Saturday, May 19, 2018

पानी पर फिल्म बनाने से बचता क्यों है बॉलीवुड?

- हेमंत पाल

  ज जब देश के सामने पानी की समस्या विकराल रूप ले रही है, तो कोई भी फिल्मकार इस पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं! बॉलीवुड में इसे फ्लॉप प्लॉट माना जाता है। दरअसल, सिनेमा किसी भी मुद्दे को प्रभावी ढंग से लोगों तक अपनी बात पहुँचाने का सबसे सशक्त माध्यम है। क्योंकि, लोग इसे पर्दे पर देखते हैं और इसका सीधा असर उनके जहन पर पड़ता है। देखा जाए तो सामाजिक मुद्दों को लेकर बॉलीवुड शुरू से ही सजग रहा है। फिल्मों के शुरूआती काल से 80 के दशक तक सामाजिक मुद्दों पर कई गंभीर फिल्में बनी। राजकपूर, रित्विक घटक व दूसरे निर्देशकों ने भी अपनी कई फिल्मों का ताना-बाना सामाजिक मुद्दों से बुना! मगर 80 के दशक के बाद ऐसे कई मुद्दे हाशिए पर चले गए। सामाजिक मुद्दों पर फिल्में बननी कम हो गई, यही कारण है कि पानी की किल्लत पर भी फ़िल्में नहीं बन रहीं! 
  पानी की किल्लत पर भी ख्वाजा अहमद अब्बास ने 1971 'दो बूंद पानी' जैसी सामाजिक फिल्म बनाई! लेकिन, आज उस फिल्म का जिक्र तक नहीं होता। राजस्थान की पृष्ठभूमि और पानी की किल्लत पर आधारित इस फिल्म को राष्ट्रीय अखंडता के लिए पुरस्कार भी मिला था। लेकिन, 1971 के बाद से फिर पानी की समस्या पर कोई फिल्म नहीं बनी! अलबत्ता, आमिर खान ने 2001 में 'लगान' जरूर बनाई! ये फिल्म बारिश की कमी से किसानों को होने वाली परेशानी और अंग्रेज सरकार द्वारा वसूले जाने वाले लगान पर आधारित थी। अपने सशक्त कथानक के कारण फिल्म हिट रही, पर इसमें जलसंकट जैसा मूल मुद्दा दब गया। 2013 और 2014 में पानी के मुद्दे पर ‘कौन कितने पानी में’ और ‘जल’ जरूर आई थी। ‘जल’ को कच्छ के रण में फिल्माया गया था। ये बक्का नाम के एक ऐसे युवक की कहानी थी, जिसके पास दैवीय शक्ति है। इसके दम पर वो रेगिस्तान में भी पानी खोज सकता है। इस फिल्म को विदेशी भाषा की ऑस्कर अवॉर्ड फिल्मों में भारत की तरफ से भेजा भी गया था।
  निर्देशक शेखर कपूर भी कई दिनों से 'पानी' शीर्षक से फिल्म बनाने की योजना बना रहे हैं, पर अभी भी ये पेंडिंग ही है। फिल्म का मूल भाव है 'जब कुआँ सूख जाएगा, तब हम पानी की कीमत समझेंगे? इस फिल्म की कहानी 2040 के कालखंड जोड़कर बुनी गई है, जब मुंबई के एक क्षेत्र में पानी नहीं होता और दूसरे में पानी होता है। ऐसे में पानी के लिए जंग छिड़ती है, इसी जंग में प्रेम पनपता है। फिल्म में सुशांतसिंह राजपूत, आयशा कपूर और अनुष्का शर्मा हैं। इसका पोस्टर भी जारी किया गया, जिसमें एक आदमी मुंह में घड़ा लगाए दिखाया गया है, लेकिन घड़े में एक बूँद भी पानी नहीं होता! लेकिन, इस फिल्म को प्रोड्यूसर नहीं मिल रहा! शेखर कपूर ने भी इस बात को स्वीकारा कि उन्हें विदेशी प्रोड्यूसर तो फिल्म पर पैसे लगाने को तैयार हैं। लेकिन, वे चाहते हैं कि यह फिल्म भारतीय परिवेश वाली है इसलिए बेहतर हो कि प्रोड्यूसर भारतीय हो।
  फिल्म ‘कौन कितने पानी में’ दो गाँवों ऊपरी और बैरी की कहानी है। ऊपरी गाँव ऊँची जाति वालों का है और बैरी गाँव में पिछड़ी जाति के लोग रहते हैं।  लेकिन, वे जागरूक हैं और पानी को सहेजते हैं। एक ऐसा समय आता है, जब ऊँची जाति वालों के गाँव में पानी की किल्लत आती है। जबकि, पिछड़ी जाति वालों के गाँव में पानी बहुलता से रहता है। इस पानी के लिए ऊँची जाति वाले बैरी गाँव से छल प्रपंच करके पानी जुगाड़ लेते हैं। फिल्म का निष्कर्ष है कि यदि पानी को सहेजा नहीं गया तो इस किल्लत से हमें निपटना पड़ेगा। देखा गया है कि पानी की सबसे ज्यादा किल्लत गरीबों को ही चुकानी पड़ती है। अमीर तो पानी खरीदकर पी लेते हैं, लेकिन गरीब पानी खरीदकर किसे पियें?
 पानी की समस्या पर बनी एक फिल्म है ‘कड़वी हवा’ जिसकी कहानी दो ज्वलंत मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती है। एक है जलवायु में बदलाव के कारण बढ़ता जलस्तर और सूखे की समस्या! फिल्म में सूखाग्रस्त बुंदेलखंड दिखाया गया है। बुंदेलखंड ऐसा इलाका है, जो हमेशा सूखे के लिए चर्चित रहता है। सूखे की समस्या के कारण यहां के किसान कर्ज में डूबे हैं। उनकी आत्महत्याओं की ख़बरें भी लगातार आती ही रहती हैं। यहां तक कि गरीब किसान पेड़ों के पत्ते उबालकर खाने को मजबूर हो जाते हैं। किसानों की बेबसी और सूखी जमीन की हकीकत दिखाती फिल्म ‘कड़वी हवा’ में संजय मिश्रा ने बेहतरीन अभिनय किया है।
  पानी की किल्लत पर कई डॉक्यूमेंट्री भी बन चुकी है। इनमें से एक है 'थर्स्टी सिटी।' 2013 में बनी इस फिल्म में दिल्ली में पानी की किल्लत और पानी के लिए श्रमिकों के संघर्ष को कैमरे में कैद किया गया है। पानी की किल्लत पर फ़िल्में बनाने वाले निर्देशकों को इस पर काम करने का  विचार तब आया, जब उन्होंने अपनी आँखों से इस समस्या को देखा और महसूस किया! मानव अस्तित्व से जुड़ी इस गंभीर समस्या को समझते हुए फिल्म बनाने का साहस कर रहे हैं, यह अच्छी बात है। इससे यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि संगीन विषयों पर सार्थक फिल्में बनाने वाले दूसरे निर्देशक भी आगे आएंगे। वे पानी की समस्या को रूपहले पर्दे पर उकेरकर पानी का कर्ज उतारेंगे और अपना सामाजिक दायित्व पूरा करेंगे।
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