'राजनीति बहुत गंदी हो गई' ये बात अकसर जुमलों में कही जाती है। लेकिन, धरातल पर इसे परखा जाए तो ये नितांत सच भी है। स्वस्थ राजनीति जैसी बातें तो हवा हो गई! विपक्ष को जनता का फैसला मानने की परंपरा का भी लोप हो गया! ये मान लिया गया कि जो सत्ता में है, वही जनता का फैसला है और जो विपक्ष में है, वो दुश्मन से कम नहीं! कम से कम शिवराज सरकार के कुछ फैसलों ने तो ये साफ़ ही कर दिया। उन्होंने कमलनाथ सरकार के कार्यकाल के अंतिम 6 महीनों के फैसलों की समीक्षा के लिए मंत्रियों की टीम बना दी! जबकि, कमलनाथ ने 13 साल के शिवराज सिंह के कार्यकाल पर नजर तक नहीं डाली! शिवराज सरकार में 'व्यापम' जैसी बड़ी गड़बड़ियां हुई, पर कमलनाथ ने कुछ नहीं किया। इसे कांग्रेस सरकार की खामी मानी जाए या खूबी! पर, अब ये बात उठने लगी है कि कांग्रेस ने ये सदाशयता क्यों दिखाई! उसे भी वे पुराने पन्ने खोलना थे, जो दागदार हैं।
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- हेमंत पाल
शिवराज सरकार का पूरा ध्यान कमलनाथ सरकार के अंतिम दिनों में लिए गए फैसलों पर है! इस दौरान तबादलों, राजनीतिक नियुक्तियों, किसान कर्ज माफी को लेकर शिवराज सरकार को गड़बड़ी का अंदेशा है। उन सभी फैसलों की समीक्षा करके शिवराजसिंह चौहान पूर्ववर्ती कमलनाथ सरकार को घेरने की तैयारी में लगी है। जबकि, कमलनाथ ने बतौर मुख्यमंत्री पुरानी सरकार के फैसलों की फाइलों तक को नहीं पलटा! जबकि, शिवराज सरकार पर भी व्यापम, आबकारी, परिवहन, ई-टेंडर से लगाकर स्वास्थ्य विभाग में हुए घोटालों पर उंगली उठाई गई थी। कमलनाथ पर ऐसे कई मुद्दों पर कार्रवाई का भारी दबाव था! पर, इसे कमलनाथ की कमजोरी कहें, सदाशयता या फिर नासमझी कि उन्होंने किसी की सलाह पर कान नहीं धरे! इसी का फैसला है कि आज उनके फैसलों पर उंगली उठाई जाने लगी। दरअसल, ये जल्दबाजी इसलिए की जा रही है कि इन मामलों को 24 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में मुद्दा बनाकर उछाला जाए। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी कमलनाथ सरकार पर चुनाव के वचन पत्र के प्रति गंभीर नहीं रहने और उसके मुताबिक काम न करने का आरोप लगाकर पार्टी छोड़ी थी! भाजपा उसी बात को सही ठहराने की कोशिश में है, ताकि चुनाव की हवा पलटी जाए, जो अभी विपरीत दिशा में जाती नजर आ रही है।
शिवराजसिंह चौहान सरकार ने कमलनाथ सरकार के दौरान लिए गए फैसलों की जांच कराने की घोषणा की है। इसके लिए बकायदा एक समिति 'ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स' भी बना दिया गया, जिसमें तीन मंत्री शामिल हैं। इसमें दल बदलकर मंत्री बने तुलसी सिलावट को भी जगह दी गई। सिलावट खुद पहले कमलनाथ कैबिनेट में थे और उनके पास स्वास्थ्य की जिम्मेदारी थी। कमलनाथ सरकार के तमाम फैसलों में वे भी शामिल थे। इसके अलावा समिति में गृह और स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्रा और कृषि मंत्री कमल पटेल को जांच की जिम्मेदारी सौंपी गई है। ये समिति कमलनाथ सरकार के फैसलों की समीक्षा करके राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट देगी! वे 22 बागी विधायक भी कांग्रेस सरकार के फैसलों में सहभागी थे, जो अब भाजपा में है। समिति इस बात की भी जांच करेगी कि सरकार के फैसलों की आड़ में कितनी गड़बड़ी हुई है! ऐसे गड़बड़ी वाले मामलों में तथ्य मिलने पर संबंधित के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज की जा सकती है! ये समिति जनविरोधी (कथित) फैसलों की भी समीक्षा करेगी और जरूरी समझेगी तो पुरानी सरकार के फैसलों को रद्द या बदल सकती है।
बताया जाता है कि सांसद विवेक तनखा ने कमलनाथ को कई बार सलाह दी थी, कि जिस 'व्यापम' मुद्दे पर कांग्रेस को जनता का समर्थन मिला है, उसकी जाँच के लिए 'एसआईटी' गठित की जाए। जो भी दोषी पाया जाए, उस पर कार्रवाई हो! लेकिन, कमलनाथ इतने व्यस्त थे कि उन्हें ऐसे मामलों पर ध्यान देने की रूचि ही नहीं थी। वे चाहते तो शिवराज सरकार के 13 साल कार्यकाल की फाइलें खुलवा सकते थे! लेकिन, वे खामोश रहे! इसे लेकर कांग्रेस में भी असंतोष है कि आखिर कमलनाथ ने ऐसी कोई कार्रवाई क्यों नहीं की! उसी का नतीजा है कि आज उन्हें ही कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। कांग्रेस के कई नेताओं को आपत्ति है कि कमलनाथ ने सियासी फैसले लेने में रूचि क्यों नहीं ली! वे प्रदेश के ऐसे किस विकास में वे व्यस्त हो गए थे कि उन्हें अपने नीचे से खिसकती जमीन तक नजर नहीं आई! वे पूर्ण बहुमत की सरकार मुखिया तो थे नहीं, जो सरकार चलाने में निश्चिंत रहे! न तो उन्होंने सरकार को सहयोग देने वालों को साधने की कोशिश की और न विपक्ष को घेरने की!
राजनीति के नजरिए से ये बात आसानी से गले नहीं उतरती कि सरकार से जुड़े 108 पद ख़ाली रह गए, जिसपर वे अपने कार्यकर्ताओं और सहयोगी विधायकों को उपकृत कर सकते थे, पर नहीं किया! हश्र ये हुआ कि एक झटके में सरकार चली गई और सारी चाणक्य नीति धरी रह गई! शिवराज सिंह से 15 महीने तक दोस्ती निभाना और अपने सहयोगियों को नजरअंदाज करने का ही नतीजा है कि आज सरकार विपक्ष में है और अपने ही फैसलों पर घिरने की तैयारी में है। जिस दिन ज्योतिरादित्य सिंधिया पार्टी नीति से हटकर शिवराजसिंह चौहान से मिलने घर गए थे, उसी दिन से उन्हें साधने के कदम क्यों नहीं उठाए गए! इसे सामान्य शिष्टाचार वाली मुलाकात क्यों समझा गया! जबकि, राजनीति की सामान्य समझ रखने वाला भी इस मुलाकात का मंतव्य आसानी से समझ सकता है! अब ये टिप्पणी करने में जरा भी झिझक नहीं की जा सकती कि कमलनाथ सरकार के कुछ फैसलों में दूरदृष्टि का भारी अभाव था! वरिष्ठों की अनदेखी कर पहली बार मंत्री बनने वालों को सीधे कैबिनेट का दर्जा देना, सहयोगी विधायकों को किसी भी पद पर नियुक्ति न देना और अपने सलाहकारों पर जरुरत से ज्यादा भरोसा करना उन्हें भारी पड़ गया! कुछ सहयोगी तो किसी जिम्मेदार पद पर न होते हुए भी अफसरों को सीधे निर्देश देकर काम का दबाव बनाते थे!
ये सब वो खामियां हैं, जो कांग्रेस सरकार पर भारी पड़ गई! शिवराज सरकार ने कोरोना से थोड़ी राहत मिलते ही कमलनाथ सरकार के कामकाज पर जाँच बैठाकर ये साबित करने की भी कोशिश की है कि कांग्रेस की 15 महीने की सरकार ने बड़ी गड़बड़ियां की! यदि आगे की संभावनाओं पर नजर डाली जाए तो इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं की घेरेबंदी की जा सकती है। आश्चर्य नहीं कि एफआईआर तक दर्ज की जाए! क्योंकि, भाजपा सरकार का मकसद भी यही है कि जनता की अदालत में कांग्रेस को इतना बदनाम कर दिया जाए कि उसे फिर कभी सरकार बनाने का सपना भी नहीं आए! ये तो सच है कि कांग्रेस सरकार में भी काली भेड़ों की कमी नहीं थी! कई मंत्रियों के भाइयों, दामादों और परिवार से जुड़े लोगों ने फायदा उठाने का धंधा शुरू कर दिया था!
कमलनाथ सरकार में 'अपना आदमीवाद' भी जमकर चला! लेकिन, कांग्रेस के लोग इस बात पर भरोसा नहीं करते कि कमलनाथ ने खुद सरकार का मुखिया रहने का कोई फ़ायदा लिया होगा! लेकिन, प्रदेश की राजनीति में उनकी पकड़ न होने का फ़ायदा लेने वालों की कमी नहीं रही! पर, क्या वे फैसले 'गड़बड़ी' या 'भ्रष्टाचार' की श्रेणी में आते हैं, अब इसका निर्णय तो शिवराज सरकार की जाँच समिति ही करेगी! इसे प्रदेश में बदले की राजनीति अध्याय कहा जा सकता है! आगे जिस भी पार्टी की सरकार बनेगी, वो पिछली सरकार को घेरने के हथकंडे जरूर अपनाएगी! पर, इस तरह के अध्याय की शुरुआत ठीक नहीं है! इससे गंदगी और कीचड बढ़ेगा! क्योंकि, काजल की इस कोठी से कोई उजला होकर नहीं निकला और न निकल सकता है!
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