Thursday, September 10, 2015

कबीलों में बंटी कांग्रेस खुद का घर जलाने लगी!

- हेमंत पाल 

    
     खेल और राजनीति का मिजाज एक जैसा है। जब एक टीम या पार्टी की जीत होती है, तो दूसरी हारती ही है। लेकिन, हारने और जीतने वाली पार्टी के बीच का अंतर बताता है कि किसे ज्यादा मेहनत का फल मिला और किसकी मेहनत कम थी! लेकिन, मुकाबले में खड़ी दोनों पार्टियों में हार और जीत का अंतर चौड़ी खाई जैसा हो, तो स्पष्ट हो जाता है कि हारने वाली पार्टी ने वॉकओवर दे दिया! यानी कोई कोशिश किए बिना ही हार स्वीकार कर ली! पिछले दो दशक से मध्यप्रदेश में कांग्रेस ऐसी ही हरल्ली टीम बन गई है! जो दिखाने को खेलती तो है, पर मैदान में जीत की मंशा से नहीं उतरती! ऐसे में प्रदेश में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को गुमान हो गया कि वो जनता कि अकेली चहेती पार्टी है। ये स्वाभाविक भी है! भाजपा ने अपने बारह साल कि सत्ता में वो सब किया, जो वो करना चाहती थी। लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीते! दो लोकसभा चुनाव में ज्यादातर सीटों पर अपना झंडा गाड़ा! ज्यादातर उपचुनाव भी जीते! प्रदेश कि सभी 16 नगर निगमों में अपने महापौर उम्मीदवार जिताए! नगर पालिका, पंचायत, सहकारिता समेत सभी चुनावों में कांग्रेस को पछाड़ा! इन सारी जीतों का असर ये हुआ कि मुकाबले में खड़ी होने वाली कांग्रेस किसी कोने में दुबक गई! और तो और भाजपा ने जिस कांग्रेसी नेता को तोड़कर अपनी पार्टी में लाना चाहा उसे ले भी आए!
   राजनीति में ऐसा शायद ऐसा कभी नहीं हुआ? सवा सौ साल पुरानी पार्टी कि ऐसी हालत का तो कहीं रिकॉर्ड नहीं होगा! छोटी-छोटी राजनीतिक पार्टियों ने भी आसानी से कभी घुटने नहीं टेके! तमिलनाडु में एडीएमके और डीएमके हो या उत्तर प्रदेश कि समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी! पश्चिम बंगाल में तो सीपीएम ने 25 साल से ज्यादा समय तक राज किया! उड़ीसा में तो कोई बडी राजनीतिक पार्टी घुस भी नहीं पाई! बिहार तो हमेशा दिल्ली की धारा से विपरीत बहने के लिए ही पहचाना जाता रहा है! कहने का मतलब ये कि आखिर कांग्रेस मध्यप्रदेश में अपनी जड़ें क्यों नहीं पकड़ पा रही है? सवाल तो लाख टेक का है, पर जवाब है दो कौड़ी का! कांग्रेस का जड़ों से उखड़कर फिर न पनप पाने का सबसे बड़ा कारण खुद कांग्रेस है, और कोई नहीं!
   कांग्रेस के बारे में हमेशा कहा जाता रहा है, कि ये पार्टी सत्ता के गोंद से ही चिपकी रह सकती है! जब भी ये गोंद सूखकर दरकता है, पार्टी बिखर सी जाती है! आज कांग्रेस उसी संक्रमणकाल से गुजर रही है। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में तो ये हालत अभी नजर नहीं आ रही! पर, मध्यप्रदेश में पार्टी का बिखराव सबको दिख रहा है। कबीलाई संस्कृति की तरह आज पार्टी कई खेमों बंट गई है! हर किले का एक सरदार है, जो प्रतिद्वंदी के बजाए अपने ही लोगों के खिलाफ तलवार भांजता रहता है। पिछले दस सालों जितने भी चुनाव हुए, उनपर नजर दौड़ाई जाए तो बात ज्यादा स्पष्ट दिखाई देगी! किसी भी चुनाव में पार्टी एक साथ खड़ी दिखाई नहीं दी! जो एकता दर्शाई गई, वो सिर्फ सिर्फ मीडिया के लिए फोटो सेशन था! टिकटों का बंटवारा भी लूट के माल के बंटवारे तरह होता है! जिस कबीले का सरदार जितना ताकतवर उसकी झोली में उतने ज्यादा टिकट! यहाँ तक कि जीतने का दम रखने वाले उम्मीदवार कि पहचान का कोई फार्मूला नहीं! ऐसे में नतीजा ये होता है कि दूसरे कबीले के उस 'एक' उम्मीदवार के खिलाफ सारे नेता एक होकर उसे हरा देते हैं। ऐसे में जो जीत सके, वो उनकी खुद कि काबलियत! उनकी जीत में पार्टी का कोई रोल नहीं रहा!  
  दिल्ली जुड़े एक तपे हुए कांग्रेसी नेता ने तो मध्यप्रदेश के संदर्भ में पार्टी के इस कल्चर को 'राजनीतिक गैंग' तक कह डाला! उनका सवाल था कि किसी भी पार्टी में कभी ऐसा देखा है? कोई भी किसी के साथ नहीं है! जिसे जब मौका मिल रहा, भाजपा का राजनीतिक नुकसान करने के बजाए कांग्रेस की जड़ें काटने पर आमादा है! पार्टी विधानसभा चुनाव क्या हारी, आत्मविश्वास भी हार चुकी! कोई सोच सकता है कि प्रदेश के एक भी नगर निगम में कांग्रेस का महापौर नहीं है! सभी 16 भाजपा के पास है! कटनी और देवास अभी तक कांग्रेस के पास थी, अब वो भी नहीं बची! ऐसे में कैसे उम्मीद की जाए कि कांग्रेस कभी दम-ख़म से भाजपा का सामना कर सकेगी? जिस दिल्ली दरबार को राज्य ईकाइयों पर नजर रखना है, वो नेटवर्क ही दरक गया! अब तो सारी उम्मीद इसी बात पर टिकी है कि भाजपा खुद ही कोई बड़ी गलती करे! जनता जिसकी उसे सजा दे और कांग्रेस को मौका मिल जाए! लेकिन, राजनीति में ऐसा कम ही होता है कि प्रतिद्वंदी की गलती कि आँच पर अपनी रोटी सेंकी जाए! 
   कांग्रेस यदि वास्तव में मेनस्ट्रीम में आने को आतुर है तो सबसे पहले उसे राजाओं, महाराजाओं और कुंवरसाहबों से मुक्ति पाना होगी! जब तक नेताओं की पहचान इस तरह कि उपमाओं से होगी, पार्टी आगे नहीं आ सकती! ये कोई फुरसतिया चिंतन या सुझाओ नहीं, सच है! पार्टी ने बकायदा सर्कुलर जारी करके ऐसी उपमाओं के प्रयोग को रोका भी है! पर ये सर्कुलर भी सरकारी चिट्ठी की तरह जारी हुआ और नस्तीबंद हो गया! दरअसल, ये सिर्फ सामंती उपमा ही नहीं, एक पूरा कल्चर है, जिसने कांग्रेस को जकड रखा है। ये भले निजी पहचान कि बात हो, पर इस पहचान के साथ सामंती व्यवहार जुड़ा होता है, जो राजनीति में फिट नहीं होता! किसी भी खुद्दार व्यक्ति को ये सब रास भी नहीं आता। फिर वो कांग्रेस से जुड़ा हो या नहीं! बात ये नहीं कि राजा, महाराजा या कुंवर सिर्फ कांग्रेस में ही हैं! दूसरी पार्टियों में भी हैं, पर उनपर पार्टी संगठन ने नकेल डाल रखी है। उन्हें इतनी तवज्जों नहीं दी जाती कि उनके राजा या महाराजा होने कि पहचान आगे सारी पार्टी 'प्रजा' नजर आए!
  कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता जब सत्ता से बाहर होते हैं, तो चतुराई से सत्ताधारियों से धंधे में साझेदारी कर लेते हैं। कहीं हो या नहीं पर मध्यप्रदेश में तो यही हो रहा है। आज प्रदेश के ज्यादातर कांग्रेसी नेता प्रॉपर्टी या माइनिंग के काम में लगे हैं। कोई कॉलोनी बना रहा है, कोई मकान बनाने में लगा है तो कोई जमीनें खरीदने की जुगाड़ में है! जो ये नहीं कर रहे, वो साझे में खदानें जुगाङकर जमीन खोद खोदकर मजे कर रहे हैं। राजनीति के साथ बिजनेस करने में कोई आपत्ति नहीं है! पर, प्रतिद्वंदी पार्टी से जुड़े लोगों के साथ जब बिजनेस किया जाता है, तो बात सिर्फ बिजनेस तक सीमित नहीं रहती। क्योंकि, जिसके साथ बिजनेस रिलेशन हों, उसके खिलाफ राजनीति के मैदान में ईमानदारी से मुकाबला कैसे हो सकता है? ऐसे में जो जंग होती है वो सिर्फ 'नूरा कुश्ती' होती है! हारने और जीतने वाले पहले से तय होते हैं। वही हो भी रहा है!
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