- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए अब दोनों प्रमुख प्रतिद्वंदियों ने अपने सेनापति बदल लिए। दोनों ही पार्टियों ने अपने पुराने सेनापति इसलिए छुट्टी दी कि वे पार्टी को चुनाव जिताने की कूबत नहीं रखते थे। आने वाले कुछ दिनों में ये सेनापति अपनी सेना भी चुन लेंगे। तब शुरू होगी असल सियासी जंग, जो तय करेगी कि प्रदेश की जनता का रुख क्या है? उसे डेढ़ दशक से चल रहे भाजपा के शासन को ही आगे ले जाना है या वो बदलाव चाहती है! सत्ता पर काबिज भाजपा से मुकाबले के लिए कांग्रेस ने कमलनाथ को अपना सेनापति चुना है। उनके राजनीतिक अनुभव पर किसी को शंका नहीं है, पर चुनाव में वे अपनी ही पार्टी के नेताओं के बीच कैसा सामंजस्य बना पाते हैं, ये सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होगा! क्योंकि, अभी सियासी हलकों में ये सवाल सबसे ज्यादा कुरेदा जा रहा है, कि कमलनाथ को नेतृत्व सौंपे जाने से ज्योतिरादित्य सिंधिया का रुख क्या होगा? क्या दिग्विजय सिंह पूरा जोर लगाकर कमलनाथ का साथ देंगे और बिना मुख्यमंत्री पद के चेहरे के कांग्रेस जनता के बीच क्या संदेश लेकर जाएगी? इन सारे सवालों के कोई भी जवाब ऐसे नहीं हैं, जो सवाल करने वाले को संतुष्ट कर सकें! क्योंकि, प्रदेश में इन तीनों नेताओं के बीच की तनातनी जगजाहिर है। अब कमलनाथ को भी अपने राजनीतिक जीवन के इस सबसे अहम् पड़ाव पर ये साबित करना है कि कांग्रेस हाईकमान ने उन पर जो भरोसा किया है, वो सही फैसला है।
000
मध्यप्रदेश में 15 साल से भाजपा की सरकार है। 2003 में पहली बार भाजपा ने दिग्विजय सिंह को 'मिस्टर बंटाधार' का तमगा देकर कांग्रेस को पराजित करके सत्ता हथियाई थी। उसके बाद से भाजपा ने कांग्रेस को सत्ता के नजदीक भी नहीं आने दिया। 2008 में कांग्रेस की आपसी फूट ने कांग्रेस को 70 सीटों के आसपास रोक दिया। जबकि, 2013 का चुनाव भाजपा ने नरेंद्र मोदी की लहर पर सवार होकर जीता! लेकिन, इस बार ऐसी कोई लआँधी, तुफान या लहर नजर नहीं आ रही, जो भाजपा की मददगार बने! कांग्रेस के सामने भी चुनौती है कि वो आपसी मतभेदों की खाई भरकर ऐसा राजनीतिक धरातल तैयार करे, जो चुनाव में उसे सशक्त प्रतिद्वंदी बनाकर उभारे! दिग्गजों के बीच आपसी तालमेल बनाने के लिए ही हाईकमान ने कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह के बीच मतभेदों को कम करने की कोशिश की है। सभी को अलग-अलग जिम्मेदारी सौंपी गई, लेकिन मुख्यमंत्री पद का चेहरा किसी को नहीं बनाया गया! अभी इस सवाल को अनुत्तरित ही छोड़ दिया गया है!
गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली सम्मानजनक हार के बाद कोलारस और मुंगावली उपचुनाव में मिली जीत के बाद कांग्रेस का उत्साह बल्लियों उछला! उसे ये अहसास हो गया कि यदि ईमानदारी से मेहनत की जाए और एकजुट प्रयास किए जाएं तो किला फतह किया जा सकता है। लेकिन, अभी तक कांग्रेस की चुनावी तैयारियां साफ़ तौर पर दिखाई नहीं दे रही थी! कमलनाथ को प्रदेश अध्यक्ष और ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव अभियान समिति की कमान सौंपकर पार्टी ने एक आधार जरूर तैयार कर दिया। ऐसे में अपनी आध्यात्मिक 'नर्मदा परिक्रमा' से उत्साहित होकर लौटे दिग्विजय सिंह की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी। उनका ये बयान कि न तो मैं चुनाव लडूंगा और न मुख्यमंत्री पद का दावेदार हूँ, पार्टी की एक नई दिशा तय करता है। यदि कांग्रेस चुनाव जीतती भी है, तो मुख्यमंत्री पद के दो दावेदार सामने होंगे, एक कमलनाथ और दूसरे ज्योतिरादित्य सिंधिया!
कमलनाथ को प्रदेश की राजनीति में सबसे पुराने नेताओं में गिना जा सकता है। चार दशक से ज्यादा समय पहले जब वे राजनीति में आए थे, तब दिग्विजय सिंह ने राजनीति का ककहरा सीखा ही होगा! ज्योतिरादित्य सिंधिया तो शायद तब ठीक से चलना भी नहीं सीखे होंगे। इमर्जेन्सी के दौरान में संजय गाँधी के दोस्त होने के नाते वे राजनीति में आए थे। लेकिन, प्रदेश की राजनीति में उन्होंने ज्यादा रूचि नहीं ली। उन्होंने खुद को अपने लोकसभा क्षेत्र छिंदवाड़ा और दिल्ली तक सीमित रखा। कांग्रेस की राजनीति में चार दशकों में बड़े उतार-चढ़ाओ के बाद भी उनके दबदबे में कोई कमी नहीं आई। आज 70 साल का होने के बावजूद उनका दम-ख़म बरक़रार है। मध्यप्रदेश की पार्टी मुखिया की कुर्सी संभालने की उनकी महत्वाकांक्षाओं ने कभी इतनी कुंचालें नहीं भरी कि वे किसी कि आँख की किरकिरी बनें! यही सबसे बड़ी वजह है कि वे हमेशा सर्वमान्य नेता बने रहे और हाईकमान के भी लाडले रहे। पर, अब हालात बदलते लग रहे हैं। उनके सामने सबको साथ लेकर चलना ऐसी चुनौती होगी, जो प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति का भविष्य तय करेगी।
प्रदेश में कांग्रेस को संजीवनी घुट्टी देने की जो कोशिशें हो रही हैं, उनमें कमलनाथ को एक उम्मीद की तरह देखा जा रहा है। दूसरे दिग्गजों के मुकाबले उन्हें प्रदेश अध्यक्ष के रूप में सबसे सशक्त चेहरा माना गया! ऐसा नहीं है कि पार्टी के इस फैसले पर उंगली नहीं उठी होगी! पार्टी में उनके विरोधी और प्रतिद्वंदी दोनों ने मोर्चे संभाले होंगे, पर उनको प्रदेश अध्यक्ष बनने से रोकने के फैसले को बदला नहीं जा सका। एक दौर ये भी आया जब उनके भाजपा में जाने तक की अफवाह उड़ी! ये भी समझा गया कि उनके भाजपा में जाने की अफवाह फैलाकर उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनने से रोका जाए! भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने भी यह कहकर इस खबर की आंच को तेज कर दिया था कि यदि वे हमारे साथ आते हैं तो हमें खुशी होगी। नंदकुमार चौहान की जगह कोई और नेता होता तो इस बात को गंभीरता से लिया जाता! लेकिन, भाजपा के पूर्व अध्यक्ष के बयानों को राजनीतिक रूप से कभी गंभीरता से नहीं लिया गया! इसलिए ये बात हवा में उड़ गई! कमलनाथ के अलावा कोई और नेता होता तो ये विवाद कहीं ज्यादा गहराता, पर कांग्रेस के प्रति कमलनाथ की प्रतिबद्धता पर शंका नहीं की जा सकती!
कमलनाथ के भाजपा में जाने की अफवाहों के बीच उनकी खामोशी के भी अलग-अलग मंतव्य निकाले गए! उनकी खामोशी को संदेह की नजर से भी देखा गया। इस अफवाह ने तब जोर पकड़ा था, जब एक अनौपचारिक चर्चा में कमलनाथ ने राहुल गाँधी के मुलाबले नरेंद्र मोदी को ज्यादा मेच्योर नेता बता दिया! उसकी इस बात के नए-नए मतलब निकाले गए। इसे उनकी भावी राजनीतिक योजना की तरह देखा और समझा गया। भाजपा नेताओं ने भी उनके नाम का संधि विग्रह करके उसे 'कमल' और 'नाथ' में बाँट दिया था। भाजपा में उनका स्वागत करने तक की बात कही जाने लगी थी। मुद्दे की बात ये इस अनपेक्षित हालात के बाद भी पार्टी ने कमलनाथ पर अपना भरोसा कम नहीं किया। पार्टी के प्रति उनकी साढ़े चार दशक की राजनीतिक प्रतिबद्धता का ही नतीजा था कि किसी अफवाह पर ध्यान नहीं दिया गया। कमलनाथ कांग्रेस में ही बने रहे और अब वे प्रदेश में पार्टी का झंडा उठाकर खड़े हैं। कांग्रेस ने उन्हें शिवराज-सरकार से मुकाबले के लायक समझा और कमान सौंप दी।
पीछे पलटकर देखें तो मध्यप्रदेश की कांग्रेस राजनीति में दिग्विजय सिंह के बाद कमलनाथ को अभी तक वो हैसियत नहीं मिली, जिसके वे हक़दार हैं। वे प्रदेश में अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, मोतीलाल वोरा, श्यामाचरण शुक्ल और माधवराव सिंधिया के मुकाबले कमजोर ही बने रहे। प्रदेश के मामलों में पार्टी हाईकमान पहले इन नेताओं की पहले सुनता था, बाद में कमलनाथ की! हाईकमान ने कमलनाथ को तवज्जो तो दी, पर उन्हें प्रदेश की राजनीति में ज्यादा दखल नहीं देने दिया गया। इस सच को नाकारा नहीं जा सकता कि अभी तक बड़े नेताओं की कतार में कमलनाथ को हमेशा दो कदम पीछे ही रहना पड़ा। गाँधी परिवार से नजदीकी के बावजूद वे कभी मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं बन सके। इस बार भी वे प्रदेश अध्यक्ष तो बना दिए गए, पर वे मुख्यमंत्री पद का चेहरा आज भी नहीं हैं।
माना कि कमलनाथ की गिनती राजनीति के सिद्धहस्त खिलाड़ियों में होती है। अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने कई उतार-चढाव देखे हैं, पर इस बार उनके सामने जो चुनौती है वो सबसे कठिन है। वे भी जानते हैं कि मध्यप्रदेश का राजनीतिक परिदृष्य उनके लिए काँटों के ताज से कम नहीं। उनके जितने राजनीतिक दुश्मन पार्टी के बाहर हैं, उससे ज्यादा पार्टी के अंदर ही बंकर बनाकर बैठे हैं। बाहर के हमलों से तो वे निपट सकते हैं, पर उन्हें घरेलू हमलों का भी मुकाबला करना है। वे प्रदेश अध्यक्ष बनकर आ जरूर गए, पर क्या वे अपने समकक्षों को संतुष्ट करने में सफल होंगे? इस पद के अन्य दावेदारों चेहरों के बीच उनके सफल होने का रास्ता न तो सीधा और न आसान! प्रदेश में ऐसे नेताओं की बड़ी फ़ौज तैयार है, जो प्रदेश में सरकार बनने की स्थिति में कलफ लगी खादी पहनकर बैठी है! ऐसे में टिकट चाहने वालों में से जीतने वाले चेहरों को छांटना भी आसान नहीं होगा। यदि कमलनाथ आपसी सामंजस्य बनाकर विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए बेदाग़ चेहरे छांटने में कामयाब हो जाते हैं, वो समझ लो उन्होंने आधा मैदान मार लिया! ये मुश्किल जरूर है पर नामुमकिन नहीं!
------------------------------ --------------------------
------------------------------
No comments:
Post a Comment