- हेमंत पाल
हमारी फिल्मों ने अपने कथानक में हर वर्ग को किसी न किसी रूप में प्रस्तुत किया है। पौराणिक फिल्मों में भगवान को याद किया गया तो ऐतिहासिक फिल्मों में उन हस्तियों को शामिल किया, जिन्होंने देश के इतिहास को रचने में अपना योगदान दिया है। कई चर्चित प्रेम कहानियां भी मनोरंजन का माध्यम बनी। इसके अलावा कई फिल्में ऐसी भी बनी, जिसमें मजदूरों को पृष्ठभूमि में रखकर उनकी मेहनत, मजबूरी और उनके सुख-दुख को दर्शकों के सामने पेश किया गया। फिल्म के परदे पर मजदूरों की कहानियों का श्वेत श्याम युग से ही कब्जा कायम रहा है। भारत एक कृषि प्रधान देश है और कृषि मजदूरों की समस्या सनातन काल से चली आ रही है, इसलिए सिनेमा में भी इस समस्या को अकसर भुनाया गया है। बलराज साहनी और निरूपा राय अभिनीत 'हीरा मोती' दो बैलों की कहानी थी, जिन्हें साहूकार छीन लेता है और इस वजह से पति-पत्नी को बेल बनाकर हल जोतना पड़ता है। 'दो बीघा जमीन' भी कुछ ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें किसान दंपति अपनी गिरवी जमीन छुड़ाने के लिए महानगर में जाकर मजदूरी करता है।
मजदूर विषयों पर साम्यवादी या कामरेड सोच वाले फिल्मकारों का एकाधिकार सा रहा है। इसमें ख्वाजा अहमद अब्बास का नाम सबसे ऊपर था। उनकी फिल्म चार दिल चार राहें, शहर और सपना तथा 'दो बूंद पानी' सभी मजदूर समस्याओं पर आधारित थी। भारतीय सिनेमा की सबसे सशक्त फिल्म 'मदर इंडिया' भी एक तरह से मजदूरों के जीवन पर ही आधारित थी, जिसे महबूब ने साहूकारी के साथ जोड़कर पेश किया। वैसे तो बीआर चोपड़ा को सामाजिक सिनेमा का सूत्रधार माना जाता रहा। लेकिन, उन्होंने भी अपनी फिल्मों में मजदूरी को व्यावसायिक अंदाज में पेशकर दर्शकों को नया दौर, मजदूर और 'आदमी और इंसान' जैसी फ़िल्में बड़े कलाकारों, बडे सेटअप और लोकप्रिय संगीत का तड़का लगाकर पेश की है।
आम आदमी की समस्या को बड़े पर्दे पर दिखाने की कला ऋषिकेश मुखर्जी को बखूबी आती थी। इस बहाने उन्होंने मध्यम वर्ग की समस्याओं को भी नए अंदाज में दिखाया। उनकी फिल्म 'नमक हराम' में बचपन के दो दोस्तों की कहानी थी, जिनमें एक मजदूर नेता है, तो दूसरा कारखाने का मालिक। इनकी दोस्ती का दुश्मनी में बदलना और कारखाना मजदूरों की समस्याओं के साथ नेताओं की हरकतों को इसमें रोचक अंदाज में पेश किया गया था। इस फिल्म में कारखाना मालिक की भूमिका कर दर्शकों का ध्यान आकर्षित करने वाले अमिताभ ने बाद में मजदूर बनकर लोकप्रियता पाई!
1973 में प्रदर्शित यश चोपड़ा की फिल्म 'दीवार' में अमिताभ पहली बार मजदूर बने। गोदी मजदूरों की पृष्ठभूमि और हाजी मस्तान की जीवनी पर आधारित इस फिल्म में अमिताभ ने मजदूरों का शोषण रोकने के नए हथकंडे अपनाए थे। लेकिन, वे हथकंडे मजदूरों की समस्या भुलाकर दर्शकों को एक फंतासी दुनिया में ले जाते हैं। ऐसे में दर्शक सलीम-जावेद के डायलॉग और अमिताभ के अनोखे अंदाज को देखकर ताली पीटता रह जाता है। इसके बाद 1979 में यश चोपड़ा ने एक बार फिर अमिताभ को गोदी से हटाकर खदान मजदूर बना दिया। चसनाला खदान दुर्घटना पर आधारित 'काला पत्थर' में एक पूर्व मर्चेंट नेवी अफसर कोयला खदान में काम करता है। इस फिल्म में ऐसे कई डायलॉग हैं, जो मजदूरों की पीड़ा दिखाते हैं। इस फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा ने अक्खड मजदूर के रूप में अमिताभ को जमकर टक्कर देकर दर्शकों की तालियां बटोरी थी। 'दीवार' और 'काला पत्थर' ये दोनों ही फिल्में सलीम जावेद ने लिखी थी।
अमिताभ से पहले दिलीप कुमार को मजदूर विषयों का नायक बनने में महारत हासिल थी। उनकी फिल्म 'पैगाम' मिल मजदूरों की समस्याओं पर ही आधारित थी। इस फिल्म में उन्होंने राजकुमार के सामने हाजरी लगाई थी। इसके बाद बंगाल में मजदूर समस्याओं और लीडरशिप पर आधारित फिल्म 'सगीना महतो' में दमदार अभिनय किया। लेकिन, वितरकों की मांग पर फिल्म का अंत बदलने से फिल्म का प्रभाव कम जरूर हो गया था। इससे पहले दिलीप कुमार 'नया दौर' में मजदूर और मशीन की लड़ाई में अपने तेवर दिखा चुके थे। 1983 में बनी फिल्म 'मजदूर' में एक बार फिर दिलीप कुमार ने अपने अभिनय का जलवा बिखेरा। इस फिल्म में अनिल कपूर ने जमकर अभिनय किया था। इसी कारण अनिल कपूर को भी 'लाडला' में मजदूर की भूमिका निभाने को मिली।
ऐसी फ़िल्में यहीं तक सीमित नहीं रही! शक्ति सामंत की 'इंसान जाग उठा' फिल्मालय की 'हम हिन्दुस्तानी' राकेश रोशन की 'कोयला' और जैमिनी की 'समाज को बदल डालो' जैसी फिल्में भी बनी, जो ज्यादा सफल नहीं हुई। एक दौर ऐसा भी आया था जब श्याम बेनेगल, उत्पल दत्त, शबाना आज़मी, ओम पुरी, स्मिता पाटिल और अनंत नाग की जोड़ी ने एक खास वर्ग के मजदूर और उनके शोषण पर अंकुर, चक्र, मिर्च मसाला, भुवन सोम, भूमिका और 'निशांत' जैसी फ़िल्में बनाई! लेकिन, इन्हें एक वर्ग विशेष ने ही देखा और सराहा। जबकि, 'मृगया' और 'हम पांच' में मजदूर बनकर मिथुन चक्रवर्ती ने नाम कमाया। यदि देव आनंद और शम्मी कपूर को छोड़ दिया जाए तो दिलीप कुमार से लेकर बलराज साहनी, अमिताभ बच्चन, राजेन्द्र कुमार से लेकर सुनील दत्त सभी मजदूर बनकर परदे पर उतर चुके हैं। यदि इन फिल्मों को छोड़ दिया जाए, तो अधिकांश फिल्मों में मजदूर को केवल एक फिलर के रूप में ही पेश किया गया। जिसमें किसी मजदूर पर अत्याचार करते विलन को पीटकर नायक अपनी हरकतों से नायिका का दिल जीत लेता है।
कुछ 'लाडला' जैसी भी फ़िल्में आई, जिनमें मिल मालिक की बिगडैल बेटी के सामने जोरदार डायलॉग झाडकर मजदूर नेता बने नायक को मिल मालिक अपनी बिगडैल बेटी पर कंट्रोल करने के लिए चुनता है। यानी किसी न किसी रूप में मजदूर परदे की शान ही बढ़ा रहा है। महान हिंदी कथाकार प्रेमचंद ने भी जब फिल्म इंडस्ट्री में कथानक लेखक के तौर पर अपना करियर बनाने का प्रयास किया, तो उन्होंने मजदूर की ही कहानी लिखी थी। 1934 में बनी फिल्म 'मिल मजदूर' में प्रेमचंद ने हड़ताली मजदूरों के नेता का एक छोटा सा किरदार निभाया था! लेकिन, इस फिल्म को अंग्रेज सरकार के सेंसर बोर्ड ने अनुमति नहीं दी! आशंका जताई गई कि फिल्म की कहानी क्रांतिकारी मजदूरों को विद्रोही बना देगी। अफ़सोस की बात ये कि अब इस 'मिल मजदूर' फिल्म का कोई प्रिंट भी उपलब्ध नहीं है। लेकिन, प्रेमचंद ने मजदूरों को लेकर जो सवाल उठाए थे, वो आज भी जिंदा हैं।
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