- हेमंत पाल
यादें भी बड़ी अजीब होती हैं। कभी यह गुुदगुदाती हैं, तो कभी रूलाती हैं। कभी किसी की याद बरसों नहीं आती, तो कभी अचानक किसी की याद मन-मस्तिष्क पर दस्तक देने लगती हैं। इंसानों का यादों से लम्बा वास्ता होता है, यही कारण है कि फिल्मों में भी यादों का सिलसिला काफी पुराना है। यादों की जंजीर को जोड़कर फिल्मकारों ने कई प्रयोग किए। कभी कहानी में यादों को शरीक किया, तो कहीं यादों के तार छेड़कर कानों में रस घोलने का काम किया है। हिन्दी फिल्मों और यादों का ताना-बाना जितना पुराना है, उतना ही सुहाना भी है। यादों को लेकर हिंदी फिल्मों में कई तरह से प्रयोग किए गए। पहले जब श्याम-श्याम फिल्मों का जमाना था, तब भी फिल्मकारों ने नायक या नायिका की यादों के साथ छेड़छाड़ कर फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाया! जब समय के साथ फ़िल्में रंगीन हुई, तो यादें भी रंगीन होकर पर्दे पर रंग बिखेरने लगी।
यह तो पता नहीं कि फिल्मों में यादों को कब और किसने याद किया, लेकिन इतना तो सभी जानते हैं कि फिल्मकारों ने सफलता के टोटके के रूप में इसे गाहे-बगाहे परदे पर उतारने का कारनामा किया। यदि श्वेत-श्याम फिल्मों की बात की जाए, तो इन फिल्मों की कहानियों में यादों का एक ऐसा दृश्य होता था, जब किसी दुर्घटना, हादसे या चोट से नायक और नायिका की याददाश्त चली जाती थी। जब लौटती थी, तो पहला सवाल यही होता था कि मैं कौन हूँ? कहां हूँ? अपनी भूली बिसरी यादों को ताक पर रखकर वह नए संबंध बना लेते थे और जब याददाश्त वापस आती, तो कहानी में अचानक मोड़ आ जाता! यह सिलसिला लगातार चलता रहता था। याददाश्त के आने-जाने या ऑन-ऑफ वाले फिल्मकारों ने तरह तरह के जुगाड़ किए। याददाश्त गुम करने या वापस लाने के लिए सिर पर डंडा मारने, सीढ़ियों से लुढ़काने, भगवान के दरबार में घंटियां बजने, बचपन में गाये या सुने गीत या फ्लैशबैक के फार्मूले जब पुराने पड़ गए तो 'गजनी' में लुपझुप करती याददाश्त को वापस लाने के लिए आमिर खान के पूरे शरीर को ही गुदवा दिया गया।
गुजरे कल की फिल्में जिनमें यादों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनमें देव आनंद की फिल्म 'अमरदीप' याद आती है। इसमें वैजयंती से प्यार करने वाला देव आनंद सिर पर चोट खाकर अपनी याददाश्त भूल जाता है और फिर पद्मिनी के प्यार में नए नए स्वांग रचता है। जब वैजयंती माला उसे देखकर 'हमें आवाज न देना' गाना गाकर उसकी याददाश्त वापस लाती है, तो वह पद्मिनी को भुलाकर वैजयंती माला का दामन थाम लेता है। इसके बाद कथानक में उतार-चढाव आता है और आखिर में निर्माता को याद आता है कि फिल्म समाप्त करना है और वह वैजयंती माला और पद्मिनी को बिछड़ी बहनें बताकर एक का बलिदान लेकर दूसरी से मिलवा देता है।
याददाश्त गुम होने और लौटकर आने पर आधारित फिल्म 'एक मुसाफिर एक हसीना' का नायक एक सैन्य अधिकारी है, जो एक बम के धमाके में अपनी याददाश्त भुलाकर साधना से प्यार करने लगाता है। जब दूसरे धमाके में उसकी याददाश्त वापस आती है, तो साधना को भूल जाता है। फिर 'आप यूँ ही अगर हमसे मिलते रहे' गाकर उसकी याददाश्त लाने की कवायद करती है। इससे यह तो तय है, कि फिल्म के नायक या नायिका की याददाश्त वापस लाने में चाहे डॉक्टर असफल रहे गीतकार और संगीतकार मिलकर ऐसा गीत रचते हैं कि याददाश्त को वापस लौटना पड़ता है।
याददाश्त खोकर पाने वाले नायकों में देव आनंद और जॉय मुखर्जी के अलावा ऋषि कपूर भी है, जिन्होंने 'हीना' सहित कई फिल्मों में यादें गुम की थी। इसके अलावा कभी विश्वजीत तो कभी राजेश खन्ना अपनी यादें गुम कर फिल्म की कहानी को नया मोड़ देने में कामयाब रहे हैं। ऐसी बात नहीं कि केवल नायकों की याददाश्त जाती हैं। नायिकाओं ने भी परदे पर याददाश्त गंवाने का काम किया है। इस फिल्म में साधना का नाम सबसे ऊपर आता है, जिसने 'मेरा साया' और 'अनिता' सहित कई सस्पेंस फिल्मों में याददाश्त खोने के बावजूद अपनी अदाओं से दर्शकों को रिझाया है। नायक और नायिकाओं के अलावा कभी नायक के बाप और कभी नायक की मां ने भी याददाश्त खोने और पाने के खेल में हाथ बंटाया है। नासिर हुसैन की फिल्म 'प्यार का मौसम' में निरूपा रॉय की याददाश्त चली जाती है और 'तुम बिन जाऊं कहां' सुनकर लौट आती है।
गुजरे कल की फिल्में जिनमें यादों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनमें देव आनंद की फिल्म 'अमरदीप' याद आती है। इसमें वैजयंती से प्यार करने वाला देव आनंद सिर पर चोट खाकर अपनी याददाश्त भूल जाता है और फिर पद्मिनी के प्यार में नए नए स्वांग रचता है। जब वैजयंती माला उसे देखकर 'हमें आवाज न देना' गाना गाकर उसकी याददाश्त वापस लाती है, तो वह पद्मिनी को भुलाकर वैजयंती माला का दामन थाम लेता है। इसके बाद कथानक में उतार-चढाव आता है और आखिर में निर्माता को याद आता है कि फिल्म समाप्त करना है और वह वैजयंती माला और पद्मिनी को बिछड़ी बहनें बताकर एक का बलिदान लेकर दूसरी से मिलवा देता है।
याददाश्त गुम होने और लौटकर आने पर आधारित फिल्म 'एक मुसाफिर एक हसीना' का नायक एक सैन्य अधिकारी है, जो एक बम के धमाके में अपनी याददाश्त भुलाकर साधना से प्यार करने लगाता है। जब दूसरे धमाके में उसकी याददाश्त वापस आती है, तो साधना को भूल जाता है। फिर 'आप यूँ ही अगर हमसे मिलते रहे' गाकर उसकी याददाश्त लाने की कवायद करती है। इससे यह तो तय है, कि फिल्म के नायक या नायिका की याददाश्त वापस लाने में चाहे डॉक्टर असफल रहे गीतकार और संगीतकार मिलकर ऐसा गीत रचते हैं कि याददाश्त को वापस लौटना पड़ता है।
याददाश्त खोकर पाने वाले नायकों में देव आनंद और जॉय मुखर्जी के अलावा ऋषि कपूर भी है, जिन्होंने 'हीना' सहित कई फिल्मों में यादें गुम की थी। इसके अलावा कभी विश्वजीत तो कभी राजेश खन्ना अपनी यादें गुम कर फिल्म की कहानी को नया मोड़ देने में कामयाब रहे हैं। ऐसी बात नहीं कि केवल नायकों की याददाश्त जाती हैं। नायिकाओं ने भी परदे पर याददाश्त गंवाने का काम किया है। इस फिल्म में साधना का नाम सबसे ऊपर आता है, जिसने 'मेरा साया' और 'अनिता' सहित कई सस्पेंस फिल्मों में याददाश्त खोने के बावजूद अपनी अदाओं से दर्शकों को रिझाया है। नायक और नायिकाओं के अलावा कभी नायक के बाप और कभी नायक की मां ने भी याददाश्त खोने और पाने के खेल में हाथ बंटाया है। नासिर हुसैन की फिल्म 'प्यार का मौसम' में निरूपा रॉय की याददाश्त चली जाती है और 'तुम बिन जाऊं कहां' सुनकर लौट आती है।
सफल फिल्मों की लेखक जोड़ी सलीम जावेद ने भी यादों का सहारा लेकर 'जंजीर' और 'यादों की बारात' जैसी सफल फिल्में लिखी। बपचन में अपने मां-बाप की हत्या देखकर बच्चा अपनी याददाश्त भूल जाता है। फिर कभी लॉकेट तो कभी ब्रेसलेट देखकर उसकी याददाश्त लौट आती है और वह बदला, बदला, बदला चिल्लाने लगता है। 70 के दशक के बाद बनी तमाम फिल्मों में यादों को कुछ इस तरह से ही इस्तेमाल किया गया। यादों से केवल फिल्म की कहानी ही आगे नहीं बढ़ती, बल्कि यादों पर आधारित गीत भी खासे लोकप्रिय हुए हैं। याद किया दिल ने कहां हो तुम, जब आती होगी याद मेरी, तुझे याद करूं या भूल जाऊं ,वो जब याद आए, वो दिन याद करो, याद में तेरी जाग कर हम, यादों की बारात, तेरी याद दिल से भुलाने चला हूं। 'याद न जाए बीते दिनों की' और 'तुझे याद किया तेरा नाम लिया' जैसे यादगार गीत आज भी कानों में शहद घोलते हैं।
यादों ने फिल्मों के टाइटल को भी नहीं छोडा है। यादों की बारात, यादों की जंजीर, वो दिन याद करो, तेरी याद आई और 'यादगार' के अलावा यादें नाम से भी दो फिल्में बनी। जिनमें एक के नायक सुनील दत्त थे तो दूसरी के रितिक रोशन। लेकिन, 'यादें' शीर्षक वाली इन फिल्मों के बारे में एक बात याद रखने लायक है कि दोनों ही बाॅक्स ऑफिस पर इतनी बुरी तरह पिटी, कि कोई आज इन्हें याद भी नहीं रखना चाहता।
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यादों ने फिल्मों के टाइटल को भी नहीं छोडा है। यादों की बारात, यादों की जंजीर, वो दिन याद करो, तेरी याद आई और 'यादगार' के अलावा यादें नाम से भी दो फिल्में बनी। जिनमें एक के नायक सुनील दत्त थे तो दूसरी के रितिक रोशन। लेकिन, 'यादें' शीर्षक वाली इन फिल्मों के बारे में एक बात याद रखने लायक है कि दोनों ही बाॅक्स ऑफिस पर इतनी बुरी तरह पिटी, कि कोई आज इन्हें याद भी नहीं रखना चाहता।
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