Saturday, February 12, 2022

दक्षिण के जादू से कुम्हलाने लगी हिंदी फ़िल्में

हेमंत पाल 

   क समय था, जब हिंदी सिनेमा को जन भावनाओं का नजरिया माना जाता था। करीब सवा सौ साल के फिल्म इतिहास में बरसों से यही धारणा बनी हुई है। लेकिन, लगता है अब सब कुछ बदलने वाला है। क्योंकि, समय के साथ प्राथमिकताएं बदली और क्षेत्रीय सिनेमा भी फल-फूल गया। हिंदी सिनेमा की लोकप्रियता भी उतार पर आने लगी। हमेशा मुंबई फिल्म नगरी के पीछे चलने वाला क्षेत्रीय सिनेमा अब बॉलीवुड को टक्कर देने लगा। एक तरह से हिंदी सिनेमा का एकाधिकार खंडित होने लगा है। एसएस राजामौली की फिल्म 'बाहुबली' ने हिंदी के दर्शकों पर जो जादू दिखाया, वो लगातार अपना दायरा बढ़ा रहा है। तमिल समेत सभी दक्षिण भारतीय भाषाओं की फिल्मों को अब पसंद किया जाने लगा। 'बाहुबली' से लगाकर 'पुष्पा' तक आते-आते दक्षिण की फिल्मों ने दर्शकों पर अजब असर दिखाया। शुरू में ये तात्कालिक प्रभाव लगा, पर अब वो जादू सर चढ़कर बोलने लगा। कहा जा सकता है कि दक्षिण की फ़िल्में अब मुंबई सिनेमा पर भारी पड़ने लगी हैं। दक्षिण की डब फिल्मों ने हिंदी के दर्शकों को ऐसा बांध लिया कि अब हिंदी की ओरिजनल फ़िल्में भी उसके सामने फीकी पड़ गई। 'पुष्पा' ने फिर साबित कर दिया कि, यदि कहानी में दम है, तो फिर कोई भी और कहीं का भी चेहरा हो, दर्शकों पर अपना असर दिखाता है। दक्षिण और अन्य क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों का कंटेंट इसलिए भी दर्शकों को आकर्षित कर रहा, क्योंकि वो भारतीय संस्कृति से बहुत गहरे से जुड़ा है। वहां की फिल्मों में संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाज और वहां की समस्याओं को गंभीरता से उठाने के साथ उसका हल भी दिखाया जाता है। जबकि, मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में बनने वाली फिल्मों में ये सब नदारद सा रहता है। 
   आखिर हिंदी फिल्मों का जादू दर्शकों के दिलों से क्यों उतरा, इसके पीछे कई कारण गिनाए जा सकते हैं। सबसे बड़ा कारण कि मुंबई सिनेमा प्रयोग करने से बहुत डरता है। दर्शकों की पीढ़ियां बदल गई, पर हिंदी फिल्मों ने अपना फार्मूला नहीं बदला। आज भी नायक, नायिका और खलनायक की कहानियों को हिंदी सिनेमा छोड़ नहीं पाया! जबकि, दक्षिण समेत सभी क्षेत्रीय सिनेमा नए प्रयोग की कोशिश में लगे रहते हैं। वे सिर्फ कहानियों में ही प्रयोग नहीं करते, फिल्म मेकिंग में भी भव्यता दिखाने की कोशिश करते हैं! 'बाहुबली' और उसके सीक्वल में जिस तरह की भव्यता दिखाई गई, वैसी हिंदी की किसी फिल्म में कल्पना भी नहीं की जा सकती। अब उन दर्शकों की पीढ़ी भी नहीं बची, जिन्हें प्रेम कहानियां और क्रूर खलनायक की उसमें दख़लंदाजी पसंद थी। लेकिन, हिंदी के फिल्मकार आज भी ऐसी कहानियों से मुक्त नहीं हुए। जबकि, क्षेत्रीय सिनेमा में कई तरह के नए प्रयोग होते हैं। इस कारण हिंदी सिनेमा अपनी ओरीजनलटी खो रहा है। हिंदी के फिल्मकारों को अभी भी लगता है कि रीमेक, सीक्वल या किसी के भी जीवन पर फिल्म बनाकर वे दर्शकों को भरमा लेंगे, तो ये उनकी ग़लतफ़हमी है। ये फिल्मकार आज भी हॉलीवुड या कोरियन सिनेमा की कॉपी करने में लगे हैं। इसके विपरीत दक्षिण और क्षेत्रीय सिनेमा में ऑरीजनल आइडिया पर काम होने लगा। 
   एक समय था, जब हिंदी की कालजयी फ़िल्में उसकी पहचान हुआ करती थी। मुगले आजम, मदर इंडिया, शोले से लगाकर 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' तक हिंदी सिनेमा बेजोड़ था। लेकिन, एक ही फ़िल्मी मसाले को ज्यादा दिन तक दर्शकों के सामने नहीं परोसा जा सकता। जब दर्शक के उबने का वक़्त आया, तभी कोरोना काल आ गया और दर्शक ओटीटी की तरफ मुड़ गए। वहां उन्हें लगा कि यदि कंटेंट अच्छा हो, तो ये बात मायने नहीं रखती कि उसके कलाकार कौन हैं। 
    ओटीटी अपने कंटेंट से दर्शकों के दिलो-दिमाग पर छा गया और अब दक्षिण की फिल्मों को पसंद करने का कारण भी वही है। दर्शक अब फिल्मों में जो नयापन देखना चाहता है, वो उसे क्षेत्रीय सिनेमा में ज्यादा बेहतर मिल रहा है, तो वो क्यों अक्षय कुमार, सलमान खान की बेसिरपैर की फ़िल्में देखकर अपना वक़्त गंवाएं! बरसों तक हिंदी के दर्शक दक्षिण के हीरो के नाम पर सिर्फ रजनीकांत, कमल हासन या फिर चिरंजीवी को ही पहचानते थे। लेकिन, अब प्रभास, राणा दग्गुबती, महेश बाबू, अल्लू अर्जुन, थालापथी विजय, राम चरण और जूनियर एनटीआर को पहचाना और पसंद किया जाने लगा है। राजामौली की 'ब्रह्मास्त्र' के बाद तो दक्षिण के दबदबे की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।  
   सलमान खान, शाहरुख खान, रितिक रोशन और आमिर खान फैन फॉलोइंग बड़ी हैं। लेकिन, दक्षिण की फिल्म इंडस्ट्री के सितारे अभी अपने दम पर दर्शक नहीं जुटा पाते। रजनीकांत और अमिताभ बच्चन ही ऐसे कलाकार हैं, जिनकी देश और बाहर भी अपनी पहचान है। दक्षिण के सितारों का आज उतना क्रेज नहीं रहा। मगर, अब महेश बाबू और प्रभाष जैसे दक्षिण के सितारों को भी हिंदी बेल्ट में लोकप्रियता मिलने लगी। दर्शक टीवी पर भी डब की दक्षिण की फ़िल्में भी बहुत देखते हैं। यही कारण है कि इन सितारों की फैन फॉलोइंग बढ़ गई। पहले दक्षिण की बहुत कम फिल्में हिंदी में डब होती थी। लेकिन, इन दिनों दक्षिण की लगभग सभी फिल्मों को हिंदी में रिलीज किया जाने लगा। इससे थिएटर भी कमाई करने लगे। इन डबिंग वाली फिल्मों का स्टार कास्ट से कोई वास्ता नहीं। लेकिन, ये अपने भव्य प्रोडक्शन, नए कथानक और आइडिया की वजह से पसंद की जाने लगी। बाहुबली के दोनों पार्ट, काबली, रोबोट, केजीएफ, जय भीम और 'पुष्पा : द राइज' जैसी फिल्मों ने तो हिंदी क्षेत्रों में जमकर चांदी काटी। 'पुष्पा' की सफलता ने इसके सीक्वल का भी रास्ता खोल दिया। अगली फिल्म का नाम होगा 'पुष्पा 2 : द रूल' होगा और यह फिल्म दिसंबर 2022 में रिलीज होगी। मणिरत्नम की नई फिल्म 'पोंनियिन सेलवन' भी एक ऐतिहासिक उपन्यास पर आधारित फिल्म है। इसमें अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय के साथ दक्षिण के अभिनेता करथी भी हैं।
    हिंदी बेल्ट के दर्शक अब दक्षिण की डब फिल्मों को हिंदी में देखना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। हाल में रिलीज फिल्मों की लोकप्रियता इस बात की गवाही है। तेलुगू सुपरस्टार अल्लू अर्जुन की फिल्म पुष्पा, धनुष की अतरंगी रे के हिंदी वर्जन ने आसमान फाड़ कामयाबी हासिल की। कई सिनेमाघरों से बड़े बजट की फिल्म '83' को उतारकर फिर 'पुष्पा' को लगा दिया गया। सवाल उठता है कि दक्षिण की फिल्मों में ऐसा क्या है, जो हिंदीभाषी दर्शक इतना ज्यादा पसंद कर रहे हैं! जबकि, दक्षिण की संस्कृति, भाषा, पहनावा सभी कुछ उत्तर से बहुत ज्यादा अलग है। इसका एक ही जवाब है कि प्रयोगवादी नजरिया जो हिंदी में नदारद है। दक्षिण की कई फिल्मों की हिंदी में डबिंग की तैयारी की जा रही है, जो अभी तक सिर्फ टीवी पर ही दिखाई दी। इन दिनों जिन फिल्मों की डबिंग की जा रही हैं उनमें राम चरण की रंगस्थलम (2018), थलपति विजय की मर्सल (2017) और मास्टर (2021) और श्री की मनगरम (2017) जैसी फ़िल्में हैं। ये सभी फ़िल्में सिनेमाघरों में रिलीज़ होकर अपने समय जमकर कमाई कर चुकी हैं। इससे सबसे ज्यादा असर पड़ेगा हिंदी की फिल्मों पर! 
     आज दक्षिण की फिल्मों का क्या दबदबा है, ये अल्लू अर्जुन की 'पुष्पा' ने दिखा दिया। देशभर में दक्षिण की फिल्मों की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है। इस साल दक्षिण फिल्म इंडस्ट्री ने कई हिट फिल्में देकर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का सिंहासन लगभग हिला दिया। इसके साथ ही ये इंडस्ट्री देश की टॉप इंडस्ट्री बन गई। तमिल, तेलुगु और मलयालम की इस इंडस्ट्री ने लगभग 1300 करोड़ रुपए की कमाई की। जबकि, मुंबई की बॉलीवुड फिल्म इंडस्ट्री ने 700 करोड़ कमाए और मनोरंजन का ये कारोबार तीसरे नंबर पर आ गया। बॉलीवुड को झटका देने का काम केवल दक्षिण के सिनेमा ने ही नहीं किया, कन्नड़ फिल्म उद्योग ने भी कमाल दिखाया है। 2018 में 'केजीएफ' ने शाहरुख ख़ान की ‘जीरो’ को जोरदार झटका दिया था। इस साल हिंदी बेल्ट को टक्कर देने के लिए 'केजीएफ' का चैप्टर-2  भी तैयार है। आगे भी यही हालत रहे, तो दक्षिण की फिल्मों के साथ वहां के सितारों का दबदबा भी बढ़ेगा। इससे बॉलीवुड का रीमेक फ़ॉर्मूला पूरी तरह से ख़त्म होना तय है। अब ये आने वाले समय बताएगा कि दक्षिण का सिनेमा मुंबई पर कितना भारी पड़ेगा! 
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