Saturday, May 5, 2018

फिल्मों में ज्यादा लहराई गंगा की लहरें


- हेमंत पाल

  आज की राजनीति भले की गंगा की तरह पावन न रह गई हो, लेकिन गंगा का देश की राजनीति में बहुत अधिक महत्व रहा है। कभी ऐसा जमाना था, जब गंगा किनारे के नेता देश के भाग्य विधाता हुआ करते थे। आज भी देश का नेतृत्व गंगा का प्रतिनिधित्व करता है भले ही उसका उदगम साबरमती से हुआ हो। गंगा और राजनीति का प्रभाव इतना है कि गंगा के नाम पर वोट मांगे जाते हैं, चुनावी वैतरणी पार की जाती है बावजूद इसके गंगा की हालत उससे भी बदतर होती जा रही है जितनी मैली उसे फिल्मों तक में नहीं दिखाया गया है। हमारा सिनेमा भी गंगा के आकर्षण से  भी अछूता नहीं रहा है। फिल्मों में इसे बड़े फलक पर उकेरा गया है। शायद इसकी वजह नदी को लेकर मौजूदा सांस्कृतिक मूल्य है। यहाँ के लोगों का नदी से काफी जुड़ाव है। वे अपनी संस्कृति को इनसे जोड़कर देखते हैं। वैसे सिनेमा में बनारस को गंगा का पर्यायवाची माना जाता है। फिल्मों में नदियों को खूब फिल्माया गया है। दिलचस्प बात ये है कि इसके लिए बनारस को ही चुना जाता रहा है। गंगा को लेकर पहली भोजपुरी फिल्म 1962 में ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़एबो’ बनी थी। यह फिल्म सिनेमा हाल में 25 हफ्तों से ज्यादा चली थी। 
   सिनेमा जगत बनारस को लोकर काफी उत्साहित रहा है। यह पहले भी था और आज भी है। फिल्म निर्माता शूटिंग के लिये यहाँ आते रहते हैं। इसकी वजह शहर में पसरा आध्यात्म है जो फिल्म निर्माताओं को अपनी तरफ खींचता है। 1973 में 'बनारसी बाबू' फिल्म बनी थी। इसमें देवानंद का डबल रोल था। फिल्म के एक दृश्य में देवानंद मुंबई की गलियों में टहलते हैं। उन्हें अचानक पान की दुकान दिखती है। वह पान वाले के पास जाते हैं। पान वाला उनसे पूछता है कि कौन सा पान बाबू? देव ठेठ बनारसी टोन में कहते हैं ‘मगहई दुई बीड़ा।’ देवानंद को अपना टोन सटीक करने में दो हफ्ते लग गए थे। 'डॉन' फिल्म का हिट गाना खाई के पान बनारस वाला ... छोरा गंगा किनारे वाला गाना कौन भूल सकता है। मजे की बात यह है कि कल्याणजी आनंदजी ने इसे बनारसी बाबू के लिए ही तैयार किया था। 
   रूपहले पर्दे पर गंगा को लेकर कई ऐसी फिल्में भी बनी हैं, जो उसके किनारे पनप रहे एक अन्य पहलू को दर्शाती है। वह पहलू पूजापाठ वाली संस्कृति से अलग है। ऐसी ही एचएस रवैल की  फिल्म संघर्ष है, जो 1968 में बनी। यह फिल्म महाश्वेता देवी की बांग्ला कहानी ‘लाली असजेर आइना’ पर आधारित है। फिल्म में बनारस के उस पहलू को दर्शाया गया है जहाँ पर अपराध और हिंसा पनपती है। राज कपूर को भी गंगा से काफी लगाव रहा है। गंगा के शीर्षक से दो फिल्में बनाई थी। एक थी ‘जिस देश में गंगा बहती है’। यह फिल्म चंबल के डकैतों के ईर्द-गिर्द घूमती है। राज कपूर डकैतों को सुधारने की कोशिश करते हैं। दूसरी फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ थी। लेकिन इसमें गंगा के प्रदूषण पर कुछ नहीं दिखाया गया था। यह एक प्रेम कहानी थी। वैसे तो ऐसी दर्जनों फिल्में बन चुकी हैं, जिनमें गंगा शीर्षक के रूप में मौजूद है। लेकिन शायद ही कोई फिल्म ऐसी बनी हो ,जिसमें नदी की दुर्दशा को दिखाया गया हो। 
  वास्तविकता तो यह है कि फिल्म निर्माता गंगा के नाम को सिर्फ भुना रहे हैं। मसलन 'गंगा जमुना' यह 1961 में बनी थी। दिलीप कुमार और वैजंतीमाला इसमें मुख्य भूमिका में थे। यह फिल्म भी डकैतों की पृष्ठभूमि पर आधारित थी। एक अन्य फिल्म भी गंगा के शीर्षक पर बनी थी जिसका नाम है ‘जिस देश में गंगा रहता है’ यह फिल्म बेहद बकवास थी। ‘गंगा जमुना सरस्वती’ एक और फिल्म है। इसमें तीनों नदियों के बारे में कुछ नहीं दिखाया गया था। अमिताभ की 'गंगा की सौंगध' में सिर्फ इसकी कसमें ही खाई गई। जबकि, किशोर कुमार और कुमकुम की गंगा की लहरें में केवल एक गीत फिल्माकर छुट्टी कर ली गई थी। फिल्म ‘गंगाजल’ में भी गंगा नदी पर कोई बात न दिखाकर फिल्म में भागलपुर में हुए आँख फोड़वा कांड को दर्शाया गया था। 
   गंगा को शीर्षक के रूप में अन्य भाषाओं की फिल्मों में भी प्रयुक्त किया गया है। मसलन बांग्ला, तमिल, तेलुगू। लेकिन गंगा शीर्षक पर बनी सबसे बेहतरीन फिल्म ‘जय गंगा’ है, जो विजय सिंह के उपन्यास पर आधारित थी। दुर्भाग्यवश यह लेखक फिल्म को नहीं देख पाये। मगर इस फिल्म में गोमुख, गंगोत्री, ऋषिकेष, हरिद्वार और बनारस का बेहतरीन फिल्मांकन किया गया है। यह फिल्म 1996 में सीमित सिनेमा घरों में रिलीज हुई थी, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल नहीं रही। बात फकत इतनी है अभिनेता से लेकर नेता सभी ने गंगा का दोहन ही किया है।
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