Thursday, September 10, 2015

पूर्ण विराम : आदेश श्रीवास्तव 'मोरा पिया मोसे बोलत नाही।'



- हेमंत पाल 
  उनका नाम जरूर आदेश था, पर नाम के अनुरूप उन्होंने शायद किसी को कभी आदेश दिया नहीं होगा! वे संगीत की स्वर लहरियों की तरह सुरीले थे! लेकिन, मौत के क्रूर पंजो से कोई कब बचा है! आदेश श्रीवास्तव भी बच नहीं सके! ब्लड कैंसर ने इस संगीतकार को तब अपने चाहने वालों से छीन लिया, जब उनके खजाने से कई सुमधुर धुनें बाहर आना बाकी थी! आदेश पिछले करीब सवा महीने से मुंबई के कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल में कैंसर के इलाज के लिए भर्ती थे! दुखद बात ये कि उनके जन्मदिन की रात उनकी मौत भी हुई! उनका जन्म 4 सितंबर 1966 को जबलपुर में हुआ था। इस बीमारी का इलाज वे पहले अमेरिका में करवा भी चुके थे, ठीक भी हो रहे थे! पर, अचानक कैंसर पलटकर लौट आया और आदेश को अपने साथ ले गया! 12-12 लाख रुपए के इंजेक्शन भी उन्हें बचा नहीं सके! उन पर किसी इलाज का असर नहीं हो रहा था। उनका इलाज कर रहे डॉक्टरों ने कीमियोथेरेपी भी बंद कर दी थी। क्योंकि, बीमारी पर इसका कोई असर नहीं हो रहा था।
   परदे की दुनिया पर भले ही सभी मिल जुलकर काम करते हों, पर मुसीबत में आदमी अकेला ही रह जाता है! आदेश के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था! पहली बार 2010 में जब उन्हें इस बीमारी का पता चला, इंडस्ट्री के लोगों ने उनसे मुंह फेर लिया था। आदेश ने एक पत्रकार से कहा भी था कि बीमार पड़ना कितना बुरा होता है, ये मुझे अब पता चल रहा है। जिनके साथ मैंने सालों काम किया, वे अब मुझसे दूर हो गए! उनके इस रुख ने मुझे इस बीमारी से ज्यादा दर्द दिया! उनकी फिल्म 'वेलकम बेक' पिछले हफ्ते ही परदे पर उतरी है! पर फिल्म के नाम की तरह उनका 'वेलकम बेक' नहीं हुआ! आज विजेता अकेली रह गई! कहीं न कहीं उनके जहन में आदेश का कम्पोज़ ये गाना गूंज रहा होगा 'मोरा पिया मोसे बोलत नाही।'
   आदेश ने चलते चलते, बाबुल, बागवान, कभी खुशी कभी गम, राजनीति जैसी कई हिट फिल्मों को अपने संगीत से सजाया था। उन्हें 2000 में आई जेपी दत्ता निर्देशित अभिषेक बच्चन और करीना कपूर की डेब्यू फिल्म 'रिफ्यूजी' के लिए बेस्ट बेक ग्राउंड म्यूजिक के लिए आइफा अवॉर्ड भी मिला था। आदेश के स्वस्थ होने की कामना उनके चाहने वालों ने तो की, पर शायद तब तक वक़्त निकल चुका था! 
   आदेश को पहली बार 1993 में 'कन्यादान' से फिल्म इंडस्ट्री में चांस मिला था। लेकिन, फिल्म रिलीज ही नहीं हो पाई थी। फिर 'आओ प्यार करें' का गाना 'हाथों में आ गया जो कल रुमाल आपका ...' काफी लोकप्रिय हुआ था। इसी गाने ने आदेश को बतौर संगीतकार पहचान दिलाई। इसके बाद फिल्म 'शस्त्र' का गाना क्या अदा क्या जलवे तेरे पारो चार्टबस्टर में शामिल हो गया। 1998 में फिल्म 'अंगारे' में उनका संगीत हिट हुआ। म्यूजिक कंपोज करने के अलावा आदेश ने कई हिट गाने भी गाए हैं। उन्होंने शावा शावा और मोरा पिया मोसे बोलत जैसे हिट गाने गुनगुनाए। उन्होंने फिल्म कुंवारा, तरकीब, शिकारी और बस इतना सा ख्वाब है में अपने काम के लिए काफी सराहा गया। आदेश ने करीब 100 फिल्मों में संगीत दिया। आदेश इंडस्ट्री में अमिताभ बच्चन के काफी करीब थे। आदेश की पत्नी विजेता संगीतकार जोड़ी 'जतिन-ललित' की बहन हैं। 'कुमार गौरव साथ 'लव स्टोरी' से विजेता ने भी बॉलीवुड में कदम रखा, पर बाद में उनकी फिल्में नहीं चली।
  अपने रोमांटिक गीतों के लिए मशहूर संगीतकार और गायक आदेश श्रीवास्तव ने अमिताभ से लेकर शाहरूख खान और रणबीर कपूर तक के लिए संगीत रचा। ‘बागबान’ में अमिताभ, हेमा मालिनी पर फिल्माया गया भावुक गीत ‘मैं यहां तू वहां’ हो, शाहरूख की फिल्म ‘चलते चलते’ का ‘सुनो ना सुनो ना’ हो या रणबीर की ‘राजनीति’ का ‘मोरा पिया मोसे बोलत नाही’ गाना! 
  संगीत से जुड़े एक टीवी रियलिटी शो के दौरान मैंने आदेश को जितनी तन्मयता से बतौर मेंटर काम करते देखा, वो अचरज करने वाला था! एक-एक नवोदित गायक को वे संगीत की बारीकियां सिखाते थे! उनका कहना था कि यही फिल्म संगीत को आगे लेकर जाएंगे, इन्हें आज नहीं तराशा तो कल फिल्म संगीत का क्या होगा? इनमें से कई तो आज फिल्मों में गा भी रहे हैं! लेकिन, उन प्रतिभाओं को तराशने वाला ही आज चला गया!   
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आदेश के 10 सुपर हिट कम्पोज़ गीत 

-  मोरा पिया मोसे बोलत नाही (राजनीति)
- क्या अदा क्या जलवे तेरे पारो (शस्त्र)
- सोणा सोणा दिल मेरा सोणा (मेजर साहब)
- बहुत खूबसूरत गजल लिख रहा हूँ (शिकारी)
- किसका चेहरा अब मैं देखूं (तरकीब)
- ये हवाएँ जुल्फों में तेरी गुम हो जाएँ (बस इतना सा ख्वाब है)
- से शावा शावा माहियां (कभी ख़ुशी कभी गम)
- सुनो ना सुनो ना सुन लो ना (चलते चलते)
- मैं यहाँ तू वहां (बागवान)
- चली चली फिर चली चली, चली इश्क़ कि (बागबान)
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कबीलों में बंटी कांग्रेस खुद का घर जलाने लगी!

- हेमंत पाल 

    
     खेल और राजनीति का मिजाज एक जैसा है। जब एक टीम या पार्टी की जीत होती है, तो दूसरी हारती ही है। लेकिन, हारने और जीतने वाली पार्टी के बीच का अंतर बताता है कि किसे ज्यादा मेहनत का फल मिला और किसकी मेहनत कम थी! लेकिन, मुकाबले में खड़ी दोनों पार्टियों में हार और जीत का अंतर चौड़ी खाई जैसा हो, तो स्पष्ट हो जाता है कि हारने वाली पार्टी ने वॉकओवर दे दिया! यानी कोई कोशिश किए बिना ही हार स्वीकार कर ली! पिछले दो दशक से मध्यप्रदेश में कांग्रेस ऐसी ही हरल्ली टीम बन गई है! जो दिखाने को खेलती तो है, पर मैदान में जीत की मंशा से नहीं उतरती! ऐसे में प्रदेश में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को गुमान हो गया कि वो जनता कि अकेली चहेती पार्टी है। ये स्वाभाविक भी है! भाजपा ने अपने बारह साल कि सत्ता में वो सब किया, जो वो करना चाहती थी। लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीते! दो लोकसभा चुनाव में ज्यादातर सीटों पर अपना झंडा गाड़ा! ज्यादातर उपचुनाव भी जीते! प्रदेश कि सभी 16 नगर निगमों में अपने महापौर उम्मीदवार जिताए! नगर पालिका, पंचायत, सहकारिता समेत सभी चुनावों में कांग्रेस को पछाड़ा! इन सारी जीतों का असर ये हुआ कि मुकाबले में खड़ी होने वाली कांग्रेस किसी कोने में दुबक गई! और तो और भाजपा ने जिस कांग्रेसी नेता को तोड़कर अपनी पार्टी में लाना चाहा उसे ले भी आए!
   राजनीति में ऐसा शायद ऐसा कभी नहीं हुआ? सवा सौ साल पुरानी पार्टी कि ऐसी हालत का तो कहीं रिकॉर्ड नहीं होगा! छोटी-छोटी राजनीतिक पार्टियों ने भी आसानी से कभी घुटने नहीं टेके! तमिलनाडु में एडीएमके और डीएमके हो या उत्तर प्रदेश कि समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी! पश्चिम बंगाल में तो सीपीएम ने 25 साल से ज्यादा समय तक राज किया! उड़ीसा में तो कोई बडी राजनीतिक पार्टी घुस भी नहीं पाई! बिहार तो हमेशा दिल्ली की धारा से विपरीत बहने के लिए ही पहचाना जाता रहा है! कहने का मतलब ये कि आखिर कांग्रेस मध्यप्रदेश में अपनी जड़ें क्यों नहीं पकड़ पा रही है? सवाल तो लाख टेक का है, पर जवाब है दो कौड़ी का! कांग्रेस का जड़ों से उखड़कर फिर न पनप पाने का सबसे बड़ा कारण खुद कांग्रेस है, और कोई नहीं!
   कांग्रेस के बारे में हमेशा कहा जाता रहा है, कि ये पार्टी सत्ता के गोंद से ही चिपकी रह सकती है! जब भी ये गोंद सूखकर दरकता है, पार्टी बिखर सी जाती है! आज कांग्रेस उसी संक्रमणकाल से गुजर रही है। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में तो ये हालत अभी नजर नहीं आ रही! पर, मध्यप्रदेश में पार्टी का बिखराव सबको दिख रहा है। कबीलाई संस्कृति की तरह आज पार्टी कई खेमों बंट गई है! हर किले का एक सरदार है, जो प्रतिद्वंदी के बजाए अपने ही लोगों के खिलाफ तलवार भांजता रहता है। पिछले दस सालों जितने भी चुनाव हुए, उनपर नजर दौड़ाई जाए तो बात ज्यादा स्पष्ट दिखाई देगी! किसी भी चुनाव में पार्टी एक साथ खड़ी दिखाई नहीं दी! जो एकता दर्शाई गई, वो सिर्फ सिर्फ मीडिया के लिए फोटो सेशन था! टिकटों का बंटवारा भी लूट के माल के बंटवारे तरह होता है! जिस कबीले का सरदार जितना ताकतवर उसकी झोली में उतने ज्यादा टिकट! यहाँ तक कि जीतने का दम रखने वाले उम्मीदवार कि पहचान का कोई फार्मूला नहीं! ऐसे में नतीजा ये होता है कि दूसरे कबीले के उस 'एक' उम्मीदवार के खिलाफ सारे नेता एक होकर उसे हरा देते हैं। ऐसे में जो जीत सके, वो उनकी खुद कि काबलियत! उनकी जीत में पार्टी का कोई रोल नहीं रहा!  
  दिल्ली जुड़े एक तपे हुए कांग्रेसी नेता ने तो मध्यप्रदेश के संदर्भ में पार्टी के इस कल्चर को 'राजनीतिक गैंग' तक कह डाला! उनका सवाल था कि किसी भी पार्टी में कभी ऐसा देखा है? कोई भी किसी के साथ नहीं है! जिसे जब मौका मिल रहा, भाजपा का राजनीतिक नुकसान करने के बजाए कांग्रेस की जड़ें काटने पर आमादा है! पार्टी विधानसभा चुनाव क्या हारी, आत्मविश्वास भी हार चुकी! कोई सोच सकता है कि प्रदेश के एक भी नगर निगम में कांग्रेस का महापौर नहीं है! सभी 16 भाजपा के पास है! कटनी और देवास अभी तक कांग्रेस के पास थी, अब वो भी नहीं बची! ऐसे में कैसे उम्मीद की जाए कि कांग्रेस कभी दम-ख़म से भाजपा का सामना कर सकेगी? जिस दिल्ली दरबार को राज्य ईकाइयों पर नजर रखना है, वो नेटवर्क ही दरक गया! अब तो सारी उम्मीद इसी बात पर टिकी है कि भाजपा खुद ही कोई बड़ी गलती करे! जनता जिसकी उसे सजा दे और कांग्रेस को मौका मिल जाए! लेकिन, राजनीति में ऐसा कम ही होता है कि प्रतिद्वंदी की गलती कि आँच पर अपनी रोटी सेंकी जाए! 
   कांग्रेस यदि वास्तव में मेनस्ट्रीम में आने को आतुर है तो सबसे पहले उसे राजाओं, महाराजाओं और कुंवरसाहबों से मुक्ति पाना होगी! जब तक नेताओं की पहचान इस तरह कि उपमाओं से होगी, पार्टी आगे नहीं आ सकती! ये कोई फुरसतिया चिंतन या सुझाओ नहीं, सच है! पार्टी ने बकायदा सर्कुलर जारी करके ऐसी उपमाओं के प्रयोग को रोका भी है! पर ये सर्कुलर भी सरकारी चिट्ठी की तरह जारी हुआ और नस्तीबंद हो गया! दरअसल, ये सिर्फ सामंती उपमा ही नहीं, एक पूरा कल्चर है, जिसने कांग्रेस को जकड रखा है। ये भले निजी पहचान कि बात हो, पर इस पहचान के साथ सामंती व्यवहार जुड़ा होता है, जो राजनीति में फिट नहीं होता! किसी भी खुद्दार व्यक्ति को ये सब रास भी नहीं आता। फिर वो कांग्रेस से जुड़ा हो या नहीं! बात ये नहीं कि राजा, महाराजा या कुंवर सिर्फ कांग्रेस में ही हैं! दूसरी पार्टियों में भी हैं, पर उनपर पार्टी संगठन ने नकेल डाल रखी है। उन्हें इतनी तवज्जों नहीं दी जाती कि उनके राजा या महाराजा होने कि पहचान आगे सारी पार्टी 'प्रजा' नजर आए!
  कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता जब सत्ता से बाहर होते हैं, तो चतुराई से सत्ताधारियों से धंधे में साझेदारी कर लेते हैं। कहीं हो या नहीं पर मध्यप्रदेश में तो यही हो रहा है। आज प्रदेश के ज्यादातर कांग्रेसी नेता प्रॉपर्टी या माइनिंग के काम में लगे हैं। कोई कॉलोनी बना रहा है, कोई मकान बनाने में लगा है तो कोई जमीनें खरीदने की जुगाड़ में है! जो ये नहीं कर रहे, वो साझे में खदानें जुगाङकर जमीन खोद खोदकर मजे कर रहे हैं। राजनीति के साथ बिजनेस करने में कोई आपत्ति नहीं है! पर, प्रतिद्वंदी पार्टी से जुड़े लोगों के साथ जब बिजनेस किया जाता है, तो बात सिर्फ बिजनेस तक सीमित नहीं रहती। क्योंकि, जिसके साथ बिजनेस रिलेशन हों, उसके खिलाफ राजनीति के मैदान में ईमानदारी से मुकाबला कैसे हो सकता है? ऐसे में जो जंग होती है वो सिर्फ 'नूरा कुश्ती' होती है! हारने और जीतने वाले पहले से तय होते हैं। वही हो भी रहा है!
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Thursday, September 3, 2015

'आप' और 'भाजपा' : दिल्ली में इस जंग के कई के कई मायने


 - हेमंत पाल 
  दिल्ली में इन दिनों एक नई तरह की राजनीतिक जंग चल रही है। जो राजनीतिक न होते हुए भी राजनीति को केंद्र में रखकर चलाई जा रही है। केंद्र में काबिज एनडीए सरकार और दिल्ली सरकार के बीच छिड़ी खामोश जंग यही कह रही है! राजनीतिक मोर्चे पर लगातार असफल हो रही केजरीवाल सरकार खुद की पार्टी के विरोधियों और विपक्ष से बचने के लिए केंद्र के विरोध का अराजनीतिक तरीका अपनाया है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कभी दिल्ली पुलिस कमिश्नर से पंगा लेते नजर आते हैं, कभी महिला सुरक्षा के मुद्दे पर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने का मौका ढूंढते हैं! सोमनाथ भारती से लेकर जितेंद्र तोमर तक के मामले, दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज देने को लेकर टकराव के बीच ही अब एक लड़की मीनाक्षी की हत्या पर सियासत शुरू हो गई है। साफ है कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच की लड़ाई में दिल्ली पुलिस अभी धुरी बनी हुई है। ये सब करने के पीछे एक ही मकसद नजर आते है कि खुद को लाइम लाइट में बनाए रखकर राजनीति के तवे को गर्म रखना!  
   तनाव का ताजा कारण है दिल्ली पुलिस और दिल्ली सरकार के बीच महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा! दिल्ली सरकार इस मुददे पर एक दिन का विशेष सत्र बुलाने जा रही है। दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के मुताबिक इस मामले पर एक आयोग भी बनाया जाएगा! ये आयोग जांच करेगा कि सीआरपीसी में क्‍या बदलाव की जरूरत हैं, ऐसे मामलों में पुलिस की क्या लापरवाही रही? उनके खिलाफ क्या एक्शन लिया जाए? दिल्ली पुलिस कमिश्नर और दिल्ली के मुख्यमंत्री की एक तल्ख बैठक भी हुई! लेकिन, पुलिस कमिश्नर के बयान के बाद दिल्ली सरकार ने अखबारों और रेडियो पर हमलावर विज्ञापन शुरू कर दिए। विज्ञापनों में प्रधानमंत्री को दिल्ली पुलिस के लिए समय देने की अपील की गई और कहा गया कि दिल्ली पुलिस निरंकुश है। उस पर किसी की लगाम नहीं! 
  मीनाक्षी हत्याकांड को लेकर आम आदमी पार्टी इन दिनों कुछ ज्यादा ही उग्र नजर आ रही है। पार्टी के यूथ विंग ने दिल्ली पुलिस कार्यालय के बाहर प्रदर्शन भी किया। केजरीलवाल ने पत्रकारों से कहा भी कि दिल्ली में कानून एवं व्यवस्था की स्थिति बदतर हो रही है। दिल्ली पुलिस प्रधानमंत्री के अधीन आती है! या तो वे कुछ करें या दिल्ली पुलिस को दिल्ली सरकार को सौंप दिया जाना चाहिए। दिल्ली पुलिस को दिल्ली सरकार को सौंपे जाने की पैरवी करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि यदि पुलिस दिल्ली सरकार के प्रति उत्तरदायी नहीं होगी, तो उसे जवाबदेह कैसे बनाया जाएगा? उधर, दिल्ली के गृहमंत्री सत्येन्द्र जैन ने पुलिस आयुक्त बी एस बस्सी से इस बात का स्पष्टीकरण मांगा कि आरोपियों के खिलाफ प्राथमिकी क्यों नहीं दर्ज की गई? जबकि, पीडिता ने कई बार शिकायत दर्ज करवाई थी! केजरीवाल सरकार ने मामले की मजिस्ट्रेटी जांच के आदेश देकर आग में घी जरूर डाल दिया! 
   दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल केंद्र की एनडीए सरकार के साथ टकराव की राजनीति क्यों कर रहे हैं? इसके क्या नतीजे निकलेंगे, इसे लेकर अभी सिर्फ अटकलें ही लगाई जा सकती हैं! जबकि, आम आदमी पार्टी  मानना है कि यह लड़ाई अब बड़ी हो गई है, इससे पीछे हटने में उसे नुकसान ही होगा! 'आप' का दावा है कि दिल्ली की जनता की नज़रों में मोदी सरकार द्वारा केजरीवाल सरकार को अनावश्यक परेशान किया जा रहा है! केजरीवाल अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों को परेशान किए जाने को लेकर कहते हैं कि कल उनका नंबर भी आ सकता है! आशय यह कि इससे उनके लड़ाकू मुख्यमंत्री होने के इरादे स्पष्ट नजर आते हैं। 
  ये तनातनी दिल्ली की नौकरशाही पर कब्जे के अधिकार को लेकर शुरू हुई! अब इसे बिहार के लोगों तक ले जाने की तैयारी है। दिल्ली में बड़ी संख्या में बिहारी रहते हैं। 'आप' को लग रहा है कि विधानसभा चुनावों के दौरान बिहार पहुँचकर भाजपा और नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ माहौल बनाया जा सकता है। पार्टी के नेता संजय सिंह भी कह चुके हैं कि हम भाजपा के ख़िलाफ़ चुनाव प्रचार के लिए बिहार जा सकते हैं। इसके बावजूद उपराज्यपाल नजीब जंग और मुख्यमंत्री केजरीवाल के बीच चल रहे घमासान के बीच भाजपा केजरीवाल के ख़िलाफ़ सड़क पर खड़ा होने से बच रही है।  
  भाजपा को डर है कि केजरीवाल अभी हीरो बने हैं। ऐसे में 'आप' के ख़िलाफ़ किसी भी तरह के विरोध के नतीजे उल्टे भी हो सकते हैं। संभव है कि हालात ज़्यादा बिगड़ते देख केंद्र सरकार दिल्ली में राष्ट्रपति शासन की सिफ़ारिश कर दे!  जहाँ तक सुलह की बात है तो फिलहाल ऐसे कोई हालात दिखाई नहीं दे रहे हैं। फ़र्जी डिग्री मामले में दिल्ली के पूर्व कानून मंत्री जीतेन्द्र सिंह तोमर की गिरफ्तारी ने 'आप' को भड़का जरूर दिया है। एक नया मोर्चा विधायक सोमनाथ भारती के ख़िलाफ़ भी खुल गया! एक आश्चर्यजनक सच ये भी है कि प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव के साथ 'आप' से अलग हुआ गुट अभी चुप रहकर मौहाल देख रहा है। अरविन्द केजरीवाल भी चाहेंगे कि लड़ाई तब तक चलती रहे जब तक कि कोई भी फ़ैसला उनके पक्ष में नहीं हो जाता! वे जानते हैं कि नतीजे में जनता की अदालत में वोट मांगने के लिए उन्हें ही जाना होगा। 
   दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का मुद्दा भी मोदी सरकार और केजरीवाल सरकार के बीच फांस बना हुआ है। आम आदमी पार्टी सरकार इसे मुख्य मुद्दा बनाने की कोशिश में है। मुख्यमंत्री केजरीवाल दिल्ली के संविधान और उसके अधिकारों के बारे में भी बेहतर जानते हैं। उन्हें पता है कि दिल्ली के पास पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं होने की वजह से वे पहले जनलोकपाल बिल पास नहीं करवा पाएंगे। 'आप' भी समझती है कि दिल्ली में उनकी केंद्र या फिर उपराज्यपाल से अधिकारों की लड़ाई तब तक चलती रहेगी, जब तक उन्हें संसद से ज्यादा से ज्यादा अधिकार नहीं मिल जाते! उधर, केंद्र में बैठी भाजपा भी जानती है कि अगर केजरीवाल सरकार को दिल्ली से जुड़े ज्यादा अधिकार दे दिए, तो आने वाले समय वे भाजपा के लिए खतरा बन जाएंगे! 
  दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के मामले में भाजपा अपने पैंतरे बदलती रही है। दिल्ली में महानगर परिषद के बाद वर्ष 1993 में जब दिल्ली विधानसभा बनी, तब तत्कालीन मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना ने सबसे पहले ये मुद्दा उठाया। उस समय उनके सामने भी दिल्ली का शासन चलाने में राजधानी के पास पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं होने की वजह से दिक्कतें सामने आ रही थीं। दिल्ली में खुराना के बाद जब दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार थी। जब केंद्र में भाजपा की सरकार थी, उस समय की कांग्रेस की सरकार ने जोर-शोर से पूर्ण राज्य के दर्जे का मामला उठाया। बाद में जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार आई तो दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे के मामले में शीला दीक्षित ने भी पलटी मार ली। उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि भूमि और पुलिस उनकी सरकार के अधीन की जाए! लेकिन, दिल्ली में अन्य देशों के दूतावास और संसद है, इसलिए उन्हें दिल्ली की सुरक्षा नहीं चाहिए।
  दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे के मामले में भाजपा ने भी कांग्रेस की तरह पलटी मारी! चुनावों से पहले भाजपा जो घोषणा पत्र लाई, उसमें कहीं भी दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे के मामले में आश्वासन तो दूर, उसका जिक्र भी नहीं था। अब इस मुद्दे को लेकर दिल्ली में भाजपा नेताओं से जवाब देते नहीं बन रहा! उधर, केजरीवाल और उनकी पार्टी लगातार इस मुद्दे को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को घेरने में लगे हैं। केजरीवाल और आप पार्टी अब सीधे आरोप लगा रही है कि वे भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई करना चाहते हैं, लेकिन भाजपा भ्रष्ट अफसरों को बचाने के लिए उन्हें दिल्ली में ज्यादा अधिकार नहीं दे रही! 
  आम आदमी पार्टी और उसकी सरकार ने केंद्र सरकार और भाजपा को इस मुद्दे पर घेरने के लिए पूरी तैयारी कर ली है। इसका सीधा प्रचार होगा, दिल्ली में 70 में से 67 विधायकों वाली आम आदमी पार्टी की सरकार मोदी सरकार की ओर से उन्हें अधिकार नहीं देने की वजह से दिल्लीवासियों के लिए ज्यादा से ज्यादा करने की इच्छा के बावजूद कुछ कर नहीं पा रही है!
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अब सिंक रही है, गंगा की आंच पर राजनीति की रोटी!


   गंगा की सफाई वास्तव में एक पर्यावरण  मुद्दा है। लेकिन, धीरे-धीरे ये राजनीति में तब्दील हो गया। आज इसे एक राजनीतिक मुद्दे की तरह वादों की आंच पर सेंककर इस्तेमाल किया जा रहा है। नरेंद्र मोदी ने जब केंद्र में एनडीए की सरकार बनाई तो गंगा को स्वच्छ करने का वादा बड़ी जोर-शोर से किया। मोदी का चुनाव क्षेत्र भी वाराणसी होने से इस वादे को प्रचार भी अच्छा मिला! नरेंद्र मोदी ने गंगा के प्रति श्रद्धा दिखाते हुए इससे अपना रिश्ता भी जोड़ा था। वाराणसी से चुनाव जीतने के बाद गंगा के तट पर खड़े होकर गंगा को निर्मल करने का वादा किया था! इस तरह का वादा पहली बार नहीं हुआ। इससे पहले भी राजीव गांधी और मनमोहन सिंह की सरकारें गंगा साफ़ करने की बात कर चुकी है। लेकिन, हुआ कुछ नहीं! इस बार भी होगा, इस बात के आसार काम ही हैं।  
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- हेमंत पाल 

 जिस गति से 'नमामि गंगे' परियोजना पर काम होना था, वो कहीं नजर नहीं आ रहा! गंगा सफाई अभियान से सम्बद्ध केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने भी इस चुनावी नारे पर पानी राजनीतिक रोटी सेंकने में देर नहीं की! उनका हाल का बयान है कि मैंने मंदिरों की परिक्रमा करना मैनें बंद कर दिया है! अब सिर्फ नालों के चक्कर लगा रही हूं। मेरे सपनों में ही नहीं, बल्कि हर वक्त मुझे दूषित गंगा व नाले ही दिखाई पड़ते हैं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना 'नमामी गंगे' की रफ्तार भी बेहद ठीली है। हालत यह है कि ये सरकार 2015-16 वित्त वर्ष की पहली तिमाही में इस परियोजना पर एक रुपया भी खर्च नहीं कर सकी! ऐसा क्यों हुआ, इस सवाल का जवाब किसी  है। इस बात का पता भी आरटीआई के तहत मांगी गई एक जानकारी से हुआ! 
    केंद्र सरकार ने चालू वित्त वर्ष में 'नमामि गंगे' के लिए 20 हज़ार करोड़ के बजट का प्रावधान रखा था। लेकिन, इसमें से जून तक कुछ भी खर्च नहीं हुआ! आरटीआई में तीन बिन्दुओं पर वित्त वर्ष 2014-15 और 2015-16 में गंगा नदी की साफ-सफाई पर खर्च किए गए धन और इस संबंध में आयोजित बैठकों की जानकारी मांगी थी। वित्त वर्ष 2014-15 में सरकार ने 'नमामी गंगे' परियोजना पर 324 करोड़ 88 लाख रुपए खर्च किए! इसमें से 90 करोड़ रुपए गैर-सहायतित परियोजनाओं पर और 324 करोड़ 88 लाख रुपये सहायतित परियोजनाओं पर खर्चे गए।
 पिछले साल जुलाई में अपने पहले बजट में नरेंद्र मोदी ने 'नमामि गंगे' को 6300 करोड़ से अधिक का बजट आवंटित करने की बात कही थी। गंगा नदी की सफाई और संरक्षण के लिए पिछले तीन दशकों में खर्च किए गए धन में चार गुना बढ़ोतरी करते हुए अगले पांच सालों के लिए 20,000 करोड़ रुपये के बजट को मंजूरी दी गई थी। इसके बावजूद कोई ठूस कार्रवाई होती दिखाई नहीं देती! 
  ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री है, जिन्होंने गंगा सफाई अभियान के लिए प्रयास किए हों! राजीव गांधी ने भी प्रधानमंत्री पद पर आसीन होते ही अपने पहले संबोधन में 6 जनवरी, 1985 को गंगा को निर्मल करने संबंधी एक कार्यक्रम की घोषणा की थी। फरवरी, 2009 में मनमोहन सिंह ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया था। उन्होंने अपनी अध्यक्षता में नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए) के गठन की घोषणा की थी। इसमें उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों के अलावा प्रसिद्ध कार्यकर्ताओं और पेशेवरों पर्यावरणविदों को शामिल किया गया। एनजीआरबीए को गंगा बेसिन में स्थित राज्यों में समकक्ष प्राधिकरणों का सहयोग मिलता है, जिनके अध्यक्ष संबद्ध राज्यों के मुख्यमंत्री होते है। 
   एनजीआरबीए को पूर्व के गंगा एक्शन प्लान (गेप), जिस पर कोई 900 करोड़ रुपए व्यय किए जा चुके थे, की खूबियों और खामियों पर खासा विचार करने के उपरांत बनाया गया था। 'गेप' के चलते पानी की गुणवत्ता में गिरावट थमी। सच तो यह है कि कई स्थानों पर इसमें सुधार तक देखा गया। बढ़ती जनसंख्या और अन्य तमाम दबावों के बावजूद यह उपलब्धि हांसिल की जा सकी। 'गेप' ने सुनिश्चित किया कि विघटित ऑक्सीजन पर निर्धारित सीमा में रहे! लेकिन, जैव-रासायनिक ऑक्सीजन डिमांड वेल्यू में उतार-चढ़ाव विघटित ऑक्सीजन की तुलना में कहीं ज्यादा थे। मलीय कोलिफार्म गणनांक भी आंकलित सीमा से अधिक थे। खासकर कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद और वाराणसी में यह स्थिति देखी गई। 
  आईआईटी संकाय गंगा सफाई को लेकर अब तक 37 रिपोर्ट पेश कर चुका है। इसमें देश को नदी प्रबंधन के लिए बेसिन स्तर पर बहुत कुछ किए जाने संबंधी सुझाव भी शामिल हैं। मोटे तौर पर गंगा के आसपास 764 प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयों की पहचान की जा चुकी है। 704 का निरीक्षण भी किया जा चुका है। इन सभी इकाइयों को निर्देश भी दिए गए हैं। कानपुर के आस-पास के गांव में गंगा नदी का पानी बहुत प्रदूषित है। इतना प्रदूषित कि इन गांवों में रहने वाले लोगों के शरीर पर लाल रंग के फफोले निकल आते हैं। यहाँ के कुछ लोगों ने तो गांव ही छोड़ दिया! स्थानीय लोग भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि गंगा का पानी  कदर खतरनाक स्थिति में है।
  चमड़ा उद्योग का गढ़ बनने वाले शहर कानपुर के कुछ इलाकों में हवा में भी सड़ांध आती है। इनमें काम करने वाले मजदूर केमिकल से सनकर जानवरों की चमड़ी निकालते हैं और उन्हें ब्लीचिंग और कलरिंग के लिए भेजते हैं। नदी किनारे की इन फैक्ट्रियों से निकलने वाला गाढ़ा नीले रंग का द्रव सीधे बिना ट्रीटमेंट के गंगा की भेंट चढ़ जाता है। इस द्रव का रंग काला या गहरा पीला भी दिखता है यही कारण है कि गंगा नदी यहां गंदे नाले की तरह दिखती है। 
 देश की सबसे पवित्र समझी जाने वाली गंगा को हिन्दू संस्कृति में मां का दर्जा मिला है। लेकिन, समय के बहते हुए गंगा आज देश की सबसे गंदी नदियों में शामिल है। सबसे ख़राब हालत कानपुर के आस-पास है। धर्मग्रंथों के मुताबिक पापों को धोने वाली गंगा यहां के उद्योगों में खुद लहुलूहान हो गई है। कानपुर की 50 लाख की आबादी का कचरा गंगा संभाल नहीं पाती है। यहाँ बैक्टीरिया का स्तर स्वीकृत स्तर से 200 गुना ज्यादा है। इसके बावजूद शहर हर रोज केमिकल घुला लाखों लीटर पानी इसमें छोड़ता है। चमड़े के करीब 400 कानूनी, गैरकानूनी कारखानों से हर रोज 5 करोड़ लीटर कचरा निकलता है। सिर्फ 90 लाख लीटर का ही ट्रीटमेंट हो पाता है। भारी धातु और दूसरे गंदे पदार्थ नदी के पानी में मिल जाते हैं और फिर सिंचाई और मछलियों के जरिए भोजन का हिस्सा बन जाते हैं। कानपुर से हर रोज 50 करोड़ लीटर गंदा पानी निकलता है और शहर के पास सिर्फ 16 करोड़ लीटर को साफ करने की क्षमता है। 
  गंगोत्री से निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरने तक गंगा नदी करीब 2500 किलोमीटर का सफर तय करती है। वह एक-तिहाई भारतीयों के घरों या शहरों से होकर गुजरती है। लेकिन, कानपुर और वाराणसी में गंगा सबसे गंदी हो जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी मंत्री उमा भारती गंगा का उद्धार कैसे कर सकेंगे, ये एक यक्ष प्रश्न है। गंगा को साफ करने की पहली योजना 1986 में 'गंगा एक्शन प्लान' नाम से शुरू हुई थी, जो 29 साल बाद भी अपना काम पूरा नहीं कर पाई! पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि अरबों रुपए खर्च करने के बाद भी गंगा कहीं साफ नजर नहीं आती। मोदी सरकार ने एक बार फिर 20 अरब रुपए "गंगा मिशन" के लिए रखे हैं। लेकिन, सरकार के इस प्रयास पर शक करने वाले भी कम नहीं हैं!
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शॉटघन के 'शॉट' से भाजपा खामोश!



  जब परदे पर खलनायक की एंट्री हो और दर्शक तालियों बजाकर उसका स्वागत करें, तो साबित हो जाता है कि ये खलनायक किसी भी मायने में नायक से कम नहीं है। परदे पर अपनी ठसकदार बुलंद और कड़क आवाज और चलने की अनोखी शैली के कारण शत्रुघ्न सिन्हा दर्शकों के चहेते थे! जब वे राजनीति में आए तो उन्हें इसी पहचान की उम्मीद थी! लेकिन, सिनेमा इंडस्ट्री तरह भाजपा ने भी उपेक्षा करके उन्हें खलनायक बना दिया। अब तक की उनकी राजनीति में शत्रुघ्न की भूमिका इससे अलग भी नहीं रही! वे पार्टी के सांसद हैं, यानी उनकी भूमिका नायक की है! लेकिन, वे जब भी मुंह खोलते हैं खलनायक बन जाते हैं। बिहार की राजनीति से शत्रुघ्न का कोई सरोकार नहीं रहा, पर वे हमेशा इसके केंद्र में रहे हैं! इस बार कुछ ज्यादा ही नजर भी आ रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार से उनकी 'दोस्ती' भाजपा की आँखों में खटक रही है! क्योंकि, इस दोस्ती के कई मायने भाँपे जा रहे हैं। इसमें क्या सही है और क्या कयास ये जल्दी ही सामने आ जाएगा! शत्रुघ्न के फ़िल्मी जीवन में उनका एक डायलॉग बहुत लोकप्रिय हुआ था 'खामोश।' आज ये डायलॉग भाजपा पर फिट बैठ रहा है!    
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 - हेमंत पाल 
  राजनीति में मित्रता और शत्रुता के कोई निर्धारित मापदंड नहीं होते! कल के दुश्मन आज के दोस्त बन जाते हैं और आज के दोस्त कल दुश्मन की तरह सामने खड़े नजर आते हैं! इन दिनों बिहार की राजनीति कुछ इसी लीक पर चलती नजर आ रही है! भाजपा और नीतिश कुमार दोस्त से दुश्मन हो गए और भाजपा के ही पाले में खड़े शत्रुघ्न सिन्हा उसी की पार्टी के शत्रु बन गए! शत्रुघ्न सिन्हा और भाजपा की कभी दिल से नहीं बनी! कारण कि भाजपा ने कभी शत्रुघ्न को सीरियस नेता नहीं समझा! यही पीड़ा दिल में दबाए आज वे नीतिश से पुरानी दोस्ती का दम भर रहे हैं! शत्रुघ्न सिन्हा नीतीश कुमार के कब से दोस्त हैं, इसका तो पता नहीं? पर, पहले इस बिहारी बाबू ने नीतिश की तारीफ की तो अब नीतिश उनकी गौरव गाथा सुना रहे हैं। इससे लग रहा है कि दोनों के बीच भविष्य की कोई राजनीतिक खिचड़ी तो पक रही है!
  शत्रुघ्न सिन्हा हमेशा ही पार्टी में साइड लाइन रहे हैं। उनसे जूनियर नेताओं को पार्टी में पद मिल गए पर, शत्रु को भाजपा ने कभी गंभीरता से नहीं लिया! दिल्ली दरबार में उन्हें सिर्फ भीड़ इकट्ठा करने वाला नेता माना गया। बिहार चुनाव को लेकर पटना में लगे पोस्टरों में भी शत्रुघ्न सिन्हा का कोई फोटो नहीं है! जब से उन्होंने नीतिश से मुलाकात की, वे पार्टी के निशाने पर। हैं आज ये सवाल हवा में है कि शत्रु पार्टी में रहेंगे या नीतिश से दोस्ती निभाते हुए जेडीयू का हाथ थाम लेंगे!  
 बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने तो शत्रु को बिहार का गौरव तक बताया! वो भी ऐसे वक्त पर, जब उनकी पत्नी पूनम सिन्हा की जेडीयू से चुनाव लड़ने की खबर है। शत्रुघ्न सिन्हा और नीतिश कुमार में दो बार मुलाकात हो चुकी हैं! इस पर नीतिश का ये कहना कि हमारे बीच कोई राजनीतिक बात नहीं हुई, शंका पैदा करता है। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है, उसने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। नीतिश कुमार का बयान हैं कि हम दोनों में व्यक्तिगत संबंध हैं, हमारे बीच राजनीति पर बात कोई नहीं हुई! अब क्या कोई इस बात पर भरोसा करेगा? शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी पूनम के बांकीपुर या दीघा से विधानसभा चुनाव लड़ने के आसार हैं। शत्रुघ्न को भाजपा से टिकट मिलने की उम्मीद नहीं है, इसलिए वे इन दिनों नीतिश के संपर्क में हैं! जेडीयू ने अभी कोई संकेत तो नहीं दिया कि शत्रुघ्न से इस मुद्दे पर कोई बात हुई है, लेकिन संभावना से पार्टी ने इनकार भी नहीं किया! इसीलिए आशंकाओं के बादल कुछ ज्यादा ही गहरे हो गए हैं। 
   शत्रुघ्न सिन्हा ने सिर्फ नीतिश कुमार से बातचीत ही नहीं की, उनकी तारीफ भी की इसलिए वे फिर चर्चा में हैं! शत्रुघ्न ने इस बार अपने ट्वीट के माध्यम से नीतिश की सराहना की और विवादों में घिर गए! ट्वीटर पर उन्होंने कहा कि नीतिश कुमार ने उन्हें 'बिहार का गौरव 'बताया तो यह बात उनके दिल को छू गई! शत्रु ने तारीफ करते हुए कहा कि मुख्यमंत्री से उनके मतभेद हो सकते हैं, लेकिन मनभेद नहीं है! शत्रुघ्न ने अपने दूसरे ट्वीट में 25 कांग्रेसी सांसदों के संसद से निलंबन  गलत बताते हुएम उसकी आलोचना की! शत्रुघ्न के इन ताजा ट्वीट्स फिर विवाद हो गया! इस विवाद से उनकी पत्नी पूनम के जदयू के टिकट पर बिहार विधानसभा चुनाव में उतरने की अटकलों से भी बल मिला है। शत्रु ने 25 जुलाई को मुजफ्फरपुर में नरेंद्र मोदी की महापरिवर्तन रैली के अगले ही दिन नीतिश कुमार से मुलाकात की थी! उन्होंने नीतिश को 'विकास पुरुष' कहा तो नीतिश ने शत्रु को 'बिहार का गौरव' करार दिया! इस मुलाकात को लेकर विवाद हुआ तो शत्रुघ्न सिन्हा ने इसे निजी मुलाकात कहकर कयासों पर विराम लगा दिया! 

  अभी भी इन दोनों के बीच बातों और मुलाकातों का दौर जारी है। लेकिन, इन मुलाकातों पर भाजपा खामोश हैं। इससे पहले शत्रुघ्न के साथ हुई मुलाकातों पर मुख्यमंत्री ने कहा था कि उनकी ये मुलाकात व्यक्तिगत थी! इसका कोई भी राजनीतिक मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए! उनकी पत्नी के जदयू के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़े जाने के मुद्दे पर नीतिश ने कहा कि शत्रुघ्न 'बिहार के गौरव' हैं। वे बहुत उच्च कोटि के कलाकार हैं! अपनी राय बेबाक रखते हैं। हमारे साथ उनके निजी संबंध हैं! जहाँ तक राजनीतिक बातों का सवाल है, इस बारे में हमारी कोई चर्चा नहीं हुई! शत्रुघ्न सिन्हा की 'बिहारी बाबू' के रूप में हम सब कद्र करते हैं। वे कहीं भी रहें, किसी पार्टी में रहें, ये उनका निर्णय है। बिहार में उनकी इज्जत है और उनकी अपनी हैसियत है। बिहार के राजनीतिक गलियारे में चर्चा थी कि शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी पूनम सिन्हा को जदयू विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार बना रही है। कहा जा रहा था कि बिहारी बाबू ने इसके लिए भाजपा से लेकर जदयू तक संपर्क साध रखा है।
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मध्यप्रदेश में कहाँ छुपी है कांग्रेस?

- हेमंत पाल 
   
   किसी भी राजनीतिक पार्टी का दम-ख़म इस बात से आँका जाता है कि चुनावी नतीजों में उसने क्या कमाल किया और रणनीतिक रूप से उसने अपने प्रतिद्वंदी को कैसे और कितनी बार मात दी! राजनीति में चुनाव के नतीजे ही ऐसा लिटमस टेस्ट होते हैं, जिससे पार्टी का जनाधार और भविष्य कि तैयारियों का खुलासा होता है। इस बात का भी अंदाजा लग जाता है कि जनता ने उसके दावों और वादों को कितनी गंभीरता से लिया! इस नजरिए देखा जाए तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस के बीते बारह साल के प्रदर्शन से तो ऐसा नहीं लगता कि इस पार्टी ने अपने तई कोई मेहनत की हो! लगातार तीन विधानसभा चुनाव, कई उपचुनाव और निकाय चुनावों में कांग्रेस को हार का मुँह देखना पड़ा है। हार का ये सिलसिला अभी भी टूटा है! लगता भी नहीं कि आने वाले चुनावों में कोई अलग नतीजा सामने आएंगे! इस सबका एक ही कारण है संगठन के स्तर पर कांग्रेस का बिखराव! प्रदेश में पार्टी के अंदर इतनी फांके हैं कि संतरा भी शरमा जाए! 
  कांग्रेस 12 साल से सत्ता से बाहर है। इतने लम्बे अरसे बाद भी पार्टी प्रदेश में न तो खुद को एकजुट कर पाई और न संभल सकी! लगातार चुनावी हारों के बाद भी लगता नहीं कि प्रदेश में कांग्रेस का अब कोई अस्तित्व भी बचा है! जो पार्टी पचास साल तक सत्ता के शिखर पर रही, वो भरभराकर ऐसी गिरी कि अभी तक उसका मलबा भी नहीं समेटा जा सका! सत्ता के जिस गोंद ने कांग्रेस को चिपकाकर रखा था, उसका असर ख़त्म होते ही प्रदेश में पार्टी के इतने टुकड़े हो गए कि सबने अपनी पहचान ही अलग कर ली! हाल ही के निकाय चुनाव में कांग्रेस कि जो दुर्गति हुई, उससे पार्टी के आकाओं को चिंता होना स्वाभाविक है! पर, लगता नहीं कि कांग्रेस में कोई गंभीरता से कुछ सोच रहा है! 
   संगठन के स्तर पर प्रदेश में पार्टी का बिखराव आज किसी से छुपा नहीं है! दस साल राज करने के बाद 2003 में मध्यप्रदेश में कांग्रेस की हार का ठीकरा दिग्विजय सिंह पर फोड़ा गया था! तब, ये न्यायोचित भी लगा था! क्योँकि, तब वही एक नेता थे, जो सबके निशाने पर थे! लेकिन, उसके बाद क्या हुआ? पिछले 12 सालों में कौनसा ऐसा नेता सामने आया, जिसने भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देने की कोशिश की हो! जिस व्यापम प्रसंग ने पूरे देश में सनसनी मचा दी! जिससे जुडी ख़बरों ने मीडिया को खदबदा दिया! उसी मामले को लेकर ही कांग्रेस के नेता कन्नी क्यों काटते रहे? बीते दो साल में संसद में व्यापम मामले को उठाने में कंजूसी क्यों बरती गई? क्या ये कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के दायित्व का हिस्सा नहीं है? क्या इन्हें नहीं पता कि ग्वालियर और छिंदवाड़ा के बाहर प्रदेश में भी कांग्रेस को बचाना जरुरी है? दिग्विजय सिंह यदि मामले को नहीं गरमाते तो क्या व्यापम को सीबीआई के दायरे में लाया जा सकता था? दिग्विजय सिंह को मध्यप्रदेश में कांग्रेस कि बर्बादी का जिम्मेदार ठहराने वालों को भी अब अहसास होने लगा है कि यदि कांग्रेस को प्रदेश में फिर जीवित करना है, तो ये काम दिग्विजय सिंह के अलावा किसी और के बूते कि बात नहीं है!    
  मान लिया जाए कि 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा कि जीत कारण दिग्विजय सिंह के राज की खामियां थी! फिर, 2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 70 से ज्यादा सीटें जीती और करीब 50 सीटें बहुत कम अंतर से हारे! लेकिन, 2013 में ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस मात्र 58 सीटों पर सिमट गई? जबकि, स्थितियां अनुकूल थी और प्रचार का दारोमदार सिंधिया महाराज के हाथों में था! महल से हवा चली थी कि कांग्रेस सरकार बनाने जा रही है और मुखिया भी महाराज होंगे! सीधा सा मतलब यही है कि ये कांग्रेस कि हार कम ज्योतिरादित्य सिंधिया कि हार ज्यादा थी! लेकिन, इसके बाद वे कहाँ हैं? वे दिल्ली में राजनीति कि शतरंज का खेल खेलते हैं और मध्यप्रदेश में क्रिकेट! उधर, कमलनाथ की राजनीति कभी छिंदवाड़ा से बाहर नहीं निकली! पर, उन्हें भी प्रदेश में कांग्रेस का 'बड़ा' नेता माना जाता हैं! आज जो कांग्रेस कि हालत है, उस जिम्मेदारी से इन नेताओं को बक्शा नहीं जा सकता! प्रदेश में यदि भाजपा को कोई चुनौती दे रहा है तो रणनीतिक तौर पर दिग्विजय सिंह और संगठन के मोर्चे पर प्रवक्ता केके मिश्रा! आज यही दो नेता भाजपा की आँख कि किरकिरी भी हैं! विधानसभा में भी कांग्रेस का प्रदर्शन ऐसा नहीं रहा जिससे सत्ता पर काबिज भाजपा को कोई परेशानी हुई हो! प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव पार्टी के लिए प्रयास तो कर रहे हैं, पर उनकी अपनी सीमाएं हैं। बताने में संकोच नहीं कि वे पूरे प्रदेश के ऐसे नेता नहीं है, जिसे स्वीकारा जाए!
  हाल के निकाय चुनाव में कांग्रेस कि हार को लेकर पार्टी नेतृत्व को ‘आत्मनिरीक्षण’ करने कि जरुरत है कि आखिर उससे कहाँ और क्या गलतियां हुई! पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी को पार्टी लेकर ज्यादा व्यावहारिक होना पड़ेगा! ये भी सोचा जाना चाहिए कि मध्यप्रदेश में पार्टी को जीवित करने के सार्थक उपाय क्या हो सकते हैं! ये आत्मनिरीक्षण भी किया जाना जरुरी है कि 'बड़े' नेताओं  भविष्य में भूमिका क्या हो! निकाय चुनाव में हार के मद्देनजर मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के उन प्रमुख रणनीतिकारों को भी अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए! 
  एक सच ये भी है कि मध्यप्रदेश के सभी कांग्रेसी नेता बजाए भोपाल के दिल्ली कि राजनीति ज्यादा करना चाहते हैं। दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ सभी दिल्ली से ही प्रदेश कि राजनीति पर लगाम कसना चाहते हैं! इसका नतीजा ये हुआ कि प्रदेश में कोई स्थानीय नेतृत्व उभर ही नहीं सका! याद करने पर भी प्रदेश में इन तीन नेताओं के अलावा कोई और नाम नहीं उभरता! जबकि, नेतृत्व क्षमता का अभाव नहीं है, कमी है तो स्थानीय नेतृत्व को उभरने का मौका देने की! सभी बड़े नेताओं को लगता है कि यदि किसी को आगे आने का मौका दे दिया गया, तो कहीं उनके प्रभाव पर आंच ना आ जाए! यह असुरक्षाबोध भी कांग्रेस को सँभालने नहीं दे रहा है!         
  प्रदेश में कांग्रेस कि लगातार हार से भाजपा का आत्मविश्वास बल्लियों उछल रहा है! इसलिए कि विकल्पहीनता कि स्थिति में मतदाता भाजपा को जताने को मजबूर है! ये भाजपा कि राजनीतिक सफलता तो है, पर ये उसके लिए भी अँधा सबक भी है। प्रदेश में जिस तरह से एक पक्षीय राजनीति का दौर चल रहा है, वो कांग्रेस के भविष्य के लिए तो घातक है ही, भाजपा के लिए भी ये स्थिति सही नहीं है! इसलिए कि भाजपा में चुनावी सफलता को लेकर उभरा 'आत्मविश्वास' धीरे-धीरे 'अति-आत्मविश्वास' में बदलता जा रहा है! भाजपा के कार्यकर्ता उच्चश्रृंखल होते जा रहे हैं! कांग्रेस के बिखरे नेतृत्व और ठोस रणनीति के अभाव में भाजपा को जीतने का लगातार मौका तो मिल रहा है, पर इसे खांटी सफलता नहीं माना जाना चाहिए! इसलिए कि मुकाबले का मजा तो तब है, जब जोड़ बराबरी कि हो!
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