Saturday, October 21, 2017

मनोरंजन में आने लगा देसीपन!

- हेमंत पाल

   एक ही ढर्रे पर चलने वाले टेलीविज़न के सीरियलों की पृष्ठभूमि में बदलाव नजर आने लगा है। अब नए कथानकों पर भी सीरियलों की कहानियां गढ़ी जाने लगी। अभी तक छोटे शहरों और कस्बों पर केंद्रित सीरियलों के परिवार देखने में आम संस्कारी परिवारों जैसे दिखते थे। लेकिन, उनकी मानसिकता आम लोगों से नहीं जुड़ती थी, पर अब कुछ अलग दिखने लगा! जिस मकसद से उन्हें रचा गया वह अब पीछे छूटता नजर नहीं आता है। वास्तव में टीवी के ये सीरियल परिवार और समाज में महिलाओं की दयनीय स्थिति, रीति-रिवाज, ऊंच-नीच, धर्म और जाति के आधार पर उनके शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करने के इरादे से मैदान में उतरे थे। लेकिन, इनमें से अधिकांश सामाजिक व्यवस्था में सुधार की कोई नई दिशा नहीं दिखा पाए। दरअसल, मजबूरी शायद ये रही कि किसी ने भी लीक तोड़ने का खतरा नहीं उठाया।
   किसी भी फिल्म या सीरियल से यथार्थ की हद तक स्वाभाविकता की उम्मीद नहीं की जा सकती। यथार्थ और कल्पना के बीच फर्क तो बना रहना भी जरुरी है। लेकिन, कल्पनाशीलता में विश्वसनीयता का आभास होना चाहिए। दर्शक को चरित्र अपने आसपास के लगें, उनकी खुशी और दर्द से दर्शक खुद से जोड़ पाए यही किसी सीरियल की सार्थकता मानी जाती है। इस कसौटी पर फिलहाल कुछ सीरियल जरूर खरे उतरते दिखाई दिए हैं। ‘लाइफ ओके’ के नए चेहरे 'स्टार भारत' पर आने वाले सीरियलों में भारतीय परंपरा और समाज की नई पहचान नजर आ रही है। मनोरंजन का देसीपन नजर आने लगा है, जो हमारे आसपास की कहानी लगती है। 
 अभी तक हो ये रहा था कि यदि किसी सीरियल को दर्शकों ने पसंद कर लिया तो उसी फार्मूले को भुनाने के चक्कर में उसके कथानक को अनावश्यक विस्तार दिया जाने लगता है। ये प्रयोग हर चैनल पर होते हैं और हर चैनल ने सीरियलों का अपना एक अलग ही समाज बना रखा है। इसमें सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा महिलाओं के किरदार पर! क्योंकि, सीरियलों वाले समाज में महिलाओं के दो ही रूप हैं। वो या तो शोषण करने वाली कुटिल सास, बुआ, दादी या भाभी है या फिर सबकुछ सहने वाली बहू! कथानक को सही ठहराने के लिए इस पर मान्यताओं और परंपराओं का आवरण चढ़ा दिया गया।
  महानगरों और शहरों में बसने वाले समाज में हालात भले बदले हों, लेकिन सीरियलों की दुनिया में रूढ़ियों का सोच जस का तस है। इस पर दलील यह दी जाती है कि आज के टेलीविजन दर्शकों को यही नाटकीयता पसंद है। लेकिन, इस आड़ में सीरियल बनाने वाले अपने अधकचरे समाज को सही ठहरा रहे हैं। क्योंकि, उनका तर्क है कि नई सामाजिक व्यवस्था देना या नई सोच जगाने का दायित्व उनका नहीं है। सीरियलों ने समाज से ही अपने किरदार बनाए हैं और अपने नजरिए से उन्हें विकसित किया। लेकिन, धीरे-धीरे बदल रही है। अब नए विषय उठाए जा रहे हैं। चरित्रों को भावनात्मक पहचाने देने की कोशिश हो रही है।
 सीरियलों का रंगरूप बदलने का सिलसिला अब नए सिरे से शुरू हुआ है। पारिवारिक साजिश और सामाजिक सुधार का ढिंढोरा पीटने वाले सीरियलों की दौड़ में कुछ ऐसे सीरियल भी जुड़े, जिन्होंने मानवीय रिश्तों की संवेदनाओं को उभारा। इन सीरियलों ने एक अलग विषयों से दर्शकों को बांधने की कोशिश की। परिवार वही रहे, पर उनकी मानसिकता बदलने लगी। ईर्ष्या और बदले के तत्व इन सीरियलों में भी रहे, पर वे कथानक पर हावी नहीं हुए। रिश्तों में उतार-चढ़ाव तो दिखा, लेकिन वे जोड़ने की कोशिश में वे ज्यादा लगे नजर आए।
 'स्टार भारत' के इन सीरियलों में नाटकीयता तो है, जो मनोरंजन की खातिर होना भी चाहिए। लेकिन, साजिशों का भंवरजाल नहीं! इन गिनती के सीरियलों ने सकारात्मक सोच देने की भी कोशिश की है। आज स्थिति यह है कि सीरियल पारिवारिक पृष्ठभूमि के हों या इतिहास के पन्नों को साकार करने वाले। या फिर पौराणिक अथवा दंतकथाओं की पृष्ठभूमि वाले! कुछ को छोड़कर सभी की स्थितियां गढ़ने की कल्पनाशीलता एक जैसी हैं। देखना है कि सफल फार्मूलों की नक़ल करने वाले चैनल 'स्टार भारत' के सकारात्मक सोच की नक़ल करते हैं या नहीं?
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