Thursday, August 5, 2021

सिनेमा में संवाद की भाषा और समाज

हेमंत पाल 

     हिंदी सिनेमा ने सौ सालों से ज्यादा लम्बे इतिहास में कई बार अपना स्वरूप बदला। ये बदलाव समय के साथ आया और साथ में सिनेमा की तस्वीर भी बदलती गई। सिर्फ कथानक या फिल्म निर्माण ही नहीं भाषा के प्रयोग में भी बहुत कुछ बदला है। सिनेमा की शुरुआत 1913 में आई फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ से हुई। लेकिन, तब की फिल्मों में आवाज नहीं थी। 1931 में अर्देशिर ईरानी ने पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ बनाई। फिल्मों में संवादों की शुरुआत भी यहीं से हुई। तब सिनेमा की भाषा लयात्मक, सहज और सरल थी। इसमें रचनात्मकता के साथ लोकभाषा का मिश्रण होता था। साथ ही यह देशकाल की दृष्टि से ये सारगर्भित भी होती थी। उस भाषा में शालीनता और चारित्रिकता का भी ध्यान रखा जाता था। लेकिन, धीरे-धीरे सिनेमा संवाद की भाषा में बदलती गई। अब तो हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी और उर्दू के साथ क्षेत्रीय भाषा और स्थानीय बोली का भी प्रयोग होने लगा। लम्बे समय तक फिल्मों में उर्दू मिश्रित हिंदी या खड़ी भाषा ही ज्यादा प्रचलित रही। बीच-बीच में फिल्मों के कथानक और पात्रों के अनुरूप मिश्रित भाषा भी परदे पर सुनाई देती रही। जबकि, आज फिल्मों की भाषा विकृत हो गई! ये विकृति 80 के दशक के बाद ज्यादा बढ़ी! कमीने, कुत्ते, नालायक और लफंगे तो जैसे शब्द तो जैसे आम फ़िल्मी भाषा में शामिल हो गए! जबकि, एक समय ऐसा भी था, जब फ़िल्मी संवादों में इस बात का ज्यादा ध्यान रखा जाता था। कोई ऐसा शब्द प्रयोग नहीं होता था, जो सामाजिक रूप से अस्वीकार्य हो! लेकिन, आज न तो दृश्य की सेंसरशिप बची और न श्रव्य की।
      संवादों का भी अपना अलग ही दौर था। पहले संवाद एकदम अपरिष्कृत और कच्चे होते थे, जिन्हें लम्बे आलाप के साथ बोला जाता था। चौथे से पांचवें दशक तक फिल्मों के संवादों में पारसी थिएटर का असर रहा, जिसमें नाटकीय अंदाज़ में जोर-जोर से संवाद बोले जाते थे। लेकिन, उर्दू लेखकों के आने से संवादों में चुस्ती के साथ शिष्टता बढ़ी। इसी दौर में बम्बईया भाषा का प्रयोग शुरू हुआ, जिसमें गोवा की भाषा का पुट था। हमकू, तुमकू, अपुन जैसे शब्द सितारों की जुबान पर चढ़े, जिसके बाद टपोरी भाषा फिल्मों में आई। लेकिन, अधिकांश यह कुछ खास फिल्मों और खास किरदारों तक सीमित रही। कुछ फिल्मों के संवाद समयकाल और विषय के अनुरूप होते थे। ऐतिहासिक फिल्मों में जहांपनाह, जिल्ले इलाही, महाराज, सम्राट, पिताश्री तो अदालत के दृश्यों में मी लार्ड, मख्तूल, मुलजिम, जैसे शब्द गाहे-बगाहे आते रहे। कभी-कभी 'मोगेम्बो खुश हुआ' और 'गांधीगिरी' जैसे संवाद भी सुनाई दिए। फिल्मों में संवाद से ज्यादा पात्रों की आवाज और उनकी अदायगी का भी असर होता है। पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी, मुराद, राजकुमार, अमरीश पुरी, ओम पुरी और रजा मुराद जैसे कलाकार तो अपने पूरे करियर में अपनी दमदार आवाज से ही दर्शकों को प्रभावित करते रहे। 
   इस बात को कोई इंकार नहीं करता कि समाज को सिनेमा बहुत ज्यादा प्रभावित करता है। यह तथ्य अच्छे और बुरे दोनों संदर्भों में है और भाषा के संबंध में भी! सिनेमा में प्रयुक्त हर शब्द और संवाद का अपना अलग असर होता है। यदि समाज में किसी शब्द को चलन में लाना है, तो उसका फिल्म में प्रयोग करके उसको लोकप्रिय बनाया जा सकता है! ऐसे कई शब्द हैं, जो सिर्फ सिनेमा की वजह से चलन में आए। आशय यह कि सिनेमा के संवादों की भाषा के प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! जीवन में हम सिनेमा की भाषा से पात्रों के व्यवहार को समझते हैं और दृश्यों से कथानक को! फिल्म देखने के बाद तो संवाद हमारी बोलचाल का हिस्सा बन जाते हैं। जब 'मुगले आजम' आई, तो उस समय के प्रेमियों को जैसे अभिव्यक्ति की भाषा मिल गई थी! फिल्म के गीत 'प्यार किया कोई चोरी नहीं की, छुप-छुप आहें भरना क्या' ने प्रेमियों को नई हिम्मत दी। बादशाह अकबर और सलीम के संवादों ने भी पिता-पुत्र के बीच रिश्तों को एक नया संदर्भ दिया। लेकिन, 'शोले' ने तो मानो सारा सोच ही बदल दिया। इस फिल्म के संवाद हिंदी फिल्म इतिहास में सबसे ज्यादा चर्चित हुए! फिल्म का हर संवाद लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़ गया, जैसे उन्हीं के लिए लिखा गया हो।     
      कहा जाता है कि 80 के दशक से सिनेमा की भाषा में बहुत ज्यादा मिलावट हुई। संवादों में टपोरी छाप भाषा का उपयोग होने लगा। ऐसी भाषा को अनिल कपूर, जैकी श्रॉफ, गोविंदा और चंकी पांडे ने आगे बढ़ाया। फिल्मों के गीत भी इससे नहीं बचे। आती क्या खंडाला, खम्भे जैसी खड़ी है लड़की है व छड़ी है और 'तुमने मारी एंट्री यार दिल में बजी घंटी यार' जैसे गीत भी बनने लगे। 90 के दशक में सिनेमा की भाषा इतनी बिगड़ी कि उसमें द्विअर्थी संवाद और गीत भी शामिल हो गए। मराठी फ़िल्मकार दादा कोंडके को मराठी फिल्मों में द्विअर्थी संवादों की वजह से कई बार नकारा गया, वे सब हिंदी सिनेमा में दिखाई और सुनाई देने लगे। 90 के दशक के अंत तक पंजाबी ने भी हिंदी सिनेमा के साथ फ़िल्मी गीतों में अपनी जगह बना ली! बाद में फिल्मों में हरियाणवी भी सिनेमा में सुनाई देने लगी। 'तनु वेड्स मनु' में कुसुम (कंगना रनौत) अपना परिचय देते हुए बोलती है 'म्हारा नाम कुसुम सांगवानी से, जिला झझड 124507, फोन नं. दूँ कोणा!' इस संवाद से फिल्मों में हरियाणवी को पहचान मिली। 'बाजीराव मस्तानी' में बाजीराव पेशवा (रणवीर सिंह) के ज़रिए मराठी भाषा, गैंग्स ऑफ वासेपुर में भोजपुरी, उड़ता पंजाब से पंजाबी, पानसिंह तोमर के जरिए ब्रज और 'चेन्नई एक्सप्रेस' से तमिल भाषा हिंदी से मिलकर दर्शकों तक पहुंची।
    काफी साल पहले महबूब ख़ान ने गाँव की एक महिला के जीवन संघर्ष पर 'मदर इंडिया' बनाई थी। इस फिल्म की भाषा हिंदी और भोजपुरी का मिश्रण थी। गाँव की पृष्ठभूमि वाली फिल्मों में हिंदी के साथ भोजपुरी का ही ज्यादा प्रयोग होता रहा! क्योंकि, उस समय बम्बई (आज की मुंबई) तथा दूसरे बड़े शहरों में बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश से गए लोग भोजपुरी ही बोलते थे। बिमल रॉय ने भी खेती छोड़कर मजदूरी करने शहर आए एक मजदूर की कहानी पर 'दो बीघा ज़मीन' जैसी फिल्म बनाई, जिसमें बलराज साहनी की मुख्य भूमिका थी। इसमें भाषा तो हिन्दी थी, पर गीतों में भोजपुरी के शब्द थे। लेकिन, आजादी के बाद फिल्मों में उर्दू का पुट ज्यादा दिखा। इस समय पाकिस्तान से आए कई मुस्लिम लेखक और गीतकार भी फिल्मों से जुड़े। शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी तो बंटवारे के बाद ही भारत आए। पृथ्वीराज कपूर का परिवार, राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार, सुनील दत्त भी पाकिस्तान से आकर परदे पर अपना रंग जमा चुके थे। इस सभी की भाषा में उर्दू ज्यादा होती थी। यही कारण था कि हिंदी सिनेमा में उर्दू विकसित हुई! 
     फिल्मों में डबिंग की भी एक भाषा होती है। इससे दो भाषाओं की संस्कृति विकसित होती है। मूल भाषा में बनी फिल्म को जब डब किया जाता है, तो उसमें दूसरी भाषा में अनुवाद करने से उसमें मूल फिल्म की भाषा के भी कुछ शब्द आ जाते हैं। इससे एक भाषा के शब्द दूसरी भाषा में प्रचलित होने से भाषा का विस्तार भी होता है। लेकिन, समय के साथ हिंदी सिनेमा की तस्वीर भी बदल रही है। फिल्मों को लेकर नए-नए प्रयोग ज्यादा हो रहे हैं। विषय चयन से लेकर संवाद लेखन और पटकथा तक पर क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव दिखने लगा है। ये प्रयोग पहले भी होता आया है, पर अब ये प्रयोग बढ़ गया। क्षेत्रीय भाषा और बोली का हिंदी के साथ जुड़ने से उनमें बिखराव नहीं दिखता, पर अंग्रेजी शब्दों के साथ जुड़ने से ये साफ़ नजर आता है। क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग से फिल्मों की हिंदी का स्तर गिरा नहीं, बल्कि क्षेत्रीय भाषा को बड़ा मंच जरूर मिल गया। क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल से हिंदी समृद्ध हो रही है। इससे फिल्मों को नुकसान के बजाय फ़ायदा ज्यादा होता है। 'मोहनजो दारो' और 'जोधा अकबर' जैसी खड़ी हिंदी की फिल्मों को दर्शकों ने पसंद किया। 
----------------------------------------------------------------------------------------

No comments: