मध्यप्रदेश की राजनीति इन दिनों पार्टी अध्यक्ष और मुख्यमंत्री कमलनाथ के आसपास केंद्रित है। बात उन्हीं से शुरू होती है और उन्हीं पर ख़त्म भी होती है। सालभर पहले जब पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी सौंपी थी, तब प्रदेश की उनकी राजनीतिक समझ को लेकर सवाल खड़े किए गए थे! लेकिन, अब पार्टी के अंदर और बाहर दोनों जगह ये सोच बदल गया! उनकी 'एक्शन' और 'रिएक्शन' के फर्क को समझा जाने लगा है। उनकी 'कॉरपोरेट मुख्यमंत्री' वाली छवि कारगर साबित होती दिखाई दे रही है। उनकी गिनती उन नेताओं में भी नहीं की जाती, जो नौकरशाही के भरोसे सरकार चलाने के मजबूर रहते हैं। विधानसभा चुनाव से पहले और सरकार बनने के बाद उनकी चुनौतियों में भी बदलाव आया! पहले उनके मुकाबले सिर्फ भाजपा थी, अब पार्टी का एक असंतुष्ट धड़ा भी मौके, बेमौके उन पर हमले करता रहता है। लेकिन, राजनीतिक जंग के इस मैदान में कमलनाथ का नपा-तुला बोलना भी उनके लिए फायदेमंद साबित हो रहा है। वे अपने राजनीतिक अनुभव से कॉरपोरेट छवि के बीच बेहतर तालमेल बैठाने में सफल होते नजर आ रहे हैं।
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- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश की राजनीति में पिछले कुछ दशकों से जो नेता छाए रहे, उनमें कमलनाथ का नाम कहीं नहीं था। उन्हें केंद्र की राजनीति में सिद्धहस्थ माना जाता था! उनकी राजनीति की धारा छिंदवाड़ा से दिल्ली तक ही सीमित थी। लेकिन, अब उन पर से वो मुहर हट गई! उन्होंने देश के बाद प्रदेश की राजनीति में भी अपना राजनीतिक कौशल दिखा दिया। पहले उन्होंने कभी मध्यप्रदेश की राजनीति में दखल देने की उत्सुकता नहीं दिखाई और न किसी की आँख की किरकिरी बने। यही वजह है कि वे हमेशा सर्वमान्य नेता और पार्टी हाईकमान के लाडले रहे।
1980 में आपातकाल के बाद जब अर्जुन सिंह ने प्रदेश की बागडोर संभाली, उसके बाद से प्रदेश की राजनीति में कई नेता आए और गए! पर, कमलनाथ को कभी प्रदेश की राजनीति में कभी पारंगत नहीं माना गया। वे 1977-78 के दौर में कांग्रेस की संजय गांधी टीम के युवा चेहरे के रुप में उभरे थे। उस समय इस टीम में गुलामनबी आजाद, विद्याचरण शुक्ल, बंसीलाल और अंबिका सोनी के साथ कमलनाथ भी उनके नजदीक थे। उसी दौरान इंदिरा गांधी से भी उनकी निकटता बन गई। यही कारण है कि वे लम्बे समय तक केंद्र की राजनीति तक सीमित रहे। लेकिन, उनके प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद हालात तेजी से बदले और डेढ़ दशक से सत्ता पर काबिज भाजपा सरकार से बाहर हो गई! इसे तब कमलनाथ की कूटनीतिक सफलता मानने वाले लोग कम थे, पर आज ऐसे लोगों की संख्या बढ़ गई! लोग मानने लगे हैं कि कमलनाथ भले ही दूसरे नेताओं की तरह वाचाल और प्रतिक्रियावादी नहीं हैं, पर विरोधियों को हर मोर्चे पर पटखनी देना उन्हें आता है! फिर वे विरोधी पार्टी के अंदर हों या बाहर!
राजनीति में कमलनाथ को 'मैन ऑफ़ रियल पाॅलिटिक्स' भी कहा जाता है! वे देश के बड़े कारोबारी भी हैं, इसलिए उन्हें 'कॉर्पोरेट मुख्यमंत्री' का तमगा भी दिया जाता है। ख़ास बात ये कि उनके फैसलों में परिस्थिति की समझ और परिपक्वता झलकती है। पिछले दिनों कई बार ऐसा महसूस भी किया गया! कांग्रेस आलाकमान ने जब छिंदवाड़ा के इस सांसद को मध्यप्रदेश की कमान सौंपकर विधानसभा चुनाव की चुनौती सौंपी थी, तब इस फैसले को बहुत हद तक सही नहीं समझा गया था। टिप्पणीकारों ने इसकी छीछालेदर भी की थी! यहाँ तक कि जब किनारे वाले बहुमत से कांग्रेस ने प्रदेश में सरकार बनाई, तब भी उसके गिरने की भविष्यवाणी की जाने लगी! लेकिन, धीरे-धीरे हालात बदल गए और अब सरकार गिरने का दावा करने वाले ही कमलनाथ की तारीफ करने लगे हैं! विपक्ष के जो नेता 'बॉस' के आदेश पर कभी भी सरकार के गिरने का दावा करते नहीं थकते थे, वे भी अब शांत बैठ गए! पार्टी के अंदर भी एक धड़ा उन्हें पसंद नहीं करता रहा! कई बार विवाद के हालात भी बने, पर धीरे-धीरे स्थिति बदलने लगी है।
उन्हें 'कॉरपोरेट मुख्यमंत्री' कहे जाने का बड़ा कारण ये है कि कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उन्होंने अपनी इस क़ाबलियत का लोहा मनवाया। नरसिंहराव सरकार में जब वे पर्यावरण मंत्री बने, तब 1992 में रियो द जिनेरो सम्मेलन में उन्होंने विकासशील देशों के मुखर प्रवक्ता के रुप में अपनी पहचान बनाई थी। जहाँ इन देशों ने विकसित राष्ट्रों की दादागिरी पर सवाल उठाए थे। इसके बाद मनमोहन सिंह सरकार में वाणिज्य और उद्योग मंत्री के रुप में उन्होंने देश की विदेश-व्यापार नीति से लेकर 'डब्लूटीओ' और 'जी-20' जैसे अहम मंचों पर अपनी क्षमताओं का इजहार किया। लेकिन, संसदीय कार्यमंत्री के रूप में यूपीए दो सरकार के अंतिम दो मुश्किलभरे सालों में जब विपक्ष आक्रामक था, तब भी उन्होंने संकट मोचन वाली कारगर भूमिका निभाई। इसमें विपक्ष से उनके निजी रिश्तों और कुशल प्रबंधन क्षमता का अहम योगदान रहा। इसका फ़ायदा उन्हें प्रदेश की राजनीति में भी मिल रहा है।
दाओस में 'वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम' की बैठक में भी उन्होंने मध्यप्रदेश में निवेश की संभावनाओं को तलाशा है। प्रदेश में निवेश की संभावनाओं के सिलसिले में उन्होंने कई दिग्गज उद्योगपतियों से मुलाकात की। 'सीआईआई' और मध्यप्रदेश सरकार के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित 'इन्वेस्ट मध्यप्रदेश कांफ्रेंस' में भी उन्होंने कहा था कि निवेश को निमंत्रित करने के लिए प्रदेश में सकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश की जाएगी! उनकी ये कोशिशें कामयाब होती दिखाई भी देने लगी हैं।
'वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम' में आए कई उद्योगपतियों को उन्होंने मध्यप्रदेश में निवेश के लिए आमंत्रित भी किया। लूलू ग्रुप, दुबई के एम ए यूसुफ अली ने मध्यप्रदेश में कन्वेंशन सेंटर की स्थापना का भरोसा दिलाया है। वेलस्पन ग्रुप के बीके गोयनका ने जलापूर्ति और आधारभूत संरचना में निवेश को लेकर बात आगे बढ़ाई है। स्विट्जरलैंड की कंपनी एमकेएस के सीईओ मरवान शकरची ने भी गोल्ड रिसायकल यूनिट लगाने का विश्वास दिलाया। 'ट्राईडेंट ग्रुप' के राजिंदर गुप्ता ने टेक्सटाइल सेक्टर में निवेश का आश्वासन दिया। यदि ये निवेश आकार लेते हैं तो करीब 10 हजार लोगों के लिए रोजगार की नई संभावनाएं पैदा होंगी।
पूरे राजनीतिक करियर में कमलनाथ की गिनती कभी फ्रंटफुट वाले वाचाल नेताओं में नहीं हुई! इसका कारण कि वे दूसरे नेताओं के मुकाबले कम बोलते हैं और अनर्गल बातें नहीं करते! उठा-पटक वाली दांव-पेंच से भरी राजनीति में भी उनका भरोसा नहीं है! वे काम के जरिए अपनी पहचान बनाना चाहते हैं और वही सब मध्यप्रदेश में नजर भी आया। सीधे शब्दों में कहा जाए तो वे विरोधियों की लाइन मिटाकर छोटी करने बजाए, खुद की लाइन बड़ी करने की कोशिश में रहते हैं। क्रिकेट की भाषा में कहा जाए तो वे टवेंटी-टवेंटी के नहीं, बल्कि टेस्ट मैच के ऐसे बैट्समेन हैं, जो लम्बी पारी खेलते हैं। उनके पास धैर्य और संयम है, जो राजनीति के खिलाडियों में कम ही नजर आता है। उनकी छवि जननेता की कभी नहीं रही! मगर, प्रशासनिक व प्रबंधन क्षमता के साथ विरोधियों को भी साथ लेकर चलने में उन्हें बेहद कुशल माना जाता है। भाजपा के भी कई बड़े नेताओं से भी उनके अच्छे रिश्ते रहे हैं। कांग्रेस की राजनीति में चार दशकों में बड़े उतार-चढ़ाओ के बाद भी उनके दबदबे में कोई कमी नहीं आई। आज 70 साल के होने के बावजूद उनका दम-ख़म बरक़रार है। एक दौर ये भी आया जब उनके भाजपा में जाने तक की अफवाह उड़ी! कमलनाथ के अलावा कोई और नेता होता तो ये विवाद कहीं ज्यादा गहराता, पर कांग्रेस के प्रति कमलनाथ की प्रतिबद्धता पर शंका नहीं की गई। इस अनपेक्षित हालात के बाद भी पार्टी ने कमलनाथ पर अपना भरोसा कम नहीं किया और उसी का नतीजा है कि आज मध्यप्रदेश में उन्हें सबसे ज्यादा भरोसेमंद नेता के रूप में मान्यता मिल रही है।
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