रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव
- हेमंत पाल
जब से रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव की हलचल शुरू हुई, तभी से माहौल में एक अजीब सा असमंजस और सन्नाटा था! चुनावी शोर के बीच में भी आदिवासी मतदाता अपने दिल की बात नहीं बता रहा था! उसकी इसी खामोशी से भाजपा परेशान थी! अंत तक पार्टी मतदाता के मन की थाह लेने की कोशिश करती रही, पर समझ नहीं सकी! कांग्रेस ने इस ख़ामोशी की आवाज को सुन लिया था! तभी उसे जीत का भरोसा सा हो गया था! भाजपा इस आदिवासी इलाके के चुनाव को जीतकर देश में ये संदेश देना चाहती थी, कि बिहार हारने के बाद भी उसकी जमीनी पकड़ बरक़रार है! लेकिन, ये उसका भ्रम ही निकला! सत्ता और संगठन की सारी ताकत झोंकने के बाद भी भाजपा अपनी हार नहीं बचा सकी! ख़ास बात ये रही कि भाजपा ने यहाँ अपनी सीट खोई है। जबकि, कांग्रेस ने इस जीत ये साबित कर दिया बिहार जैसा अंडर करंट पूरे देश में है! नरेंद्र मोदी की जिस आँधी ने भाजपा को शिखर पर पहुंचा दिया था, वो जादू अब उतर गया! दिल्ली के बाद बिहार और अब रतलाम-झाबुआ में हार इसी का संकेत ही तो है।इस संसदीय क्षेत्र में दो अलग-अलग मूड वाले मतदाता हैं! झाबुआ और आलीराजपुर पूरी तरह आदिवासी मतदाताओं वाला इलाका हैं। यहाँ 85% मतदाता आदिवासी हैं! जबकि, रतलाम जिले की तीनों सीटें अमूमन शहरी है। इनमें रतलाम (शहर) को छोड़कर बाकी कि सभी 7 सीटों पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की है। रतलाम (शहर) में भी जीत का अंतर करीब 20 हज़ार कम हो गया! 2014 के लोकसभा चुनाव में यहाँ भाजपा को करीब 55 हज़ार की लीड मिली थी! नगर निगम चुनाव में ये बढ़त घटकर 24 हज़ार हो गई और अब ये उससे भी नीचे आ गई! झाबुआ और आलीराजपुर की आदिवासी बहुल सभी पाँचों विधानसभा क्षेत्रों से कांतिलाल भूरिया को बढ़त मिली! इसका सीधा सा अर्थ ये निकलता दिखाई दे रहा है कि आदिवासियों ने भाजपा को सिरे नकार दिया! आलीराजपुर ऐसा इलाका है जहाँ कांग्रेस को बढ़त मिलने की उम्मीद नहीं थी, पर वहाँ भी कांग्रेस ने 5 हज़ार से ज्यादा वोटो से भाजपा को पीछे छोड़ा!
कांग्रेस के लिए ये जीत आसान नहीं थी! क्योंकि, भाजपा ने सरकार और संगठन को चुनाव में पूरी तरह झौंक दिया था! इसके बावजूद नतीजे उसके पक्ष में नहीं आए! अब इस हार को कुतर्कों के साथ स्वीकारते हुए भाजपा नेता कई तर्क दे सकते हैं! पर वे शायद ये नहीं कहेंगे कि हमने आयातित बड़े नेताओं को चुनाव के मोर्चे पर लगाकर स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं को किनारे कर दिया! पेटलावद हादसे के प्रभावितों पर मुआवजे का मरहम लगाने की कोशिश की! चुनाव क्षेत्र में कथा और घट-स्थापना जैसे धार्मिक आयोजन किए! पेटलावद हादसे के आरोपी राजेंद्र कांसवा को अब तक पकड़ा नहीं जा सका! हम जीत के अतिआत्मविश्वास में हार की कल्पना भी नहीं कर रहे थे! यदि ये सब नहीं किया जाता तो भाजपा की इतनी बुरी हार नहीं होती!
ये एक तरह से भाजपा के 'इलेक्शन मैनेजमेंट' की भी हार है! किसी एक सीट को जीतने के लिए जिस तरह से 'संसाधन' झोंके गए थे, मतदाता उसे पचा नहीं सका! ये भी कहा जा सकता है कि ये चुनाव जीतने के तात्कालिक उपायों की हार नहीं, बल्कि भाजपा की उस विचारधारा की हार है, जिसके झाँसे में पिछली बार देशभर का मतदाता आ गया था! अब वो उससे मुक्त होने की कोशिश कर रहा है! भाजपा की हार का ये कारण भी माना जा रहा है कि कांतिलाल भूरिया को उसने कमजोर उम्मीदवार मानते हुए, सहानुभूति की खातिर निर्मला भूरिया पर दांव लगाया! लेकिन, सहानुभूति का समीकरण फेल हो गया। क्योंकि, आदिवासी इलाके की राजनीति में सहानुभूति के लिए कोई जगह नहीं होती! फिर यहाँ की कहानी भी अलग है! यहाँ की राजनीतिक जागरूकता को चुनावी प्रपंचों से भरमाया नहीं जा सकता! कांग्रेस ने दशकों तक इस क्षेत्र में अपनी पकड़ कायम रखी है! खुद कांतिलाल भूरिया करीब दो दशक से आदिवासी राजनीति कर रहे हैं! इस चुनाव के नतीजों से साबित भी हो गया कि स्थानीय राजनीति में उनकी धाक अभी कम नहीं हुई! कांग्रेस की जीत का आंकड़ा भले ही 88 हज़ार हो, पर इस जीत कांग्रेस ने एक लाख से ज्यादा वोटों का गड्ढा भी भरा है! ये सिर्फ एक सीट की हार नहीं, भाजपा के लिए खतरे की घंटी है! यदि किसी मुगालते में न रहते हुए, उसे सुन लिया जाए तो ये पार्टी के लिए अच्छा है!
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