Sunday, February 20, 2022

परदे पर रंग ज़माने लगे छोटे शहर और कस्बे

हेमंत पाल

      दर्शकों ने शायद इस बात पर गौर किया होगा कि इन दिनों मनोरंजन की दुनिया में देसीपन ज्यादा आने लगा है। फिल्मों और टीवी सीरियलों के कथानक का केंद्र बिंदु महानगरों से निकलकर छोटे, मझौले शहरों के अलावा क़स्बों की तरफ मुड़ गया। अब कहानियों में लखनऊ, बरेली, पटना, इंदौर और भोपाल के अलावा महेश्वर, अलीगढ़ ज्यादा नजर आने लगा! ये बदलाव सिर्फ सिनेमा में ही नहीं, छोटे परदे के सीरियलों में भी नजर आया। दरअसल, ये मेकर्स में आया कोई बदलाव नहीं, बल्कि मज़बूरी है। उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि यदि दर्शकों को बांधकर रखना है, तो उनके आसपास का परिवेश तो दिखाना होगा। अब विदेशी लोकेशन, मुंबई के मैरीन ड्राइव और दिल्ली की चौड़ी सड़कों पर घूमते नायक-नायिका से दर्शकों को ज्यादादिन भरमा पाना संभव नहीं है। यदि बायोपिक को फिल्माना है, तो उसी शहर में जाना होगा कि जहाँ कि वो शख्सियत है। मुंबई की फिल्मसिटी में सेट लगाकर नकली दुनिया ज्यादा नहीं दिखाई जा सकती। ये सब इसलिए भी हुआ कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भी ज्यादातर कहानियों में महानगर नदारद ही हैं। उनमें भी भदेस कहानियों और देसीपन की भरमार है। फिल्मों और सीरियलों के देसीकरण का सबसे बड़ा कारण यह है कि इन्ही क्षेत्रों के दर्शक ही सच्चे दर्शक हैं। महानगरीय दर्शक तो रोजी-रोटी में व्यस्त रहता है। दूसरी बात यह कि टू-टियर और थ्री-टीयर शहरों के दर्शकों को न तो महानगरीय पटकथा पसंद है और न परिवेश। उन्हें खालिस देसीपन और पारिवारिक पृष्ठभूमि ही ज्यादा रास आती है। ऐसे में यदि फिल्मकारों और टीवी निर्माताओं को अपना माल बेचना है, तो खरीददारों का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा।
     एक वो समय था जब टीवी सीरियलों में अधिकांश गुजराती परिवारों या बड़े शहरों की कहानियां ही दिखाई देती थीं। क्योंकि, मेकर्स को सबसे ज्यादा टीआरपी भी वहीं से मिलने की उम्मीद थी। लेकिन, अब वक्त बदल गया। सीरियलों में छोटे शहरों की कहानियां दिखाई देने लगी। इससे पहले कोई ये प्रयोग करने का साहस नहीं कर पाता था। पर, अब ऐसा नहीं है। आजकल सीरियलों की कहानियां मुंबई, पंजाब और गुजरात से निकलकर मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बंगाल और बिहार तक पहुंच गई। इसका कारण यही कि अब छोटे शहरों के दर्शक उस सीरियल में जुड़ाव महसूस कर दिलचस्पी लेने लगे। अब यदि किसी सीरियल में इंदौर की छप्पन दुकान, सराफा या भोपाल का न्यू मार्केट और ताल का किनारा दिखाया जाएगा तो कौन उसे देखने से बचेगा! सोनी-टीवी पर तो लम्बे समय से मध्यप्रदेश ही है। इंदौर की अहिल्याबाई से शुरू होकर इंदौर भोपाल पर आधारित कामना से गुजरते हुए बरास्ता इंदौर के 'मोसे छल किए जाए से होते हुए रतलाम पर आधारित 'शुभ लाभ' तक पहुंच जाता है। कई सीरियलों की कहानी छोटे और मझोले शहरों में सिमटी है। इनमें इन शहरों के नाम और स्टॉक शॉट ही नहीं दिखाए जाते, बल्कि वहां की बोली, पहनावा, खान-पान और लोगों का मिजाज भी झलकता है। फिल्मों और सीरियलों में इस बदलाव को आने में, बरसों लग गए! जबकि, पहले कभी किसी शहर का जिक्र भी होता तो किसी एक डायलॉग या शॉट में! लेकिन, अब हालात बदल गए! टीवी सीरियल बनाने वालों को भी लगा कि यदि वे मुंबई और दिल्ली से बाहर नहीं निकले, तो दर्शक उन्हें अपने दिमाग से निकाल देंगे। बीते कुछ वर्षों में दर्शकों के सोचने-समझने की दिशा भी तेजी से बदली है। अब दर्शक अपने शहर और कस्बे का नाम और दृश्य देखकर गर्व अनुभव करते हैं।
     यही बदलाव फ़िल्म देखने वाले दर्शकों की रुचि में भी नजर आ रहा है। इसीलिए अब देश की मिट्टी में सनी कहानियां फिल्मों और वेब सीरीज ज्यादा सफल होने लगी। अब कथानक ही वहां पर केंद्रित नहीं है, फिल्मों के नाम और शूटिंग भी उन्हीं शहरों और कस्बों में होने लगी। बरेली की बर्फी, लुका-छुपी, लुका छुपी-2, बद्री की दुल्हनिया, स्त्री, निल बटे सन्नाटा, अनारकली ऑफ आरा, रिवॉल्वर रानी, दम लगा के हईशा, पटाखा, मसान, अलीगढ़, पैडमेन और आर्टिकल-15 वे फ़िल्में हैं, जिनकी कहानियां मुंबई, दिल्ली या कोलकाता जैसे किसी महानगर की नहीं थी। आने वाली कई फिल्मों में भी यही सब दिखाई देगा। 80 और 90 के दशक में ऐसा भी दौर आया जब फिल्मों में विदेशी लोकेशन छाई रहती थीं। फिल्मों के किरदार भी अप्रवासी भारतीय हुआ करते थे। लेकिन, छोटे शहरों में मल्टीप्लेक्स बढ़े, यहाँ से फिल्मों को होने वाली आय बढ़ी तो ये शहर भी कहानी के केंद्र में आ गए। वास्तव में ये बाजार की मांग थी, जिसने फिल्म और सीरियल के निर्माताओं को महानगरों और फिल्म स्टूडियो से बाहर निकलने को मजबूर कर दिया। अब छोटे और बड़े दोनों परदों पर देसी कहानियों को जगह मिलने लगी। देसी कहानियों से आशय गांव की कहानियां से नहीं, बल्कि उन छोटे और मझोले शहरों से है, जो इन्हीं गली-मोहल्लों में पनपी है।  
     फिल्मों में काल्पनिक पात्रों के कथानक की जगह रियल लाइफ कहानियां यानी बायोपिक भी एक कारण है, कि छोटे शहरों और कस्बों की पूछ-परख बढ़ी। यदि महिला बॉक्सर 'मैरी कॉम' पर फिल्म बनेगी, तो उसके लिए उत्तर-पूर्व में उसके गांव को ही तो फिल्माना ही पड़ेगा। महेंद्र सिंह धोनी की फिल्म के लिए भी रांची जाए बिना काम नहीं चलेगा! लेकिन, क्या छोटे शहरों में पले-बढ़े फिल्मकार ही अपने शहरों की कहानियां कह रहे हैं, ऐसा नहीं है! बल्कि बड़े शहरों के फिल्मकारों ने भी छोटे शहरों का रुख कर लिया। इसकी दो वजह है, एक तो इन इलाकों की कहानियां बहुत कम फिल्माई गई! दूसरा इन इलाकों की बढ़ी क्रय शक्ति ने बाजार को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे इन्हें किसी तरह अपने साथ जोड़े। छोटे शहरों पर केंद्रित फिल्मों की सफलता ने इस धारणा को भी खंडित कर दिया दिया कि हिंदी फिल्म तभी कमाई कर सकती है, जब उनमें नामी कलाकारों के साथ महानगरों या विदेशों की लोकेशन हो। आज के हिंदी सिनेमा में दर्शकों को जो देखने को मिल रहा है, वो यशराज फिल्म्स और करण जौहर जैसे बड़े निर्माताओं की फिल्मों से कोसों दूर है। अभी तक ये छोटे और मझोले शहर सिनेमा के परदे से लगभग गायब रहते थे। 60 और 70 के दशक के सिनेमा ने गांव का रुख किया था। लेकिन, वह आज की तरह छोटे शहरों और कस्बों तक पहले कभी नहीं गया। कई बार तो गांव भी वास्तविक नहीं होते थे, बकायदा सेट लगाकर उन्हें गढ़ा जाता। लेकिन, अब स्थिति बदल गई। 'लुका छुपी' में मथुरा और ग्वालियर की कहानी की थी, तो उसे वहीं फिल्माया गया। जबकि, 'लुका छुपी-2' की पूरी शूटिंग इंदौर, उज्जैन, महेश्वर और मांडू में की गई।    
    ये सच है कि धीरे-धीरे फिल्म इंडस्ट्री से मुंबई का एकाधिकार टूट रहा है। इसे तोड़ रहे हैं उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे शहरों की लोकेशन। फिल्मों के निर्माता, निर्देशक भी अपना कम्फर्ट झोन छोड़कर हकीकत की जमीन पर फिल्में बनाने के लिए नए ठिकाने तलाशने लगे। वे नई लोकेशन और नए चेहरों के जरिए कहानी कहने के लिए छोटे शहरों और कस्बों की तरफ निकल पड़े। निर्माता को इसका ये फ़ायदा मिलता है, कि उसे नकली सेट नहीं खड़े करवाना पड़ते! निर्देशक को ताजगी भरे और अनूठे दृश्य सहज मिल जाते हैं। ऐसे दृश्य जो फिल्म स्टूडियो की सारी खासियतों को नकार देते हैं। इन शहरों की अनदेखी लोकेशन भी कहानी के अनुरूप डांस करने के लिए घाट और पुराने महल ज्यादा अच्छा असर डालते हैं। ये सब स्टूडियो के सेट्स से कहीं ज्यादा बेहतर होता है। कुछ सालों में उत्तर प्रदेश में तनु वेड्स मनु, शादी में जरूर आना, दावत-ए-इश्क, जाली एलएलबी-2, रांझणा, प्रेम रतन धन पायो, अलीगढ़, डेढ़ इश्किया और ‘रेड’ जैसी फिल्मों की शूटिंग हुई। जबकि, मध्य प्रदेश में शेरनी, धाकड़, टायलेट, स्त्री, पीपली लाइव और 'लुका-छुपी-2'  सहित कई फिल्मों की शूटिंग हुई।
     छोटे शहरों में बिखरे जीवन के रंग फिल्मों के किरदारों में भी अब नजर आते हैं। इनसे फिल्मों की भाषा का ढंग भी बदला। चंदेरी के भुतहा हवेलीनुमा महलों में ‘स्त्री’ की शूटिंग हुई, तो उसका प्रभाव भी दिखाई दिया। क्या ये प्रभाव मुंबई में सेट लगाकर संभव था! उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि में बनाई गई अजय देवगन की फिल्म ‘रेड’ में जो राजनीतिक दादागिरी का प्रभाव दिखाया गया, क्या वैसा मुंबई में दिखाया जाना संभव था! फिल्म ‘राजनीति’ की शूटिंग के लिए भोपाल से अच्छी जगह शायद कोई नहीं हो सकती थी। आर्टिकल-15 का तो परिवेश ही उत्तर प्रदेश का गांव था। यह सब इसलिए कि ऐसे मझोले शहरों के माहौल में जो देसीपन होता है, वो फिल्मों में दिखाई भी देता है। देश के एक बड़े दर्शक वर्ग को मुंबई, दिल्ली से ये मझोले शहर ज्यादा अपने से लगते हैं। क्योंकि, इन शहरों की गलियों और सड़कों पर जो माहौल होता है, उससे दर्शक अपने आपको जुड़ा हुआ भी पाता है।
    लंबे समय तक फिल्मों के कॉमेडियन या तो दक्षिण भारतीय शैली में बात करते थे या भोजपुरी मिली हिंदी बोला करते थे। लेकिन दंगल, तनु वेड्स मनु रिटर्न्स में बोली जाने वाली हरियाणवी, अनारकली ऑफ आरा की भोजपुरी ने इस मिथक को तोड़ दिया। यहां भाषा भी फिल्म के किरदार की तरह सामने आती है। ये फिल्में मूल कथ्य के साथ इन शहरों और कस्बों की चुनौतियों को भी सामने लाती हैं। इन फिल्मों में ये मझोले शहर वैसे ही नजर आते हैं, जैसे वे हैं। छोटे शहर फिल्मों में सेट के जरिए नजर नहीं आ रहे, बल्कि इन शहरों में फिल्मों की शूटिंग भी बढ़ी है। भोपाल, इंदौर, लखनऊ और बनारस जैसे शहरों में लगातार फिल्मों की शूटिंग होना शुरू हो गई। सिर्फ पीढ़ी और उसका सोच ही नहीं बदल रहा, मनोरंजन के चक्र का नजरिया भी उसी गति से अपनी धुरी बदलने लगा है।
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