Saturday, April 8, 2017

जमीनी यथार्थ के संकट से जूझती फ़िल्में


- हेमंत पाल 

    सिनेमा का यथार्थ से कोई वास्ता नहीं होता! लेकिन, जब भी सिनेमा की कहानियां यथार्थ से भटकी, दर्शकों ने उसे नकार दिया। वास्तव में हमारा सिनेमा फिल्मोग्राफी पर टिका है। दर्शक कहानी को चलित चित्रों के जरिए देखते हैं और उससे जुड़ते हैं। फिल्मोग्राफी यानी चलित फ़ोटोग्राफ़ी चीज़ों को वैसे ही देखती है जैसी वो हैं। हमारे सिनेमा का फॉर्म यथार्थ प्रेरित था। जब फ़िल्में बनना शुरू हुई थी, तब देश गुलाम था। इसलिए कुछ फिल्मों दबा छुपा संदेश भी आजादी ही रहा! इसके अलावा भी फिल्मों की कहानी पर कई अन्य दबाव भी थे। सबसे बड़ा दबाव था कहानी पर निर्माण से जुड़े लोगों की स्वीकृति का! साथ ही ये शर्त भी चस्पा थी कि उसमें मनोरंजक भी हो! 

  यथार्थ और मनोरंजन ये दोनों तत्व हिंदी सिनेमा को तरह अपनी-अपनी तरफ खींचते थे। ऐसी स्थिति में एक तीसरा रास्ता निकला, जो यथार्थ और मनोरंजन दोनों का निर्वहन कर लेता था। वो था समाज की नैतिक कहानियों कहने का। घर और परिवार की अच्छाई और बुराई की लड़ाई दिखाइए, जिसमें काफी मुश्किलों के बाद सच्चाई जीत जाए तो बन गई कहानी। इसमें सामाजिक कहानियों के जरिए दर्शकों को जोड़ने की गुंजाइश थी। यदि दो जुड़वां भाई हैं, एक अच्छा एक बुरा! बुरे पिता की अच्छी संतान! इसमें जो अच्छा और ईमानदार था, वो त्याग करता, परेशानियाँ सहता! दूसरा बुराई का साथ देता! लेकिन, जीत अंततः सच्चाई की होती! ये एक ही मन के दो विपरीत चेहरे जैसी बात थी।
  हिंदी और अन्य देश की फ़िल्मों में एक मूल अंतर ये था कि पश्चिम की फ़िल्मों में एक परिस्थिति विशेष का मनोवैज्ञानिक चित्रण वस्तुपरक नज़रिए से किया जाता है। जबकि, हमारी फ़िल्में दर्शक के नज़रिए से स्थिति का चित्रण करती हैं। वास्तव में हमारे देश की फ़िल्में दर्शक का नज़रिया ही पर्दे पर दिखाती हैं। हमारी परंपरा में बातें रही हैं, कि कोई जन्म से बुरा नहीं होता! वक़्त और हालात किसी को अच्छा या बुरा बनाते हैं। इसी फॉर्मूले को फ़िल्मों ने भी आत्मसात कर लिया। त्याग और रूमानी नैतिकता पर ज़ोर था तो उसे लेकर फ़िल्में बनीं और चलीं। भारतीय सिनेमा का यथार्थ से तो वास्ता नहीं था, मगर जो कथ्य थे वो हमारे मूलभूत विश्वासों से निकले थे इसलिये ये फ़िल्में दर्शकों को ज्यादा रुझाती थीं।
  समय और साक्षरता जैसे कुछ अन्य तत्व भी सिनेमा को प्रभावित करते हैं। एक ज़माना था, जब बंगाल और केरल में सुखांत फ़िल्में कभी सफल नहीं हुई! उसी बंगला फ़िल्म का हिंदी संस्करण हो या केरल की फ़िल्म का तमिल संस्करण, वो सुखांत हो सकता था। मगर, केरल या बंगाल की फ़िल्म के सफल होने की पहली शर्त उनका दुखांत होना था। इसका कारण वहाँ के पढ़े-लिखे और संजीदा दर्शकों को दिया जाता था! मगर समय और परिस्थिति के साथ ये चलन बदल गया। प्रसार माध्यमों के फैलाव से सभी जगह एक जैसा चलन आ गया! उसके बाद जो सामूहिक सोच चली तो सभी दर्शकों का सोच एक सा हो गया। आज की फ़िल्में दर्शकों माध्यम से समाज में आकांक्षाएं जगाती हैं। इन अपूरित इच्छाओं को दर्शक फ़िल्म के माध्यम से कल्पनाओं में पूरी करता है।
  फिल्म कला का मकसद दर्शकों को एक अंर्तदृष्टि देने का होता है। बात सिर्फ फिल्मों पर नहीं, हर कला माध्यम पर लागू होती है। जब शिल्प और कला एकाकार हो जाते हैं तो दो और दो चार नहीं, बल्कि पाँच हो जाते हैं। हर कलात्मक माध्यम में जादू जगाने के लिए दोहरी सजगता ज़रूरी होती है। ये जादू हर बार जागे ये ज़रूरी तो नहीं, मगर कोशिश यही होनी चाहिए। हिंदी फ़िल्में दर्शकों को कल्पना की दुनिया में ले जाकर थोड़ी देर के लिए तनाव से मुक्त तो करती हैं, मगर साथ ही असली दुनिया की वास्तविकताओं से काटकर वो दर्शकों को झूठ में शरण लेने की प्रेरणा देती हैं। ऐसे सिनेमा उम्र ज्यादा लम्बी नहीं होती।
--------------------------------------------------------

No comments: