Saturday, November 28, 2015

भाजपा को कई सबक दे गई उपचुनाव की ये हार!


- हेमंत पाल 

   

   राजनीति में अतिआत्मविश्वास हमेशा धोखा देता है। प्रतिद्वंदी को कमजोर समझने की जो गलती भाजपा ने बिहार में की, वही रतलाम-झाबुआ लोकसभा सीट के उपचुनाव में भी दोहराई गई! इस चुनाव में भाजपा ने कई ऐसी गलतियां की, जो वक़्त रहते सुधारी जा सकती थी! चुनावी जंग जीत लेने का अतिआत्मविश्वास और स्थानीय नेताओं, कार्यकर्ताओं को जिस तरह हाशिये पर रखकर ये चुनाव लड़ा गया, वो आगे के लिए भी सबक है। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल है कि इस चुनाव के नतीजों का सत्ता और संगठन पर क्या असर होगा? क्या सरकार उन गलतियों को सुधारेगी, जो पार्टी की हार का कारण बने? क्या संगठन आने वाले चुनावों में यही चुनावी प्रयोग करेगा, जो रतलाम-झाबुआ और आलीराजपुर में किए गए? दरअसल, ये नतीजे सिर्फ एक लोकसभा उपचुनाव तक सीमित नहीं हैं! ये एक चिंगारी है, जो सुलग गई! यदि वक़्त रहते इसे बुझाया नहीं गया तो इसके दावानल बनते देर नहीं लगेगी!
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  रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव में सत्ता और संगठन की सारी ताकत झोंकने के बाद भी भाजपा वो नहीं पा सकी, जो उसकी मंशा थी! जबकि, कांग्रेस ने पुरानी लीड के एक लाख से ज्यादा वोट कवर करते हुए 88 हज़ार से जीत दर्ज की! इससे साबित हो गया कि भाजपा के खिलाफ बिहार जैसा अंडर करंट पूरे देश में फ़ैल रहा है! ये सिर्फ झाबुआ, रतलाम या आलीराजपुर तक की कहानी नहीं है! नरेंद्र मोदी की जिस मौसमी आँधी ने भाजपा को शिखर पर पहुंचा दिया था, वो शायद ढलान पर है! दिल्ली के बाद बिहार और अब रतलाम-झाबुआ में हुई हार इसी का संकेत है। इस हार को कुतर्कों के साथ स्वीकारते हुए भाजपा नेता कई नए तर्क दे सकते हैं! पर वे ये नहीं मानेंगे कि हमने गलत उम्मीदवार का चयन किया, इलेक्शन मैनेजमेंट में खामी थी, पेटलावद हादसे का आरोपी अब तक पकड़ा नहीं गया, स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की गई और बाहरी नेताओं के हाथ में चुनाव का संचालन सौंपा गया! ये वो तात्कालिक फैक्टर हैं, जो पार्टी की हार का कारण बने! इसके अलावा सरकारी फैसलों से ग्रामीणों को जो परेशानी हो रही है, वो भी इस चुनाव के नतीजे से जाहिर होता है। 
   भाजपा का निर्मला भूरिया को उम्मीदवार बनाना गलत फैसला ही था! पार्टी को लगा था कि दिलीप सिंह भूरिया के निधन की वजह से मतदाताओं में उनके परिवार के प्रति सहानुभूति रहेगी! लेकिन, पार्टी के लिए यही दांव उल्टा पड़ गया! पार्टी को शायद किसी ने ये सलाह नहीं दी कि आदिवासियों में इस तरह के मामलों में 'सहानुभूति' का कोई ख़ास महत्व नहीं होता! फिर निर्मला भूरिया की छवि भी नकारात्मक है। पेटलावद से चार बार चुनाव जीतने के बाद भी जनता से उनका संपर्क नहीं जैसा है। कार्यकर्ता और उनके क्षेत्र के लोगों को हमेशा शिकायत रहती है कि विधायक उनका फोन तक नहीं उठाती! आदिवासी अंचल में तो ये बात चर्चित है कि निर्मला की गाड़ी का कांच अब अगले चुनाव में ही उतरेगा! बाद में निर्मला भूरिया की कमजोर स्थित भांपकर शिवराज सिंह चौहान ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। यहाँ तक कि उन्होंने इस लड़ाई को शिवराज बनाम कांतिलाल भूरिया बना दिया! लेकिन, मुख्यमंत्री का यह फैसला भी गलत साबित हुआ।कांग्रेस ने भाजपा की इसी कमजोरी को मुद्दा बनाया। 
  ये बात भी सच है कि झाबुआ के आदिवासी किसी अनजान के सामने अपने दिल की बात नहीं कहते! वे किसी भी मामले में जल्दी प्रतिक्रिया भी नहीं देते कि कोई कयास लगाया जा सके! वे काम की तलाश में गुजरात, महाराष्ट्र दिल्ली तक जाते हैं! उन्हें देश की नब्ज का भी पता होता है! वे जानते है कि देश का राजनीतिक माहौल कैसा है! ये पूरा इलाका गुजरात की सीमा से लगा है, और वहाँ की हवा से कुछ ज्यादा ही प्रभावित भी है! इसलिए माना जा कि गुजरात में भी माहौल बदल रहा है! जिसका संकेत उन्होंने झाबुआ-आलीराजपुर की सभी पाँचों विधानसभा सीटों के फैसलों से दे दिया! गुजरात में इन दिनों नगरीय निकाय के चुनाव के लिए वोटिंग चल रही है! झाबुआ के नतीजे को यदि इशारा समझा जाए, तो गुजरात में भी बड़े फेरबदल से इंकार नहीं किया जा सकता! झाबुआ के आदिवासी की एक तासीर है कि उन्हें आसानी से बरगलाया नहीं जा सकता! उन्हें प्रलोभित करके अपने पक्ष में वोटिंग के लिए राजी भी नहीं किया जा सकता! जबकि, झाबुआ में डेरा डाले भाजपा के नेता आदिवासी मतदाताओं की नब्ज नहीं समझ सके, जिसका कांग्रेस को अंदाजा लग गया था! 
  भाजपा को दिवाली से पहले अंदेशा हो गया था कि झाबुआ की तीन और आलीराजपुर-रतलाम की एक-एक सीट से वो पिछड़ सकती है। लेकिन, भाजपा नेताओं को ये भी उम्मीद थी कि आदिवासी वोटों का जो घाटा होगा, उसकी पूर्ति रतलाम (शहर) क्षेत्र से मिली बढ़त से पाटा जा सकता है। लेकिन, शहरी मतदाताओं ने भी भाजपा का साथ नहीं दिया! सिवाय रतलाम (शहर) के भाजपा को सैलाना और रतलाम (ग्रामीण) से भी बढ़त नहीं मिली! लोकसभा चुनाव में रतलाम से भाजपा को मिली 55 हज़ार की लीड कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी! लेकिन, हिम्मत कोठारी की निष्क्रियता, कांग्रेस को मिले पारस सकलेचा साथ और चेतन काश्यप के प्रति लोगों की नाराजी ने कांग्रेस की राह आसान कर दी! इसके अलावा कांग्रेस ने महेश जोशी को चुनाव संचालन के मोर्चे पर लगाकर जीतने की कोई कसर नहीं छोड़ी! इन सारे प्रयासों से ही भाजपा की 55 हज़ार की लीड करीब 30 हज़ार घट गई! किसानों की मदद के लिए खजाना खोलने का दावा करने वाली सरकार से किसान कितने खुश हैं, ये रतलाम (ग्रामीण) के नतीजों ने बता दिया! डेढ़ साल पहले जिस सीट से भाजपा 30 हज़ार से जीती थी, वहाँ से उसे 5 हज़ार से हार का मुँह देखना पड़ा! भाजपा की सबसे बुरी गत सैलाना में हुई, जहाँ वो करीब 35 हज़ार से पिछड़ गई! भाजपा के मजबूत गढ़ों में कम मतदान होना भी, भाजपा के खिलाफ गया। आलीराजपुर के कम मतदान से ये साबित भी हो गया!  
   ये एक तरह से भाजपा के 'इलेक्शन मैनेजमेंट' की भी हार है! किसी एक सीट को जीतने के लिए जिस तरह से 'संसाधन' झोंके गए थे, आदिवासी मतदाता उसे पचा नहीं सका! ये भी कहा जा सकता है कि ये चुनाव जीतने के तात्कालिक उपायों की हार नहीं, बल्कि भाजपा की उस विचारधारा की हार है, जिसके झाँसे में पिछली बार देशभर का मतदाता आ गया था! अब वो उससे मुक्त होने की कोशिश कर रहा है! बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली हार को यहाँ आदिवासी मतदाताओं ने भी गंभीरता से लिया! इसी आशंका को भांपते हुए भाजपा ने दिवाली के पहले ही चुनाव प्रचार में तेजी लाने की कोशिशें शुरू कर दी थी! मुख्यमंत्री लगातार झाबुआ, आलीराजपुर और रतलाम में चुनावी सभाएं करते रहे! पूरे संसदीय क्षेत्र में मुख्यमंत्री ने 50 से ज्यादा सभाएं की! उन्होंने दो-दो दिन के चुनावी दौरे इसलिए किए कि कहीं, कोई चूक न रह जाए! अरविंद मेनन और शैलेन्द्र बरुआ समेत संगठन के कई बड़े पदाधिकारी महीनेभर तक झाबुआ में डेरा डाले रहे! पार्टी अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने भी सारा दम लगा दिया! इसके अलावा दो दर्जन मंत्रियों और चार दर्जन विधायकों को भी लगा दिया गया! नतीजा ये हुआ कि स्थानीय कार्यकर्ता और नेता उनकी चाकरी में लग गए और सारा प्रचार सिर्फ दिखावे तक सीमित हो गया! बिहार चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें तो उभरी ही थी! जानकारी है कि सरकार को भी जो ख़ुफ़िया रिपोर्ट मिली थी, उसमें भी हार के खतरे की तरफ संकेत किया गया था! 
  इस उपचुनाव में प्रदेश सरकार की योजनाओं का जमकर प्रचार किया गया! जबकि, ग्रामीणों को हर योजना की असलियत और सरकारी अफसरों के रवैये का अहसास है। लेकिन, ये नहीं कहा गया कि केंद्र सरकार की 'मनरेगा' योजना का क्यों फ्लॉप हुई? आदिवासी इलाके में 'मनरेगा' के जरिए सही तरीके से काम नहीं हुआ! यहाँ तक कि आदिवासियों को उनके काम के पैसे हक का भुगतान तक नहीं हुआ। ये भी एक वजह थी, जिससे लोगों में प्रदेश सरकार के खिलाफ नाराजगी थी। कांग्रेस ने इसी मुद्दे को सही तरीके से अपने प्रचार में शामिल किया। ये भी सच है कि ग्रामीण इलाके के लोग सरकारी दफ्तरों में लगातार बढ़ रहे भ्रष्टाचार से बहुत ज्यादा परेशान हैं! मजबूरी में वो विरोध नहीं कर पाते, पर जब ऐसा कोई मौका मिलता है, अपनी मंशा जाहिर करना छोड़ते! पटवारियों के दबाव, बिजली के भारी भरकम बिल, राजस्व के कामकाज में अड़चन जैसे कई मामले हैं जो रोज गरीब ग्रामीणों को झेलना पड़ते हैं।   
  इसे आश्चर्य कहा जा सकता है कि पूरे चुनाव में कांग्रेस जीत के प्रति बहुत ज्यादा आश्वस्त लगी! कांग्रेस ने जिस तरह एकजुट होकर चुनाव लड़ा, ये उसकी रणनीतिक सफलता भी कही जाएगी! कांग्रेस के सभी बिखरे गुट झाबुआ-रतलाम में एकसाथ दिखाई दिए! बिहार चुनाव के नतीजों के बाद तो कांग्रेस का आत्मविश्वास भी बल्लियों उछलने लगा था! चुनाव के इस नतीजे से कांग्रेस ने भी सबक सीख लिया होगा, कि ऐसे मौकों पर आपसी मतभेद भुलाकर एक जाजम पर आना फायदेमंद होता है!     
  पेटलावद हादसे ने भी भाजपा की जीत का रास्ता रोक है। मुख्यमंत्री ने हालात संभालने कोशिश तो की, पर वे भी लोगों के दिल के घाव नहीं भर सके! जिस गांव में करीब डेढ़ सौ लोग बारूद के साथ धमाके में उड़ गए हों, वहाँ के लोगों के दिलों में धधकते बारूद को समझ नहीं सके कि वो कहाँ फटेगा! तात्कालिक सहानुभूति और मुआवजे को भाजपा ने ये समझ लिया था कि लोग सब भूल जाएंगे! पर, ना ऐसा हुआ और न होता है! कांग्रेस ने भी इस घाव को आखिरी तक कुरेद कुरेदकर हरा रहने दिया!
   उपचुनाव के नतीजे से ये भी साबित कि आदिवासी मतदाता भंडारे, क्रिकेट-किट, कम्बल और साड़ी से झांसे में नही आते! उनका विश्वास जीतना सबसे ज्यादा जरुरी है और विश्वास की पूंजी एक दिन में जमा नहीं होती! झाबुआ-रतलाम की ये हार भाजपा के अतिआत्मविश्वास के अलावा जनता और कार्यकर्ता की उपेक्षा का भी नतीजा है। जहाँ तक इस हार से सबक लेकर संगठन में बदलाव का सवाल है तो पार्टी अध्यक्ष नंदकुमार चौहान कमजोर पकड़ सामने आ गई! यदि उनकी 'यस मेन' वाली छवि नहीं बदली तो पार्टी शायद उन्हें ही बदल दे! इस नतीजे से ये भी लगा रहा है कि भाजपा की पूंजी घट रही है! कांग्रेस अब इसे अपनी ताकत में बदल सकती है। अब भाजपा के मठाधीश बने लोगो को फिर कार्यकर्ता बनना पड़ेगा, तभी कुछ बदलेगा! क्योंकि, सत्ता के अहंकार से कभी चुनाव  जाते!
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