84 की सूखा त्रासदी
समय बदलने के साथ सब कुछ बदला है साथ में और पत्रकारिता का चेहरा भी! उसी के साथ सामाजिक दायित्व भी तिरोहित हुए हैं। अब वो समय नहीं रहा, जब पत्रकार घटनाओं और प्राकृतिक आपदाओं के मुताबिक अपनी जिम्मेदारी तय करता था! जिस तरह कोरोना संक्रमण, बाढ़ और भूकंप प्राकृतिक आपदाएं हैं, वैसी ही सूखा भी एक ऐसी घटनाएं हैं। इसमें पत्रकार समाजसेवी की भूमिका में होता था! लेकिन, अब सब बदल गया। आज के नए पत्रकारों ने तो सूखे की विभीषिका को महसूस ही नहीं किया होगा। तब रिपोर्टिंग करने जाने पर पानी तक नहीं मिलता था! जबकि, आज कहीं भी मिनरल वाटर की बॉटल उपलब्ध हो जाती है। आपदा को जब तक खुद महसूस न किया जाए, ख़बरों में वो दर्द भी नहीं उबरता जो पढ़ने वाले को द्रवित करता है। पत्रकार जब तक खुद सूखे को नहीं भोगेगा, एक गिलास पानी की तड़फ को नहीं जानेगा, उसे दर्द का अहसास भी नहीं होगा!
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- हेमंत पाल
पत्रकार का दायित्व सिर्फ घटनाओं को अख़बारों में खबर की शक्ल में छाप देने तक सीमित नहीं होता। वास्तव में पत्रकारिता वो है, जो समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता से समझे और संवेदनाओं के साथ ख़बरों को आकार दे। इस पेशे के साथ सामाजिक जुड़ाव होना बहुत जरूरी है। इसका असल मकसद भी यही है। प्राकृतिक आपदाओं, बड़े हादसों और घटनाओं के दौर में की जाने वाली पत्रकारिता ही वास्तव में मानवीय संवेदनाओं वाली पत्रकारिता है। इसलिए कि पत्रकार को सामाजिक पैरोकार की नजर से देखा जाता है। पत्रकार को सरकार से जुड़ने वाली वो कड़ी माना जाता है, जो आम लोगों की मुसीबतों को सरकार के सामने संवेदनशील नज़रिए से रखता है। उसके बाद ही सरकारी मशीनरी उसका निराकरण ढूंढने में जुटती है।
मुझे एक कड़वा दौर याद आता है। 1984-85 के उस साल में देश के अधिकांश हिस्सों में सूखा पड़ा था। इस आपदा का असर प्रदेशभर में था, पर धार जिले के ग्रामीण इलाकों में सूखे की विभीषिका का असर कुछ ज्यादा दिखाई दिया! पुराने लोगों के मुताबिक 1960 के बाद धार और झाबुआ में सबसे ज्यादा सूखा इसी समय पड़ा था! बाग़, टांडा, कुक्षी और मनावर में जहाँ तक नजर जाती थी, सूखा ही सूखा नजर आता। ऐसे में सिवाए सूखे की विभीषिका के किस्से लिखने के किसी पत्रकार के लिए कुछ सोच पाना संभव नहीं था। लोग खाने के दाने-दाने और पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहे थे। आदिवासी इलाकों में मजदूरी के काम बंद थे। लोग बेकार भी थे और भूखे भी। सारा दारोमदार सरकारी राहत कार्यों के भरोसे था। सरकार आदिवासियों से थोड़े-बहुत काम करवाकर उनका पेट भरने में लगी थी। लोगों की जान पर बन आई थी! रास्ते में दूर-दूर तक मरे हुए मवेशियों के कंकाल नजर आते थे। क्योंकि, अपनी जान बचाने की कोशिश में आदिवासियों का मवेशियों की तरफ ध्यान ही नहीं था। उस दौर में जिसने ये सूखा देखा, वो कभी न भूलने वाली यादें बनकर रह गया। ऐसे माहौल में पत्रकारिता का दायित्व यही था, कि प्रशासन के कामकाज में अनावश्यक अड़ंगेबाजी करने के बजाए सकारात्मक ख़बरें लिखी जाए! जहाँ प्रशासन की नजर न पड़े वहाँ पत्रकार नजर डाले।
उस दौर में धार के अधिकांश पत्रकारों ने बेहद संवेदनशीलता से काम किया। पीटीआई को ख़बरें भेजने अरविंद काशिव, यूएनआई के सुरेंद्र व्यास, 'स्वदेश' के सुभाष जैन और 'नवभारत' के रामगोपाल राठौड़ सबसे ज्यादा सक्रिय पत्रकारों में थे। किसी ने भी प्रशासन को परेशान करने या नकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश नहीं की। तब मैं किसी स्थानीय अखबार से नियमित तौर पर नहीं जुड़ा था! पर, मुंबई के साप्ताहिक अखबार 'करंट' के साथ दिल्ली के अख़बारों और पत्रिकाओं में ख़बरें भेजता रहता था। 'जनसत्ता' तब दिल्ली से निकलता था और उसकी कॉपियां दूसरे या तीसरे दिन धार आती थी। धार और झाबुआ में सूखे के हालात पर मेरी एक रिपोर्ट 'जनसत्ता' में छपी थी, जिसने दिल्ली के पत्रकारों का ध्यान खींचा था। उसी के बाद दिल्ली के कई बड़े अख़बारों और पत्रिकाओं के संवादाताओं ने धार और झाबुआ का रूख किया।
'इंडिया टुडे' (इंग्लिश) के पत्रकार ने सूखे को लेकर बड़ी रिपोर्ट की। लेकिन, 'जनसत्ता' से चीफ एडीटर प्रभाष जोशी ने सूखे की रिपोर्टिंग के लिए खुद धार आने का फैसला किया। उनका सूखे की रिपोर्टिंग करने धार आना बड़ी बात थी। मेरी रिपोर्ट छपने के बाद प्रभाषजी मुझे बतौर पत्रकार जानने भी लगे थे। इसलिए मुझे उनके साथ टांडा, बाग़ और कुक्षी तक जाने का मौका मिला। तब वास्तव में महसूस हुआ कि संकटकाल में पत्रकारिता का मानवीय दृष्टिकोण क्या होता है! उनका मानना था कि खबर वो नहीं जो सबको पता हो! असल पत्रकारिता वो है, जिस पर सबसे पहले आपकी नजर पड़े! सूखे की विभीषिका पर धार के पत्रकारों ने बहुत कुछ लिखा, पर वो सब जल संकट, काम की कमी और राशन की दुकानों पर अनाज की कमी तक सीमित था! इससे ज्यादा न तो कोई सोच पाया और न ये संभव था! लेकिन, प्रभाषजी के साथ रिपोर्टिंग के दौरान पता चला कि वास्तव में सूखे के संकट को महसूस करना हो, तो उन लोगों के अनुभव सुने जाएं उनके साथ कुछ घंटे गुजारे जाएं जो सूखे को झेल रहे हैं और सूखे ने जिनकी जिंदगी को प्रभावित किया है।
प्रभाषजी का रिपोर्टिंग के मकसद से धार आना प्रशासन के लिए बड़ी घटना थी! लेकिन, उन्होंने प्रशासन को ज्यादा तवज्जो नहीं दी! जब मैं प्रभाषजी के साथ बाग़ पहुंचा, तो वहाँ के सर्किट हॉउस में प्रशासन का चुस्त लवाजमा जमा था। अच्छे खासे लंच का इंतजाम था। तहसीलदार समेत कई अधिकारी हाजिरी में खड़े थे। लेकिन, प्रभाषजी के मन में कुछ और ही था। थोड़ी देर सर्किट हॉउस में रूकने और चाय, पानी के बाद प्रभाषजी ने मुझे इशारा किया और हम बाहर निकल पड़े! दोपहर 12 बजे की चिलचिलाती धूप में सड़क पर आ गए। बातचीत करते हुए हम गाँव के दूसरे किनारे से बाहर तक निकल आए! गाँव में धोती और कोसा के कुर्ते में 6 फ़ीट लम्बे किसी व्यक्ति का सड़क पर चहल-कदमी करना, हर किसी को भी रुककर देखने के लिए मजबूर कर रहा था। रास्ते में मिले कुछ आदिवासियों को प्रभाषजी ने रोककर हाल-चाल जाने। वे मालवी तो अच्छी बोलते ही थे, गाँव वालों की जिस बोली में वे बात कर रहे थे, वो सुनकर मुझे भी आश्चर्य हुआ, बातचीत करने वाले भी चौंके। फिर हम एक झोपड़ी के सामने रुके। प्रभाषजी बहुत लम्बे थे, उस हिसाब से झोपड़ी की ऊंचाई बहुत कम थी। आवाज देने पर एक आदिवासी युवक बाहर आया। प्रभाषजी ने उससे इलाके के बारे में, उसके कामधाम के बारे में और परेशानियों के बारे में बातचीत की! थोड़ी देर बाद जब वो युवक सामान्य हुआ, तो प्रभाषजी ने पूछा कि क्या वो हमको खाना खिला सकता है! मेरे लिए अचरज की बात थी, पर उसके पीछे भी उनका क्या मंतव्य था, वो बाद में समझ आया। वो युवक भी सकपका गया! पर, बोला 'हाँ साब आओ!' करीब आधा झुककर प्रभाषजी उस झोपड़ी में घुसे और उनके पीछे मैं भी।
हम करीब आधा घंटा पसीना-पसीना होकर जमीन पर बैठे। उसकी बूढ़ी माँ ने सामने ही जुवार की रोटी, आलू की सब्जी और मिर्च की चटनी बनाई! रोटी तो हम दोनों ने एक-एक ही खाई, पर उस युवक और बाद में आए एक व्यक्ति से प्रभाषजी और मैंने बहुत सी जानकारी ली! प्रशासन की भूमिका, राशन की दुकानों पर मिलने वाले सामान और राहत कार्यों के भुगतान की प्रक्रिया से लगाकर काम के लिए होने वाले आदिवासियों के पलायन को लेकर पूछताछ की! तब मुझे समझ आया कि प्रभाष जोशी की रिपोर्टिंग से सरकार थर्राती क्यों है! जो जानकारी हमें खाने के बहाने मिली, वो शायद कभी कोई नहीं देता! झोपड़ी से बाहर निकलते हुए प्रभाषजी ने उस युवक के हाथ में कुछ नोट पकड़ाए, जिसे उसने सकुचाते हुए रख लिए। लेकिन, हमारे अचानक सर्किट हॉउस से गायब होने से वे अधिकारी घबरा गए थे, जिन्हें हमारे आतिथ्य के लिए खासतौर पर भेजा गया था। वापसी में हमें रास्ते में दो अधिकारी मिले, उन्हें देखकर लगा कि वे बहुत परेशान थे। दोनों के चेहरे से हवाइयां उड़ रही थी। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि हम सच्चाई जानने के लिए बिना उनकी मदद के इस तरह निकल पड़ेंगे। लेकिन, इन दो घंटों में मैंने जो सीखा वो संवेदनशील पत्रकारिता का वो मानवीय पहलू था, जिसने सूखे से प्रभावित होने वाले आदिवासियों की असलियत सामने ला दी थी।
मैंने महसूस किया कि ऐसे कठिन समय में सबसे बड़ी परीक्षा कलेक्टर की होती है। धार के तत्कालीन कलेक्टर के सामने भी एक साथ कई जिम्मेदारियां थी। सुनील कुमार धार में कलेक्टर थे। मानवीय संवेदनाओं की समझ के मामले में कोई कलेक्टर कितना योग्य हो सकता है, वो सारी खूबियां सुनील कुमार में देखने को मिली। उन्होंने अपने यहाँ के कार्यकाल में सूखे के दौर को बहुत नज़दीक से देखा और उसका मुकाबला भी किया। मुझे याद है, कलेक्टर सुनील कुमार ने बारिश होने तक दाढ़ी नहीं बनाने का प्रण लिया था। कई महीनों तक उन्होंने दाढ़ी नहीं बनाई! इसी से समझा जा सकता है कि वे अपने कार्यकाल में सिर्फ सरकारी मशीनरी का पुर्जा बनकर नहीं रहे, बल्कि लोगों की परेशानियों से जूझने की हरसंभव कोशिश करते रहे। सुनील कुमार ने सूखे को व्यक्तिगत चुनौती की तरह लिया। उन्होंने दाढ़ी भी तभी कटवाई जब जिले में पहली अच्छी बारिश हुई! वास्तव में ये मानवीय संवेदनाओं वाली पत्रकारिता के अलावा एक कलेक्टर का भी मानवीय पक्ष था, जिसे भुलाया नहीं जा सकेगा।
सन 1984-85 के दौर में आज की तरह न तो सुविधाएं थी और न इतने इंतजाम कि मुसीबतों से मुकाबला हो सके। सरकारी अमले की कमी के कारण राहत कार्यों की सही देखरेख भी नहीं हो पाती थी। सरकारी अनाज की दुकानों तक समय पर सामग्री भेजने के लिए वाहन तक नहीं मिलते थे। अनाज का इंतजाम जैसे-तैसे हो भी जाता, पर पानी का संकट बहुत बड़ा था। कई गाँव में टैंकरों से पीने का पानी भिजवाया जाता था। हालात कितने विकट थे, इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि धार से कुक्षी और आगे मनावर तक के रास्ते में किसी मुसाफिर को एक गिलास पानी तक मिलना मुश्किल था। आज तो इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती! 42 से 44 डिग्री वाली भीषण गर्मी में लोगों का जीना बेहद मुश्किल था। सुबह 9 बजे के बाद गाँव की सड़कों पर सन्नाटा हो जाता था। लेकिन, फिर भी ख़बरों का सफर नहीं रूका!
मुझे कोई अनुमान नहीं था कि सूखे की असलियत आँखों से देखने के बाद प्रभाषजी की रिपोर्टिंग का नजरिया क्या होगा! क्योंकि, 'जनसत्ता' की पहचान सरकार की खिंचाई करने वाले अखबार की थी। यही कारण था कि प्रभाषजी के जाने के बाद प्रशासन का कोई न कोई अधिकारी मेरे से रमूज जरूर ले जाता कि प्रभाषजी का लिखा कब छपेगा! ये जानकारी मुझे भी नहीं थी! धार में अखबार भी एक दिन बाद आता था! लेकिन, मैं और अरविंद काशिव रोज बस स्टैंड पर चुन्नीलालजी की दुकान पर चक्कर जरूर लगा आते थे, ताकि 'जनसत्ता' में खबर छपने की जानकारी मिल सके! पाँच दिन बाद प्रभाषजी ने करीब पूरे पन्ने की रिपोर्ट लिखी! लेकिन, अनुमान के विपरीत कलेक्टर के कामकाज पर कोई टिप्पणी नहीं की! पूरी रिपोर्ट सूखे से उपजी मानवीय त्रासदी पर केंद्रित थी। रिपोर्ट पढ़कर अहसास हुआ कि सूखा सिर्फ प्राकृतिक आपदा नहीं होता, ये एक ऐसी त्रासदी को भी जन्म देता है, जो कई जिंदगियों को लम्बे समय तक गहराई से प्रभावित करती है। प्रभाषजी के साथ कुछ घंटों की यात्रा और फिर उनकी रिपोर्ट पढ़ने से मेरा सोच बदल गया! प्रभाष जोशी ने मेरी मनःस्थिति पर इतना असर डाला कि मैं धार से निकलकर पत्रकारिता करने 'जनसत्ता' पहुँच गया। मुंबई जनसत्ता में मैंने काम किया और बहुत कुछ सीखा। मैं 'नईदुनिया' छोड़कर 'जनसत्ता' सिर्फ इसलिए गया था, कि इस अखबार की भाषा और तेवर ने मुझे हमेशा प्रभावित किया था। आज न तो कोई अखबार 'जनसत्ता' जैसा है और न प्रभाष जोशी जैसा कोई संपादक या लेखक!
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