Saturday, April 29, 2017

जहन में बसा वो आखिरी फोटो

- हेमंत पाल

   विनोद खन्ना नहीं रहे, इस बात का दुःख हर उस चाहने वाले को है जिसने इस कलाकार को फिल्मों के परदे पर देखा है। खलनायक से नायक और फिर चरित्र अभिनेता तक के फ़िल्मी सफर में इस कलाकार की जिंदगी में बहुत कुछ घटा। लेकिन, करीब दो हफ्ते पहले इस बेहद खूबसूरत अभिनेता का लोगों ने जो फोटो देखा, उससे उनका दिल दहल गया! अस्पताल के कपड़ों में पत्नी और बेटे का सहारा लेकर खड़े विनोद खन्ना को एक बार तो लोग पहचान नहीं पाए! लेकिन, सच यही था कि वो विनोद खन्ना ही थे! हाल ही में जैसे ही उनके निधन की खबर आई, सुनने वालों की आँखों के सामने इस अभिनेता का वही अस्पताल वाला चेहरा आ गया, जो उन्होंने आखिरी बार देखा था। चांदनी, इम्तेहान, परवरिश और खून पसीना में काम करने वाले खूबसूरत चेहरे को लोगों ने बिसरा दिया। ये स्वाभाविक भी है। दिमाग के परदे पर किसी का वही चेहरा अंकित रहता है, जब उसे अंतिम बार देखा गया हो! 
  इस सच को राजकुमार, देव आनंद और सुचित्रा सेन ने समय से पहले ही समझ लिया था, तभी उनके अंतिम समय की कोई फोटो कभी सामने नहीं आई। ये एक तरह से अपने बाद भी स्टारडम को जिंदा रखने की सफल कोशिश है। दर्शकों ने जिस अभिनेता को जीवनभर जिस रूप में देखा, उनके मानस पर हमेशा उसकी वही छवि अंकित रहना चाहिए। अन्यथा उनका स्टारडम आखिरी सीन के साथ ख़त्म हो जाता है। विनोद खन्ना और उससे पहले राजेश खन्ना भी उनके चाहने वालों की आँखों में उस आखिरी दृश्य के रूप में बसे हैं, जब वे अक्षय कुमार साथ अपने घर की गैलरी में खड़े होकर अपने चाहने वालों को हाथ हिलाते दिख रहे थे। अपने ज़माने के सुपरस्टार राजेश खन्ना के प्रति लड़कियों की दीवानगी के सैकड़ों किस्से हैं। खून से चिट्ठी लिखने से लेकर उनकी कार पर लिपस्टिक के निशान छोड़ देने तक की बातें कही जाती हैं।              
   राजकुमार के बारे में कहा जाता है कि वे अपनी छवि को लेकर बेहद गंभीर थे। उन्होंने पूरी जिंदगी अपनी निजी जिंदगी को कभी मीडिया का हिस्सा नहीं बनने दिया। उन्होंने अपने परिवार को हिदायत दी थी कि उनकी मौत की बात किसी को तब तक न बताई जाए, जब तक उनका अंतिम संस्कार नहीं हो जाता। उनका आखिरी फोटो भी न लिया जाए। परिवार ने वही सब किया। आज उनके चाहने वालों के दिल में राजकुमार अपने उसी अंदाज में जिंदा हैं, जो उनकी पहचान थी! देव आनंद के बारे में कहा जाता था कि वे वक़्त से आगे की बात सोचते थे। यही कारण था कि उन्होंने परिवार को कह दिया था कि जहाँ उनकी मौत हो, वहीं उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाए। उनका कोई आखिरी फोटो भी सामने न आए। वही सब हुआ भी। 2011 में देव आनंद की लंदन में मौत हो गई थी, उनका अंतिम संस्कार भी वहीं किया गया और किसी ने आज तक उनका उस वक़्त का कोई फोटो नहीं देखा। बंगाली एक्ट्रेस सुचित्रा सेन का अंतिम समय का चेहरा भी किसी ने नहीं देखा। हॉलीवुड स्टार ग्रेटा गार्बो ने भी अपने अंतिम समय का चेहरा चाहने वालों से छुपाकर रखा! 
   स्टारडम बनाए रखना हर कलाकार के लिए आसान होता। जो दर्शकों में जिस रूप में पहचाना जाता है, अपना वही रूप बनाकर भी रखना चाहता है। मरने के बाद भी कुछ कलाकार ऐसा करने में सफल होते हैं, कुछ नहीं होते! यही वजह थी कि देव आनंद और राजकुमार जैसे लोगों ने आज भी दर्शकों में अपनी वही छवि बरक़रार रखी है! लेकिन राजेश खन्ना और विनोद खन्ना वो सब नहीं कर सके! राजेश खन्ना गैलरी में खड़े होकर हाथ हिलाते जहन में जिंदा हैं, तो विनोद खन्ना अस्पताल के कपड़ों में बेटे और पत्नी का सहारा लेकर खड़े हमेशा याद रहेंगे। 
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मोहनखेड़ा में भाजपा ने खोया ज्यादा और पाया कुछ नहीं!

- हेमंत पाल 

भाजपा की प्रदेश कार्यसमिति जैसी अहम बैठक हो जाए और कोई अमृत-कलश नहीं निकले, सामान्यतः ऐसा नहीं होता! लेकिन, यदि ऐसा हुआ है तो इसका सीधा सा मतलब है कि या तो विचारों को ठीक से मथा नहीं गया या फिर कोई आयोजन में कोई बड़ी खामी रह गई! धार जिले के मोहनखेड़ा में हुई दो दिन की कार्यसमिति की बैठक को कुछ इसी नजरिए से देखा जा सकता है। अनुमान था कि इस बैठक में आने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर कोई रणनीतिक चर्चा होगी! चुनाव को लेकर संगठन की जमीनी तैयारियाँ सामने आएँगी, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ! मुख्यमंत्री ने ज्यादातर वक़्त कांग्रेस और उसके बहाने ज्योतिरादित्य सिंधिया पर हमले करने में बिताया। बैठक से नदारद मंत्रियों पर भी उनका गुस्सा बरसा! मुद्दे की बात ये कि कार्यसमिति के राजनीतिक प्रस्ताव का ड्राफ्ट बहुत हल्का नजर आया। बैठक के इस एकमात्र दस्तावेज में बहुत सी तथ्यात्मक भूलें थीं। इस प्रस्ताव के ड्राफ्ट को जिस गैरजिम्मेदाराना ढंग से तैयार किया गया, वो भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है।  
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  मोहनखेड़ा में हुई भारतीय जनता पार्टी की प्रदेश कार्यसमिति की बैठक से शायद पार्टी ने कुछ भी हांसिल नहीं किया! यदि कुछ उम्मीद की गई होंगी, तो नतीजा सिफर ही रहा। लेकिन, कई मामलों में ये बैठक खामियों भेंट जरूर चढ़ गई। बैठक में पेश किए गए राजनीतिक प्रस्ताव को देखकर नहीं लगता कि इसके लिए गंभीरता से कोई तैयारी की गई! इसमें कथ्य और तथ्य दोनों तरह की खामियाँ दिखाई दीं। कई बिंदू तो ऐसे हैं, जिनमें अधूरापन स्पष्ट नजर आया। इस दस्तावेज को सरकार की रीति नीति और संगठन की भावी तैयारियों के अनरूप नजर आना था, पर ये सरकारी प्रेस नोट से ज्यादा नहीं लगता! बैठक का ये अकेला दस्तावेज किसी भी द्रष्टिकोण से मुख्यमंत्री की घोषणाओं और मंशाओं को आधार बनाकर तैयार किया हुआ नहीं लगता!          
   इस राजनीतिक प्रस्ताव को जिस चलताऊ तरीके से बनाया गया है, वो प्रस्ताव की भाषा और आंकड़ों से साफ़ दिखाई भी देता है। पहले पन्ने पर मणिपुर में भाजपा की जीत का उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि वहाँ भाजपा का वोट प्रतिशत 2 से बढ़कर 29 प्रतिशत हो गया। ये आंकड़ा त्रुटिपूर्ण है। लगता है प्रस्ताव का ड्राफ्ट तैयार करते समय तथ्यों को तलाशा तक नहीं गया! जबकि, पार्टी के मुखपत्र 'कमल संदेश' के मार्च अंक में ही दर्ज है कि 2012 के चुनाव में भाजपा को 2.12 प्रतिशत वोट मिले थे। इस बार वहां पार्टी को 36.3 प्रतिशत वोट मिले। पार्टी की उपलब्धि को कार्यसमिति की बैठक में घटाकर दिखाना क्या सही है?
  राजनीतिक प्रस्ताव की प्रस्तावना में भी खामियाँ हैं। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का उल्लेख करते हुए कहा गया कि पांच में से चार राज्यों में सरकार बनाने का जनादेश पाकर भारतीय जनता पार्टी का प्रत्येक कार्यकर्ता गौरवान्वित महसूस कर रहा है! जबकि, ये बात किसी से छुपी नहीं है कि भाजपा को सिर्फ उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में ही पूर्ण बहुमत मिला है। गोवा और मणिपुर में भाजपा ने ताबड़तोड़ जोड़तोड़ करके सरकार बनाई है। राजनीतिक प्रस्ताव का मसौदा बनाने वाले पदाधिकारी क्या ये भी नहीं जानते कि जनादेश पाने और सरकार बना लेने में फर्क होता है। 'भाजपा के नेतृत्व और नीति के पक्ष में जनादेश' शीर्षक में नरेंद्र मोदी का गुणगान करते हुए लिखा गया है कि हर घर शौचालय जैसे कार्यक्रम से गरीबों के आर्थिक सशक्तिकरण को मजबूती मिली है। क्या पार्टी का कोई ज्ञानी ये बता सकता है कि किसी गरीब के घर में शौचालय बन जाने से उसका आर्थिक सशक्तिकरण कैसे होता है?  
 दस्तावेज में 'पॉलिथीन मुक्त प्रदेश' शीर्षक से दिए गए बिंदू को महज ढाई लाइन में निपटा दिया गया। देखा जाए तो ये एक गंभीर मसला है। प्रदेश में इसका हज़ारों करोड़ का कारोबार है। दो लाख से ज्यादा लोगों की रोजी-रोटी इस कारोबार से जुड़ी है। पहली मई से प्रदेश में पॉलिथीन पर प्रतिबंध लगा दिए जाने से बहुत कुछ बदलेगा! बेरोजगार हुए लोगों के लिए सरकार के पास क्या तैयारी है! इस बात पर चर्चा होना थी। पर, इसे सामान्य ढंग से निपटाया गया। क्या ये ऐसा मुद्दा नहीं है, जिस पर विचार विमर्श किया जाना था! पॉलीथिन पर प्रतिबंध का कारण पर्यावरण और जानवरों की सुरक्षा बताया गया। लेकिन, इसके अन्य प्रभावों की अनदेखी कर दी गई! क्या पॉलीथिन का कारोबार करने वाले इस प्रदेश के लोग नहीं हैं? गौर करने वाली एक बात यहाँ और भी है। 'कुष्ठ रोगियों की भलाई' शीर्षक में 108 परिवारों को पांच हज़ार रुपए महीने मदद देने का जिक्र है। ये आंकड़ा संदेह पैदा करता है। क्या सरकार को पूरे प्रदेश में सिर्फ इतने ही परिवार कुष्ठ पीड़ित मिले, जिन्हें मदद दी जाए?    
   प्रदेश की दो सीटों पर हुए विधानसभा उपचुनाव का भी राजनीतिक प्रस्ताव में उल्लेख किया गया। लेकिन, यहाँ भी कथ्य में गलती कर दी गई! बांधवगढ़ में पार्टी को मिली 25 हज़ार की जीत पर खुद की पीठ थपथपा ली गई, पर अटेर की हार को सहानुभूति के खाते में डाल दिया गया। लेकिन, कांग्रेस की कथित सहानुभूति वाली जीत को हलका दिखाने के लिए ये जोड़ा गया कि जीत का अंतर 11 हज़ार से घटकर 857 रह गया! सवाल उठता है कि कांग्रेस उमीदवार के पक्ष में सहानुभूति लहर इतनी हल्की क्यों रही कि जीत 857 वोट से हुई? एक सवाल ये भी कि यदि सहानुभूति इतनी ही असरदार होती, तो झाबुआ-रतलाम लोकसभा उपचुनाव में भाजपा सांसद दिलीपसिंह भूरिया के निधन पर उनकी बेटी निर्मला भूरिया क्यों हारी?     
  मुख्यमंत्री अपनी पूरी 'नर्मदा सेवा यात्रा' के दौरान प्रदेश में पूरी तरह शराबबंदी किए जाने का नारा बुलंद करते रहे हैं। कैबिनेट की बैठक में फैसला लेकर राजमार्गों से शराब की दुकानें हटाई गईं। नर्मदा के दोनों किनारों से लगी शराब दुकानों को भी बंद कर दिया गया। लेकिन, इस बात को राजनीतिक प्रस्ताव में तवज्जो नहीं दी गई! बल्कि, 'नशा मुक्त मध्यप्रदेश' का जिक्र किया गया। क्या ये शराबबंदी से ध्यान हटाने के लिए किया गया? क्योंकि, शराबबंदी और नशामुक्ति में फर्क है। अपनी बात को पुष्ट करने के लिए ये बात जोड़ दी गई कि शराबबंदी से पहले ये आवश्यक है कि इससे जुड़े सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक पक्षों के बारे में व्यापक अध्ययन हो, जो निर्णय लेने में सहायक हो! बेहतर होता की इस मसले पर खुली चर्चा होती! इससे ये संदेह उपजता है कि प्रदेश की सत्ता और संगठन में तालमेल का अभाव है। सरकार की मंशा को संगठन ठीक ढंग से समझा नहीं या न समझने का ढोंग किया! क्योंकि, सत्ता और संगठन में इतनी दूरी तो नहीं है कि पार्टी सरकार की भावनाओं को नजरअंदाज कर दे।  
  प्रदेश को लगातार 'कृषि कर्मण' पुरस्कार के लिए चुना जा रहा है। इस बार भी ये तमगा प्रदेश को मिला, पर कार्यसमिति में इस उपलब्धि का कोई उल्लेख नहीं किया गया। गौर करने वाली बात ये भी है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर मुख्यमंत्री इतना तैश में क्यों दिखाई दिए? वे कांग्रेस पर वार करते तो बात समझी जा सकती थी, लेकिन विपक्ष के किसी एक नेता को निशाने पर लेने के कई मतलब निकाले जा रहे हैं। राजमाता सिंधिया का स्तुतिगान किया जाना तो समझा जा सकता है, पर ज्योतिरादित्य को जिस तरह कटघरे में खड़ा किया गया, वो कहीं न कहीं अटेर में पार्टी की हार से उपजी हताशा भी दर्शाता है। क्योंकि, अटेर में सिंधिया घराने को लेकर भी बहुत वाद-विवाद हो चुका है। कहा जा सकता है कि मोहनखेड़ा में हुई भाजपा कार्यसमिति की इस बैठक में बखेड़ा ज्यादा हुआ! अनुशासनहीनता तो हुई ही है, पार्टी का दस्तावेज भी खामियों की भेंट चढ़ गया।      
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Friday, April 21, 2017

बॉलीवुड का टारगेट हैं युवा दर्शक

- हेमंत पाल 

 बॉलीवुड में लम्बे अरसे से तीन 'खानों' का जलवा बना हुआ है। हर तीसरी फिल्म में शाहरुख़, सलमान या आमिर में से कोई एक होता है। इसके अलावा अक्षय कुमार और अजय देवगन हैं, जिनके दीवानों की भी कमी नहीं! गौर करने वाली बात ये है कि ये सभी हीरो बनने की उम्र से आगे निकल गए! लेकिन, 45 से 50 की उम्र लांघ चुके ये हीरो आज भी चहेतों की लिस्ट में सबसे आगे हैं। 18 से 25 साल वाले युवा दर्शक भी इन्हीं के दीवाने हैं। ऐसे में इन अभिनेताओं की भी मज़बूरी है की उन्हें हर फिल्म में युवाओं की तरह दिखना होता है। आमिर खान जब फिल्मों में आए थे, तब उन्होंने कई फिल्मों में कॉलेज के लड़के का किरदार निभाया। वही किरदार वे आज भी निभा रहे हैं। 'थ्री इडियट्स' में आमिर ने कॉलेज के स्टूडेंट का ही रोल किया था। सीधा सा मतलब है कि एक्टर्स की उम्र बढ़ रही है, लेकिन उनके किरदार आज भी वहीं हैं। चालीस साल पार कर चुके सुपर स्टार आज फिल्मों में आधी उम्र के किरदार निभा रहे हैं। किंतु, अब बदलाव आ रहा है।

 बॉलीवुड में जो नया हो रहा है, उसके चलते फिल्मों में युवा किरदारों के लिए युवा एक्टर्स को ही लिया जाने लगा है। कुछ फिल्मकारों ने तो इसके लिए पहल भी शुरू कर दी! वे युवाओं की कहानियों पर वास्तव में युवा एक्टर्स के साथ ही फिल्म निर्माण में लगे हैं। बॉलीवुड के दो बड़े प्रोडक्शन हाउस यशराज फिल्म्स और वायकॉम-18 ने तो इस काम के लिए अलग कंपनियाँ ही बना दी। ये कंपनियां सिर्फ आज के दौर वाली ही फ़िल्में बना रही है। इसका मकसद अलग-अलग वर्ग वाले दर्शकों की पसंद का ध्यान रखने हुए फ़िल्में बनाना। युवाओं के लिए जो फ़िल्में बनाई जा रही हैं, उनकी कहानी, संगीत और कास्ट्यूम से लगाकर हर चीज में युवापन और नयापन झलकता है। ये जरुरत इसलिए महसूस की गई कि बॉलीवुड ने महसूस किया है कि 60 फीसदी दर्शक युवा हैं और युवाओं की पसंद को समझना और उन्हें वैसा ही मनोरंजन देना भी जरूरी है। 
  समय के साथ फिल्म इंडस्ट्री में भी बदलाव आया है। मल्टीप्लेक्स सिर्फ सिनेमाघर का नाम नहीं बल्कि एक कल्चर है। जहाँ सबकुछ नया है। डॉल्बी से आगे निकलता साउंड सिस्टम, धूम धडाकेवाला वाला संगीत और तेज गति भागता फिल्मों का कथानक! आज के युवा की पसंद भी यही है! बॉलीवुड में अब सिर्फ फ़िल्में ही नहीं बन रही! अब स्टोरी के साथ ही तय हो जाता है कि ये फिल्म किस दर्शक वर्ग के लिए बनाई जाएगी। नई थीम और अलग तरह के कथानक पर भी काम होने लगा है। क्योंकि, आज फिल्मों के ज्यादातर दर्शक वो युवा हैं, जो पढ़ रहे हैं या पढ़ाई पूरी कर चुके हैं। इनकी पसंद भी अनोखी है। हॉलीवुड की फ़िल्में इन्हें ज्यादा प्रभावित करती हैं। यही वो दर्शक वर्ग भी है जो फिल्म देखने के लिए खर्च भी ज्यादा करता है। 
   युवा ऐसे दर्शक होते हैं, जो दूसरे आम दर्शकों की तरह नहीं सोचते! वे हमेशा नए प्रयोगों के लिए तैयार रहते हैं। इनके पास किसी एक चीज के लिए ज्यादा वक्त नहीं होता! इन फिल्मों की स्टोरी अपराध से लगाकर रोमांस तक होती है। इन फिल्मों में कहानियों का ट्रीटमेंट भी अलग ही होता है। इन फिल्मों में जिस तरह की तकनीक का इस्तेमाल होने लगा है, वो भी सामान्य से अलग होती हैं। आखिर बॉलीवुड को भी वही दर्शक ज्यादा भाते हैं, जिनकी वजह से उनकी फ़िल्में हिट हों और वे फिल्म को दर्शक की तरह देखें, मनोरंजन का भरपूर मजा लें न कि समीक्षक की तरह फिल्मों की उधेड़बुन में लग जाएँ!      
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Saturday, April 15, 2017

अदालत से मेंदोला को लांछन मुक्त, अब बनाओ मंत्री!

- हेमंत पाल 


   इंदौर राजनीति के बहुचर्चित सुगनीदेवी जमीन गड़बड़ी मामले में हाईकोर्ट ने विधायक रमेश मेंदोला को आरोपमुक्त कर दिया। उनके राजनीतिक भविष्य के लिए संभवतः ये फैसला मील का पत्थर साबित हो! लेकिन, इस फैसले ने इंदौर की राजनीति को फिर उलझा दिया। अब मेंदोला उन सभी लांछनों से मुक्त हैं, जो उनके आड़े आ रहे थे। उनके पास मंत्री बनने की सभी काबलियतें हैं। विधानसभा चुनाव से पहले मंत्रिमंडल पुनर्गठन होने के आसार भी लग रहे हैं। ऐसे में इंदौर से किसी एक को शामिल किए जाने की बात आती है तो मेंदोला का पलड़ा भारी है। दूसरी बार विधायक का चुनाव भी वे प्रदेश में सर्वाधिक वोटों से जीते थे। अब या तो इंदौर से दो विधायकों को मंत्री बनाया जाएगा या फिर किसी को नहीं! मंत्रिमंडल के पिछले पुनर्गठन में मेंदोला को इसी आरोप में शामिल नहीं किया गया था कि उनके ऊपर लोकायुक्त का मामला चल रहा है।
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  सुगनीदेवी कॉलेज के पास की जमीन की कथित अफरातफरी के मामले में लोकायुक्त पुलिस द्वारा आरोपी बनाए गए तत्कालीन पार्षद और मैयर इन कौंसिल के सदस्य रमेश मेंदोला को हाईकाेर्ट ने सभी आरोपों से बरी कर दिया। कोर्ट ने उनकी पुनर्विचार याचिका पर आदेश देते हुए सिर्फ अकेले उन्हें ही इस केस से आरोपमुक्त किया है। बाकी आरोपियों के बारे में आदेश दिया कि वे फिर निचली अदालत में अपनी बात रखें। ट्रायल कोर्ट नए सिरे से उनका पक्ष सुने। ये तो था कानूनी पक्ष, लेकिन राजनीतिक रूप से रमेश मेंदोला की ताकत जिस तरह बढ़ी है, उसका असर इंदौर की राजनीति में आगे देखने को मिलेगा। कैलाश विजयवर्गीय के राजनीतिक विरोधी अब मेंदोला के कंधे पर बंदूक रखकर शायद नहीं चला सकेंगे।  
  इंदौर में भाजपा की राजनीति लम्बे आरसे से दो ध्रुवों पर केंद्रित है। एक ध्रुव है भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय, दूसरी हैं लोकसभा अध्यक्ष सांसद सुमित्रा महाजन उर्फ़ ताई! पिछले साल जुलाई में जब मंत्रिमंडल का पुनर्गठन किया गया था, तब यहाँ से क्षेत्र क्रमांक एक के विधायक सुदर्शन गुप्ता का नाम मंत्रिमंडल तय था! उन्हें 'ताई' के कोटे से शामिल किया जाने वाला था। मुख्यमंत्री भी चाहते थे कि सुदर्शन को लाल बत्ती मिले। शपथ का उन्हें औपचारिक आमंत्रण भी मिला था। समर्थकों ने भारी माहौल बना दिया और मिठाइयां तक बनने लगी थी। लेकिन, शायद लालबत्ती उनकी किस्मत में नहीं थी! उनकी किस्मत ने दगा दे दिया! भोपाल से फोन भी आया और वे उत्साहित समर्थकों के साथ भोपाल रवाना भी हुए, पर लौटे तो खाली हाथ! जबकि, अभी तक देखा गया है कि जिस विधायक को शपथ के लिए बुलाया जाता है, वो शपथ लेकर बत्ती वाली गाड़ी में ही लौटता है! लेकिन, सुदर्शन गुप्ता के साथ ऐसा नहीं हुआ!
   सुदर्शन का रास्ता कैलाश विजयवर्गीय ने काट दिया, ये सब जानते हैं! इंदौर के 'एक' और 'दो' नंबर की लड़ाई जगजाहिर है। कैलाश विजयवर्गीय का कहना था कि सुदर्शन गुप्ता को मंत्री बनाया जाना है तो रमेश मेंदोला को भी साथ में शामिल किया जाए। लेकिन, सुगनीदेवी मामले में लोकायुक्त प्रकरण में फंसे होने के कारण मेंदोला को मंत्रिमंडल में लिया जाना संभव नहीं था। ऐसे में सुदर्शन का पत्ता भी कट गया। अब, जबकि सुगनीदेवी मामले में मेंदोला सभी आरोपों से मुक्त हैं, उनका दावा फिर मजबूत है। वे दूसरी बार विधायक बने हैं और पिछले विधानसभा चुनाव में तो उन्होंने प्रदेश में सर्वाधिक 90 हज़ार से ज्यादा वोटों से जीत हांसिल की थी। ऐसे में उनके दावे की अनदेखी की जाना मुश्किल होगा। 
   प्रदेश में 2013 जब तीसरी बार भाजपा की सरकार बनी, तब इंदौर से शपथ लेने वाले कैलाश विजयवर्गीय अकेले विधायक थे। लेकिन, पार्टी के केंद्रीय संगठन में शामिल किए जाने के बाद उन्होंने मंत्री पद छोड़ दिया! उसके बाद से ही कयास लगाए जा रहे थे कि उनकी जगह क्षेत्र क्रमांक 2 के विधायक रमेश मेंदोला को दी जा सकती है! क्योंकि, वो उनके सबसे करीब हैं! लेकिन, जब मंत्रिमंडल में कुछ नए मंत्रियों को शामिल करने की बात चली संभावितों में मेंदोला का नाम कहीं नहीं था! इसके बाद तीन नाम हवा में थे सुदर्शन गुप्ता, महेंद्र हार्डिया और उषा ठाकुर! इंदौर में भाजपा की दूसरी बड़ी ताकत और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सुदर्शन के लिए पूरा जोर लगा दिया था! यहाँ तक कि मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर भी पक्ष में थे! जब किसी एक विधायक के लिए इतने दिग्गज लगे हों, तो शपथ में कोई शंका भी नहीं बचती! महेंद्र हार्डिया उर्फ़ 'बाबा' के पास दिग्गजों की ऐसी कोई ताकत तो नहीं थी, पर तीन बार की जीत और पिछले मंत्रिमंडल के अनुभव से उनका दावा भी मजबूत लग रहा था! उषा ठाकुर को ये भरोसा था कि यदि रमेश मेंदोला का नंबर कटा तो कैलाश विजयवर्गीय के खाते से उनको मंत्री बनने से कोई नहीं रोक सकता! लेकिन, ये सारे कयास हवा हो गए। उसके बाद जो हुआ वो किसी से छुपा नहीं है। 
   इंदौर की 8 में से 7 सीटों पर भाजपा विधायक हैं। लेकिन, सभी के बीच किसी न किसी मामले में मनमुटाव नजर आता है। सबसे ज्यादा आपसी कटुता सुदर्शन गुप्ता और रमेश मेंदोला में है। कई बार अपने समर्थकों को लेकर भी दोनों के बीच विवाद भी हुए! पर, कभी दोनों आमने-सामने आए हों, ऐसा नहीं हुआ! पिछले साल मंत्रिमंडल का पुनर्गठन पहला मौका था, जब दोनों के बीच इतनी ज्यादा रस्साकशी हुई! एक तरफ तरफ सुमित्रा महाजन विधायक सुदर्शन गुप्ता को मंत्री बनाने के लिए अडी थी, दूसरी तरफ कैलाश विजयवर्गीय उन्हें बनने नहीं देना चाहते थे। मुद्दा रमेश मेंदोला को मंत्री बनाने का था, पर वो कहीं पीछे ही रह गया! दोनों नेताओं की जिद के पीछे अपनी अलग-अलग वजह रही! महाजन नहीं चाहती थी कि उषा ठाकुर मंत्रिमंडल में शामिल हो! जबकि, विजयवर्गीय का कहना था कि सुदर्शन को छोड़कर किसी को भी मंत्री बना दिया जाए! 
  अब जो नही हालात बन रहे हैं वो पलड़ा रमेश मेंदोला की तरफ झुकता लग रहा है। हाईकोर्ट के हाल के फैसले ने उनको इंदौर में लालबत्ती का सबसे बड़ा दावेदार बना दिया। ऐसे में सुदर्शन गुप्ता के लिए ये संकट खड़ा हो गया कि वे किस ताकत का इस्तेमाल करें कि पार्टी उन्हें मेंदोला से ज्यादा जरुरी समझकर लाल बत्ती थमाए! ये संकट सिर्फ दावेदारों तक ही सीमित नहीं है। ऐसे में या तो इंदौर से मुख्यमंत्री को दो विधायकों को मंत्रिमंडल में शामिल करना पड़ेगा, या फिर किसी को भी जगह नहीं मिलेगी। 
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Saturday, April 8, 2017

जमीनी यथार्थ के संकट से जूझती फ़िल्में


- हेमंत पाल 

    सिनेमा का यथार्थ से कोई वास्ता नहीं होता! लेकिन, जब भी सिनेमा की कहानियां यथार्थ से भटकी, दर्शकों ने उसे नकार दिया। वास्तव में हमारा सिनेमा फिल्मोग्राफी पर टिका है। दर्शक कहानी को चलित चित्रों के जरिए देखते हैं और उससे जुड़ते हैं। फिल्मोग्राफी यानी चलित फ़ोटोग्राफ़ी चीज़ों को वैसे ही देखती है जैसी वो हैं। हमारे सिनेमा का फॉर्म यथार्थ प्रेरित था। जब फ़िल्में बनना शुरू हुई थी, तब देश गुलाम था। इसलिए कुछ फिल्मों दबा छुपा संदेश भी आजादी ही रहा! इसके अलावा भी फिल्मों की कहानी पर कई अन्य दबाव भी थे। सबसे बड़ा दबाव था कहानी पर निर्माण से जुड़े लोगों की स्वीकृति का! साथ ही ये शर्त भी चस्पा थी कि उसमें मनोरंजक भी हो! 

  यथार्थ और मनोरंजन ये दोनों तत्व हिंदी सिनेमा को तरह अपनी-अपनी तरफ खींचते थे। ऐसी स्थिति में एक तीसरा रास्ता निकला, जो यथार्थ और मनोरंजन दोनों का निर्वहन कर लेता था। वो था समाज की नैतिक कहानियों कहने का। घर और परिवार की अच्छाई और बुराई की लड़ाई दिखाइए, जिसमें काफी मुश्किलों के बाद सच्चाई जीत जाए तो बन गई कहानी। इसमें सामाजिक कहानियों के जरिए दर्शकों को जोड़ने की गुंजाइश थी। यदि दो जुड़वां भाई हैं, एक अच्छा एक बुरा! बुरे पिता की अच्छी संतान! इसमें जो अच्छा और ईमानदार था, वो त्याग करता, परेशानियाँ सहता! दूसरा बुराई का साथ देता! लेकिन, जीत अंततः सच्चाई की होती! ये एक ही मन के दो विपरीत चेहरे जैसी बात थी।
  हिंदी और अन्य देश की फ़िल्मों में एक मूल अंतर ये था कि पश्चिम की फ़िल्मों में एक परिस्थिति विशेष का मनोवैज्ञानिक चित्रण वस्तुपरक नज़रिए से किया जाता है। जबकि, हमारी फ़िल्में दर्शक के नज़रिए से स्थिति का चित्रण करती हैं। वास्तव में हमारे देश की फ़िल्में दर्शक का नज़रिया ही पर्दे पर दिखाती हैं। हमारी परंपरा में बातें रही हैं, कि कोई जन्म से बुरा नहीं होता! वक़्त और हालात किसी को अच्छा या बुरा बनाते हैं। इसी फॉर्मूले को फ़िल्मों ने भी आत्मसात कर लिया। त्याग और रूमानी नैतिकता पर ज़ोर था तो उसे लेकर फ़िल्में बनीं और चलीं। भारतीय सिनेमा का यथार्थ से तो वास्ता नहीं था, मगर जो कथ्य थे वो हमारे मूलभूत विश्वासों से निकले थे इसलिये ये फ़िल्में दर्शकों को ज्यादा रुझाती थीं।
  समय और साक्षरता जैसे कुछ अन्य तत्व भी सिनेमा को प्रभावित करते हैं। एक ज़माना था, जब बंगाल और केरल में सुखांत फ़िल्में कभी सफल नहीं हुई! उसी बंगला फ़िल्म का हिंदी संस्करण हो या केरल की फ़िल्म का तमिल संस्करण, वो सुखांत हो सकता था। मगर, केरल या बंगाल की फ़िल्म के सफल होने की पहली शर्त उनका दुखांत होना था। इसका कारण वहाँ के पढ़े-लिखे और संजीदा दर्शकों को दिया जाता था! मगर समय और परिस्थिति के साथ ये चलन बदल गया। प्रसार माध्यमों के फैलाव से सभी जगह एक जैसा चलन आ गया! उसके बाद जो सामूहिक सोच चली तो सभी दर्शकों का सोच एक सा हो गया। आज की फ़िल्में दर्शकों माध्यम से समाज में आकांक्षाएं जगाती हैं। इन अपूरित इच्छाओं को दर्शक फ़िल्म के माध्यम से कल्पनाओं में पूरी करता है।
  फिल्म कला का मकसद दर्शकों को एक अंर्तदृष्टि देने का होता है। बात सिर्फ फिल्मों पर नहीं, हर कला माध्यम पर लागू होती है। जब शिल्प और कला एकाकार हो जाते हैं तो दो और दो चार नहीं, बल्कि पाँच हो जाते हैं। हर कलात्मक माध्यम में जादू जगाने के लिए दोहरी सजगता ज़रूरी होती है। ये जादू हर बार जागे ये ज़रूरी तो नहीं, मगर कोशिश यही होनी चाहिए। हिंदी फ़िल्में दर्शकों को कल्पना की दुनिया में ले जाकर थोड़ी देर के लिए तनाव से मुक्त तो करती हैं, मगर साथ ही असली दुनिया की वास्तविकताओं से काटकर वो दर्शकों को झूठ में शरण लेने की प्रेरणा देती हैं। ऐसे सिनेमा उम्र ज्यादा लम्बी नहीं होती।
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