Sunday, August 4, 2019

परदे पर पागलपन बहुत पुराना चलन!

- हेमंत पाल

   पागलपन एक मानसिक रोग है, जिसमें इंसान अपने मस्तिष्क से नियंत्रण खो देता है और असामान्य व्यवहार करने लगता है। इस रोग ने फिल्मकारों को फिल्में बनाने का एक नया विषय जरूर दिया है। यह बात अलग है कि फिल्मी पागल आम पागलों से कुछ अलग होते हैं। हाल ही में आई फिल्म 'जजमेंटल है क्या' फिल्म को इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए! क्योंकि, इसमें कंगना रनौत और राजकुमार राव ने साइको किरदार निभाए हैं। वैसे हिन्दी फिल्मों में पागलपन का दौर कब आरंभ हुआ, कहना मुश्किल है। लेकिन, शुरुआती दिनों में फिल्मों में पागल या पागलखाने का एकाध सीन जोडकर फिल्म के कथानक को आगे बढाया जाता था। इन फिल्मों में दिखाए जाने वाले पागल किरदार कार्टून ज्यादा और पागल कम दिखाई देते थे। जब किसी किरदार को पागल बनकर पागलखाने भेजा जाता तो उसके इर्दगिर्द पागलों की पूरी फौज जमा होकर अजीबोगरीब हरकतें करती थी। यदि कोई नायिका पागलखाने जाती, तो उसे घेरने के लिए वहां की पागलों की फौज खड़ी हो जाती! लेकिन, यदि नायक पागलखाने जाता है, तो कामेडियन की फौज 'मेरी भेंस को डंडा क्यों मारा ...' जैसे गाने गाकर सवाल करने लगती!  

    फिल्मों में नायक या नायिका के पागल होने के कई कारण होते हैं।  वैसे तो हीरो-हीरोइन के पागल होने का कारण प्यार ही होता है। जिसका सबूत देने के लिए वह चीख चीख कर गाते हैं ' मै तेरे प्यार में पागल...' लेकिन नायक या नायिका को पागल बनाकर उनकी जायदाद हड़पने के लिए चाचा या मामा नहीं तो सौतेला भाई या सौतेली माँ दवाई देकर या डॉक्टर की मदद लेकर यह काम जरूर करते हैं। फिल्मों के करीब सभी छोटे-बड़े एक्टर परदे पर पागल बन चुके हैं। ऐसी फिल्मों में शम्मी कपूर प्रेम में हताश होकर 'पगला कहीं का' कहलाता है और डॉक्टर आशा पारेख का प्यार उसके पागलपन का इलाज करता है। 'इत्तेफाक' में राजेश खन्ना पागल बनकर नंदा के घर में घुसकर एक हत्या का पर्दाफाश करता है।  
  हिंदी सिनेमा में संजीव कुमार ने 'खिलौना' में अदाकारी करके पागल किरदार को एक रूतबा दिया था। उनकी 'खिलौना' में निभाई पागल की जानदार भूमिका को आज भी मील का पत्थर माना जाता है। इसके बाद 'अनहोनी' में वे फिर पागल बने थे! जहाँ संजीव कुमार और राजेश खन्ना पागलों की भूमिका में सजीव लगे, वहीं जीतेंद्र और राजेंद्र कुमार ने कुर्ता फाड़ पागल बनकर हास्यास्पद काम ही किया। किशोर कुमार और महमूद तो फिल्मों में पागल बनकर उछलकूद ही करते रहे! जबकि, राजेंद्रनाथ को हर भूमिका में पागल की तरह मुद्राएं बनाते देखा गया। 
    यदि पागलपन या मानसिक विक्षुप्तता पर बनी फिल्मों को देख जाए, तो 'इत्तेफाक' और 'खिलौना' के बाद या उससे कहीं ऊपर राजेश खन्ना और वहीदा रहमान की फिल्म 'खामोशी' का नंबर आता है। इसमें पागल रोगी का इलाज करने वाली नर्स वहीदा रहमान उसी पागल के प्रेम में सही में पागल हो जाती है। श्रीदेवी और कमल हासन की 'सदमा' को भी ऐसी यादगार फिल्मों में गिना जा सकता है। इस विषय पर बनी देवआनंद की 'फंटूश' और सुनील दत्त की 'यादें' भी उल्लेखनीय फ़िल्में हैं। 'दिल दिया दर्द लिया' के क्लाइमेक्स में प्राण ने पागल की जबरदस्त एक्टिंग की थी। देखा जाए तो 'रंगा खुश' का जोगिंदर, 'शोले' का गब्बर सिंह, 'शान' का शाकाल और 'मिस्टर इंडिया' का मुगेम्बो जैसे किरदार भी किसी पागल से कम नहीं थे। 
  नए दौर की फिल्मों में शाहरुख़ खान ने 'डर' में जुनूनी प्रेमी  संजय दत्त ने 'खलनायक' सलमान खान ने 'तेरे नाम' में राधे मोहन की भूमिका में और एक्शन अभिनेता रितिक रोशन ने 'कोई मिल गया' में एक अर्धविक्षिप्त व्यक्ति का जो रोल किया था, वो कौन भूल सकता है। यही बात 'जजमेंटल है क्या' पर भी लागू होती है। कंगना रनौत और राजकुमार राव ने परदे पर अपनी हरकतों से जो इमेज बनाई, वो परदे के पागल किरदारों पर ज्यादा हावी रही! 'गली गुलियां' में मनोज बाजपेई मानसिक बीमार का रोल निभाने की तैयारी में हैं। मनोज इस फिल्म में एक जीनियस का किरदार निभाएंगे, जिसे लोग भुलाने लगते हैं। इस वजह से इस शख्स का मानसिक संतुलन बिगड़ने लगता है। तो इसका मतलब है कि परदे पर पागलपन का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ!
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