काउंट डाउन - 1
रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव
- हेमंत पाल
ये लोकसभा उपचुनाव कौन जीतेगा? ये सवाल झाबुआ से बाहर किसी से पूछा जाए, तो राजनीति की थोड़ी-बहुत जानकारी रखने वाला शख्स सहजता से भाजपा उम्मीदवार निर्मला भूरिया का नाम ले देगा! लेकिन, झाबुआ में जब यही सवाल किसी स्थानीय व्यक्ति से किया जाए, तो वो साफ़ जवाब नहीं देगा! ये भी हो सकता है कि खुद प्रतिप्रश्न कर ले कि आपको क्या लगता है, कौन जीतेगा? झाबुआ के आदिवासी फिलहाल चुनाव को लेकर खामोश हैं और किसी निष्कर्ष के संकेत नहीं दे रहे! यही कारण है कि यहाँ भाजपा थोड़ी असमंजस में है!
इस बात को मौजूं न माना जाए, पर ये नितांत सच है कि बिहार विधानसभा के चुनाव में भाजपा को मिली हार को यहाँ भी गंभीरता लिया जा रहा है। इसी आशंका को भांपते हुए भाजपा ने दिवाली के पहले ही चुनाव प्रचार में तेजी लाने की कोशिशें शुरू कर दी थी! मुख्यमंत्री महीनेभर से लगातार झाबुआ, आलीराजपुर और रतलाम में चुनावी सभाएं कर रहे हैं! मुख्यमंत्री लगातार दो-दो दिन के चुनावी दौरे इसलिए कर रहे हैं कि कहीं, कोई चूक न रह जाए! संगठन के कई बड़े नेता महीनेभर से झाबुआ में डेरा डाले हैं।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि बिहार चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा के माथे पर चिंता की हल्की लकीरें उभरी हैं। क्योंकि, झाबुआ के आदिवासियों की खासियत है कि वो अपेक्षाकृत जागरूक, सजग और गंभीर है। वो जल्दी प्रतिक्रिया नहीं देता! देश, दुनिया की हर खबर से वाकिफ भी रहता है! ये लोग मजदूरी करने गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली और राजस्थान तक जाते हैं! इसलिए उन्हें पता है कि देश का राजनीतिक मौहाल कैसा है! यही वजह है कि झाबुआ के आदिवासी को बरगलाना आसान नहीं है। उसे प्रलोभित करके अपने पक्ष में वोटिंग के लिए राजी भी नहीं किया जा सकता!
झाबुआ के ग्रामीण इलाकों के टोला और मजरों में आदिवासियों के बीच भी चुनाव को लेकर चर्चाओं के दौर चल रहे हैं! पर, ये सारी बातचीत उनके अपने बीच तक ही सीमित है! किसी भी बाहरी आदमी को वे मन की बात बताने से परहेज करते हैं! जोर देकर पूछने पर वे 'गांव में चर्चा है' जैसे जुमले गढ़ लेते हैं! उनके मन की थाह लेना भी आसान नहीं है। भाजपा के जो बाहरी नेता झाबुआ डेरा डाले हैं, उन्हें भी चुनाव जीत जाने का भरोसा है, पर किसी बड़े अंतर की जीत दावा करने से वे बचते नजर आ रहे हैं।
उधर, कांग्रेस आश्वस्त सी लग रही है कि वो मैदान मारने में कामयाब हो जाएगी! कांग्रेस के इस भरोसे के पीछे एक आधार भी नजर आता है कि कांतिलाल भूरिया के मुकाबले भाजपा की निर्मला भूरिया की लोकप्रियता कम है! फर्क सिर्फ इतना है कि निर्मला भूरिया के पीछे पूरी शिवराज सरकार खड़ी नजर आ रही है और कांतिलाल के साथ उनकी स्थानीय टीम है! पेटलावद हादसे के बाद सरकार ने स्थिति को संभाल जरूर लिया, पर अभी भी लोगों के दिल के दिल घाव भरे नहीं हैं! पेटलावद में वो बारूद तो जलकर ख़ाक हो गया, पर जो बारूद लोगों के दिलों में धधक रहा है वो कहाँ फटेगा, कह नहीं सकते! कागजों पर तो दोनों ही बड़ी पार्टियाँ जीत के दावे करने में पीछे नहीं हट रही! लेकिन, असल सच तो उन लोगों को पता है जिनके लिए कांग्रेस और भाजपा पार्टियाँ नहीं 'पंजे' और 'फूल' तक सीमित है!
000000
काउंट डाउन - 2
कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं!
पिछले साल लोकसभा चुनाव हारने के बाद कांतिलाल भूरिया निश्चिंत हो गए थे, कि अब चुनावी राजनीति से पाँच साल की छुट्टी! लेकिन, अचानक हालात बदले और दिलीपसिंह भूरिया के निधन से सीट खाली हो गई! इंदौर जाकर रहने लगे कांतिलाल भूरिया को फिर झाबुआ जिले की राजनीति में सक्रिय होना पड़ा! उन्होंने वक़्त का फ़ायदा उठाया और फिर संपर्क बनाकर अपनी पकड़ मजबूत करने में लग गए! आज उसी का नतीजा है कि वे कई बार सभी 8 विधानसभा क्षेत्रों चक्कर लगा चुके हैं! जबकि, भाजपा इस मामले में पिछड़ गई! उम्मीदवारी की घोषणा में देरी इसका सबसे बड़ा कारण रहा!
झाबुआ और आलीराजपुर की राजनीति करीब एक सी है! दोनों आदिवासी जिले हैं और दोनों की तासीर भी एक है। लेकिन, रतलाम की बात अलग है! रतलाम शहरी इलाका है, जहाँ का राजनीतिक सोच भी अलग है। दोनों आदिवासी जिलों में फिलहाल कोई पार्टी दावा नहीं सकती कि किसका पलड़ा भारी है! क्योंकि, आदिवासी मतदाता अमूमन खामोश रहता है! पर, रतलाम में भाजपा का दबदबा साफ़ दिख रहा है! पर,बाकी जगह ये स्थिति नहीं है। मतदाताओं का मूड भांपने के बाद भाजपा के नेता भी समझ रहे हैं कि किसी ओवर-कॉन्फिडेंस के किसी मुगालते में न रहा जाए तो ही बेहतर होगा! हवा भी बताती है कि पिछले लोकसभा चुनाव में 'मोदी लहर' में कांतिलाल के तम्बू उखड गए थे, पर अब वैसे हालात नहीं हैं! आज न तो कोई हवा है, न आँधी है और न कोई लहर! ऊपर से बिहार की हार और महंगाई ने भाजपा का ग्राफ नीचे गिरा दिया! मुद्दे की बात ये कि इन सवालों के भाजपा के पास कोई जवाब नहीं है! उस पर पेटलावद हादसे ने भी सरकार को सवालों में घेर लिया! दबी जुबान से ही सही, लोग पूछ तो रहे हैं कि हादसे का मुख्य आरोपी राजेंद्र कासवां कहाँ है? ये भी खुसुर-पुसुर है कि चुनाव के बाद उसे पकड़ भी लिया जाएगा! वो चुनाव तक ही फरार है!
000000
काउंट डाउन - 3
कांग्रेसी गुटों के 'महागुटबंधन' ने बदला माहौल!
गठबंधन के बाद 'महागठबंधन' राजनीति में गढ़ा गया एक नया शब्द है। बिहार में छोटे राजनीतिक दलों को चुनाव में सफलता क्या मिली, इस 'महागठबंधन' फॉर्मूले के नए-नए आयाम गढ़े जाने लगे! लगता है कांग्रेस ने भी इस सफलता से कुछ सबक लिया है! तभी अचानक झाबुआ में कांग्रेस का एक अलग ही रूप नजर आने लगा! इस उपचुनाव को लेकर कांग्रेस के अंदर बदलाव भी दिखाई दिया, जो ये अहसास कराने के लिए लिए काफी है कि यहाँ प्रचार में कांग्रेस के गुटों ने भी 'महागुटबंधन' बना लिया! इस उपचुनाव में जो माहौल बदला है, वो इसी फॉर्मूले का नतीजा है।
अभी तक बिखरे नज़र आने वाले कांग्रेसी नेता एक साथ और एक मंच पर आकर प्रचार में जुट गए! इस उपचुनाव से छिड़ककर दूरी बनाने वाले नेता दिवाली के बाद ज्यादा ही सक्रिय नजर आए! शायद ये सब बिहार चुनाव के नतीजों का ही आफ्टर इफेक्ट है। पार्टी को उम्मीद है, कि वे इस चुनावी फॉर्मूले के बल पर मध्यप्रदेश के इस उपचुनाव में भी फतह हांसिल कर लेंगे। इस उत्साह का असर इन दिनों झाबुआ, आलीराजपुर और रतलाम जिलों में साफ़ देखने को मिल रहा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, सचिन पायलेट, मोहन प्रकाश और संजय निरुपम समेत कई दिग्गज कांग्रेसी नेताओं ने यहाँ सभाएं की और कर रहे हैं। चुनाव का नतीजा चाहे कुछ भी हो, पर यह तय है कि बिहार चुनाव के नतीजों ने गुटों में बंटी कांग्रेस को एकजुट जरूर कर दिया!
अभी तक इस संसदीय उपचुनाव को लेकर कांग्रेस बहुत ज्यादा गंभीर नहीं लग रही थी! कांतिलाल भूरिया की आदिवासियों के बीच पकड़ होने से लग रहा था कि हार-जीत का अंतत बहुत ज्यादा नहीं होगा! पर, कांग्रेस ये चुनाव जीत सकती है, इस बात का दिल से भरोसा किसी भी बड़े नेता को नहीं था! लेकिन, माहौल बदला है, बिहार में भाजपा वाले गठबंधन की हार से! यदि सारे संसाधन झोंककर और नरेंद्र मोदी की 26 रैलियां कराने के बाद भी भाजपा बिहार में हार सकती है, तो क्या इस उपचुनाव के नतीजे को पलटा नहीं जा सकता? जब ये सवाल कांग्रेसी नेताओं के मन में कौंधा, तो उन्होंने उत्साह से कमर कस ली और जंग के मैदान में उतर पड़े! आज हालात ये हैं कि दिवाली से पहले तक ख़म ठोंककर जीत का दावा करने वाले भाजपा नेता अनमने से हैं! जीतने की बात तो कर रहे हैं पर अंतर कितना होगा? इस सवाल पर कन्नी काटने लगे!
कांतिलाल भूरिया को कांग्रेस की राजनीति में दिग्विजय सिंह खेमे का नेता माना जाता है। इसलिए इस बात की उम्मीद कम ही थी कि दूसरे गुटों के मुखिया इस जंग में शामिल होंगे! लेकिन, दिवाली के बाद जिस ताबड़तोड़ तरीक से कांग्रेस ने अपनी रणनीति बदली है, भाजपा हतप्रभ है। ज्योतिरादित्य सिंधिया की रतलाम वाली सभा में कम लोगों की मौजूदगी को लेकर कुछ सवाल उठे थे! लेकिन, पेटलावद में उनकी सभा में आई भीड़ ने उस कमी को पाट दिया! प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता केके मिश्रा ने भी इस बात को स्वीकार किया कि दिवाली बाद कांग्रेस ने जिस तरह का चुनाव प्रचार किया, उससे प्रतिद्वंदी खेमे के दिल की धड़कने बढ़ गई! उन्हें तो कांतिलाल भूरिया की जीत का पूरा भरोसा भी है! क्योंकि, बिहारी की तरह यहाँ का आदिवासी मतदाता भी किसी को अपने मन की थाह नहीं लेने देता!
इस सारी कवायद का एक असर ये भी है कि जिस अरुण यादव को कमजोर प्रदेश अध्यक्ष समझ जा रहा था, वो फिर पार्टी की नजर में चढ़ गए! जबकि, भाजपा के चुनाव प्रचार के सारे सूत्र मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने अपने हाथ में रखे हैं! भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान को एक तरह से साइड लाइन ही कर दिया गया! इसलिए कि उनकी अनसोची बयानबाजी से पार्टी कई बार मुश्किल में पड़ चुकी है! अब यदि ये उपचुनाव भाजपा जीतती है तो जीत का सेहरा सिर्फ शिवराज सिंह के माथे पर होगा! पर यदि नतीजे इसके विपरीत रहे तो …? जवाब समझा जा सकता है!
000000
काउंट डाउन - 2
कागज पर भाजपा, जमीन पर कांग्रेस भारी?
ये उपचुनाव स्वस्थ राजनीतिक प्रतिद्वंदिता बजाए कांग्रेस और भाजपा के लिए नाक का सवाल ज्यादा बन गया है। भाजपा इस चुनाव के जरिए देशभर में ये संदेश देना चाहती है कि बिहार हारने के बाद भी उसकी जमीनी पकड़ बरक़रार है! जबकि, कांग्रेस की हरसंभव कोशिश है कि चाहे जो हो, उसे जीतकर ये साबित करना है कि बिहार जैसा माहौल पूरे देश में है! नरेंद्र मोदी के 'अच्छे दिनों' की जिस आँधी ने भाजपा की नैया पार लगा दी थी, अब वो थम चुकी है! दिल्ली के बाद बिहार इसी का संकेत है। अब ये तो नतीजे बताएँगे कि नरेंद्र मोदी से 'अच्छे दिनों की उम्मीद', दिलीपसिंह भूरिया के प्रति सहानुभूति और शिवराज सिंह चौहान के सुशासन का जादू अभी जिन्दा है या नहीं!
प्रदेश के अन्य आदिवासी इलाकों की राजनीति और झाबुआ की कहानी अलग है! यहाँ राजनीतिक जागरूकता दूसरे आदिवासी इलाकों से ज्यादा है। झाबुआ, आलीराजपुर पर कांग्रेस ने दशकों तक अपना ख़म ठोंककर रखा! जब पूरे देश में कांग्रेस के तम्बू ढह रहे थे, तब भी यहाँ 'पंजा' मजबूत था! कांतिलाल भूरिया दो दशक तक आदिवासी राजनीति कि धुरी रहे हैं! स्थानीय राजनीति में उनकी धाक अभी कम नहीं हुई है ! ये भी याद रखने वाली बात है कि ये लोकसभा क्षेत्र प्रदेश की उन 9 सीटों में शामिल है, जहां कांग्रेस पिछला लोकसभा चुनाव डेढ़ लाख से कम वोटों से हारी थी।
दिलीप सिंह भूरिया ने 5 बार कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर के टिकट पर चुनाव जीता! 2014 में वे पहली बार भाजपा के का झंडा लेकर चुनाव लड़े और जीते भी! इस संसदीय सीट पर दिलीपसिंह भूरिया10वीं बार और कांतिलाल भूरिया 5वीं बार मैदान में थे। दिलीपसिंह ने 1977 से 1996 तक लगातार छह बार कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ा और 1980 से 1996 तक पांच बार सांसद चुने गए। लेकिन, आदिवासियों में पैठ और जमीनी पकड़ के मामले में कांतिलाल भूरिया हमेशा आगे रहे! इसलिए कि राष्ट्रीय राजनीति में सक्रियता के कारण दिलीपसिंह की इलाके में जमीनी पकड़ अपेक्षाकृत कमजोर ही रही!
इस लोकसभा क्षेत्र में झाबुआ के 3, आलीराजपुर के 2 और रतलाम के 3 विधानसभा क्षेत्र हैं। थांदला, झाबुआ और सैलाना वो सीटें हैं, जहाँ पकड़ के मामले में कांग्रेस आगे है। आलीराजपुर, पेटलावद, जोबट, रतलाम लोकल और रतलाम ग्रामीण में फिलहाल भाजपा कागजों पर मजबूत है। पिछले विधासभा चुनाव में पेटलावद पर तो निर्मला भूरिया का कब्जा बरक़रार ही रहा! वे सबसे अधिक 18,668 वोटों से जीतीं। झाबुआ सीट से पवेसिंह पारगी ने अपने प्रतिद्वंद्वी को हराया था! आलीराजपुर में नागरसिंह चौहान की जीत भी 11 हज़ार से ज्यादा वोटों की रही! जबकि, जोबट से माधोसिंह डाबर तथा थांदला से कलसिंह भावर ने जीत दर्ज की थी।
आलीराजपुर में भाजपा विधायक नागर सिंह की ताकत भाजपा के लिए फायदेमंद होगी! उनके मुकाबले का कांग्रेस आलीराजपुर में कोई नेता नजर नहीं आता। यहाँ से भाजपा का आगे रहने तय माना जा रहा है! जिले की दूसरी विधानसभा सीट जोबट में भी मैदान कांग्रेस के लिए आसान नहीं हैं! यहाँ विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बागी उम्मीदवार को हराकर माधोसिंह डावर ने कमल खिलाया था। भाजपा उम्मीदवार निर्मला भूरिया पेटलावद इलाके में क्या जादू कर दिखाती हैं, ये आज भी एक यक्ष प्रश्न है! क्योंकि, पेटलावद हादसे को लेकर लोगों की नाराजी अभी दूर नहीं हुई है! मुआवजे और राहत से तो किसी परिवार के दुःख को कम सकता? थांदला में कांग्रेस पहले भी बेहतर नहीं थी और आज भी स्थिति ठीक है। लेकिन, फिर भी यहाँ से किसे बढ़त मिलेगी, दावा सकता! झाबुआ विधानसभा सीट हमेशा से कांग्रेस के लिए फायदेमंद। यदि कांग्रेस मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में कामयाब हुई, तो यहाँ से कांग्रेस को बढ़त मिलना तय है। ख़ास बात ये कि अब कांतिलाल भूरिया कि भतीजी कलावती भूरिया कंधे से कंधा मिलाकर चुनाव में दम लगा रही है। कलावती की पकड़ को वही समझ सकता है, झाबुआ की रजनी को नजदीक से देखा हो! ये तो हुई आलीराजपुर और झाबुआ जिले की 5 विधानसभा सीटों की बात! रतलाम की 3 सीटों की हवा अगली क़िस्त में!
000000
काउंट डाउन - अंतिम
सारा दारोमदार रतलाम के मिजाज पर टिका!
इस संसदीय सीट की तासीर दो तरह की है! आलीराजपुर और झाबुआ आदिवासी बहुल वाला इलाका है और रतलाम जिला पूरी तरह शहरी! झाबुआ जिले में कांग्रेस थोड़ी मजबूत नजर आ रही है, तो भाजपा को उम्मीद है कि वो रतलाम में कांग्रेस को पटकनी दे देगी! राजनीति के जमीनी आकलन से भाजपा भले ताकतवर नजर आ रही हो, पर आदिवासी मतदाता के मानस को अंदर तक भांप पाना आसान नहीं है। दशकों तक कांग्रेस की परंपरागत सीट रहा ये संसदीय क्षेत्र आज कांग्रेस की झोली में नहीं हो, पर पांसा पलटते देर नहीं लगती! संसदीय क्षेत्र की आठों विधानसभा सीटों में रतलाम (शहर) छोड़कर कांग्रेस और भाजपा में हार-जीत का अंतर इतना बड़ा नहीं है कि उसे पाटा नहीं सके! कांग्रेस यदि वोटर्स की मानसिकता बदलने में कामयाब रही तो इस लोकसभा उपचुनाव के नतीजे चौंका भी सकते हैं। किन्तु, स्थानीय राजनीति पर पैनी नजर रखने वालों का आकलन है कि 21 नवंबर तक 'पंजा' सबको ताकतवर दिखेगा, पर 24 को 'कमल' ही खिलेगा! शायद ये आकलन इसलिए है कि चुनाव के समीकरण एक रात पहले ही बदलते हैं!
इस लोकसभा क्षेत्र में दो जिलों झाबुआ और आलीराजपुर के साथ तीसरा जिला रतलाम है। इस जिले की तीन विधानसभा सीटें इस संसदीय क्षेत्र में जुड़ती हैं। रतलाम (शहर), रतलाम (ग्रामीण) और सैलाना! रतलाम शहर सीट कभी कांग्रेस के वोटों की फसल का गोदाम था! लेकिन, अब इस विधानसभा क्षेत्र में भाजपा का असर बढ़ा है। शहरी इलाकों में भाजपा को वैसे भी मजबूत माना जाता है! इसलिए यहाँ से कांतिलाल भूरिया को बड़ी बढ़त मिल सकेगी, इस बात पर फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता! कांग्रेस को होने वाले संभावित नुकसान की बड़ी वजह ये भी है कि यहाँ पार्टी का संगठन दमदार नहीं रहा! रतलाम की भाजपा राजनीति के केंद्र रहे हिम्मत कोठारी उर्फ़ 'सेठ' ने कांग्रेस के अधिकांश स्थानीय नेताओं के गले में पट्टा डाल रखा है। कांग्रेस उम्मीदवार के पास कभी रतलाम में कार्यकर्ताओं की बड़ी फ़ौज हुआ करती थी! अब वो हालात नहीं है! इसके विपरीत कांग्रेस को उम्मीद कि वो मैदान मार लेगी, पर इसका कोई ठोस आधार नजर नहीं आ रहा!
कांग्रेस का भरोसा इस बात पर टिका है कि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को रतलाम (शहर) से जो 55 हज़ार की लीड मिली थी, जो महापौर चुनाव में घटकर 24 हज़ार हो गई! रतलाम (ग्रामीण) से भी भाजपा को करीब 30 हज़ार की लीड मिली थी! भाजपा के दिलीपसिंह भूरिया पिछला लोकसभा चुनाव 1 लाख 8 हज़ार से चुनाव जीते थे, उसमें रतलाम की 2 सीटों का योगदान ही करींब 85 हज़ार वोटों का रहा था! भाजपा की कोशिश है कि ये लीड बढे नहीं तो कम से कम घटे भी नहीं! रतलाम ग्रामीण भाजपा की कमजोरी को भाजपा के नेता भी भांप रहे हैं! क्योंकि, सरकार से किसान खुश नहीं हैं और महंगाई भी आसमान फाड़ रही है! ऐसे में लीड बढ़ेगी, ये कहना नासमझी होगी! अब नरेंद्र मोदी की हवा का माहौल नहीं है और न इस उपचुनाव को लेकर लोगों में कोई रूचि है! ऐसे में तय है कि भाजपा की लीड बढ़ेगी तो नहीं! ये कांग्रेस के फायदे वाला संकेत है!
वोटिंग के अगले दिन देवउठनी ग्यारस है, हिन्दू परंपरा के मुताबिक उस दिन से शादी-ब्याह शुरू जाते हैं! ऐसे में ज्यादातर लोग शादियों में बिजी हो जाते हैं! जिसका सीधा असर वोटिंग पर होगा, जिसका नुकसान भाजपा को हो सकता है! लेकिन, कांग्रेस को नुकसान का गणित ये है कि रतलाम नगर निगम के 69 पार्षदों में कांग्रेस के 13 ही हैं, उनमे भी 7 या 8 ही कांतिलाल भूरिया का साथ देंगे!
जहाँ तक जातीय समीकरण की बात है तो रतलाम में ब्राह्मण, जैन और मुस्लिम वोट करीब-करीब बराबर हैं! मुस्लिम वोट तो भाजपा को मिलने से रहे! दादरी, गो-मांस पर विवाद के बाद मुस्लिमों का परंपरागत बैंक कुछ खिसका भी है! इसी तरह जैन वोटर्स भी पूरी तरह भाजपा के साथ होंगे, इसमें शक किया जा रहा है! हिम्मत कोठारी और चैतन्य काश्यप इस कोशिश में तो हैं, लेकिन, लगता नहीं कि ऐसा होगा! जैन समाज ज्यादातर व्यापारी वर्ग है! इस दिवाली पर बढ़ी महंगाई ने जिस तरह व्यापारियों का नुकसान किया है, वो उनके लिए भूलने वाली बात नहीं है। यहाँ के ब्राह्मण वोटर्स भी एक मुश्त भाजपा के साथ खड़े होंगे, इस बात दावा नहीं किया जा सकता! यदि आलीराजपुर और झाबुआ के जातीय समीकरणों पर नजर दौड़ाई जाए तो यहाँ 85% वोटर्स आदिवासी हैं! इनमें से बड़ी संख्या उन वोटर्स की है, जो दशकों तक 'पंजे' के साथ रहे हैं!
रतलाम में कांग्रेस ने अपनी चुनावी रणनीति भी बदली है! पार्टी ने रतलाम के सारे सूत्र इंदौर के नेता महेश जोशी के हाथ में दे दिए हैं, जिन्होंने कुशलगढ़ छोड़कर रतलाम में डेरा डाल लिया! चुनावी रणनीति का दारोमदार आजकल उनकी देखरेख में हो रहा है! इसके अलावा कई छोटे, बड़े नेताओं ने भी कमर कसकर पूरा जोर लगा दिया! दरअसल, ये भाजपा के चुनावी हमले का ही जवाब है! दिवाली के बाद जब पूरे संसदीय इलाके में भाजपा ने अपना प्रचार अभियान तेज किया और मुख्यमंत्री में गली-गली में चुनावी सभाएं करना शुरू कर दिया तो कांग्रेस ने भी उसी कूटनीति का इस्तेमाल करके हवा बनाना चालू कर दिया! कांग्रेस को फायदा देने वाला एक संकेत ये भी है कि पूर्व विधायक पारस सकलेचा कांग्रेस के साथ खड़े नजर आ रहे हैं! यदि वे अपने समर्थन से कांग्रेस को मदद दे सकने में कामयाब हुए, तो शायद कांग्रेस की उम्मीद पूरी हो सकेगी!
रतलाम जिले की तीसरी सीट है सैलाना! ये वही इलाका है, जहाँ पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा से पछाड़ा था! सैलाना विधानसभा से भाजपा को हमेशा ही नुकसान उठाना पड़ा है। प्रभुदयाल गेहलोत के दबदबे के कारण यहाँ भाजपा हमेशा ही कमजोर रही है। प्रभुदयाल गेहलोत खुलकर कांग्रेस का समर्थन कर रहे हैं, जिसने कांग्रेस का उत्साहवर्धन किया है! मुख्यमंत्री ने इस बार सैलाना इलाके में पूरा जोर लगा दिया है! देखना है कि 24 नवंबर को नतीजे क्या कहते हैं?
------------------------------ ------------------------------ -----------