Thursday, September 3, 2015

मध्यप्रदेश में कहाँ छुपी है कांग्रेस?

- हेमंत पाल 
   
   किसी भी राजनीतिक पार्टी का दम-ख़म इस बात से आँका जाता है कि चुनावी नतीजों में उसने क्या कमाल किया और रणनीतिक रूप से उसने अपने प्रतिद्वंदी को कैसे और कितनी बार मात दी! राजनीति में चुनाव के नतीजे ही ऐसा लिटमस टेस्ट होते हैं, जिससे पार्टी का जनाधार और भविष्य कि तैयारियों का खुलासा होता है। इस बात का भी अंदाजा लग जाता है कि जनता ने उसके दावों और वादों को कितनी गंभीरता से लिया! इस नजरिए देखा जाए तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस के बीते बारह साल के प्रदर्शन से तो ऐसा नहीं लगता कि इस पार्टी ने अपने तई कोई मेहनत की हो! लगातार तीन विधानसभा चुनाव, कई उपचुनाव और निकाय चुनावों में कांग्रेस को हार का मुँह देखना पड़ा है। हार का ये सिलसिला अभी भी टूटा है! लगता भी नहीं कि आने वाले चुनावों में कोई अलग नतीजा सामने आएंगे! इस सबका एक ही कारण है संगठन के स्तर पर कांग्रेस का बिखराव! प्रदेश में पार्टी के अंदर इतनी फांके हैं कि संतरा भी शरमा जाए! 
  कांग्रेस 12 साल से सत्ता से बाहर है। इतने लम्बे अरसे बाद भी पार्टी प्रदेश में न तो खुद को एकजुट कर पाई और न संभल सकी! लगातार चुनावी हारों के बाद भी लगता नहीं कि प्रदेश में कांग्रेस का अब कोई अस्तित्व भी बचा है! जो पार्टी पचास साल तक सत्ता के शिखर पर रही, वो भरभराकर ऐसी गिरी कि अभी तक उसका मलबा भी नहीं समेटा जा सका! सत्ता के जिस गोंद ने कांग्रेस को चिपकाकर रखा था, उसका असर ख़त्म होते ही प्रदेश में पार्टी के इतने टुकड़े हो गए कि सबने अपनी पहचान ही अलग कर ली! हाल ही के निकाय चुनाव में कांग्रेस कि जो दुर्गति हुई, उससे पार्टी के आकाओं को चिंता होना स्वाभाविक है! पर, लगता नहीं कि कांग्रेस में कोई गंभीरता से कुछ सोच रहा है! 
   संगठन के स्तर पर प्रदेश में पार्टी का बिखराव आज किसी से छुपा नहीं है! दस साल राज करने के बाद 2003 में मध्यप्रदेश में कांग्रेस की हार का ठीकरा दिग्विजय सिंह पर फोड़ा गया था! तब, ये न्यायोचित भी लगा था! क्योँकि, तब वही एक नेता थे, जो सबके निशाने पर थे! लेकिन, उसके बाद क्या हुआ? पिछले 12 सालों में कौनसा ऐसा नेता सामने आया, जिसने भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देने की कोशिश की हो! जिस व्यापम प्रसंग ने पूरे देश में सनसनी मचा दी! जिससे जुडी ख़बरों ने मीडिया को खदबदा दिया! उसी मामले को लेकर ही कांग्रेस के नेता कन्नी क्यों काटते रहे? बीते दो साल में संसद में व्यापम मामले को उठाने में कंजूसी क्यों बरती गई? क्या ये कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के दायित्व का हिस्सा नहीं है? क्या इन्हें नहीं पता कि ग्वालियर और छिंदवाड़ा के बाहर प्रदेश में भी कांग्रेस को बचाना जरुरी है? दिग्विजय सिंह यदि मामले को नहीं गरमाते तो क्या व्यापम को सीबीआई के दायरे में लाया जा सकता था? दिग्विजय सिंह को मध्यप्रदेश में कांग्रेस कि बर्बादी का जिम्मेदार ठहराने वालों को भी अब अहसास होने लगा है कि यदि कांग्रेस को प्रदेश में फिर जीवित करना है, तो ये काम दिग्विजय सिंह के अलावा किसी और के बूते कि बात नहीं है!    
  मान लिया जाए कि 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा कि जीत कारण दिग्विजय सिंह के राज की खामियां थी! फिर, 2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 70 से ज्यादा सीटें जीती और करीब 50 सीटें बहुत कम अंतर से हारे! लेकिन, 2013 में ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस मात्र 58 सीटों पर सिमट गई? जबकि, स्थितियां अनुकूल थी और प्रचार का दारोमदार सिंधिया महाराज के हाथों में था! महल से हवा चली थी कि कांग्रेस सरकार बनाने जा रही है और मुखिया भी महाराज होंगे! सीधा सा मतलब यही है कि ये कांग्रेस कि हार कम ज्योतिरादित्य सिंधिया कि हार ज्यादा थी! लेकिन, इसके बाद वे कहाँ हैं? वे दिल्ली में राजनीति कि शतरंज का खेल खेलते हैं और मध्यप्रदेश में क्रिकेट! उधर, कमलनाथ की राजनीति कभी छिंदवाड़ा से बाहर नहीं निकली! पर, उन्हें भी प्रदेश में कांग्रेस का 'बड़ा' नेता माना जाता हैं! आज जो कांग्रेस कि हालत है, उस जिम्मेदारी से इन नेताओं को बक्शा नहीं जा सकता! प्रदेश में यदि भाजपा को कोई चुनौती दे रहा है तो रणनीतिक तौर पर दिग्विजय सिंह और संगठन के मोर्चे पर प्रवक्ता केके मिश्रा! आज यही दो नेता भाजपा की आँख कि किरकिरी भी हैं! विधानसभा में भी कांग्रेस का प्रदर्शन ऐसा नहीं रहा जिससे सत्ता पर काबिज भाजपा को कोई परेशानी हुई हो! प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव पार्टी के लिए प्रयास तो कर रहे हैं, पर उनकी अपनी सीमाएं हैं। बताने में संकोच नहीं कि वे पूरे प्रदेश के ऐसे नेता नहीं है, जिसे स्वीकारा जाए!
  हाल के निकाय चुनाव में कांग्रेस कि हार को लेकर पार्टी नेतृत्व को ‘आत्मनिरीक्षण’ करने कि जरुरत है कि आखिर उससे कहाँ और क्या गलतियां हुई! पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी को पार्टी लेकर ज्यादा व्यावहारिक होना पड़ेगा! ये भी सोचा जाना चाहिए कि मध्यप्रदेश में पार्टी को जीवित करने के सार्थक उपाय क्या हो सकते हैं! ये आत्मनिरीक्षण भी किया जाना जरुरी है कि 'बड़े' नेताओं  भविष्य में भूमिका क्या हो! निकाय चुनाव में हार के मद्देनजर मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के उन प्रमुख रणनीतिकारों को भी अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए! 
  एक सच ये भी है कि मध्यप्रदेश के सभी कांग्रेसी नेता बजाए भोपाल के दिल्ली कि राजनीति ज्यादा करना चाहते हैं। दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ सभी दिल्ली से ही प्रदेश कि राजनीति पर लगाम कसना चाहते हैं! इसका नतीजा ये हुआ कि प्रदेश में कोई स्थानीय नेतृत्व उभर ही नहीं सका! याद करने पर भी प्रदेश में इन तीन नेताओं के अलावा कोई और नाम नहीं उभरता! जबकि, नेतृत्व क्षमता का अभाव नहीं है, कमी है तो स्थानीय नेतृत्व को उभरने का मौका देने की! सभी बड़े नेताओं को लगता है कि यदि किसी को आगे आने का मौका दे दिया गया, तो कहीं उनके प्रभाव पर आंच ना आ जाए! यह असुरक्षाबोध भी कांग्रेस को सँभालने नहीं दे रहा है!         
  प्रदेश में कांग्रेस कि लगातार हार से भाजपा का आत्मविश्वास बल्लियों उछल रहा है! इसलिए कि विकल्पहीनता कि स्थिति में मतदाता भाजपा को जताने को मजबूर है! ये भाजपा कि राजनीतिक सफलता तो है, पर ये उसके लिए भी अँधा सबक भी है। प्रदेश में जिस तरह से एक पक्षीय राजनीति का दौर चल रहा है, वो कांग्रेस के भविष्य के लिए तो घातक है ही, भाजपा के लिए भी ये स्थिति सही नहीं है! इसलिए कि भाजपा में चुनावी सफलता को लेकर उभरा 'आत्मविश्वास' धीरे-धीरे 'अति-आत्मविश्वास' में बदलता जा रहा है! भाजपा के कार्यकर्ता उच्चश्रृंखल होते जा रहे हैं! कांग्रेस के बिखरे नेतृत्व और ठोस रणनीति के अभाव में भाजपा को जीतने का लगातार मौका तो मिल रहा है, पर इसे खांटी सफलता नहीं माना जाना चाहिए! इसलिए कि मुकाबले का मजा तो तब है, जब जोड़ बराबरी कि हो!
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