- हेमंत पाल
लॉक डाउन खुलने के बाद इंदौर शहर के हालात बहुत बेहतर नहीं हैं। कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या रोज सीढ़ी चढ़ रही है। क्योंकि, लॉक डाउन के बाद शहर को जिस तरह धीरे-धीरे खोला जाना था, उसमें जल्दबाजी की गई। जैसी सख्ती बरती जाना थी, उसमें ढिलाई बरती गई! कई मामलों में अनदेखी भी की गई! ऐसी स्थिति में जनप्रतिनिधियों की भूमिका नेतागिरी चमकाने तक सीमित होकर रह गई! प्रशासन के सामने सब खामोश हैं। शहर में फिर से लॉक डाउन को लेकर एक नेता के अलावा सबकी चुप्पी सवाल खड़े करती है।
शहर में कोरोना संक्रमण से उपजी स्थितियों को काबू करने के लिए 'आपदा प्रबंधन समूह' नाम से जो समिति बनाई गई है, वो पूरी तरह प्रशासन के हाथ की कठपुतली बनकर रह गई! उसमें कहने को जनप्रतिनिधि हैं, पर सबकी जुबान पर ताले डले हैं। सबसे निरीह भूमिका सांसद की है, जो प्रशासन के सुर में ताल मिलाने तक सीमित हैं! प्रशासन भी जो खुद नहीं कह पाता, वो सांसद से बुलवा दिया जाता है। तीन महीने के लॉक डाउन के बाद जब शहर में जिंदगी को सामान्य करने की स्थिति आई, तो समझा जा रहा था कि ये फैसला समझदारी से किया जाएगा! पहले वो काम शुरू होंगे, जिनसे गरीबों को काम मिलेगा! सब्जी और किराना की आपूर्ति सामान्य होगी! लेकिन, देखते ही देखते सारे बाजार खुल गए। जिस बाजार की जरुरत नहीं, उसे भी खोल दिया गया। '56 दुकान' और समोसे-कचोरी की दुकानों पर फिर भीड़ लगने लगी। यदि इन दुकानों को खोलना भी था तो सीमित समय के लिए अनुमति दी जाना थी! लेकिन, सारे बाजार को बैखौफ होकर खोल दिया गया! प्रशासन और उसके साथ संगत करने वाले 'आपदा प्रबंधन समूह' ने ये समझ लिया कि कोरोना दुम दबाकर भाग गया है, अब कोई खतरा नहीं है! दरअसल, इसकी सबसे कमजोर कड़ी है जनप्रतिनिधियों की भूमिका, जो इस समूह की बैठक में चेहरा दिखाने तक सीमित है।
जानकारी के मुताबिक इस समूह की सोमवार को हुई बैठक में करीब-करीब तय कर लिया गया था, कि मंगलवार सुबह से 7 या 10 दिन का लॉक डाउन फिर लगाया जाए! प्रशासन की इस मंशा पर 'आपदा प्रबंधन समूह' में शामिल कोई जनप्रतिनिधि आपत्ति लेगा, इसकी गुंजाइश भी नहीं थी! लेकिन, सिर्फ एक व्यक्ति दबाव में प्रशासन के फिर से लॉक डाउन के इरादे खंडित हो गए! भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने रविवार रात को ही मीडिया के सामने अपना इरादा जाहिर कर दिया कि शहर को फिर लॉक डाउन की आग में नहीं झोंका जाना चाहिए! उन्होंने ये सुझाव भी दिया कि कुछ लोगों की नासमझी की सजा पूरे शहर को नहीं दी जा सकती। जो नियम-कायदे तोड़े उसके साथ सख्ती की जाए, पर पूरे शहर को बक्शा जाए! उन्होंने जिस कड़े लहजे में ये बात कही, उसका असर ये हुआ कि 'आपदा प्रबंधन समूह' को अपना फैसला बदलना पड़ा! उन्हें ये रुख शायद इसलिए अख्तियार करना पड़ा कि उन्हें प्रशासन के फैसले का अंदाजा हो गया होगा! अब बात इस पर ख़त्म हुई कि शनिवार तक कि स्थिति की समीक्षा जाएगी, फिर फैसला होगा! लेकिन, यदि कैलाश विजयवर्गीय अपनी बात नहीं रखते, तो तय था कि मंगलवार सुबह से फिर शहर घरों में कैद जाता! कुछ मामलों में पहले पूर्व महापौर कृषणमुरारी मोघे ने भी प्रशासन पर लगाम कसी थी।
ये बात समझ से परे है कि आखिर जनप्रतिनिधि प्रशासन के सामने इतने सहमे और दुबके क्यों हैं? प्रशासन के अधिकारी जो चाहते हैं, उस पर 'आपदा प्रबंधन समूह' की मोहर लगवा लेते हैं और कोई कुछ बोल नहीं पाता। जनप्रतिनिधि प्रशासन का भोंपूं बनने को मजबूर क्यों हो गए! सांसद शंकर लालवानी के दबाव में शहर में सबसे ज्यादा बाजार खोले गए! एक समुदाय विशेष की दुकानें खुलवाने और उनके व्यापार को चालू कराने में उन्होंने किस तरह की रूचि दिखाई, ये बात किसी से छुपी नहीं है। लेकिन, आज वही बाजार शहर की मुसीबत बन गए! एक मुद्दा ये भी अहम् है कि इस समूह में जनता कि सहभागिता कितनी है! शहर के बारे में गंभीरता से सोचने वाला बुद्धिजीवी वर्ग इसमें क्यों नहीं है! व्यापारिक संगठनों को 'आपदा प्रबंधन समूह' में शामिल क्यों नहीं किया गया! ये समूह अफसरों और नेताओं का जमघट बनकर क्यों रह गया! जिन्हें जनता ने नकार दिया, वे बतौर जनप्रतिनिधि इस प्रबंधन समूह का हिस्सा क्यों हैं! जनता के मन में ऐसे कई सवाल और नाराजी बहुत ज्यादा है।
जहाँ तक सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क लगाने और सेनेटाइज़िंग का मसला है, तो प्रशासन सख्ती करने से झिझक क्यों रहा है, इस सवाल का जवाब किसके पास है! लोग सड़कों पर बिना मास्क निकल रहे हैं, भीड़ लगाकर खड़े हैं, देर रात तक घूम रहे हैं, पर उनसे कोई कुछ नहीं बोल रहा! जब तक सख्ती को वास्तव में सख्ती से लागू नहीं किया जाता, संक्रमण को नियंत्रित कर पाना मुश्किल है। लोगों को ये भी सहन नहीं हो रहा कि जो काम पुलिस और प्रशासन को करना चाहिए, जिसके लिए उनके पास प्रशासनिक अधिकार हैं, वो काम नगर निगम के छोटे-छोटे कर्मचारियों और अधिकारियों को क्यों दिए गए! डंडे के जोर पर लोगों के वाहनों को रोकना, चैकिंग करना, ऑफिस में घुसकर धमकाना, जुर्माना वसूलना ये लोगों की सहनशक्ति परीक्षा लेने जैसी बात है! शहर में सख्ती हो और नियम तोड़ने वाले को उसकी सजा भी मिले, पर लोग नहीं चाहते कि नगर निगम के अदने से कर्मचारी को सरे बाजार किसी की भी इज्जत उछालने की इजाजत दे जाए! इस शहर की तासीर ऐसी नहीं है। लेकिन, लोग ये भी नहीं चाहते कि प्रशासन और जनप्रतिनिधि उसके धैर्य की परीक्षा लें! यदि जनता ने किसी को जनप्रतिनिधियों को चुना है, तो बेहतर है कि वे अपनी जिम्मेदारी को समझें और प्रशासन के सामने मुखरता से जनता का पक्ष रखें! मास्क लगाने से उनकी आवाज बंद नहीं होती, जनता के नजरिए से सोचें और बोलें भी!
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