- हेमंत पाल
हिंदी सिनेमा का सफर प्रेम, बदला, राजनीति, धर्म, कॉमेडी और पारिवारिक विवादों तक ही सीमित है। इस दायरे से बाहर भी फ़िल्में बनती रही हैं। आज के सिनेमा को देखा जाए तो हिंदी मीडियम, तनु वेड्स मनु : रिर्टन्स, टॉयलेट : एक प्रेमकथा, द गाज़ी अटैक, शुभमंगल सावधान, फिल्लौरी, लिपस्टिक अंडर माय बुरका, नाम शबाना और बरेली की बरफी जैसी फिल्में भी हैं। इस बीच राजनीतिक फिल्मों का भी दौर आया। 'कलयुग' एक श्रेणी में मिसाल थी, उसके बाद 'सत्ता' जैसी फिल्मों ने सत्ता समीकरण में स्त्री-विमर्श के हस्तक्षेप से नया मोर्चा संभाला। बाद में राजनीति की छौंक मणिरत्नम, मृणाल सेन, गुलजार की तरह विशाल भारद्वाज और प्रकाश झा ने भी लगाई। राजनीति और पारिवारिक संबंधों को लेकर गुलजार ने 'आंधी’ के बाद राजनीतिक षडय़ंत्रों की कॉमिक सिचुएशन पर ‘हु तू तू’ और फिर विशाल भारद्वाज के साथ आतंकवाद के रिश्तों को पनपाती ‘माचिश’ का निर्माण किया। लेकिन, हिंदी सिनेमा में राजनीति की बिसात पर आज युवा, रंग दे बसंती, पार्टी या ए वेडनेसडे और ‘ब्लैक फ्राई डे’ जैसी फिल्मों की जरुरत ज्यादा है।
अब 'ट्रेन टू पाकिस्तान' या 'अर्थ 1947' के बजाए आज की राजनीति का नया आकलन करने वाली ‘परजानिया’ जैसी फिल्मों की सख्त जरूरत है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो राजनीतिक सिनेमा के नए तेवर सामने कैसे आएंगे? दरअसल, समस्या यह नहीं है कि राजनीतिक फिल्में कैसे बनाई जाएं, बल्कि असल समस्या फिल्मों को राजनीतिक बनाने की है। हमारे हिंदी सिनेमा का कमर्शियल नजरिए से देखने वाला तबका इसे आसान बनाकर 'फना' जैसी फिल्म बनाता है। तो दूसरा बौद्धिक खेमा सिनेमा की अवधारणा में अचानक कैद होकर-शैक्सपीयर ड्रामे के रूपांतरण का मजा लेता है! उसे ‘मकबूल’ या ‘ओंकारा’ के अपराध जगत में भी प्रेम और राजनीति की गठजोड़ के छद्म रूपक की नई लीला रचकर संतुष्टी होती है। जबकि, हिंदी सिनेमा को शेक्सपीयर के नाटकों से कहीं ज्यादा हिंदी उपन्यासों के कथानक की दरकार होनी चाहिए। सवाल खड़ा होता है कि क्या उन उपन्यासों में नई पटकथाओं की गुंजाइश नहीं है, जो नया सिनेरियो प्रस्तुत कर सकें?
जमींदार के खूंटे से बंधी दलित राजनीति के जिस प्रपंच को श्याम बेनेगल ‘निशांत’ और ‘मंथन’ से दिखा चुके थे। उन हलकों में प्रतिकार की ताकत पैदा की प्रकाश झा के नए सिनेमा ने! ‘दामुल’ यदि उसका बेहतरीन उदाहरण है, तो ‘अपहरण’ उसी मानसिकता वाले औजारों से अलग तेजी से बदती राजनीति के हिंसक प्रतिरूपों की पहचान है। बाद में इसे प्रकाश झा ने 'राजनीति' में और पैना किया। ‘राजनीति’ से पहले राजनीति के नए आयाम ‘गुलाल’ दिखा चुकी है। युवा पीढ़ी के प्रतिबिंबों को झलकाती एक से एक बेहतर तस्वीरें रंग दे बसंती, लगे रहो मुन्नाभाई, दिल्ली-6 तक में दिखाई और आजमाई जा चुकी हैं।
राजनीतिक विषयों पर जब भी कोई फिल्म आती है, परदे पर उतरने से पहले ही वह चर्चित हो जाती है। लोगों में उत्सुकता जगा जाती है। लेकिन, प्रकाश झा की फिल्म का नाम ‘राजनीति’ होते हुए भी इस फिल्म को लेकर कोई कॉन्ट्रोवर्सी नहीं हुई! जबकि, गांधी परिवार को लेकर राजनीति पर बनी फिल्में रिलीज के पहले ही खूब पब्लिसिटी बटोरती हैं। बरसों पहले आई गुलजार की ‘आंधी’ को भी जमकर कॉन्ट्रोवर्सी हुई थी। क्योंकि, उसमें सुचित्रा सेन को इंदिरा गांधी से मिलते जुलते किरदार और गेटअप में प्रस्तुत किया गया था। हाल मधुर भंडारकर की फिल्म 'इंदू सरकार' को लेकर भी यही सब हुआ। इसमें नील नितिन मुकेश का लुक संजय गाँधी से मिलता जुलता था। पर, जितना विवाद हुआ, उतनी फिल्म फिल्म नहीं चली! लेकिन, ये नितांत सत्य है कि सौ साल बाद भी भारतीय सिनेमा दायरे से बाहर नहीं आ पाया! उसकी छटपटाहट तो दिखती है, पर कोई कोशिश करना नहीं चाहता! सब प्रेम कहानियाँ, एक्शन या कॉमेडी बनाकर सौ करोड़ के क्लब शामिल होने के सपनों की गिरफ्त से ही बाहर नहीं आ पा रहे!
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