Thursday, May 27, 2021

हिंदी फिल्मों में जासूसी कथानक

हेमंत पाल

   हिंदी फिल्मों के इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो दिखने में आता है कि शुरुआती काल से अब तक ज्यादा प्रयोग नहीं किए गए। जिस विषय को दर्शकों ने पसंद किया, उसी ढर्रे पर फिल्म बनाई जाने लगी। फिल्मों के विषयों पर नजर दौड़ाई जाए तो अधिकांश फ़िल्में कुछ तय विषयों की मोहताज रही है। सफल और असफल प्रेम कहानियां, खून का बदला खून, पारिवारिक विवाद, अमीरी-गरीबी की लड़ाई, डाकुओं का आतंक, गुंडागर्दी, देशभक्ति, राज परिवारों के षडयंत्र, कॉमेडी और जासूसी यानी सीक्रेट एजेंटों पर ही ज्यादा फ़िल्में बनी और ये आज भी जारी है। इसके अलावा जो प्रयोग हुए वो दर्शकों को ज्यादा आकर्षित नहीं कर सके। श्याम बेनेगल और सत्यजीत रॉय ने जरूर फ़िल्मी विषयों की जड़ता को तोडा, पर इनकी फिल्मों के दर्शक सीमित रहे! ब्लैक एंड व्हाइट से अभी तक की फिल्मों पर नजर दौड़ाई जाए, तो प्रेम कथाओं के बाद जासूसी पर आधारित फिल्मों को सबसे ज्यादा पसंद किया गया। 
    जासूसों के बारे में आम धारणा है कि इन्हें हमेशा से देशभक्त और अपने कर्त्तव्य के लिए जान तक देने वाला जांबाज माना जाता है। दुश्मन के खिलाफ वो अपने हर मंसूबे में कामयाब होता है। लेकिन, ये धारणा फिल्मों के जासूसों के लिए ही ठीक है। वास्तविक जासूसों के कारनामे कभी फिल्मी कथाओं की तरह सामने नहीं आ पाते! लेकिन, फिल्मों में जासूसों की जो छवि बनाई गई है, वो सच्चाई से बहुत अलग है! फिर भी दर्शक ऐसी फिल्मों के दीवाने होते हैं। क्योंकि, इन विषयों पर बनने वाली फिल्मों में जमकर एक्शन के साथ और रोमांस और देशभक्ति का तड़का होता है। फिल्म का हीरो अपनी जासूसी के कर्त्तव्य के साथ देश के प्रति ऐसा समर्पण दिखाता है कि दर्शक में भी देशभक्ति का जज्बा कुंचाले भरने लगता है। जासूसी पर बनी फिल्मों में वो सारा मसाला होता है, जो फिल्म को हिट बनाने के लिए जरूरी है। खुफिया एजेंसी 'रॉ' और 'आईबी' से जुड़े एजेंटों पर कई फिल्में बनाई गई। ये एजेंट दुश्मन देश में घुसकर वहां जासूसी करते हैं और साजिशों को असफल करने का कोई मौका नहीं छोड़ते! जासूसी कहानियां हॉलीवुड का सबसे सफल विषय रहा है, इसलिए इसे बॉलीवुड ने भी इसे जमकर भुनाया! सीक्रेट एजेंट ऐसा हॉट केक विषय है, जिसे कोई छोड़ना नहीं चाहता। सामाजिक फिल्मों बनाने वाले 'राजश्री' ने भी 1977 में महेंद्र संधु को लेकर 'एजेंट विनोद' बनाई। ये फिल्म एक विख्यात साईंटिस्ट को अपहर्ताओं से छुड़ाने पर बनी थी। बाद में 2012 में भी इसी नाम से फिल्म बनाई गई थी।     
   फिल्मों में हीरो को सीक्रेट एजेंट बनाकर कथानक गढ़ने का काम आजादी के बाद बनी फिल्मों में ज्यादा दिखाई दिया। उसके बाद से अब तक ये विषय न तो पुराना पड़ा और न इस तरह की फिल्मों के प्रति दर्शकों का जुनून कम हुआ। रवि नगाइच ने 1967 में जितेंद्र को हीरो बनाकर 'फर्ज' बनाई थी। इसमें जितेंद्र ने सीक्रेट एजेंट-116 की भूमिका निभाई, जो अपने साथी एजेंट की हत्या का राज खोलता है। 'रामायण' जैसा सफल टीवी सीरियल बनाने वाले रामानंद सागर ने धर्मेंद्र को लेकर 1968 में 'आंखें' बनाई। ये देश के खिलाफ षड़यंत्र रचने वाले गिरोह को ख़त्म करने की कहानी थी। इसमें धर्मेंद्र ने देशभक्त जासूस की भूमिका निभाई थी। ये पूरी तरह फार्मूला फिल्म थी, जो सुपरहिट रही। मिथुन चक्रवर्ती के शुरूआती फिल्म करियर में जो फ़िल्में सफल हुई, उनमें एक 1979 में बनी 'सुरक्षा' भी है। ये फिल्म हॉलीवुड की जेम्सबांड जैसी फिल्मों की नकल थी। इसमें मिथुन का किरदार सीक्रेट एजेंट 'गनमास्टर जी-9' का था, जो देश के दुश्मनों के षड़यंत्र का राज खोलता है। 
    इसके बाद लम्बे अरसे तक इस विषय को लेकर फिल्मकारों ने उत्सुकता नहीं दिखाई! देशभक्ति की फ़िल्में तो बनी, पर उसमें जासूसी कहीं नहीं दिखाई दी। 2002 में मणिरत्नम ने इसी विषय पर '16 दिसंबर' बनाई। ये पाकिस्तान के आतंकवाद पर आधारित फिल्म थी। मिलिंद सोमन अभिनीत इस फिल्म का कथानक 1971 की हार के बाद पाकिस्तान की सेना के एक रिटायर्ड अधिकारी की दिल्ली पर परमाणु बम से हमला करने की साजिश पर गढ़ा गया था। लेकिन, फिलहाल के दौर में सीक्रेट एजेंट विषय पर सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली फिल्म रही 2012 में आई 'एक था टाइगर' और 2017 में आई इसकी अगली कड़ी 'टाइगर जिंदा है!' इसकी आगे की कड़ियां आना बाकी है। सलमान खान और कैटरीना कैफ की इस फिल्म में सलमान रॉ एजेंट हैं, जिस पर एक एनआरआई वैज्ञानिक की गतिविधियों पर नज़र रखने का काम है। मोहब्बत और फर्ज के बीच झूलती इस फिल्म में वो सारे मसाले हैं, जो सलमान को चाहने वाले देखना। कहा जाता है कि यह फिल्म भारत के एक पूर्व रॉ एजेंट रविन्द्र कौशिक की सच्ची कहानी पर आधारित है। लेकिन, इसमें काफी बदलाव किए गए हैं। 
    हमारे देश में बनने वाली सीक्रेट एजेंट की कहानियों वाली फिल्मों में लीड रोल आमतौर पर पुरुष पात्र ही निभाते आए हैं। लेकिन, विद्या बालन ने 2012 में आई फिल्म 'कहानी' में इस धारणा को खंडित किया। इसमें उन्होंने जासूस की भूमिका निभाई थी। सुजॉय घोष के निर्देशन में बनी इस फिल्म में विद्या बालन ने ऐसी महिला का किरदार निभाया, जिसका पति गुम हो जाता है और वो उसकी खोज करती है। इसके बाद 2018 में आई 'राजी' में आलिया भट्ट ने रॉ एजेंट की भूमिका की। मेघना गुलजार की इस फिल्म में पिता के कहने पर राजी पाकिस्तानी सेना के अधिकारी के बेटे से शादी कर लेती है, जिससे वह दुश्मन देश के बारे में जानकारी ले सके। 'नाम शबाना' भी एक ऐसी ही फिल्म थी जिसमें महिला सीक्रेट एजेंट अपने कामयाब होती है। फिल्म में तापसी पन्नू ने शबाना का किरदार निभाया था।
   2013 में दो ऐसी फ़िल्में आई, जिनका कथानक जासूसी पर केंद्रित था। एक थी कमल हासन की 'विश्वरूपम' और दूसरी थी जॉन अब्राहम की 'मद्रास कैफे!' फिल्म 'विश्वरूपम' वैश्विक आतंकवाद के बढ़ते खतरे पर बनी थी। इसमें एक महिला अपने पति पर जासूस होने का शक करती है। लेकिन, बाद में निकलता कुछ और है। जबकि, शुजित सरकार की 'मद्रास कैफे' राजीव गांधी हत्याकांड पर बनी थी। इसमें जॉन ने रॉ एजेंट विक्रम सिंह का किरदार निभाया था। फिल्म में श्रीलंका के उस समय के हालात और लिट्टे की गतिविधियों को दर्शाया गया था। नीरज पांडे ने भी 2015 में अक्षय कुमार को लेकर 'बेबी' बनाई, जिसका कथानक आतंकवादी सरगना मौलाना की आतंकवादी हमले की साजिश रचने पर आधारित था। फिल्म में 'बेबी' भारत की ख़ुफ़िया टीम के मिशन का नाम होता है। नीरज पांडे ने बाद में इसी विषय पर 'अय्यारी' भी बनाई थी। इसी साल (2015) में बांग्ला के मशहूर प्राइवेट जासूस ब्योमकेश बख्शी पर आधारित फिल्म 'डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी' भी आई, जिसका निर्देशन दिबाकर बनर्जी ने किया था। इसमें दूसरे विश्व युद्ध के समय काल की कहानी को फिल्माया गया था। 40 के दशक ये फिल्म पूरी तरह जासूसी कलेवर में थी। 
   इसके अलावा जासूसी पर जो फ़िल्में बनी, उनमें अमिताभ बच्चन की 70 के दशक में आई 'द ग्रेट गैम्बलर' भी थी, जिसमें उन्होंने अंडरकवर कॉप की भूमिका निभाई थी। 'डी डे' में इरफान खान रॉ के स्पेशल एजेंट की भूमिका में थे। श्रीराम राघवन ने सैफ अली खान को लेकर 'एजेंट विनोद' बनाई, जिसमें हीरो कोड क्रेक करते हुए पाकिस्तान पहुंच जाता है। सनी देओल ने भी 'द हीरो' में ऐसी ही भूमिका की थी, जो दुनिया को न्यूक्लियर हमले से बचाने का काम करते हैं। हुसैन जैदी की किताब 'मुंबई एवेंजर्स' पर बनी फिल्म 'फैंटम' में सैफ अली खान ने मुख्य भूमिका की थी। फिल्म में वे रॉ एजेंट थे, जो ऐसे कवर्ड ऑपरेशन को अंजाम देता है, जो 26/11 मुंबई हमले के पीछे मास्टरमाइंड था। 
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Sunday, May 23, 2021

सिनेमा और टीवी को खा जाएगी वेब सीरीज!

हेमंत पाल

   भारतीय दर्शकों के दिमाग में सिनेमा को लेकर धारणा है कि ये बड़े परदे का मनोरंजन है। ये सौ साल से ज्यादा पुरानी धारणा है, इसलिए सही भी है। जब से सिनेमा की शुरुआत हुई, इसे बड़े परदे पर ही देखा गया। 70 के दशक में टेलीविजन ने मनोरंजन के नए आयाम के रूप में जन्म लिया और कुछ सालों में इसकी हर घर में घुसपैठ हो गई! बरसों तक सिनेमा और टेलीविजन को जीवन की जरूरत समझा जाने लगा! लेकिन, अब ये भ्रम खंडित होने लगा है। सिनेमा और टीवी के सामने ओटीटी (ओवर द टॉप) प्लेटफार्म मनोरंजन का एक नया विकल्प बनकर उभरा है। ओटीटी पर सिनेमा भी है, सीरियल भी और उससे आगे बढ़कर वेब सीरीज हैं। ये मनोरंजन का ऐसा माध्यम है, जिसके लिए ज्यादा जतन नहीं करना पड़ता। ये 'कभी भी-कहीं भी' मनोरंजन का पिटारा खोलकर बैठ जाता है। जबकि, फिल्म देखने सिनेमाघर जाना पड़ता है और टीवी मनोरंजन का समय तय है।  
    2020 की शुरुआत में जब कोरोना महामारी ने जोर पकड़ा, तो सरकार की सख्ती के कारण सबकुछ बंद हो गया। सिनेमाघरों पर ताले लग गए और सीरियल्स की शूटिंग बंद होने से छोटा परदे पर भी पुराने सीरियल दिखाने लगे। ऐसे में वेब सीरीज ने दर्शकों को घेरकर अपने सामने बैठाया और मनोरंजन की पंगत जमकर परोसी। दर्शकों को मनोरंजन की ये खुराक इतनी रास आई कि कहा जाने लगा कि कहीं वेब सीरीज का चस्का सिनेमा और टीवी को पूरी तरह खत्‍म न कर दे! ये सिर्फ कहने भर की बात नहीं है, ये संभव भी है। क्योंकि, सिनेमा और टीवी के साथ बाध्यता है कि इसके लिए दर्शक को उसके पास पहुंचना पड़ता है। जबकि, ओटीटी पर वेब सीरीज देखने के लिए ऐसा कुछ। इसे कंप्यूटर, लैपटॉप, टैब लेट या स्मार्ट फोन पर देखा जा सकता है। इसका सबसे बड़ा आकर्षण और ताकत है 'कभी भी कहीं भी' मनोरंजन। 
   इस समय ओटीटी प्लेटफार्म और उस पर चल रहे शो छाए हुए हैं। लोगों की बातचीत में भी इन शो ने सिनेमा और टीवी सीरियल्स की जगह ले ली। कहा जा सकता है कि दर्शकों को वेब सीरीज के मोहपाश ने पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया। ये ऐसा माध्यम है, जहां हर रुचि के दर्शकों का ध्यान रखा गया है। विदेशी ओटीटी पर भी हिंदी दर्शकों की रुचि का मसाला परोसा जाने लगा। भारतीय दर्शकों की पसंद का ध्यान रखते हुए ठेठ पारिवारिक और सामाजिक वेब सीरीज भी बनने लगी। टीवी पर सीरियल की रानी कही जाने वाली एकता कपूर ने तो अपना अलग ओटीटी प्लेटफॉर्म ही शुरू कर दिया। हर्षद मेहता के शेयर घोटाले पर 'स्कैम' जैसी सफल वेब सीरीज बनाई गई। कुछ और ऐसे विषयों को भी विस्तार से दिखाया, जो समय की बाध्यता के कारण सिनेमा के लिए संभव नहीं था और टीवी सीरियल के निर्माताओं में इसे बनाने का सब्र नहीं है।  
   कोरोना संकट के चलते सिनेमाघरों के दरवाजे साल भर से पूरे नहीं खुले। एक वक़्त ऐसा आया कि दरवाजे खुले, पर आधे दर्शकों के लिए!  लेकिन,बाद में वे भी बंद हो गए। यह भी पता नहीं कि ये दरवाजे कब पूरी तरह खुलेंगे और उसे दर्शक भी मिलेंगे या नहीं! सिनेमा इंडस्ट्री की हालत वैसे भी साल भर से खस्ता है। 2020 में करीब पूरे साल ही फिल्मों का निर्माण बाधित रहा। सिनेमाघर भी ठीक से नहीं खुल पाए और न कोई नई बड़ी फिल्म रिलीज हुई। यदि समय ने करवट ली और स्थिति सामान्य हुई तो यशराज की शाहरूख खान स्टारर फिल्म 'पठान' लाइन में है। इसके अलावा रोहित शेट्टी की 'सूर्यवंशी' भी बनकर अटकी पड़ी है। सलमान खान ने तो ना-नुकुर करते-करते 'राधे'  ओटीटी पर रिलीज कर दी। जबकि, करण जौहर, आशुतोष गावरीकर, शशांक खेतान, अयान मुखर्जी और फरहान अख्‍तर जैसे फिल्मकारों की फ़िल्में लाइन में खड़ी है। लेकिन, ये सब कोरोना के काबू में आने के बाद ही संभव हो सकेगा, पर ये कब होगा कोई नहीं जानता। 
     वेब सीरीज का सबसे सशक्त पक्ष है, इसकी विषय वस्तु! फिल्मों या सीरियल की तरह वेब सीरीज का अंत दर्शक को खुश करने के लिए नहीं होता! इसकी प्रेम कहानियां भी सुखांत नहीं होती, बल्कि उसमे भी कोई पेंच डालकर दर्शक में अगला सीजन देखने की उत्सुकता जगाई जाती है। वेब सीरीज की एक खासियत यह भी है, कि इसमें फिल्मों की तरह बड़े हीरो नहीं चलते! फिल्मों के चर्चित चेहरों को लेकर भी जो वेब सीरीज बनी, वो उतनी पसंद नहीं की गई जितनी नए चेहरों को लेकर। सुष्मिता सेन और अभिषेक बच्चन की वेब सीरीज ज्यादा पसंद नहीं की गई। क्योंकि, फिल्मों की मज़बूरी है कि उसमें स्‍टार कास्‍ट चलती है। टीवी सीरियल में भी पहचाने चेहरों की मांग की जाती है। जबकि, वेब सीरीज में उसका कंटेंट ही हीरो होता है, इसलिए नया चेहरा भी चलता है। वेब सीरीज ने राधिका आप्टे जैसी एक्ट्रेस को नई ऊंचाई दी। ओटीटी के कंटेंट में प्रतिभा की कद्र होती है! फिर वो कलाकार हो, लेखक हो, निर्देशक हो या कोई और विधा का व्यक्ति! इस माध्यम में काम का स्तर ही पसंद किया जाता है। क्योंकि, दर्शक के पास देखने के लिए बहुत सारे विकल्प खुले हैं। 
  ओटीटी पर सालभर में कई फ़िल्में रिलीज की गई! इनमें अमिताभ बच्चन और सलमान खान जैसे बड़े सितारों की फ़िल्में भी हैं। वास्तव में ये फिल्मकारों की मज़बूरी कहा जाना चाहिए कि उन्हें ऐसा करना पड़ा! पर, सारी कोशिशों के बाद भी इन फिल्मों को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। ये इस बात का प्रमाण भी है कि ओटीटी पर वहीं चलता है, जो दर्शकों की पसंद पर खरा उतरे! यदि ओटीटी पर इसी तरह दर्शक बढ़ते रहे, तो आश्चर्य नहीं कि सिनेमा और सीरियल का जमाना लद जाए। इस बात से इंकार नहीं कि वेब सीरीज का बाजार कोरोना के कारण उफान पर आया! लेकिन, इसके जोरदार कंटेंट ने भी फिल्मों को चुनौती दी है। सिनेमाघरों के बंद होने से मनोरंजन का कोई विकल्प भी नहीं है। लेकिन, जब सिनेमाघरों के दरवाजे पूरे खुलेंगे, तब असली परीक्षा होगी कि मैदान में कौन टिकता है! क्योंकि, हिंदी दर्शक बदलाव पसंद करता है और बहुत जल्दी ऊबता भी है। दर्शकों की इसी सोच पर सिनेमा का भविष्‍य टिका है। स्थिति सामान्य होने पर भी यदि उसका दिल वेब सीरीज में अटका रहा, तो समझ लिया जाएगा कि अब सिनेमा का भविष्य अच्छा नहीं है। लेकिन, इसके लिए थोड़ा इंतजार करना होगा। 
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Saturday, May 15, 2021

फिल्मों में भी गुदगुदाती रहती हैं यादें

हेमंत पाल 

   यादें भी बड़ी अजीब होती हैं। कभी यह गुुदगुदाती हैं, तो कभी रूलाती हैं। कभी किसी की याद बरसों नहीं आती, तो कभी अचानक किसी की याद मन-मस्तिष्क पर दस्तक देने लगती हैं। इंसानों का यादों से लम्बा वास्ता होता है, यही कारण है कि फिल्मों में भी यादों का सिलसिला काफी पुराना है। यादों की जंजीर को जोड़कर फिल्मकारों ने कई प्रयोग किए। कभी कहानी में यादों को शरीक किया, तो कहीं यादों के तार छेड़कर कानों में रस घोलने का काम किया है। हिन्दी फिल्मों और यादों का ताना-बाना जितना पुराना है, उतना ही सुहाना भी है। यादों को लेकर हिंदी फिल्मों में कई तरह से प्रयोग किए गए। पहले जब श्याम-श्याम फिल्मों का जमाना था, तब भी फिल्मकारों ने नायक या नायिका की यादों के साथ छेड़छाड़ कर फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाया! जब समय के साथ फ़िल्में रंगीन हुई, तो यादें भी रंगीन होकर पर्दे पर रंग बिखेरने लगी।
    यह तो पता नहीं कि फिल्मों में यादों को कब और किसने याद किया, लेकिन इतना तो सभी जानते हैं कि फिल्मकारों ने सफलता के टोटके के रूप में इसे गाहे-बगाहे परदे पर उतारने का कारनामा किया। यदि श्वेत-श्याम फिल्मों की बात की जाए, तो इन फिल्मों की कहानियों में यादों का एक ऐसा दृश्य होता था, जब किसी दुर्घटना, हादसे या चोट से नायक और नायिका की याददाश्त चली जाती थी। जब लौटती थी, तो पहला सवाल यही होता था कि मैं कौन हूँ? कहां हूँ? अपनी भूली बिसरी यादों को ताक पर रखकर वह नए संबंध बना लेते थे और जब याददाश्त वापस आती, तो कहानी में अचानक मोड़ आ जाता! यह सिलसिला लगातार चलता रहता था। याददाश्त के आने-जाने या ऑन-ऑफ वाले फिल्मकारों ने तरह तरह के जुगाड़ किए। याददाश्त गुम करने या वापस लाने के लिए सिर पर डंडा मारने, सीढ़ियों से लुढ़काने, भगवान के दरबार में घंटियां बजने, बचपन में गाये या सुने गीत या फ्लैशबैक के फार्मूले जब पुराने पड़ गए तो 'गजनी' में लुपझुप करती याददाश्त को वापस लाने के लिए आमिर खान के पूरे शरीर को ही गुदवा दिया गया।
   गुजरे कल की फिल्में जिनमें यादों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनमें देव आनंद की फिल्म 'अमरदीप' याद आती है। इसमें वैजयंती से प्यार करने वाला देव आनंद सिर पर चोट खाकर अपनी याददाश्त भूल जाता है और फिर पद्मिनी के प्यार में नए नए स्वांग रचता है। जब वैजयंती माला उसे देखकर 'हमें आवाज न देना' गाना गाकर उसकी याददाश्त वापस लाती है, तो वह पद्मिनी को भुलाकर वैजयंती माला का दामन थाम लेता है। इसके बाद कथानक में उतार-चढाव आता है और आखिर में निर्माता को याद आता है कि फिल्म समाप्त करना है और वह वैजयंती माला और पद्मिनी को बिछड़ी बहनें बताकर एक का बलिदान लेकर दूसरी से मिलवा देता है।
   याददाश्त गुम होने और लौटकर आने पर आधारित फिल्म 'एक मुसाफिर एक हसीना' का नायक एक सैन्य अधिकारी है, जो एक बम के धमाके में अपनी याददाश्त भुलाकर साधना से प्यार करने लगाता है। जब दूसरे धमाके में उसकी याददाश्त वापस आती है, तो साधना को भूल जाता है। फिर 'आप यूँ ही अगर हमसे मिलते रहे' गाकर उसकी याददाश्त लाने की कवायद करती है। इससे यह तो तय है, कि फिल्म के नायक या नायिका की याददाश्त वापस लाने में चाहे डॉक्टर असफल रहे गीतकार और संगीतकार मिलकर ऐसा गीत रचते हैं कि याददाश्त को वापस लौटना पड़ता है।
   याददाश्त खोकर पाने वाले नायकों में देव आनंद और जॉय मुखर्जी के अलावा ऋषि कपूर भी है, जिन्होंने 'हीना' सहित कई फिल्मों में यादें गुम की थी। इसके अलावा कभी विश्वजीत तो कभी राजेश खन्ना अपनी यादें गुम कर फिल्म की कहानी को नया मोड़ देने में कामयाब रहे हैं। ऐसी बात नहीं कि केवल नायकों की याददाश्त जाती हैं। नायिकाओं ने भी परदे पर याददाश्त गंवाने का काम किया है। इस फिल्म में साधना का नाम सबसे ऊपर आता है, जिसने 'मेरा साया' और 'अनिता' सहित कई सस्पेंस फिल्मों में याददाश्त खोने के बावजूद अपनी अदाओं से दर्शकों को रिझाया है। नायक और नायिकाओं के अलावा कभी नायक के बाप और कभी नायक की मां ने भी याददाश्त खोने और पाने के खेल में हाथ बंटाया है। नासिर हुसैन की फिल्म 'प्यार का मौसम' में निरूपा रॉय की याददाश्त चली जाती है और 'तुम बिन जाऊं कहां' सुनकर लौट आती है।
    सफल फिल्मों की लेखक जोड़ी सलीम जावेद ने भी यादों का सहारा लेकर 'जंजीर' और 'यादों की बारात' जैसी सफल फिल्में लिखी। बपचन में अपने मां-बाप की हत्या देखकर बच्चा अपनी याददाश्त भूल जाता है। फिर कभी लॉकेट तो कभी ब्रेसलेट देखकर उसकी याददाश्त लौट आती है और वह बदला, बदला, बदला चिल्लाने लगता है। 70 के दशक के बाद बनी तमाम फिल्मों में यादों को कुछ इस तरह से ही इस्तेमाल किया गया। यादों से केवल फिल्म की कहानी ही आगे नहीं बढ़ती, बल्कि यादों पर आधारित गीत भी खासे लोकप्रिय हुए हैं। याद किया दिल ने कहां हो तुम, जब आती होगी याद मेरी, तुझे याद करूं या भूल जाऊं ,वो जब याद आए, वो दिन याद करो, याद में तेरी जाग कर हम, यादों की बारात, तेरी याद दिल से भुलाने चला हूं। 'याद न जाए बीते दिनों की' और 'तुझे याद किया तेरा नाम लिया' जैसे यादगार गीत आज भी कानों में शहद घोलते हैं।
   यादों ने फिल्मों के टाइटल को भी नहीं छोडा है। यादों की बारात, यादों की जंजीर, वो दिन याद करो, तेरी याद आई और 'यादगार' के अलावा यादें नाम से भी दो फिल्में बनी। जिनमें एक के नायक सुनील दत्त थे तो दूसरी के रितिक रोशन। लेकिन, 'यादें' शीर्षक वाली इन फिल्मों के बारे में एक बात याद रखने लायक है कि दोनों ही बाॅक्स ऑफिस पर इतनी बुरी तरह पिटी, कि कोई आज इन्हें याद भी नहीं रखना चाहता।  
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जब कोई बात बिगड़ जाए!

हेमंत पाल

    यह शाश्वत सत्य है कि जब जीवन में कोई दवा काम नहीं आती, वहाँ दुआ अपना असर दिखाती है। ये सिर्फ निजी जीवन में ही नहीं होता, फिल्मों में भी होता है। क्योंकि, हिन्दी फ़िल्में कहीं न कहीं लोगों के जीवन से जुड़ी होती है। फिल्मों में शुरुआत से अब तक ऐसे दृश्यों, संवादों और गीतों की भरमार है, जिसमें आपात स्थिति में कभी नायक तो कभी नायिका मंदिर का दरवाजा खटखटाते हैं और भगवान से कुछ अच्छा होने की उम्मीद करते हैं। सिनेमा हाल में बैठे दर्शक भी किसी चमत्कार की आशा करते हैं और चमत्कार होने पर तालियां बजाते हैं।
  अमिताभ बच्चन की सफल फिल्मों में से एक 'दीवार' फिल्म को ही लीजिए। फिल्म का नायक हमेशा मंदिर की सीढ़ियों के बाहर बैठा मिलता है। वह नास्तिक है, भगवान को नहीं मानता। लेकिन, फिल्म के अंत में जब उसकी मां की जान पर आन पडती है, वह भी लड़खड़ाते हुए, गिरते पड़ते मंदिर का घंटा थामकर जब कहता है 'आज खुश तो बहुत होगे' तो सिनेमाहाल में सन्नाटा छा जाता है। नाटकीय संवादों की अदायगी के बाद जब अमिताभ मंदिर से बाहर निकलता है तो ईश्वर की दुआ साथ लेकर जाता है।
     फिल्मकार मनमोहन देसाई ऐसे चमत्कार दिखाने में उस्ताद थे। उन्हें दर्शकों की नब्ज पकडना आता था। वे जानते थे कि हिंदी फिल्मों का दर्शक चमत्कार को स्वीकारता है और उसे नमस्कार भी करता था। यही कारण है कि 'अमर अकबर एंथोनी' में उन्होंने 'आया है तेरे दर पर सवाली' जैसा साईं भक्ति गीत जोड़कर चमत्कार दिखाया था। बरसों से अंधी निरूपाराय को आंख के साथ बेटा भी मिल जाता है। देव आनंद जैसे ग्लैमरस स्टार की फिल्मों में इस तरह के चमत्कारिक दृश्य कम ही देखे गए। लेकिन, 'गाइड' में पानी न बरसने से उसके साथ उपवास करते ग्रामीणों की परेशानी देखकर ईश्वर से सवाल कर बैठता है 'यह जिंदगी रहे ना रहे, मैं नहीं जानता कि तू हैं या नहीं, यदि तू है तो अपने बच्चों की सुन!' इसके बाद ईश्वर वाकई 'अल्लाह मेघ दे पानी दे' सुनकर अकालग्रस्त गांव को अपने आशीर्वाद की बौछारों से सराबोर कर देता है।
    भगवान को न मानने वाले नायक का भगवान के दरवाजे पर आकर दुआ मांगने का दृश्य पहले हर दूसरी फिल्म में शामिल किया जाता था। दर्शक भी समझ जाते थे, कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन दीवार, अमर अकबर एंथोनी और 'गाइड' जैसे दृष्य कभी कभार बन पाते हैं। ऐसे दर्जनों गीत हैं जिसमें थक हारकर ईश्वर से प्रार्थना के बोल होते हैं। ऐसे प्रार्थना गीत हर समय से दर्शकों को पसंद रहे हैं और गाहे-बगाहे सुनाई दे जाते हैं। देव आनंद की तरह ही शम्मी कपूर को भी पर्दे पर अक्सर नास्तिक ही दिखाया गया। लेकिन, उन्होंने भी 'उजाला' में 'अब कहां जाएं हम' फिल्म 'सच्चाई' में 'ओ मेरे खुदा ओ मेरे परमात्मा' जैसे गीत गाए हैं। 'तुमसे अच्छा कौन है' में अपनी अंधी बहन के बलात्कारी को खोजने में हताश शम्मी कपूर जब मंदिर जाकर अपने को कोसते हुए प्रार्थना करता है, तो उसे खलनायक का लॉकेट मिल जाता है और उसके साथ दर्शक भी राहत सांस लेते हैं।
    इस तरह के प्रार्थना गीतों में 'दो आंखे बारह हाथ' का गीत 'ऐ मालिक तेरे बंदे हम' आज भी परेशानी में हौंसला बढ़ाता है। दिलीप कुमार की फिल्मों में भगवान और दिलीप कुमार के बीच के संवाद दृश्य बहुत पसंद किए जाते थे। उनकी फिल्म 'दिल दिया दर्द लिया' भले ही असफल रही हो, पर फिल्म में दिलीप कुमार और भगवान शंकर के बीच फिल्माए गए संवाद बहुत लोकप्रिय हुए थे। वैसे तो परदे पर 'आना है तो आ राह में कुछ फेर नहीं है, भगवान के घर देर है अंधेर नहीं है' और 'इंसाफ का मंदिर है ये भगवान का घर है' जैसे गीतों के जरिए दर्शकों को भावनाओं में बहाने में कामयाब रहे हैं।
    निराशा और हताशा के समय में हमारे फिल्मी गाने प्रेरक साबित होकर वैक्सीन या बूस्टर की भूमिका निभाते हैं। इन दर्जनों गीतों में मोला मेरे मोला, तेरे दर पर आया हूं कुछ करके जाऊंगा, तेरे द्वार खड़ी दुखियारी, अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम, ना मैं धन चाहूँ ना रतन चाहूं, इतनी शक्ति हमें देना दाता मन का विश्वास कमजोर हो ना, तुम्ही हो माता पिता तुम्ही हो, हमको मन की शक्ति देना, ओ पालन हारे निर्गुण और न्यारे तुमरे बिन हमरा कोनू नाही जैसे प्रार्थना गीत न केवल मन की शांति देते हैं, बल्कि परेशानी से जूझते हुए आगे बढ़ने और मुसीबत को हराकर उसे जीतने की प्रेरणा भी देते हैं।
   दरअसल, प्रार्थना निर्बल और सभी तरह से हताश इंसान की सबसे बड़ी शक्ति है। प्रार्थना के स्वर में गुथी तडप धरती से होकर सीधे आसमान पर बैठे ईश्वर तक पहुंचती है । जब आज की तरह कोरोना से लड़ते इंसान के सारे उपाय निष्फल हो रहे हैं और आस की डोर टूटने लगी है, तो अनायास वह सबकुछ भूलकर उस पर विश्वास कर कहने लगा है 'जब कोई बात बिगड़ जाए, जब कोई मुश्किल पड़ जाए तुम देना साथ मेरा' ऐसे में उसे यकीन भी है, कि उसकी प्रार्थना भगवान तक जरूर पहुंचेगी। 
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Monday, May 3, 2021

परदे पर मजदूर भी हैं कहानी का हिस्सा

हेमंत पाल

     हमारी फिल्मों ने अपने कथानक में हर वर्ग को किसी न किसी रूप में प्रस्तुत किया है। पौराणिक फिल्मों में भगवान को याद किया गया तो ऐतिहासिक फिल्मों में उन हस्तियों को शामिल किया, जिन्होंने देश के इतिहास को रचने में अपना योगदान दिया है। कई चर्चित प्रेम कहानियां भी मनोरंजन का माध्यम बनी। इसके अलावा कई फिल्में ऐसी भी बनी, जिसमें मजदूरों को पृष्ठभूमि में रखकर उनकी मेहनत, मजबूरी और उनके सुख-दुख को दर्शकों के सामने पेश किया गया। फिल्म के परदे पर मजदूरों की कहानियों का श्वेत श्याम युग से ही कब्जा कायम रहा है। भारत एक कृषि प्रधान देश है और कृषि मजदूरों की समस्या सनातन काल से चली आ रही है, इसलिए सिनेमा में भी इस समस्या को अकसर भुनाया गया है। बलराज साहनी और निरूपा राय अभिनीत 'हीरा मोती' दो बैलों की कहानी थी, जिन्हें साहूकार छीन लेता है और इस वजह से पति-पत्नी को बेल बनाकर हल जोतना पड़ता है। 'दो बीघा जमीन' भी कुछ ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें किसान दंपति अपनी गिरवी जमीन छुड़ाने के लिए महानगर में जाकर मजदूरी करता है।
      मजदूर विषयों पर साम्यवादी या कामरेड सोच वाले फिल्मकारों का एकाधिकार सा रहा है। इसमें ख्वाजा अहमद अब्बास का नाम सबसे ऊपर था। उनकी फिल्म चार दिल चार राहें, शहर और सपना तथा 'दो बूंद पानी' सभी मजदूर समस्याओं पर आधारित थी। भारतीय सिनेमा की सबसे सशक्त फिल्म 'मदर इंडिया' भी एक तरह से मजदूरों के जीवन पर ही आधारित थी, जिसे महबूब ने साहूकारी के साथ जोड़कर पेश किया। वैसे तो बीआर चोपड़ा को सामाजिक सिनेमा का सूत्रधार माना जाता रहा। लेकिन, उन्होंने भी अपनी फिल्मों में मजदूरी को व्यावसायिक अंदाज में पेशकर दर्शकों को नया दौर, मजदूर और 'आदमी और इंसान' जैसी फ़िल्में बड़े कलाकारों, बडे सेटअप और लोकप्रिय संगीत का तड़का लगाकर पेश की है।  
   आम आदमी की समस्या को बड़े पर्दे पर दिखाने की कला ऋषिकेश मुखर्जी को बखूबी आती थी। इस बहाने उन्होंने मध्यम वर्ग की समस्याओं को भी नए अंदाज में दिखाया। उनकी फिल्म 'नमक हराम' में बचपन के दो दोस्तों की कहानी थी, जिनमें एक मजदूर नेता है, तो दूसरा कारखाने का मालिक। इनकी दोस्ती का दुश्मनी में बदलना और कारखाना मजदूरों की समस्याओं के साथ नेताओं की हरकतों को इसमें रोचक अंदाज में पेश किया गया था। इस फिल्म में कारखाना मालिक की भूमिका कर दर्शकों का ध्यान आकर्षित करने वाले अमिताभ ने बाद में मजदूर बनकर लोकप्रियता पाई!
     1973 में प्रदर्शित यश चोपड़ा की फिल्म 'दीवार' में अमिताभ पहली बार मजदूर बने। गोदी मजदूरों की पृष्ठभूमि और हाजी मस्तान की जीवनी पर आधारित इस फिल्म में अमिताभ ने मजदूरों का शोषण रोकने के नए हथकंडे अपनाए थे। लेकिन, वे हथकंडे मजदूरों की समस्या भुलाकर दर्शकों को एक फंतासी दुनिया में ले जाते हैं। ऐसे में दर्शक सलीम-जावेद के डायलॉग और अमिताभ के अनोखे अंदाज को देखकर ताली पीटता रह जाता है। इसके बाद 1979 में यश चोपड़ा ने एक बार फिर अमिताभ को गोदी से हटाकर खदान मजदूर बना दिया। चसनाला खदान दुर्घटना पर आधारित 'काला पत्थर' में एक पूर्व मर्चेंट नेवी अफसर कोयला खदान में काम करता है। इस फिल्म में ऐसे कई डायलॉग हैं, जो मजदूरों की पीड़ा दिखाते हैं। इस फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा ने अक्खड मजदूर के रूप में अमिताभ को जमकर टक्कर देकर दर्शकों की तालियां बटोरी थी। 'दीवार' और 'काला पत्थर' ये दोनों ही फिल्में सलीम जावेद ने लिखी थी।
    अमिताभ से पहले दिलीप कुमार को मजदूर विषयों का नायक बनने में महारत हासिल थी। उनकी फिल्म 'पैगाम' मिल मजदूरों की समस्याओं पर ही आधारित थी। इस फिल्म में उन्होंने राजकुमार के सामने हाजरी लगाई थी। इसके बाद बंगाल में मजदूर समस्याओं और लीडरशिप पर आधारित फिल्म 'सगीना महतो' में दमदार अभिनय किया। लेकिन, वितरकों की मांग पर फिल्म का अंत बदलने से फिल्म का प्रभाव कम जरूर हो गया था। इससे पहले दिलीप कुमार 'नया दौर' में मजदूर और मशीन की लड़ाई में अपने तेवर दिखा चुके थे। 1983 में बनी फिल्म 'मजदूर' में एक बार फिर दिलीप कुमार ने अपने अभिनय का जलवा बिखेरा। इस फिल्म में अनिल कपूर ने जमकर अभिनय किया था। इसी कारण अनिल कपूर को भी 'लाडला' में मजदूर की भूमिका निभाने को मिली।
    
      ऐसी फ़िल्में यहीं तक सीमित नहीं रही! शक्ति सामंत की 'इंसान जाग उठा' फिल्मालय की 'हम हिन्दुस्तानी'  राकेश रोशन की 'कोयला' और जैमिनी की 'समाज को बदल डालो' जैसी फिल्में भी बनी, जो ज्यादा सफल नहीं हुई। एक दौर ऐसा भी आया था जब श्याम बेनेगल, उत्पल दत्त, शबाना आज़मी, ओम पुरी, स्मिता पाटिल और अनंत नाग की जोड़ी ने एक खास वर्ग के मजदूर और उनके शोषण पर अंकुर, चक्र, मिर्च मसाला, भुवन सोम, भूमिका और 'निशांत' जैसी फ़िल्में बनाई! लेकिन, इन्हें एक वर्ग विशेष ने ही देखा और सराहा। जबकि, 'मृगया' और 'हम पांच' में मजदूर बनकर मिथुन चक्रवर्ती ने नाम कमाया। यदि देव आनंद और शम्मी कपूर को छोड़ दिया जाए तो दिलीप कुमार से लेकर बलराज साहनी, अमिताभ बच्चन, राजेन्द्र कुमार से लेकर सुनील दत्त सभी मजदूर बनकर परदे पर उतर चुके हैं। यदि इन फिल्मों को छोड़ दिया जाए, तो अधिकांश फिल्मों में मजदूर को केवल एक फिलर के रूप में ही पेश किया गया। जिसमें किसी मजदूर पर अत्याचार करते विलन को पीटकर नायक अपनी हरकतों से नायिका का दिल जीत लेता है।
   कुछ 'लाडला' जैसी भी फ़िल्में आई, जिनमें मिल मालिक की बिगडैल बेटी के सामने जोरदार डायलॉग झाडकर मजदूर नेता बने नायक को मिल मालिक अपनी बिगडैल बेटी पर कंट्रोल करने के लिए चुनता है। यानी किसी न किसी रूप में मजदूर परदे की शान ही बढ़ा रहा है। महान हिंदी कथाकार प्रेमचंद ने भी जब फिल्म इंडस्ट्री में कथानक लेखक के तौर पर अपना करियर बनाने का प्रयास किया, तो उन्होंने मजदूर की ही कहानी लिखी थी। 1934 में बनी फिल्म 'मिल मजदूर' में प्रेमचंद ने हड़ताली मजदूरों के नेता का एक छोटा सा किरदार निभाया था! लेकिन, इस फिल्म को अंग्रेज सरकार के सेंसर बोर्ड ने अनुमति नहीं दी! आशंका जताई गई कि फिल्म की कहानी क्रांतिकारी मजदूरों को विद्रोही बना देगी। अफ़सोस की बात ये कि अब इस 'मिल मजदूर' फिल्म का कोई प्रिंट भी उपलब्ध नहीं है। लेकिन, प्रेमचंद ने मजदूरों को लेकर जो सवाल उठाए  थे, वो आज भी जिंदा हैं। 
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संगीत ही नहीं, किस्से भी जुड़े इन गीतों से!

हेमंत पाल

      सिनेमा के इतिहास में कई कालजयी फ़िल्में दर्ज हैं, उनमें सबसे ऊपर नाम है के. आसिफ की 'मुगले आजम' का! उन्होंने इस फिल्म को बनाने में जितना समय लगाया, उतना ही वक़्त इसके संगीत को रचने में भी लगा! यही कारण है कि इस फिल्म के गीत आज भी अपने माधुर्य के कारण पसंद किए जाते हैं। इसका संगीत नौशाद ने दिया था। संगीत को लेकर के. आसिफ और नौशाद के बीच खींचतान के किस्से काफी चर्चित रहे। बताते हैं कि आसिफ ने जब  नौशाद को बतौर एडवांस पैसे दिए, तो नौशाद गुस्से में आ गए और पैसे लौटा दिए! ऐसा क्यों हुआ, ये   कभी साफ़ नहीं हुआ। बाद में बड़ी मनौव्वल के बाद वो संगीत देने के लिए तैयार हुए थे। नौशाद ने राग दरबारी, राग दुर्गा, राग केदार और राग बागेश्री जैसी शास्त्रीय धुनों के आधार पर गाने तैयार किए। यही कारण है कि जब प्यार किया तो डरना क्या, प्रेम जोगन बन के, मोहे पनघट पे, मोहब्बत की झूठी कहानी पर रोए जैसे गाने आज भी ताजा हैं।
   'मुगले आजम' के लिए बड़े गुलाम अली खान गाने को तैयार नहीं थे। लेकिन, उन्होंने मना करना ठीक नहीं समझा और बहुत ज्यादा पैसे मांग लिए। के. आसिफ तो इसके लिए भी तैयार हो गए। इस फिल्म के एक गीत 'मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे' गाने को लेकर एक निर्देशक ने आसिफ और नौशाद के सामने एक ये आशंका भी जताई थी, कि दर्शक शायद एक मुस्लिम बादशाह को होली मनाते देखना मंजूर नहीं करें। ऐसा न हो कि इस गाने को लेकर कोई बवाल न हो! लेकिन, फिल्म का कथानक में ऐसा ताना-बाना बुना गया था, कि किसी को ये बात ध्यान में भी नहीं आई! नौशाद ने इस गाने को राग गारा को आधार बनाकर रचा था।
    सुनील दत्त की फ़िल्म 'मुझे जीने दो' (1963) का गाना 'नदी नारे न जाओ श्याम पइयां पडूं' वास्तव में नौटंकियों में गाया जाने वाला गाना था। इसे कानपुर घराने की गुलाबो बाई गाती थी, जो मूलतः बृज और बुंदेलखंड का लोकगीत था। सुनील दत्त को ये गीत इतना पसंद था कि उन्होंने इसे अपनी फिल्म में लेना चाहा! लेकिन, फिल्म के लिए गीत का मूल स्वरूप बदला गया। गीत का अंतरा साहिर लुधियानवी ने लिखा और संगीत में जयदेव ने बांधा था। फ़िल्मी गीतों को लेकर ऐसे किस्सों में फिल्म 'दो बदन' का गीत 'रहा गर्दिशों में हरदम मेरे इश्क़ का सितारा' भी चर्चित है। फिल्म के लिए ये गीत मोहम्मद रफी ने गाया था। पर, इस गीत को पहले किसी और फिल्म के लिए मुकेश ने रिकॉर्ड किया था। पर, उसमें यह गीत नहीं लिया गया। मनोज कुमार को यह गीत बेहद पसंद था। जब 'दो बदन' बनने लगी, तो ये गीत फिल्म में लेने का सोचा गया। लेकिन, फिल्म के सभी गीत मोहम्मद रफी गा रहे थे, इसलिए धुन और रेंज में बदलाव करके इसे रफी की आवाज में फिर रिकॉर्ड किया गया।  
     फ़िल्मी गीतों को लेकर एक बेहद दिलचस्प किस्सा ऐसा है जिसने दो नए गायकों को अनजाने में मौका मिला। 'विश्वास' (1969) के गीत 'आपसे हमको बिछड़े हुए' को पहले मुकेश और लता मंगेशकर को गाना था। लेकिन, मुकेश तब मुंबई में नहीं थे, तो कल्याणजी-आनंदजी ने इसे शूटिंग के लिए मनहर और कंचन की आवाज में डब करा लिया। उन्होंने सोचा कि बाद में इसे मुकेश और लता से गवा लेंगे। जब मुकेश लौटे और उन्हें यह गीत सुनाया, तो वे बोले कि यह गीत बहुत अच्छा गाया है, इसे ऐसा ही रहने दें। मुकेश ने जिद से यह गीत मनहर और कंचन को मिल गया और इस गीत से दोनों को ब्रेक मिला। फिल्म 'जिंदगी जिंदगी' के गीत 'जिंदगी ये जिंदगी तेरे हैं दो रूप' गाने की रिहर्सल के लिए संगीतकार एसडी बर्मन ने मन्ना डे को बुलाया था। उनकी आदत थी कि वे गायक को गीत गाकर सुनाते थे। एसडी बर्मन ने अपनी स्टाइल में इसे गाया! मन्ना डे ने दोबारा गाने को कहा। जैसे ही एसडी बर्मन ने दोबारा गीत पूरा किया, मन्ना डे ने तुरंत कहा कि मुझे नहीं लगता कि मैं इस गीत को आपसे अच्छा गा सकता हूँ। इस गीत को आपको ही गाना चाहिए। बहुत समझाने पर भी मन्ना डे नहीं माने और गीत एसडी बर्मन  ही रिकॉर्ड हुआ।  
   एसडी बर्मन ने 'मुंबई का बाबू' के लिए 'चल री सजनी अब क्या सोचे' की धुन बना ली थी। वे इसे किशोर कुमार से गवाना चाहते थे। पर, किशोर कुमार किसी न किसी बहाने से टालते रहे! उन्होंने कई दिन तक तो किशोर कुमार का इंतजार किया, फिर इसे मुकेश से गवा लिया। ऐसा ही वाक़या 'निकाह' के गीत 'दिल के अरमा आंसुओं में बह गए' को लेकर भी है। संगीतकार रवि इस गीत को आशा भौंसले से गवाने के मूड में थे। उन्होंने आशा की आवाज को ध्यान में रखकर धुन भी बना ली थी। लेकिन, सलमा आगा जो फिल्म की नायिका थी, खुद इस गीत को गाने के लिए अड़ गई! वे गायिका भी थीं, इसलिए संगीतकार को उनकी बात मानना पड़ी। रवि ने धुन में थोड़ा बदलाव करने इसे सलमा आगा से गवाया, जो काफी लोकप्रिय भी रहा! ऐसे किस्सों का कोई अंत नहीं है। ज्यादातर गीतों के साथ कोई न कोई कहानी जुड़ी है। 
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