल नहीं होगा! यदि कमलनाथ को लेकर पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व गंभीर है, तो इसके नेपथ्य में दिग्विजय सिंह की मौजूदगी को स्वीकारना ही होगा। उन्होंने तो उसके आगे की रणनीति भी बनाई होगी! यदि वे नहीं चाहेंगे तो कमलनाथ प्रदेश की कमान संभाल लें, ये नामुमकिन है।      
  कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों नेता पूरे प्रदेश में अपनी पकड़ रखते हैं? इस सवाल का जवाब आसानी से 'हाँ' में नहीं दिया जा सकता। कमलनाथ का प्रभाव क्षेत्र महाकौशल तक है और ज्योतिरादित्य की ग्वालियर-चंबल के अलावा मालवा के कुछ इलाकों तक! माना ये दोनों पार्टी के बड़े नेता हैं, पर इतने बड़े भी नहीं कि कांग्रेस की नैया पार लगा दें! यदि वास्तव में ये प्रभावशाली होते तो इनके इलाकों में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति नहीं होती! ये खुद तो जोड़तोड़ से लोकसभा चुनाव जीत जाते हैं, पर विधानसभा चुनाव में उन्हें भी जिता नहीं पाते, जिनको टिकट देने की ये नेता पैरवी करते हैं। 2003 से 2016 के बीच प्रदेश में हुए छह बड़े चुनावों 2003 विधानसभा, 2004 लोकसभा, 2008 विधानसभा, 2009 लोकसभा, 2013 विधानसभा और 2014 लोकसभा के चुनावों में इन नेताओं ने पार्टी के लिए कोई एवरेस्ट फतह नहीं किया। वर्तमान अध्यक्ष अरुण यादव तो दोनों के मुकाबले बेहद कमजोर हैं! उनकी राजनीतिक सीमाएं निमाड़ (खंडवा और खरगोन) ये आगे नहीं जाती! ऐसे में कैसे यकीन किया जा सकता है कि कमलनाथ के आने भर से कांग्रेस के सूखते पेड़ में हरियाली छा जाएगी?
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Sunday, February 5, 2017

इतिहास की पतली गली में फँसती फ़िल्में

- हेमंत पाल 

    सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं है। ये वो माध्यम है जो समाज के एक बड़े हिस्से को जानकारी, ज्ञान और दिशा देने का भी काम करता है। लेकिन, जब भी सिनेमा से इतिहास से जुड़ता है विवाद खड़ा होते देर नहीं लगती। क्योंकि, माना जाता है कि सिनेमाई आजादी का दोहन करने से फिल्मकार चूकते नहीं! ऐसे में इस बात की पूरी संभावनाएं बनी रहती है कि ऐतिहासिक तथ्यों के साथ खिलवाड़ होगा। हॉलीवुड में भी वहाँ के इतिहास जुड़ी फ़िल्में बनती हैं, लेकिन वहाँ मूल कथानक के साथ बहुत ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की जाती! क्योंकि, पश्चिमी समाज हमारे मुकाबले कहीं ज्यादा सतर्क और चौकस है। जबकि, हमारे समाज की सबसे बड़ी दिक्कत है कि हम एक ही कहानी में मनोरंजन के सारे रंग देखना चाहते हैं। प्यार, नफरत, प्रतिशोध, साहस, जंग के साथ हमको गीत-संगीत भी चाहिए और सब होना खूबसूरती से! हमारे समाज में एक खामी यह भी है कि हम अपने इतिहास को टीवी और फिल्मों से ही जानने और समझने की कोशिश करते हैं। नतीजा ये होता है कि फिल्मकार और टीवी सीरियल बनाने वाले ऐतिहासिक तथ्यों के साथ सिनेमाई आजादी का इस्तेमाल करके मनोरंजन का मसाला परोसने में देर नहीं करते! 
     हमेशा नए विषयों की तलाश में लगे फिल्मकारों को लगता है कि कहानी चुराने के लिए इतिहास सबसे आसान निशाना है। क्योंकि, राजा-महाराजाओं की कहानियों में प्रेम भी हैं और नफरत भी! यहाँ साजिशों के साथ जंग किस्से की भी कमी नहीं। इतिहास के तथ्यों के साथ फ़िल्मी मसाला मिलाने की छूट इसलिए बढ़ जाती है कि इतिहासकारों के बीच भी मतैक्य कम नहीं है। फिल्मकारों को जहाँ रियायत दिखाई देती है वे कल्पनाओं का सहारा लेकर मनोरंजन का मसाला तैयार करने में देर नहीं करते। फिल्म और सीरियल के निर्माताओं को भी यह बात अच्छी तरह से समझ आ गई कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ सबसे आसान होता है। दर्शक को जिस टाइम पास मनोरंजन की जरुरत है वो इतिहास से ही संभव है। आजकल इससे बचने का एक रास्ता भी खोज लिया गया। सीरियल या फिल्म पहले 'डिस्क्लेमर' दिखाकर वे उसके पीछे छुपने में देर नहीं करते। शुरुआत से पहले परदे पर लिखा दिखा दिया जाता है कि इस कथानक का इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है। इसमें सिर्फ ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया गया है। लेकिन, सिर्फ इतने भर से उन्हें कथानक में मनमर्जी करने इजाजत नहीं मिल जाती। 
    इतिहास को तोड़-मरोड़कर उससे खिलवाड़ तो सोहराब मोदी ने 40 के दशक से  कर दिया था। पृथ्वीराज कपूर को लेकर बनी फिल्म ‘सिकंदर’ में भी इतिहास को कई जगह से बदला गया। ‘मुगल-ए-आजम’ में भी सलीम और अनारकली की प्रेम कहानी की रूमानी कहानी का समावेश किया गया। जबकि, वास्तविकता में मुग़ल बादशाह अकबर के इतिहास में अनारकली नाम की कोई महिला कभी थी ही नहीं! सलीम-अनारकली की असफल प्रेम कथा के कारण ‘मुगले आजम’ को मिली सफलता फिल्मकारों फ़िल्मी इतिहास रचने का रास्ता भी दिखा दिया। उसके बाद तो 'अनारकली' नाम से भी फिल्म बनी और खूब चली। टीवी सीरियल 'जोधा अकबर' में भी असल इतिहास के साथ छेड़छाड़ की गई! इसके खिलाफ भी लोग खड़े हुए थे। फिर जोधपुर के महाराजा हनुवंत सिंह और उनकी प्रेमिका जुबैदा की कहानी पर श्याम बेनेगल ने  'जुबैदा' बनाई। इसे भी लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा। आम्रपाली, अशोका, मंगल पांडे जैसी कई फिल्मों पर भी विरोध की आँच आई है। देखा जाए तो सबसे बड़ा मजाक 'मोहन जोदड़ो' में हुआ। जिस संस्कृति और सभ्यता के बारे में आजतक किसी को पता नहीं! जिस सभ्यता की लिपी को भी पढ़ा नहीं जा सका, उसे लेकर भी आशुतोष गोवारीकर ने षड़यंत्र और प्रेम की कथा रच दी! जब तक समाज सहनशील बना रहेगा, ऐसे प्रयोग होते रहेंगे।   
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सत्ता के सुविधाभोग से दूषित होती भाजपा

  मध्यप्रदेश में जबसे भाजपा ने सत्ता संभाली, पार्टी संगठन को सुविधाभोग की आदत लग गई! जिस संगठन का दायित्व सत्ता को बेलगाम होने से रोकना होता है, वही संगठन सत्ता की मलाई का भोग लगाने लगा। ये व्यवहार पार्टी के शीर्ष संगठन से लगाकर मध्यप्रदेश तक में नजर आ रहा है। अब पार्टी की बैठकें पांच सितारा सुविधाओं से ओतप्रोत होती है। पार्टी संगठन में संघ के सादगी वाले चरित्र का नामों-निशान नहीं बचा। एक झोले में दो जोड़ी कपडे रखकर जीवनभर अविवाहित रहकर संघ का काम करने वाले स्वयं सेवकों को भुला ही दिया गया। उनकी जगह कलफ वाले कड़क कुर्ते पायजामे और लेनिन की महंगी जैकेट ने ले ली। नेताओं का सिर्फ रहन सहन ही नहीं बदला, उनकी भाषा में भी कलफ लग गया। संगठन पर सत्ता का मद ऐसा चढ़ा कि सभी नेता मदमस्त हो गए। ये सत्ता के चुम्बक का असर है या कोई और कारण नहीं पता! लेकिन, लोगों की आँखों में सत्ता कि ये खुमारी अब खटकने लगी है।    

- हेमंत पाल 

  सत्ता पाने के बाद किसी राजनीतिक पार्टी का सोच, कार्यप्रणाली, रहन-सहन और व्यवहार किस तरह बदलता है भाजपा इसका सबसे सही उदाहरण है। बदलते दौर में सिर्फ पार्टी की विचारधारा ही नहीं बदली, सबकुछ बदलता नजर आ रहा है। सबसे ज्यादा बदले हैं, पार्टी के नेता! सत्ता का सुख कैसे भोगना है, ये उन्होंने अच्छी तरह सीख लिया। पार्टी की बैठकों का बदलता कलेवर भी उसी बदलती विचारधारा का संकेत है। बड़ी होटलों या रिसोर्ट में पार्टी की बैठकें होना या पांच सितारा संस्कृति का भोग राजनीति में नई बात नहीं है! नया तो ये है कि जो भाजपा हमेशा ही खुद को जमीन से जुडी पार्टी बताती आई है, ये पाखंड रचती आई है कि वो उन सारी बुराइयों से अलग है, जो राजनीति की गंदगी कही जाती है। पर, वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है! भाजपा उन सबसे कहीं ज्यादा सुविधाभोगी, पाखंडी और असंस्कारित पार्टी कही जा सकती है। संघ का वो कल्चर भी पार्टी से धीरे-धीरे विलग हो रहा है, जो कभी भाजपा पहचान रहा है! कुशाभाऊ ठाकरे और प्यारेलाल खंडेलवाल जैसे नेता अब भाजपा में ढूंढने से नहीं मिलते! उनके पास पहनने के लिए दो धोती और दो कुर्ते होते थे! हाथ से कपडे धोते थे और बाहर जाते तो किसी भी कार्यकर्ता के यहाँ रुक जाते थे। आज तो भाजपा का चेहरा बने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ड्रेसिंग सेन्स फैशन की दुनिया में डंका बजा रहा है! जब भाजपा की धारा ऊपर से ही पांच सितारा बनकर बह रही है, तो कैसे उम्मीद कि पार्टी के नीचे वाले नेता और कार्यकर्ता संस्कारित राजनीति करेंगे!  
    संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं की विचारधारा के लिए प्राणोंत्सर्ग करने तक होती थी। ये कार्यकर्ता जब कहीं बाहर जाते तो स्थानीय कार्यकर्ता या फिर धर्मशाला में रुकते। अपनी थाली, लोटा और दो जोड़ी कपडे लेकर चलते थे, ताकि वे किसी पर बोझ न बने! सदविचार से रचे बसे ये लोग सिर्फ सादगी के साथ विचार फैलाते और संस्कृति की दुहाई देते। संघ की विचारधारा का प्रवाह फैलाने का उनका संघर्ष पैदल, बैलगाड़ी या फिर रेल के तीसरे दर्जे की यात्रा से चलता रहा। इसी सादगी के सहारे संघ की कोख से 'जनसंघ' ने जन्म लिया। इसके बाद साधारण लोगों की असाधारण क्षमता ने सत्ता का जो रास्ता दिखाया, उस पर आकर कुछ ही सालों में पूरी पार्टी भटक गई! दोने-पत्तल में कलेवा करने वाले पार्टी के नेता चाँदी की थाली में लंच लेने लगे। धर्मशाला में रात बिताने वाले स्टार होटलों में ठहरने लगे।  
  पिछले दिनों सागर में भाजपा प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक हुई। ये बैठक पूरी तरह पांच सितारा कल्चर से ओतप्रोत थी। इस बार ये बैठक एक आलीशान होटल में हुई। नेताओं को ठहरने के लिए 300 कमरे बुक थे! पार्टी के सत्ता में रहने पर संगठन किस तरह का सुख भोगता है, ये उसका सबसे सटीक उदाहरण है। जबकि, 15 साल पहले जब सागर में प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक हुई थी, तब एक धर्मशाला को बैठक के लिए चुना गया था! बैठक में शामिल होने जो भी नेता आए थे, उन्हें भाजपा कार्यकर्ताओं के यहाँ रुकवाया गया था। आशय यह कि भाजपा कितनी भी सादगी की बात करे, पर जब सत्ता सुख भोगने का मौका आता है, तो कोई पीछे हटना नहीं चाहता! भाजपा जब भी सत्ता से बाहर होती है, आदर्शवाद की बात करती है। लेकिन, सत्ता में आने के बाद पार्टी के सुर, समझ और ज्ञान सबकुछ बदल जाता है।  
  नितिन गड़करी जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, तब उन्होंने पार्टी से सितारा संस्कृति को त्यागने की बात की थी! उनका सुझाव था कि पार्टी की बैठकों में पार्टी सादगी और संस्कृति झलकना चाहिए! इसके बाद भी भाजपा के सुविधाभोगी कल्चर में कोई अंतर नहीं आया! गडकरी ने पार्टी नेताओं को सीख दी थी कि राष्ट्रीय परिषद में शामिल होने वाले नेता पांच सितारा होटलों की बजाए तंबू में रुकें! वे संघ से आए थे, इसलिए वे भाजपा में संघ जैसी संस्कृति विकसित करना चाहते थे। लेकिन, आज भाजपा के जो नेता संघ से जुड़े हैं, वे भी सत्ता की चकाचौंध में आँखों पर पट्टी बांधकर घूम रहे हैं। यही कारण है कि संघ की नजरों में भाजपा का घटता जनाधार चिंता का विषय बन रहा है। आज संघ इस बात को लेकर चिंतित है कि क्या भाजपा रास्ता भटक गई है? संघ भाजपा में वही अनुशासन देखना चाहता है, जो स्वयंं सेवक में होता है। लेकिन, ऐसा हो नहीं पाया। कार्यकर्ताओं को जनसेवा का पहाड़ा पढ़ाने वाले नेताओं को जब भी मौका मिलता है, वे सत्ता का दोहन करके सुविधाओं के मक्खन का भोग लगाने का मौका नहीं छोड़ते! ये बात सही है कि हर पार्टी का पहला मकसद सत्ता पाना होता है। लेकिन, सत्ता के सुख के साथ व्यवहारिक सादगी भी जरुरी है, जो भाजपा में कहीं नजर नहीं आती! गड़करी जब तक पार्टी अध्यक्ष रहे, वे संघ की भाषा बोलते रहें! लेकिन, ज्यादा दिन वे इस पर कायम नहीं रहे! क्योंकि, गडकरी खुद भी कारोबारी नेता हैं, वे अपनी जरुरत मुताबिक राजनीति में आए हैं। इसलिए जल्दी पार्टी के रंग में रंग गए!  
    बात सिर्फ भाजपा तक ही सीमित नहीं है। संघ की तरफ से चौकीदार बनकर भाजपा में आने वाले संगठन मंत्रियों ने भी मलाई खाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। जिलों और संभागों में तैनात संगठन मंत्रियों ने तो अपनी समानांतर सत्ता ही खड़ी कर ली! उन्हें जहाँ तैनात किया गया, वहाँ वे ठेकों और परमिटों की राजनीति में लिप्त हो गए। उन्होंने सुविधा के सारे संसाधन जुटा लिए। यहाँ तक की जमीनें खरीदने तक में देरी नहीं की! शिकायतों के बाद कुछ दागियों की साफ सफाई भी हुई, लेकिन पानी पूरी तरह शुद्ध हुआ होगा ये दावा कोई नहीं कर रहा। याद किया जाए तो सतना और कटनी के संगठन मंत्री को ऐसे ही आरोपों के बाद कार्यमुक्त किया था। संघ की पृष्ठभूमि से आए इन संगठन मंत्रियों पर अकसर सुविधाभोगी होने के आरोप लगते रहे हैं। इनकी कार्यकर्ताओं से दूरी के की भी शिकायतें भी पार्टी तक पहुँची हैं। इस प्रसंग का मतलब सिर्फ ये है कि भाजपा के सुविधाभोग ने संघ को दूषित करने में कसर नहीं छोड़ी!
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