मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार जिस दिन से बनी है, उसी दिन से सबसे ज्यादा इसी बात की चर्चा है कि ये सरकार कितने दिन चलेगी! भाजपा के नेता तो शुरू से ही सरकार के गिरने के दावे कर रहे हैं। कई बार ये बयान भी सामने आए कि किसी भी दिन सरकार गिरा दी जाएगी! लेकिन, अभी तक भाजपा तो सरकार नहीं गिरा सकी! पर, कांग्रेस में जरूर असंतोष की हवा चलने लगी है। निगम-मंडलों में नियुक्तियां लटकी हैं! कई ऐसे पद भी खाली पड़े हैं, जहाँ डेढ़ दशक से इंतजार कर रहे कांग्रेसी नेताओं को जगह दी जा सकती है! अदालतों में सरकारी वकीलों के कई पदों पर अभी भी भाजपा समर्थिक वकील काबिज हैं! ऐसे में पार्टी के दिग्गज नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सत्ता के शांत तालाब में मुख्यमंत्री की तरफ बयान का एक पत्थर उछालकर माहौल को तनाव में ला दिया। अब इस स्थिति को संभालने की कोशिशें की जा रही है! लेकिन, इससे ये सवाल तो जरूर खड़ा होता है कि ऐसी स्थितियाँ क्यों बनी? समय रहते पार्टी ने इस पर ध्यान नहीं दिया, तो हालात विस्फोटक होने में देर नहीं लगेगी! उधर, भाजपा ऐसे असंतोष को हवा देने के लिए तैयार बैठी है!
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- हेमंत पाल
सालभर में यह पहली बार नहीं है, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कमलनाथ सरकार के कामकाज पर कोई नकारात्मक टिप्पणी की हो! जब से मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी, वे पिछले किसानों की कर्जमाफी और बाढ़ राहत सर्वे को लेकर सरकार की नीयत और कार्यप्रणाली पर सवाल दाग चुके हैं। अब उन्होंने चुनाव के 'वचन पत्र' में जनता से किए वादे पूरे नहीं करने पर सड़क पर उतरने की बात कही! लेकिन, उन्हें उम्मीद नहीं थी, कि सामान्य तौर पर बयानबाजियों को नजरअंदाज करने वाले कमलनाथ इसका जवाब इस तरह देंगे! कमलनाथ ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा 'तो उतर जाएं...!' प्रदेश के राजस्व मंत्री डॉ. गोविंद सिंह ने बात संभालते हुए कहा कि धन की कमी के कारण 'वचन पत्र' के कुछ वादे पूरे नहीं हो सके! उन्हें सड़कों पर उतरने की जरूरत नहीं है, चर्चा करके मुद्दे सुलझा लिए जाएंगे। जबकि, दिग्विजय सिंह ने मामले को समेटते हुए नई बात कही कि ज्योतिरादित्य सिंधिया अकेले क्यों सड़क पर उतरें, हम सभी सड़क पर उतरेंगे! लेकिन, उन्होंने ये भी कहा कि कमलनाथ सरकार को ये वादे 5 साल में पूरे करना है!
ज्योतिरादित्य सिंधिया की नाराजी को सिर्फ असंतोष कहकर किनारे नहीं किया जा सकता! भले ही ये असंतोष सिंधिया के बहाने सामने आया हो, पर पिछले छह महीनों में ऐसी कई घटनाएं हुई, जिसमें कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं की चिढ सामने आई है। प्रदेश के कांग्रेस संगठन में यथा स्थितिवाद किस कदर हावी है, ये इससे जाहिर है कि प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री का पद कमलनाथ अकेले संभाल रहे हैं। वे कई बार पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ने की इच्छा भी जाहिर कर चुके हैं! मगर, पार्टी अभी तक उन्हें अध्यक्ष पद से ही मुक्त नहीं कर सकी! इसका कारण है, पार्टी में मची अंदरूनी खींचतान! ये इतनी ज्यादा है कि कमलनाथ का कोई विकल्प नहीं सूझ रहा! कई बार जब ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम भी उभरा, पर उसे जल्द दबा दिया गया! देखा गया है कि अध्यक्ष के लिए सिंधिया का नाम सामने आते ही कोई नया मुद्दा उछाल दिया जाता है! कभी ये पद किसी आदिवासी नेता को देने की बात की जाती है, तो कभी कोई नया दावेदार खड़ा कर दिया जाता है। यही कारण है कि असंतोष का गुबार अब फटने की स्थिति में आ गया।
कांग्रेस से जुड़े लोगों ने 15 साल तक अच्छे दिन आने का इंतजार किया! लेकिन, उन्हें लग नहीं रहा कि उनके लिए दिन बदले हैं। निगम, मंडल, आयोग और बोर्ड के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष समेत कई पद खाली पड़े हैं, जिन पर मज़बूरी में अफसर काबिज हैं! इन पर कब नियुक्ति होगी, कोई नहीं जानता! यहाँ तक कि प्रदेश की अदालतों में अभी भी भाजपा राज में नियुक्त सरकारी वकील बैठे हैं। विपक्षी पार्टी के समर्थित वकील सरकार की पैरवी करें और सरकार समर्थित इंतजार करें, ये असंतोष का कारण तो होगा ही! क्योंकि, सरकार बनने के बाद लगा था कि पार्टी जल्द ही नेताओं और कार्यकर्ताओं की राजनीतिक नियुक्ति करके उपकृत करेगी! सरकार के पास माध्यम भी था, पर टल गई! लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लगने से असंतोष का गुबार शांत हो गया! जबकि, कई नेता बगावत के मूड में भी आ गए थे। ऐसे में उन्हें समझाया और राजी किया गया कि अभी पार्टी के लिए काम करें! चुनाव के बाद उन्हें नवाजा जाएगा! पर, ये वादा भी पूरा नहीं हुआ! जब नियुक्तियों का दौर टलता नजर आया तो असंतोष मुखर होने लगा! अभी तक ये बात किसी को समझ नहीं आई कि इन नियुक्तियों में अड़ंगा कहाँ और क्यों आ रहा है!
निगम, मंडलों के पदाधिकारियों को लेकर पार्टी के भीतर खींचतान का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस मसले पर बातचीत तो कई बार हुई, पर कोई फैसला नहीं हुआ। विधानसभा और लोकसभा चुनाव के दौरान जिन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया गया, उन्हें पार्टी ने भरोसा दिलाया था कि उनका राजनीतिक नियुक्तियों में ध्यान रखा जाएगा, मगर एक साल गुजर गया, पार्टी ने कोई ध्यान नहीं दिया। कई विधायक मंत्री पद न मिलने से नाराज हैं, पर बोल नहीं पा रहे! सरकार और पार्टी के बीच समन्वय के लिए बनी समितियों का बेमतलब रह गई! पद पाने की लालसा ही पार्टी में असंतोष का सबसे बड़ा कारण बन रहा है! लेकिन, ये असंतोष अलग-अलग तरह से बाहर निकल रहा है! जब भी मौका मिलता है ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने मन का गुबार निकाल देते हैं।पिछले दिनों इंदौर में दो कार्यकर्ता इसलिए हाथापाई पर उतर आए कि दोनों मुख्यमंत्री कमलनाथ के नजदीक जाना चाहते थे, पर उन्हें रोका गया!
शिकायत सिर्फ राजधानी तक ही सीमित नहीं है। जिलों की राजनीति में भी असंतोष का गुबार पनपने लगा है, जो किसी भी दिन फट सकता है। इसका कारण ये भी है कि असंतोष के माहौल में भी उन लोगों को ज्यादा तवज्जो मिल रही है, जिन्होंने विधानसभा चुनाव में सेबोटेज किया था! ऐसी घटनाओं ने आग में घी का काम किया है। धार विधानसभा में भाजपा का खुला समर्थन करके कांग्रेस को हराने वाले 'बुंदेला गुट' के कुलदीप बुंदेला को सहकारी बैंक का अध्यक्ष मनोनीत कर दिया गया! जबकि, ये जग जाहिर है कि 'बुंदेला गुट' ने पूरे 15 साल भाजपा के साथ गलबैयां की और कांग्रेस को नुकसान पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसा क्यों किया गया, इसका जवाब किसी के पास नहीं है! उधर, मुरैना सहकारी बैंक के अध्यक्ष पद पर हरीसिंह यादव की नियुक्ति के बाद से सिंधिया की नाराजी भी बढ़ी है। जब ग्वालियर का इलाका सिंधिया का प्रभाव वाला क्षेत्र है, तो वहां कोई भी राजनीतिक नियुक्ति उनकी सहमति से ही होना थी, पर इस राजनीतिक संतुलन की अनदेखी की गई!
आलीराजपुर में मंत्री सुरेन्द्र सिंह बघेल को भी पिछले दिनों जि़ला कांग्रेस अध्यक्ष महेश पटेल के गुस्से का सामना करना पड़ा। बघेल को खरी-खरी सुनाने के साथ उन्होंने यह तक कह दिया गया इससे अच्छी तो भाजपा सरकार थी। ये नाराजी इसलिए उभरकर सामने आई कि महेश पटेल कुछ शिकायतें लेकर आए थे, लेकिन उन्हें तवज्जो नहीं दी गई! वे जिले में अवैध रेत परिवहन और शराब के अवैध कारोबार की शिकायत सहित ऐसे ही कुछ मुद्दों की शिकायत लेकर पहुंचे थे। अपनी बात कहते-कहते वे भड़क गए और मंत्रीजी को खरी-खोटी सुना दी। ये चंद उदाहरण हैं, पर ऐसी नाराजी हर जिले में है। पार्टी को इस असंतोष का इलाज करना होगा, अन्यथा कुछ महीनों बाद होने वाले नगरीय निकाय और पंचायत के चुनाव में इसका नकारात्मक असर भी देखने को मिल सकता है!
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