- हेमंत पाल
आज के सिनेमा ने मनोरंजन के मायने बदल दिए। अब सिनेमा मतलब टाइम पास नहीं बचा। फिल्मकारों ने भी समझ लिया है कि नई पीढ़ी के दर्शक लटकों-झटकों से संतुष्ट नहीं होंगे। उन्हें कुछ ऐसा मनोरंजन देना होगा, जो सार्थक हो और जीवन करीब लगे! यही कारण है कि करण जौहर जैसे आधुनिक फिल्मकार भी अपने रोमांटिक सोच से बाहर निकले और 'बॉम्बे टॉकिज' जैसी फिल्म बनाने को मजबूर हुए। हिंदी सिनेमा ने दर्शकों की बेचैनी को ठीक से इसलिए भी समझा कि लोग बड़ी मुश्किल से थिएटर की तरफ मुड़े हैं। बीच के कुछ साल ऐसे भी बीते जब दर्शकों ने सिनेमा से नाता ही तोड़ लिया था।
हाल के वर्षों में तनु वेड्स मनु : रिर्टन्स, हिंदी मीडियम, टॉयलेट : एक प्रेमकथा, द गाज़ी अटैक, शुभमंगल सावधान, फिल्लौरी, लिपस्टिक अंडर माय बुरका, नाम शबाना और बरेली की बरफी जैसी कुछ फिल्मों ने दर्शकों नई तरह का सिनेमा दिखाया। इंडस्ट्री को ऐसे पटकथाकार भी दिए, जो कुछ नया सोचते हैं। इन सभी फिल्मों में न तो स्टार थे और न बॉलीवुड मसाला। इसके बावजूद इन फ़िल्मों ने दर्शकों का जमकर मनोरंजन किया और अच्छी ख़ासी कमाई भी की। इसी का असर है कि इन दिनों बॉलीवुड फ़िल्मों में कहानियों की विषय वस्तु से लेकर उसे दिखाने का ढंग भी बदलने लगा है।
वैसे तो आज भी फ़िल्में हीरो प्रधान ही बनती हैं, लेकिन अब कहानी में चरित्र प्रधान होने लगे। दर्शकों का ध्यान अब हीरो, हीरोइन के अलावा अन्य चरित्रों पर भी जाता है। पाँच साल पहले क्या कोई 'पीकू' और 'शुभमंगल सावधान' जैसी फ़िल्मों के बारे में सोचा सकता था? इसमें भी 'शुभमंगल सावधान' का तो विषय ही ऐसा है जो बिल्कुल अनोखा है। 'शुभमंगल सावधान' जैसे निहायत निजी विषय पर भी फिल्म बनाने के प्रयोग को हिम्मत ही माना जाना चाहिए। लेकिन, आजकल ऐसे ही अनोखे और नए विषयों पर फ़िल्म बनाने के प्रयोग होने लगे। क्योंकि, अब दर्शकों की रूचि भी ऐसे विषयों को लेकर बढ़ी है।
देखा जाए तो आज के सिनेमा ने तमाम तरह की रूढ़ियों और वर्जनाओं को खंडित किया है। इसने वक़्त की नब्ज को पहचाना और ऐसा दर्शक वर्ग तैयार किया, जिसे प्रेम और खून का बदला खून जैसी कहानियों में कोई रूचि नहीं है। अब तो कथानक, भाषा, पात्र के अलावा प्रस्तुतिकरण में भी बदलाव दिखाई देने लगा! सबसे बड़ी बात ये कि दर्शकों ने सिनेमा के इस बदले रूप को स्वीकार भी किया है। कुछ ऐसी फिल्में भी बनी, जिन्होंने सिनेमा और समाज के परम्परागत ढांचों को तोड़कर जीवन के बीच से नई कहानियां खोजी है। इस तरह के बदलाव पहले भी आए, लेकिन अब ऐसी फ़िल्में कुछ ज़्यादा बनने लगी जो हमारे आसपास की कहानी लगती है। सुपर हीरो वाली कहानियों की जगह चरित्र वाली कहानियाँ ज्यादा आ रही हैं। माना जा रहा है कि पटकथा लेखकों के निर्देशक बनने से ये दौर मुमकिन हुआ है। ये लोग असली जिंदगी की पैचीदगियों को परदे पर उतारना चाहते हैं, इसलिए वे हर पटकथा पर ज्यादा रिसर्च भी करते हैं।
'शुभमंगल सावधान' नए सोच के सिनेमा का सटीक नमूना है। कोई सोच सकता है कि नायक की कमजोर पुरुषत्व वाली समस्या को भी फिल्म की कहानी का विषय बनाया जा सकता है। परफॉर्मेन्स एंग्जायटी आदमी के जीवन पर किस हद तक असर डाल सकती है! सही जानकारी के अभाव में कोई मानसिक रूप से कितना परेशान हो सकता है! आज खुलेपन के दौर में इस फिल्म में बिना शारीरिक संबंध के भी पति-पत्नी के प्यार को अहमियत दी गई है। सिर्फ प्यार के आधार पर कैसे रिश्ता निभाया जा सकता है और एक साधारण सी लड़की पति की उस एंग्जायटी को दूर करने में सबसे ज्यादा मददगार बनती है। 'शुभमंगल सावधान' का ये विषय दर्शकों को भी लुभाया। क्योंकि, ये नई तरह के सोच वाली कहानी जो है।
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