- हेमंत पाल
लोकसभा उपचुनाव के लिए झाबुआ-रतलाम रणक्षेत्र में सेनाएं सजने लगी है! एक पार्टी का सेनापति लगभग तय है! दूसरी सेना ने अस्त्र-शस्त्र जमा कर लिए हैं, पर जंग किसकी अगुवाई में लड़ी जाएगी, अभी तय नहीं! दोनों ही एक-दूसरे की ताकत भाँपने की कशिश कर रहे हैं! अंदर ही अंदर रणनीति बन रही है। दोनों तरफ से जंग फतह करने के दावे किए जा रहे हैं! देखना है कि किसका दावा ज्यादा मजबूत है! कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के लिए ये चुनाव नाक का सवाल ज्यादा है। क्योंकि, जिस नरेंद्र मोदी के 'अच्छे दिनों' के नारे की आँधी ने भाजपा के कई उम्मीदवारों की नैया पार लगा दी थी, अब वो आँधी ठंडी पड़ चुकी है। दिसंबर से पहले होने वाला ये उपचुनाव भाजपा के लिए लिटमस टेस्ट की तरह होगा। ये भी देखना दिलचस्प होगा कि दिलीपसिंह भूरिया कि सहानुभूति की लहर अभी जीवित है या वो भी ठंडी हो गई!
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आदिवासी इलाके की राजनीति कि अपनी अलग ही कहानी है! बरसों तक यहाँ कांग्रेस ने अपना ख़म ठोंककर रखा! जब पूरे देश में कांग्रेस के तम्बू उखड़ रहे थे, तब भी झाबुआ में 'पंजा' मजबूत था! पर, अब वो माहौल नहीं है! लोकसभा चुनाव में भाजपा ने पहली बार जीत का झंडा फहराया! सांसद दिलीपसिंह भूरिया की अचानक मौत ने फिर उपचुनाव के हालात निर्मित कर दिए! अभी तय नहीं है कि राजनीति कि ये रस्साकशी कब होगी, पर कांग्रेस और भाजपा दोनों ने हर मोर्चे की ताकत का जायजा लेना शुरू कर दिया!
झाबुआ-रतलाम लोकसभा क्षेत्र उन नौ सीटों में शामिल है जहां कांग्रेस पिछला चुनाव डेढ़ लाख से कम वोटों से हारी थी। मोदी लहर के कारण कांतिलाल भूरिया दिवंगत भाजपा उम्मीदवार दिलीप सिंह भूरिया से 1 लाख 8 हजार 447 मतों से पराजित हुए थे। लेकिन, और कोई दमदार उम्मीदवार न होने से कांग्रेस की और से कांतिलाल भूरिया का नाम उम्मीदवारी के लिए लगभग फायनल है! पर भाजपा ने अब तक घोषित नहीं किया है कि उसका उम्मीदवार कौन होगा! फिर भी समझा जा रहा है कि स्व. दिलीपसिंह भूरिया की बेटी निर्मल भूरिया उम्मीदवारी की लिस्ट में सबसे ऊपर है! कांग्रेस का संभावित उम्मीदवार भील आदिवासी समाज का होगा! इसलिए भाजपा कोई भी भील जनजाति का ही उम्मीदवार मैदान में उतारना होगा! सोशल इंजीनियरिंग के इस फॉर्मूले में भी निर्मला भूरिया फिट बैठती है।
जहाँ तक दोनों पार्टियों और उनके उम्मीदवारों का मामला है, उनकी अपनी पहचान है, पार्टी की छवि का भी चुनाव में अपना महत्व है। कांतिलाल भूरिया करीब दो दशक तक प्रदेश में आदिवासी राजनीति कि धुरी रहे हैं! लम्बे समय तक उनकी तूती बोलती रही! स्थानीय राजनीति में आज भी उनकी धाक कम नहीं हुई! जबकि, दिलीप सिंह भूरिया ने 5 बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीता! इस बार वे भाजपा के झंडे तले चुनाव लड़े और जीते थे! झाबुआ-रतलाम संसदीय सीट पर दिलीपसिंह भूरिया10वीं बार और कांतिलाल भूरिया 5वीं बार मैदान में थे। दिलीपसिंह ने 1977 से 1996 तक लगातार छह बार कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ा और 1980 से 1996 तक पांच बार सांसद चुने गए। यदि दोनों भूरिया की तुलना कि जाए तो जमीनी पकड़ के मामले में कांतिलाल हमेशा ज्यादा मजबूत रहे! राष्ट्रीय राजनीति में सक्रियता के कारण दिलीपसिंह का पलड़ा जमीनी पकड़ को लेकर कमजोर ही रहा! अब, जबकि वे नहीं हैं, भाजपा के सामने फिर वही सवाल खड़ा हो गया है कि भाजपा के टिकट पर किसे चुनाव लड़ाया जाए?
जहाँ तक झाबुआ की राजनीति का इशारा है, दिलीपसिंह भूरिया की बेटी निर्मला भूरिया को टिकट दिए जाने की संभावना ज्यादा है! वे पेटलावद से विधायक भी हैं! शुरू में लगा था कि शायद पार्टी उन्हें मौका न दे, पर सहानुभूति वोटों की बात है, तो निर्मला सबसे सशक्त उम्मीदवार हैं! लेकिन, कहा ये भी जा रहा है कि निर्मला को टिकट देने से पेटलावद विधानसभा सीट पर फिर उपचुनाव की नौबत आ सकती है! पहले इशारा ये भी था कि भाजपा ने राजनीतिक जोड़-बाकी लगाकर झाबुआ-रतलाम के लिए भिंड और होशंगाबाद वाले फार्मूले का सुझाव दिया। तर्क यह दिया गया कि आदिवासी इलाके में कांग्रेस के पास जो सबसे दमदार नेता हो, उसे ही भाजपा में ले आओ! ये बात उड़कर सामने भी आई, पर शायद बात बनी नहीं!
कांतिलाल भूरिया ने कहा कि इस तरह कि अफवाह उड़ाकर भाजपा चुनाव से पहले उन्हें डैमेज करना चाहती है। भूरिया ने खुद के भाजपा में शामिल होने की बात को सिरे से खारिज कर दिया। कहा कि मेरे डीएनए में सिर्फ कांग्रेस है। उन्होंने इससे भी एक कदम आगे बढ़कर भाजपा को ही कटघरे में खड़ा कर दिया और कहा कि दिलीपसिंह भूरिया की मौत स्वाभाविक नहीं थी। उनकी हत्या हुई है, इसकी सीबीआई से जांच कराई जाना चाहिए।
इस संसदीय क्षेत्र में झाबुआ के 5 और रतलाम के 3 विधानसभा क्षेत्र आते हैं। इसमें ताजा रुझान के मुताबिक थांदला, झाबुआ और सैलाना ही वो सीटें हैं, जहाँ कांग्रेस पकड़ के मामले में थोड़ा आगे है। आलीराजपुर, पेटलावद, जोबट, रतलाम लोकल और रतलाम ग्रामीण में फिलहाल भाजपा मजबूत है। पिछले विधासभा चुनाव में पेटलावद पर तो निर्मला भूरिया का कब्जा बरक़रार ही रहा! वे सबसे अधिक 18,668 वोटों से जीतीं। झाबुआ सीट से पवेसिंह पारगी ने 18,375 वोटों से अपने प्रतिद्वंद्वी को हराया! आलीराजपुर में नागरसिंह चौहान की जीत 11,335 वोटों की रही! जबकि, जोबट से माधोसिंह डाबर 9,548 तथा थांदला से कलसिंह भावर ने जीत दर्ज की थी।
आलीराजपुर में भाजपा विधायक नागर सिंह के मुकाबले का कांग्रेस के पास कोई नेता नहीं है। इस कारण यहाँ लोकसभा उपचुनाव में भाजपा को बढ़त मिलना तय है। पिछले विधानसभा चुनाव से पहले जरूर नागर सिंह थोड़ा कमजोर लग रहे थे! लेकिन, नगर पालिका चुनाव में कांग्रेस की जीत ने उन्हें सबक दिया और इसके बाद आलीराजपुर में भाजपा की जड़ें और मजबूत हो गई! लोकसभा उपचुनाव में यहाँ कांग्रेस को ज्यादा मेहनत करना पड सकती है।
आलीराजपुर जिले की दूसरी विधानसभा सीट जोबट में भी भाजपा को चुनौती देना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा! यहाँ विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बागी उम्मीदवार को मात देकर माधोसिंह डावर ने कमल खिलाया था। 2008 के विधानसभा चुनाव में जोबट में कांग्रेस प्रत्याशी सुलोचना रावत से हारने वाले माधोसिंह डावर को जनता ने फिर से मौका दिया, आज डावर के सामने कांग्रेस बहुत कमजोर है।
यदि निर्मला भूरिया को भाजपा लोकसभा उपचुनाव का उम्मीदवार बनाती है, तो पेटलावद क्षेत्र में भाजपा ताकतवर होगी! क्योंकि, निर्मला भूरिया यहीं से विधायक है। झाबुआ में भाजपा ने सबसे पहले 2003 में पेटलावद सीट जीतकर ही अपना झंडा गाड़ा था। झाबुआ जिले में भाजपा का खाता जैसे भी खुला हो, पर माना यही जाता है कि इसके पीछे दिलीपसिंह भूरिया की भूमिका महत्वपूर्ण रही! वे यदि कांग्रेस में अपने चिर प्रतिद्वंद्वी रहे कांतिलाल भूरिया के कारण पार्टी नहीं छोड़ते और निर्मला को पेटलावद से भाजपा का उम्मीदवार नहीं बनाते, तो शायद भाजपा का खाता नहीं खुलता!
थांदला में कांग्रेस पहले भी बेहतर थी और आज भी उसकी स्थिति ठीक कही जा सकती है। यहाँ से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीते कलसिंह भाबर विधायक हैं। उन्होंने भाजपा के बागी की तरह विधानसभा चुनाव लड़ा और जीते! वे भले ही निर्दलीय माने जाते हों, पर भाजपा उन्हें अपना हो मानती आई है। यदि यहाँ कांग्रेस को बढ़त मिलती है तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए!
झाबुआ विधानसभा सीट भी कांग्रेस के लिए उम्मीदों से भरी है। यदि कांग्रेस मतदाताओं का मानस बदलने में कामयाब हुई, तो इस सीट से कांग्रेस को बढ़त मिलने के आसार है। विधानसभा चुनाव में कांतिलाल भूरिया की भतीजी कलावती भूरिया ने जेवियर मेड़ा को निपटाने के लिए निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा था। कलावती अपनी कोशिशों में सफल भी हुई! लेकिन, इस सीट पर पूर्व विधायक जेवियर मेड़ा को निपटाने के बजाए यदि कलावती चुनाव लडऩे से रोक लिया जाता, तो झाबुआ के नतीजे भाजपा के लिए चिंताजनक हो सकते थे।
रतलाम जिले की तीन विधानसभा सीटें इस संसदीय क्षेत्र में आती हैं रतलाम शहर, रतलाम ग्रामीण और सैलाना! इसमें सैलाना ही वो इलाका है जहाँ कांग्रेस भाजपा से आगे रही थी! रतलाम संसदीय सीट में सैलाना विधानसभा से भाजपा को तगड़ा नुकसान उठाना पड़ा था। यहां भाजपा के वोट बैंक में अप्रत्याशित गिरावट आई। प्रभुदयाल गेहलोत के दबदबे के कारण यहाँ भाजपा हमेशा ही कमजोर रही है।
रतलाम शहर कभी कांग्रेस के वोटों की फसल का गोदाम रहा है, पर अब इस विधानसभा क्षेत्र में भाजपा का दबदबा है। कांतिलाल भूरिया के लिए नुकसान का एक बड़ा कारण ये भी है कि कभी उनके ख़ास सिपहसालार रहे राजेश शर्मा अब भाजपा के पाले में चले गए! इसके अलावा रतलाम में कभी प्रभावशाली रहे कांग्रेस के नेता खुर्शीद अनवर और मोतीलाल दवे परिवार भी कांतिलाल भूरिया के लिए मददगार होंगे, इसमें शक है। नगर निगम में भी 69 पार्षदों में कांग्रेस के 13 ही पार्षद हैं, उनमे भी 7 या 8 ही कांतिलाल भूरिया का साथ देंगे! कांग्रेस को यहां तभी फ़ायदा हो सकता है जब वो भाजपा की फूट में सेंध लगा ले! रतलाम ग्रामीण में भी भाजपा और कांग्रेस का मुकाबला बराबरी का नहीं कहा जा सकता! यहाँ भी भाजपा थोड़ा भारी है।
राजनीति के जमीनी आकलन और कागजों पर भाजपा भले ही ताकतवर नजर आ रही हो, पर आदिवासी मतदाता के मानस को भांप पाना आसान नहीं है। दशकों तक कांग्रेस की परंपरागत सीट रही झाबुआ आज कांग्रेस की झोली में नहीं हो, पर पांसा पलटते में देर नहीं लगती! संसदीय क्षेत्र की आठों विधानसभा सीटों पर कांग्रेस और भाजपा में हार-जीत का अंतर भी इतना बड़ा भी नहीं था, कि उसे पाटा नहीं जा सकता! कांग्रेस यदि वोटर्स की मानसिकता बदलने में कामयाब रही तो इस लोकसभा उपचुनाव के नतीजे चौंका भी सकते हैं।
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