गंगा की सफाई वास्तव में एक पर्यावरण मुद्दा है। लेकिन, धीरे-धीरे ये राजनीति में तब्दील हो गया। आज इसे एक राजनीतिक मुद्दे की तरह वादों की आंच पर सेंककर इस्तेमाल किया जा रहा है। नरेंद्र मोदी ने जब केंद्र में एनडीए की सरकार बनाई तो गंगा को स्वच्छ करने का वादा बड़ी जोर-शोर से किया। मोदी का चुनाव क्षेत्र भी वाराणसी होने से इस वादे को प्रचार भी अच्छा मिला! नरेंद्र मोदी ने गंगा के प्रति श्रद्धा दिखाते हुए इससे अपना रिश्ता भी जोड़ा था। वाराणसी से चुनाव जीतने के बाद गंगा के तट पर खड़े होकर गंगा को निर्मल करने का वादा किया था! इस तरह का वादा पहली बार नहीं हुआ। इससे पहले भी राजीव गांधी और मनमोहन सिंह की सरकारें गंगा साफ़ करने की बात कर चुकी है। लेकिन, हुआ कुछ नहीं! इस बार भी होगा, इस बात के आसार काम ही हैं।
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- हेमंत पाल
जिस गति से 'नमामि गंगे' परियोजना पर काम होना था, वो कहीं नजर नहीं आ रहा! गंगा सफाई अभियान से सम्बद्ध केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने भी इस चुनावी नारे पर पानी राजनीतिक रोटी सेंकने में देर नहीं की! उनका हाल का बयान है कि मैंने मंदिरों की परिक्रमा करना मैनें बंद कर दिया है! अब सिर्फ नालों के चक्कर लगा रही हूं। मेरे सपनों में ही नहीं, बल्कि हर वक्त मुझे दूषित गंगा व नाले ही दिखाई पड़ते हैं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना 'नमामी गंगे' की रफ्तार भी बेहद ठीली है। हालत यह है कि ये सरकार 2015-16 वित्त वर्ष की पहली तिमाही में इस परियोजना पर एक रुपया भी खर्च नहीं कर सकी! ऐसा क्यों हुआ, इस सवाल का जवाब किसी है। इस बात का पता भी आरटीआई के तहत मांगी गई एक जानकारी से हुआ!
केंद्र सरकार ने चालू वित्त वर्ष में 'नमामि गंगे' के लिए 20 हज़ार करोड़ के बजट का प्रावधान रखा था। लेकिन, इसमें से जून तक कुछ भी खर्च नहीं हुआ! आरटीआई में तीन बिन्दुओं पर वित्त वर्ष 2014-15 और 2015-16 में गंगा नदी की साफ-सफाई पर खर्च किए गए धन और इस संबंध में आयोजित बैठकों की जानकारी मांगी थी। वित्त वर्ष 2014-15 में सरकार ने 'नमामी गंगे' परियोजना पर 324 करोड़ 88 लाख रुपए खर्च किए! इसमें से 90 करोड़ रुपए गैर-सहायतित परियोजनाओं पर और 324 करोड़ 88 लाख रुपये सहायतित परियोजनाओं पर खर्चे गए।
पिछले साल जुलाई में अपने पहले बजट में नरेंद्र मोदी ने 'नमामि गंगे' को 6300 करोड़ से अधिक का बजट आवंटित करने की बात कही थी। गंगा नदी की सफाई और संरक्षण के लिए पिछले तीन दशकों में खर्च किए गए धन में चार गुना बढ़ोतरी करते हुए अगले पांच सालों के लिए 20,000 करोड़ रुपये के बजट को मंजूरी दी गई थी। इसके बावजूद कोई ठूस कार्रवाई होती दिखाई नहीं देती!
ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री है, जिन्होंने गंगा सफाई अभियान के लिए प्रयास किए हों! राजीव गांधी ने भी प्रधानमंत्री पद पर आसीन होते ही अपने पहले संबोधन में 6 जनवरी, 1985 को गंगा को निर्मल करने संबंधी एक कार्यक्रम की घोषणा की थी। फरवरी, 2009 में मनमोहन सिंह ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया था। उन्होंने अपनी अध्यक्षता में नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए) के गठन की घोषणा की थी। इसमें उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों के अलावा प्रसिद्ध कार्यकर्ताओं और पेशेवरों पर्यावरणविदों को शामिल किया गया। एनजीआरबीए को गंगा बेसिन में स्थित राज्यों में समकक्ष प्राधिकरणों का सहयोग मिलता है, जिनके अध्यक्ष संबद्ध राज्यों के मुख्यमंत्री होते है।
एनजीआरबीए को पूर्व के गंगा एक्शन प्लान (गेप), जिस पर कोई 900 करोड़ रुपए व्यय किए जा चुके थे, की खूबियों और खामियों पर खासा विचार करने के उपरांत बनाया गया था। 'गेप' के चलते पानी की गुणवत्ता में गिरावट थमी। सच तो यह है कि कई स्थानों पर इसमें सुधार तक देखा गया। बढ़ती जनसंख्या और अन्य तमाम दबावों के बावजूद यह उपलब्धि हांसिल की जा सकी। 'गेप' ने सुनिश्चित किया कि विघटित ऑक्सीजन पर निर्धारित सीमा में रहे! लेकिन, जैव-रासायनिक ऑक्सीजन डिमांड वेल्यू में उतार-चढ़ाव विघटित ऑक्सीजन की तुलना में कहीं ज्यादा थे। मलीय कोलिफार्म गणनांक भी आंकलित सीमा से अधिक थे। खासकर कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद और वाराणसी में यह स्थिति देखी गई।
आईआईटी संकाय गंगा सफाई को लेकर अब तक 37 रिपोर्ट पेश कर चुका है। इसमें देश को नदी प्रबंधन के लिए बेसिन स्तर पर बहुत कुछ किए जाने संबंधी सुझाव भी शामिल हैं। मोटे तौर पर गंगा के आसपास 764 प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयों की पहचान की जा चुकी है। 704 का निरीक्षण भी किया जा चुका है। इन सभी इकाइयों को निर्देश भी दिए गए हैं। कानपुर के आस-पास के गांव में गंगा नदी का पानी बहुत प्रदूषित है। इतना प्रदूषित कि इन गांवों में रहने वाले लोगों के शरीर पर लाल रंग के फफोले निकल आते हैं। यहाँ के कुछ लोगों ने तो गांव ही छोड़ दिया! स्थानीय लोग भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि गंगा का पानी कदर खतरनाक स्थिति में है।
चमड़ा उद्योग का गढ़ बनने वाले शहर कानपुर के कुछ इलाकों में हवा में भी सड़ांध आती है। इनमें काम करने वाले मजदूर केमिकल से सनकर जानवरों की चमड़ी निकालते हैं और उन्हें ब्लीचिंग और कलरिंग के लिए भेजते हैं। नदी किनारे की इन फैक्ट्रियों से निकलने वाला गाढ़ा नीले रंग का द्रव सीधे बिना ट्रीटमेंट के गंगा की भेंट चढ़ जाता है। इस द्रव का रंग काला या गहरा पीला भी दिखता है यही कारण है कि गंगा नदी यहां गंदे नाले की तरह दिखती है।
देश की सबसे पवित्र समझी जाने वाली गंगा को हिन्दू संस्कृति में मां का दर्जा मिला है। लेकिन, समय के बहते हुए गंगा आज देश की सबसे गंदी नदियों में शामिल है। सबसे ख़राब हालत कानपुर के आस-पास है। धर्मग्रंथों के मुताबिक पापों को धोने वाली गंगा यहां के उद्योगों में खुद लहुलूहान हो गई है। कानपुर की 50 लाख की आबादी का कचरा गंगा संभाल नहीं पाती है। यहाँ बैक्टीरिया का स्तर स्वीकृत स्तर से 200 गुना ज्यादा है। इसके बावजूद शहर हर रोज केमिकल घुला लाखों लीटर पानी इसमें छोड़ता है। चमड़े के करीब 400 कानूनी, गैरकानूनी कारखानों से हर रोज 5 करोड़ लीटर कचरा निकलता है। सिर्फ 90 लाख लीटर का ही ट्रीटमेंट हो पाता है। भारी धातु और दूसरे गंदे पदार्थ नदी के पानी में मिल जाते हैं और फिर सिंचाई और मछलियों के जरिए भोजन का हिस्सा बन जाते हैं। कानपुर से हर रोज 50 करोड़ लीटर गंदा पानी निकलता है और शहर के पास सिर्फ 16 करोड़ लीटर को साफ करने की क्षमता है।
गंगोत्री से निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरने तक गंगा नदी करीब 2500 किलोमीटर का सफर तय करती है। वह एक-तिहाई भारतीयों के घरों या शहरों से होकर गुजरती है। लेकिन, कानपुर और वाराणसी में गंगा सबसे गंदी हो जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी मंत्री उमा भारती गंगा का उद्धार कैसे कर सकेंगे, ये एक यक्ष प्रश्न है। गंगा को साफ करने की पहली योजना 1986 में 'गंगा एक्शन प्लान' नाम से शुरू हुई थी, जो 29 साल बाद भी अपना काम पूरा नहीं कर पाई! पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि अरबों रुपए खर्च करने के बाद भी गंगा कहीं साफ नजर नहीं आती। मोदी सरकार ने एक बार फिर 20 अरब रुपए "गंगा मिशन" के लिए रखे हैं। लेकिन, सरकार के इस प्रयास पर शक करने वाले भी कम नहीं हैं!
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