- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश में करीब सालभर से प्रदेश अध्यक्ष बदले जाने की हलचल चल रही है। हर बार पत्ते फेंटे तो जाते हैं, पर निकलते हैं कुछ जमा दो पत्ते! एक पर कमलनाथ की तस्वीर होती है, दूसरे पर ज्योतिरादित्य सिंधिया की! लेकिन, पार्टी तय नहीं कर पा रही है कि किसके नाम पर दांव खेला जाए? इस बीच कई ऐसी अड़चनें भी सामने आई, जिनके कारण अरुण यादव जीवनदान मिलता रहा। फिलहाल उत्तर प्रदेश चुनाव ने संजीवनी बनकर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को बचा रखा है। ये तय है कि अध्यक्ष को बदला तो जाएगा, लेकिन उत्तराधिकारी कौन होगा ये जवाब किसी के पास नहीं है। क्योंकि, जो भी इस काँटों भरे ताज को धारण करेगा, उसे 2018 के विधानसभा चुनाव में नेतृत्व का इम्तिहान भी देना होगा। यदि सफलता हाथ लगी तो ताजपोशी भी होगी, वरना हार का दर्द तो झेलना है।
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मध्यप्रदेश में कांग्रेस अपनी ही कमजोरी से लगातार पिछड़ती जा रही है। सत्ताधारी भाजपा की कमजोरियों को अपनी ताकत बनाने की पार्टी की अब तक की कोशिशें भी कामयाब नहीं हो सकीं हैं। तीन क्षत्रपों में बंटी पार्टी के कार्यकर्ता भी कांग्रेस के नहीं, अपने नेता के प्रति ज्यादा वफादार हैं। ऐसे में पार्टी की 'मिशन 2018' की तैयारियां कैसे शुरू होगी, कहा नहीं जा सकता। लेकिन, पार्टी पहला प्रयोग प्रदेश अध्यक्ष को बदलकर करेगी। इसके लिए राजनीतिक माहौल बदलने की कोशिशें होने लगी है। पार्टी के अंदर भी एक लॉबी ये मानकर चल रही है कि अध्यक्ष की जिम्मेदारी कमलनाथ को सौंपी जा सकती है। इसमें शक़ नहीं कि कमलनाथ इस दौड़ में सबसे आगे हैं! लेकिन, ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक ये स्वीकार करने को तैयार नहीं! कमलनाथ के समर्थकों के उत्साह से भी जाहिर हो रहा है कि उनके नेता के पक्ष में सबकुछ तय हो गया है, बस घोषणा का इंतजार है। लेकिन, इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा कि कमलनाथ के पार्टी मुखिया बनने से पार्टी में कौनसा बड़ा बदलाव आएगा?
अरुण यादव की नियुक्ति के साथ ही कयास लगाए जाने लगे थे कि वे ज्यादा दिन इस कुर्सी पर नहीं टिकेंगे, पर उन्होंने उम्मीद से ज्यादा वक़्त निकाल लिया। तब ये सवाल भी उठे थे कि उनकी किस योग्यता ने उन्हें यहाँ तक पहुँचाया? देखा जाए तो इस बात का आकलन अभी तक नहीं हुआ! 2014 में विधानसभा चुनाव की हार के बाद पार्टी का कोई भी बड़ा नेता ये दायित्व निभाने को राजी नहीं था। लेकिन, 2018 के चुनाव नजदीक आने के साथ ही कांग्रेसियों की उम्मीदें फिर कुंचालें भरने लगी! इसका बड़ा कारण ये है कि कांग्रेस को लगने लगा है कि यदि रणनीति बनाकर मेहनत की जाए तो भाजपा को हराना मुश्किल नहीं है। नोटबंदी और चुनावी वादों से पिछड़ने से देशभर में भाजपा की साख को धक्का लगा है। इसका असर मध्यप्रदेश के चुनाव पर भी होगा। लेकिन, जिसे जंग का नेतृत्व कौन करे, इसका फैसला नहीं हो पा रहा!
प्रदेश में कांग्रेस का सबसे कमजोर पक्ष ये है कि वो प्रतिद्वंदी के खिलाफ मोर्चा बनाने के बजाए आपस में ही गुत्थम-गुत्था होती रहती है! 'मिशन-2018' की फुलप्रूफ रणनीति बनाने के बजाए पार्टी फिर प्रदेश अध्यक्ष पद की जोड़-तोड़ में लग गई! प्रदेश अध्यक्ष को लेकर फिर लॉबिंग शुरू हो गई! कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को अध्यक्ष बनाने को लेकर माहौल बनाया जा रहा है। पर सिंधिया का ज्यादा समर्थन दिखाई नहीं देता! पिछले विधानसभा चुनाव में भी सिंधिया समर्थकों ने उनके नेता को प्रदेश की कमान सौंपने के लिए अभियान चलाया था। लेकिन, बात चुनाव अभियान प्रभारी तक सीमित हो गई थी! जब नतीजा उम्मीद से बहुत ज्यादा ख़राब आया तो इस बार वे थोड़ा दुबके हुए हैं। फिलहाल दोनों नेताओं के अंध समर्थक अपने नेताओं के पक्ष में गुणगान करने में लग गए! पार्टी में जिस तरह की खींचतान हो रही है, उसका गलत संदेश भी जनता के बीच जा रहा है! ये भी समझा जा रहा है कि खुद का नाम उछालने के पीछे कमलनाथ और सिंधिया की सहमति भी होगी!
प्रदेश में भी कुर्सी पलट का दौर अवश्यम्भावी समझा जा रहा है। कमलनाथ पार्टी की दिल्ली टीम में नहीं हैं, इसलिए उन्होंने मध्यप्रदेश में खुद के लिए सम्भावनाएं खोज ली है! वे यहां पार्टी के 'मुखिया' बनकर उम्र के इस पड़ाव पर अपने राजनीतिक जीवन का आखरी दांव खेलना चाहते हैं। क्योंकि, उनकी नजर 2018 में होने वाले मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव पर है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद तीसरी संभावना दिग्विजय सिंह को लेकर भी है। आज प्रदेश में सबसे बड़ा नेटवर्क भी उनका ही है। लेकिन, लेकिन वे अब खुलकर प्रदेश की राजनीति करने के मूड में नहीं है! पार्टी भी मध्य प्रदेश में अब दिग्विजय-प्रयोग से बचना चाहती है! इसका कारण जनता में उनकी अलोकप्रियता भी माना जा सकता है। किन्तु, ये भी बात भी गले नहीं उतरती कि प्रदेश में होने वाले संभावित बदलाव में दिग्विजय सिंह का कोई दखल नहीं होगा! यदि कमलनाथ को लेकर पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व गंभीर है, तो इसके नेपथ्य में दिग्विजय सिंह की मौजूदगी को स्वीकारना ही होगा। उन्होंने तो उसके आगे की रणनीति भी बनाई होगी! यदि वे नहीं चाहेंगे तो कमलनाथ प्रदेश की कमान संभाल लें, ये नामुमकिन है।
कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों नेता पूरे प्रदेश में अपनी पकड़ रखते हैं? इस सवाल का जवाब आसानी से 'हाँ' में नहीं दिया जा सकता। कमलनाथ का प्रभाव क्षेत्र महाकौशल तक है और ज्योतिरादित्य की ग्वालियर-चंबल के अलावा मालवा के कुछ इलाकों तक! माना ये दोनों पार्टी के बड़े नेता हैं, पर इतने बड़े भी नहीं कि कांग्रेस की नैया पार लगा दें! यदि वास्तव में ये प्रभावशाली होते तो इनके इलाकों में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति नहीं होती! ये खुद तो जोड़तोड़ से लोकसभा चुनाव जीत जाते हैं, पर विधानसभा चुनाव में उन्हें भी जिता नहीं पाते, जिनको टिकट देने की ये नेता पैरवी करते हैं। 2003 से 2016 के बीच प्रदेश में हुए छह बड़े चुनावों 2003 विधानसभा, 2004 लोकसभा, 2008 विधानसभा, 2009 लोकसभा, 2013 विधानसभा और 2014 लोकसभा के चुनावों में इन नेताओं ने पार्टी के लिए कोई एवरेस्ट फतह नहीं किया। वर्तमान अध्यक्ष अरुण यादव तो दोनों के मुकाबले बेहद कमजोर हैं! उनकी राजनीतिक सीमाएं निमाड़ (खंडवा और खरगोन) ये आगे नहीं जाती! ऐसे में कैसे यकीन किया जा सकता है कि कमलनाथ के आने भर से कांग्रेस के सूखते पेड़ में हरियाली छा जाएगी?
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