Sunday, June 26, 2016

अमिताभ और ऋषि, कोई है इनके जैसा?

हेमंत पाल
  हर सफल फिल्म कलाकारों का एक दौर होता है! इस दौर के बाद उन्हें याद करने वाले प्रशंसक कम होते जाते हैं। लेकिन, कुछ परदे की दुनिया के सितारे ऐसे होते हैं जिनकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ती! जिन्हें परिवार की तीन-तीन पीढ़ियां पसंद करती है! 100 साल के हिंदी फिल्मों के इतिहास में ऐसे कम ही एक्टर्स हुए हैं जो बरसों तक अपना जलवा बिखेरते रहे! ऐसे दो एक्टर्स में अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर भी हैं! परिवार के दादा और पिता के दिनों में जो एक्टर्स परदे की पहली पसंद थे, आज उनके पोते भी उनकी फिल्मों के दीवाने हैं। क्योंकि, उनके अभिनय जादू ही कुछ ऐसा रहा! कई बरस पहले एक फिल्म आई थी 'अमर, अकबर, एंथोनी' जिसमें तीन नायक थे! अमिताभ बच्चन के साथ ऋषि कपूर और विनोद खन्ना! 80 के दशक की इस फिल्म के दो कलाकार अमिताभ और ऋषि आज भी बड़े परदे पर ख़म ठोंककर बैठे हैं! वो भी नई भूमिका, नई पहचान और नए तेवरों के साथ! जबकि, उनके समकालीन कलाकार न जाने कहाँ खो गए! 
   इस फिल्म में अमिताभ एक्शन हीरो के किरदार में थे और ऋषि रोमांटिक हीरो बने थे! आज दोनों नायक किरदार बदलकर सामने हैं! अमिताभ ने एक्शन करना छोड़ दिया और गंभीर रोल अपना लिए! उधर, ऋषि कपूर ने परदे  रोमांस छोड़कर निगेटिव और अन्य भूमिकाओं में अपने आपको ढाल लिया! किसी भी एक्टर के लिए पहचान के विपरीत भूमिकाएं निभाकर दर्शकों के दिल में जगह बना लेना आसान नहीं होता! पर, ये दोनों एक्टर ऐसा कर सके, ये बड़ी बात है!      
   ऋषि कपूर ने जो किया वो मुश्किल चुनौती थी! बॉबी, खेल खेल में, दूसरा आदमी और कभी-कभी में दिलफेंक युवा के किरदार में दर्शकों के दिलों पर छा जाने वाला ये एक्टर एक लम्बा ब्रेक लेने के बाद अपने आपको बदलकर सामने आया! 'अग्निपथ' में रउफ लाला, 'डी डे' में दाऊद, 'सनम रे' में खिसका हुए दादाजी', 'कपूर एंड संस' में भी दादा, 'हॉउसफुल-2' में कॉमेडी रोल और 'बेशरम' में एक खाऊ पुलिसवाला! इसके अलावा ऑल इस वेल, स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर और औरंगजेब में भी ऋषि नई तरह के किरदार में दिखाई दिए! याद भी किया जाए तो ऐसे एक्टर कम ही याद आएंगे, जिन्होंने अभिनय की दूसरी पारी में दर्शकों के सामने अपने अभिनय का लोहा मनवाया हो!   
 अमिताभ बच्चन की तो बात अलग है! इस अभिनेता को तो फ़िल्मी दुनिया में अपने जीवंत अभिनय के लिए याद किया जाता है! ये वो व्यक्ति है, जो सिर्फ एक्टर नहीं, अपनी जीवटता के लिए पूरी पीढ़ी के लिए प्रेरणा है! 70 दशक में जब 'जंजीर' आई, गुस्सैल पुलिसवाले के रोल में अमिताभ ने दर्शकों के दिल में जगह बना ली! उसके बाद तो इस अभिनेता ने अपने समकालीनों को मीलों पीछे छोड़ दिया! दीवार, जमीर, कुली, डॉन, कालिया, लावारिस और शोले जैसी फिल्मों ने पूरी पीढ़ी को विद्रोह का पाठ पढ़ाया! जबकि, आज वे तीन, वजीर, पीकू, पा में अपने अभिनय से घर के हर सदस्य की पसंद बन गए! भूतनाथ सीरीज बच्चों के दिलों को जीता, पा और पीकू से नई पीढ़ी के दिलों में जगह बनाई और 'वजीर' के बाद 'तीन' में गंभीर अभिनय से बुजुर्गों को अपना लिया! आशय यह कि अमिताभ सिर्फ एक्टर नहीं हैं, वे तो जैसे दर्शकों की जिंदगी में शुमार हो गए! याद कीजिए वो वक़्त जब 'कुली' की शूटिंग में अमिताभ घायल हुए थे और पूरा देश उनके स्वस्थ्य होने की प्रार्थना कर रहा था! क्या ऐसा प्यार फिर कभी दिखाई दिया?
  मुद्दे की बात ये है कि अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर दो ही आज ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने तीन पीढ़ियों का मनोरंजन ही नहीं किया, उनके दिलों पर भी राज किया! ये दोनों मेरे पहले वाली पीढ़ी की भी पसंद बने, मेरे भी रहे और मेरे बाद वाली पीढ़ी के भी हैं! अभिनय में इतनी वैरायटी कितने कलाकारों में देखने को मिलती है? ज्यादातर एक्टर दर्शकों की पसंद की वजह से टाइप्ड से हो जाते हैं! राजकुमार, शम्मी कपूर और नाना पाटेकर को ही याद कीजिए! इनकी हर फिल्म में इनका अंदाज एक जैसा ही दिखेगा! पर, अमिताभ और ऋषि ने इस मिथक को तोड़ डाला! नीतू सिंह के साथ दर्जनों फिल्मों में रोमांटिक रोल करने वाला चॉकलेटी हीरो ऋषि कपूर आज 'अग्निपथ' में रऊफ लाला और 'डी डे' में दाऊद बन गया! कुछ ऐसे ही किरदार अमिताभ के भी नाम हैं! 'पा' का प्रोजेरिया पेशेंट और 'पीकू' में कब्जियत से परेशान पिता का किरदार अमिताभ के अलावा कौन कर सकता है? याद करके देखिए, ऐसे किरदार निभाने वाला कोई और कलाकार याद आए तो?
------------------------------------------------------

Friday, June 24, 2016

असली सरकारी शादियों में फेरे लेते नकली जोड़े



इस फोटो को जरा ध्यान से देखिए, धार जिले के उमरबन में आयोजित 'मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना' कार्यक्रम में दुल्हन बनकर बैठी ये कन्या (?) गले में मंगलसूत्र पहने है! सीधा से मतलब है कि ये कुँवारी नहीं है, शादीशुदा महिला है जो सरकारी सुविधाओं के लालच में अपने ही पति से फिर शादी करने आ गई! ये इस तरह का पहला मामला नहीं है! गरीब कुँवारी लड़कियों की शादी करवाने की सरकार की योजना में मिलने वाले 25 हज़ार के दहेज़ के लालच में कई बार ऐसी शिकायतें सामने आई, पर इनका कोई स्थाई निराकरण नहीं हो सका! क्योंकि, इस धांधली में सरकारी कर्मचारी भी शामिल होकर अपना हिस्सा लेने से बाज नहीं आते! 
0000000       
हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश सरकार की एक योजना है जिसके तहत गरीब परिवारों की कुँवारी कन्याओं की सरकारी खर्च पर शादी करवाई जाती है! 'मुख्यमंत्री कन्यादान योजना' के नाम से शुरू हुई इस योजना को 11 साल हो गए! अब इसका नाम बदलकर 'मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना' कर दिया गया, क्योंकि सरकार में बैठे कुछ लोगों को 'कन्यादान' शब्द पर आपत्ति थी! योजना का नाम बदल गया है, पर ढर्रा नहीं बदला! कुँवारी लड़कियों के नाम पर शादी शुदा और यहाँ तक कि बच्चे वाली महिलाओं की उनके ही पति से फिर शादी करवा दी गई! ये धोखा कुँवारी कन्या बनकर शादी करने वाली महिला ही नहीं देती! सरकार में बैठे नुमाइंदे भी सरकार की तरफ से दिए जाने वाले 'दहेज़' में बंदरबांट करने के लिए ये हथकंडे अपनाते हैं! क्योंकि, जितने ज्यादा जोड़े, उतना बड़ा आयोजन, उतना ही ज्यादा खर्चा और उतनी ही ज्यादा कमाई भी! 
 2006 में शुरू हुई इस योजना का नाम 'मुख्यमंत्री कन्यादान योजना' था! लेकिन, अगस्त 2015 को इसे बदल दिया गया! इसे नया नाम दिया गया 'मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना!' क्योंकि, सरकार में सवाल उठा कि कन्या कब तक दान की जाती रहेगी? क्या सरकार की नजर में भी कन्या कोई दान की वस्तु है? यही कारण था कि जो योजना दस साल तक 'मुख्यमंत्री कन्यादान योजना' के नाम से संचालित थी, उसे बदल दिया गया! मध्यप्रदेश सरकार की इस योजना को देश के अन्य राज्यों ने भी अपनाया है। निर्धन, जरूरतमंद, निराश्रित परिवारों की विवाह योग्य कन्या, विधवा, परित्यक्ता के लिए होने वाले सामूहिक विवाहों के लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने की योजना है। लेकिन, फायदे की दुकान चलाने वालों ने इस योजना में भी सेंध लगा ली! कुँवारी लड़कियों की जगह कई आयोजनों में शादीशुदा महिलाएं बैठा जाती है। ये घटनाएं एक-दो जगह नहीं दर्जनों विवाह आयोजनों हुई!   
 ग्यारह सालों में अब तक प्रदेश सरकार साढ़े तीन लाख से ज्यादा लड़कियों की शादी करा चुकी है। सरकार के खज़ाने से 450 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च भी हुए! पहले साल सरकार हर शादी पर पांच हज़ार रुपए खर्च करती थी! लेकिन, 2009 में सरकार ने इस राशि को बढ़ाकर साढ़े 7 हज़ार रुपए कर दिया! अब इस मद में सरकार ने 25 हज़ार रुपए का प्रावधान रखा है। तीन हज़ार रुपए प्रति जोड़ा आयोजक को दिए जाते हैं! बाक़ी 22 हजार रुपए कन्या के होते हैं! इसमें उसके नाम पर 10 हज़ार रुपये की फिक्स डिपॉज़िट! पांच हज़ार का सामान जैसे पायल, बिछुआ वगैरह और सात हज़ार रुपए उसके खाते में जमा कर दिए जाते हैं, ताकि वह अपनी मर्ज़ी से चाहे जहां, यह राशि खर्च कर सके और उसे पैसे के लिए किसी का मुंह न ताकना पड़े! 
  अभी जून महीने के तीसरे सप्ताह में ही धार जिले के उमरबन में 'मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना' में एक दुल्हन मंगलसूत्र पहनकर बैठी थी! मतलब ये कि वो शादीशुदा थी और सिर्फ इस योजना से मिलने वाले लाभों के लिए दुल्हन बनी थी! लेकिन, क्या ये सच अफसरों ने शादी से पहले नहीं जांचा? वास्तव में तो इस योजना के तहत आर्थिक रूप से कमजोर लड़कियों की ही शादी करवाई जाती है। एक निश्चित रकम और तोहफों के रूप में काफी सामान दिया जाता है। यही कारण है कि पैसे और तोहफों के लालच में इस तरह के मामले सामने आते रहते हैं, जहां शादीशुदा जोड़े योजना मिलने वाले फायदों के लिए दुबारा शादी करने की कोशिश करते हैं! उनकी इस कोशिश में सरकारी नुमाइंदे  शामिल जाते हैं! क्योंकि, जितने ज्यादा जोड़ों की शादी का आयोजन होगा, उतना ही फ़ायदा भी होगा!   
  ऐसे ही मामले में बैतूल जिले के चिचोली ब्लॉक के हरदू गांव में आयोजित सामूहिक विवाह समारोह में 350 युवतियों के कौमार्य परीक्षण के मामले ने देशभर में तूल पकड़ लिया था! इस सामूहिक विवाह समारोह में करीब 90 आदिवासी युवतियां शामिल थीं। दुल्हनों के अचानक हुए गर्भ परीक्षण पर विवाद खड़ा हो गया! बैतूल के तत्कालीन कलेक्टर राजेश प्रसाद मिश्रा ने ही शादी के पूर्व युवतियों के कौमार्य एवं गर्भ-परीक्षण की घटना की जांच के आदेश दिए थे। क्योंकि, उन्हें शिकायत मिली थी कि इस समारोह में शादीशुदा और गर्भवती महिलाओं को दुल्हन बनाकर बैठाया गया है। लेकिन, जब 9 दुल्हनों के गर्भवती होने की बात सामने आई तो सब खामोश हो गए! मामले की सूचना मिलते ही प्रशासन ने वह सारा सामान वापस ले लिया, जो शादी के बाद दिया जाना था। ऐसा ही शहडोल में भी हुआ था! 152 परीक्षणों में से 18 युवतियों के परीक्षण में या तो वे गर्भवती पाईं गईं या वे पहले से ही विवाहित थीं! 
  इस तरह की घटनाओं के बाद कई आयोग, मीडिया और राजनीतिक दलों ने सरकार पर चढ़ाई कर दी कि युवतियों का कौमार्य परीक्षण नहीं होना चाहिए! लेकिन, किसी ने भी यह सवाल करने की कोशिश नहीं की, कि इस तरह की शादियाँ होनी चाहिए या नहीं? इन पर सरकारी खर्च किया जाना चाहिए या नहीं? क्योंकि, तरह के आयोजन करवाने की न तो सरकार की जिम्मेदारी है और न उसकी कोई भूमिका ही होना चाहिए! संसद से लगाकर प्रदेश की विधानसभा  में भी इस मुद्दे पर भारी हंगामा मचा! अफ़सोस इस बात का कि पूरी बहस कौमार्य परीक्षण पर टिकी रही, उससे आगे के सवालों को किसी ने न तो देखा और न टटोलने की कोशिश तक नहीं की! 
  मंडला जिले के रामनगर में इसी योजना के तहत आयोजित वैवाहिक समारोह में दुल्हनों को नकली मंगलसूत्र दिए जाने का मामला सामने आया था। परिजनों की मानें तो जिला प्रशासन द्वारा उन्हें मंगलसूत्र सोने का बताकर दिया गया था! लेकिन, मंगलसूत्र नकली निकला! इस मामले में कोई भी अधिकारी कुछ भी कहने से बचते नजर आए! एक अधिकारी ने जरूर सफाई देते हुए बताया था कि सराफा व्यवसाइयों के हड़ताल के चलते आभूषणों खरीदी नही हो सकी! विवाह की औपचारिकता पूरी करने बाजार के मंगलसूत्र वितरित कर दिए गए! अब दुल्हनों के बैंक खाते में मंगलसूत्र के पैसे डाल दिए जाएंगे! इस तरह की घटनाएं पिछले 11 सालों में सैकड़ों बार हुई, पर कभी किसी को कटघरे में खड़ा नहीं किया गया! दरअसल, ये सीधे-सीधे धोखाधड़ी है! लेकिन, सरकारी पैसों की चिंता किसे है? 
  सरकार की इस योजना का सबसे ज्यादा मखौल आदिवासी जिलों में उड़ाया जा रहा है। झाबुआ और धार जिले भी इससे अछूते नहीं हैं। यहाँ इस योजना की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई जा रही है, जिसमे यहाँ पर ऐसे कई दम्पति इस विवाह योजना में शामिल होकर दोबारा विवाह कर रहे हैं, जिनका विवाह पहले ही हो चुका होता है! उनका मानना है कि सरकारी योजना का लाभ लेने के लिए दोबारा शादी करने में क्या एतराज? जबकि, इस विवाह योजना का मकसद गरीब तबके के उन लोगों को लाभ देना है, मगर संबंधित विभाग इस योजना को मात्र किर्यान्वित कर अपना कार्य सफल करने की बात कर रहे हैं। 
 इस योजना को प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग के सफल प्रयोग तरह देखा गया! गरीब परिवार की कन्या की शादी करवाकर सरकार ने राजनीतिक पुण्य भी कमाया! लेकिन, इस बात ध्यान नहीं रखा गया कि इस योजना से नुकसान और इसका दुरूपयोग किस तरह हो सकता है! पिछले साल मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने ये भी एलान किया था कि सरकार बेटियों की शादी के बाद उन्हें अकेला नहीं छोड़ेगी! पिता की तरह सरकार उन बेटियों की सुध लेगी जिनकी इस योजना में शादी हुई है। सरकार 'कुशलक्षेम सम्मेलन' आयोजित कर ब्याहता बेटियों से सरकार यह जानेगी कि ससुराल में उन्हें कोई तकलीफ़ तो नहीं है? ये सही कदम है, पर क्या सरकार लिए ये सब कर पाना संभव है?  
  सीधी जिले में मुख्यमंत्री की इस योजना के तहत ब्याही गई एक लड़की को उसके ससुराल वालों द्वारा दहेज के लिए प्रताड़ित किए जाने की भी बात सामने आई! अमिलिया थाने के चमरौहा गांव में ब्याही संगीता बंसल ने थाने में शिकायत की थी, कि उसे ससुराल में दहेज की मांग को लेकर प्रताड़ित किया जाता है। उसके 10 दिन के नवजात बच्चे को भी पति रमेश बंसल और ससुर रामस्वरूप बंसल ने छीनकर अपने पास रख लिया! इस पीड़िता के माता-पिता का हो देहांत हो चुका है और छोटे भाई ने मुख्यमंत्री कन्यादान योजना के सम्मलेन में पिछले उसकी शादी रामस्वरूप से कराई थी। एक साल तक तो सब ठीक रहा, लेकिन पिछले कुछ दिनों से उसका पति उसे दहेज को लेकर प्रताड़ित कर रहा है और उसके दुधमुंहे बच्चे को भी उससे छीन लिया है। ये तो महज एक घटना थी! पर, क्या सरकार एक-एक विवाहित लड़की की परेशानियों का निराकरण कर सकेगी? क्या शादीशुदा जोड़ों तरह के सरकारी विवाह समारोहों से अलग किया जा सकेगा? क्या इन आयोजन होने वाले खर्च में बंदरबांट को रोका जा सकेगा? सवाल बहुत छोटे हैं, पर जवाब उतना आसान नहीं जितना लगता है?  
-----------------------------------------------------------------------------

Sunday, June 19, 2016

सीरियलों जैसी नहीं है समाज में महिलाएं


 
हेमंत पाल 
   टीवी सीरियलों से समाज बदलता है या ये सीरियल समाज का प्रतिरूप है? ये एक यक्ष प्रश्न है! आज सीरियलों में समाज की असंतुलित तस्वीर ही दिखाई देती है। दर्शकों को छोटे परदे की महिलाएं या तो निरीह नजर आती हैं या इतनी आधुनिक कि ऐसे समाज की कल्पना भी मुश्किल हो जाती है! ज्यादातर सीरियलों में महिलाओं की छवि को मनमाने ढंग से पेश किया जा रहा है। वास्तव में ये समाज को आगे ले जाने के बजाए पीछे ढकेलने की ही कोशिश है। यह महिलाओं को लेकर सदियों से चली आ रही पुरुष प्रधान सोच का महिमामंडन भी है! सीरियलों में तीन तरह के महिला चरित्र दिखाई देते हैं! एक है सास का जो या तो बेहद क्रूर है या बहुत ज्यादा सीधी! दूसरा चरित्र है बहू का जो या तो मर्यादा में रहती है या सारी सीमाएं तोड़ देती है! तीसरा चरित्र सपोर्टिंग किरदारों का है, जो ननंद या जेठानी  है, जो जुल्म करने वाले के साथ होती हैं! बाकी के सारे किरदार इसके आसपास ही घूमते रहते हैं!
  अधिकांश सीरियलों में महिलाओं की सहनशीलता की कहानी दोहराई जाती है। सारे जुल्म सहकर भी वो परिवार की इज्जत के लिए सब कुछ करती रहती है! ऐसे सीरियलों की टीआरपी भी अच्छी होती है। तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि दर्शक महिलाओं का यही रूप पसंद करते हैं? जबकि, इन सीरियलों के दर्शकों में ज्यादातर घरेलू महिलाएं ही होती हैं! इन महिलाओं के भीतर सास-बहू के रिश्तों को लेकर एक नॉस्टेल्जिया रहता है! वे इससे अलग नहीं हो पाती! यह काम ये सीरियल ही करते। यदि सरकार अश्लील चैनलों के कार्यक्रमों को रोक सकती है, तो क्या महिलाओं प्रति ऐसे सोच वाले सीरियलों को रोकने पर विचार नहीं किया जाना चाहिए, जो महिलाओं की गलत छवि पेश करते हैं?
  टीवी सीरियलों में धोखेबाज, क्रूर, अय्याश या विवाहेत्तर संबंधों में यकीन करने वाली नारी की छवि को ही बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा है। इससे समाज में महिलाओं की एक अलग छवि बन रही है जबकि हकीकत में वे वैसी नहीं है। हमेशा से त्याग, प्यार व समर्पण की प्रतीक महिलाओं को इन सीरियलों द्वारा विरोधाभासी बनाया जा रहा है। किसी भी चैनल पर किसी न किसी सीरियल में अपनी बहू पर जुल्म ढाती या अपने लड़की होने पर आँसू बहाती महिला मिल ही जाएगी। खुशमिजाज, स्वाभिमानी व आत्मविश्वासी महिला सीरियल बनाने वालों की पसंद नहीं है। अब वक्त आ गया है, जब दर्शकों को ही फैसला करना है, कि हमें टीवी पर क्या देखना है? यदि हम सब कुछ निर्माताओं पर ही छोड़ देंगे, तो शायद कल हमारे परिवार में भी तनाव का कारण ये सीरियल ही बनेंगे!
    अकसर आरोप लगता है कि युवा पीढ़ी को गुमराह करने, संबंधों में बिखराव और अपराधों को बढ़ावा देने में टीवी की भूमिका महत्वपूर्ण है। एक वो वक्त भी था, जब टीवी ने दर्शकों को मनोरंजन के साथ शिक्षा देने का बीड़ा उठाया था! उस दौर में भी सीरियल होते थे, जो लोग परिवार साथ बैठकर देखते थे! इसलिए कि वो समाज और परिवार को अच्छी शिक्षा देते थे! माना जाता है कि आज अधिकांश परिवारों में तनाव, विवाद और कभी-कभी तलाक का कारण ये सीरियल होते हैं! सीरियलों के किरदार परदे पर अपना अभिनय इतना बखूबी कर जाते हैं कि परिवारों में हमेशा उनकी छवि बन जाती हैं। समाज की बुराइयों को बढ़ाकर दिखाना, दर्शकों को वैसा करने के लिए उकसाता है। यही कारण है कि समाज में अपराध बढ़ रहे हैं। फैसला दर्शकों को करना है कि वे टीवी पर क्या देखें और क्या नहीं! क्योंकि, जो कुछ तय होगा वो टीआरपी की कोख से ही तो निकलेगा!
-------------------------------------------------------------------

Friday, June 17, 2016

अपराधों की बाढ़ से घिरा 'शांति का टापू'


- हेमंत पाल    

   इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते जब दिल्ली में निवेश की संभावनाओं पर एक सेमिनार में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने कहा था कि 'मध्यप्रदेश शांति का टापू' है। यहाँ उद्योग लगाने की अपार संभावनाएँ हैं। मुख्यमंत्री ने उद्योगपतियों से मध्यप्रदेश में निवेश के लिए उन्हें आमंत्रित किया और कहा था कि निवेशकों को यहाँ 'शांति का माहौल मिलेगा! लेकिन, नेशनल क्राइम ब्यूरो रिकार्ड्स (एनसीआरबी) के आंकड़े इस 'शांति के टापू' की कलई खोलते हैं! मध्यप्रदेश में हर तरह के अपराध बढ़ रहे हैं! महिला सुरक्षा का दावा करने के बावजूद सबसे ज्यादा बढ़ोतरी महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की ही है! इस मामले में प्रदेश ने देशभर में बाजी मार ली! लूटपाट की घटनाओं से लोग त्रस्त हैं! बाल अपराधियों के नए आंकड़ों ने चौंका दिया! प्रदेश में 'रेत माफिया' के रूप में एक नया अपराधिक गिरोह पनप रहा है! अधिकारियों पर हमले हो रहे हैं। जिस पर प्रदेश की कानून व्यवस्था का कोई अंकुश नहीं लग पा रहा है! क्या कानून-व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति सरकार की चिंता का कारण नहीं है?
000
   देशभर में बढ़ती अपराधिक घटनाओं को लेकर हंगामा मचा है! अपराधों के लिए कुख्यात बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आरोप लगाया है कि बिहार को बदनाम करने की कोशिश हो रही है, जबकि अन्य प्रदेशों में भी अपराध हो रहे हैं! अन्य प्रदेशों से उनका आशय भाजपा शासित मध्यप्रदेश और राजस्थान से था! ऐसे में नेशनल क्राइम ब्यूरो रिकार्ड्स (एनसीआरबी) देश के सभी प्रदेशों का अपराध रिकार्ड्स सामने ला रही है! 2011 की जनगणना के अनुसार, बिहार की जनसंख्या 10.4 करोड़ है एवं मध्यप्रदेश की 7.26 करोड़ और राजस्थान की 6.85 करोड़ है। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में 44 फीसदी आबादी अधिक होने के साथ ही मध्यप्रदेश से 35 फीसदी कम अपराध होते हैं। बिहार में प्रति एक लाख की आबादी पर 174 संज्ञेय अपराधों की रिपोर्ट दर्ज हुए, जबकि मध्यप्रदेश में 358.5 मामले दर्ज हुए हैं, करीब दोगुना। यानी अपराधों के मामले में बिहार बदनाम जरूर है, पर अपराधों की संख्या मध्यप्रदेश में कहीं ज्यादा है!
  एनसीआरबी के आंकड़ों के नजरिए से जब मध्यप्रदेश का अपराध रिकॉर्ड सामने आया तो असल सच भी सामने आया कि 'शांति का टापू' भी अशांति का जंगल बनता जा रहा है! सबसे ज्यादा ख़राब स्थिति महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की है! प्रदेश में पिछले नौ महीनों (जुलाई 2015 से मार्च 2016) में बलात्कार के करीब साढ़े 3 हज़ार के मामले दर्ज हुए! ये वे मामले हैं, जिनकी शिकायत दर्ज हुई! ऐसे भी मामले हैं जिनमें पीड़िता सामाजिक कारणों और बदनामी के भय से पुलिस के पास तक नहीं आती! ये आंकड़े बताते हैं कि मध्यप्रदेश में महिलाएं कितनी सुरक्षित और निर्भीक हैं! सरकार, प्रशासन, पुलिस और जानकारों का यह दावा है कि मध्यप्रदेश में शत-प्रतिशत अपराध थानों में पंजीबद्ध किए जाते हैं, इसलिए यह आंकड़ा ज्यादा नजर आता है। अन्य राज्यों में तो बलात्कार से लेकर अन्य गंभीर अपराध दर्ज ही नहीं किए जाते। यदि यह बात मान भी ली जाए, तो इसका मतलब यही हुआ कि अपराध तो मध्यप्रदेश में हुए ही हैं, जो बकायदा थानों पर दर्ज भी किए गए!
   वर्ष 2001 और पिछले 9 महीने की तुलना करें तो ये आंकड़े करीब दोगुने से ज्यादा हैं। 2001 में बलात्कार के 2851 मामले सामने आए थे, जबकि 2013 में 4335 मामले दर्ज किए गए। प्रदेश में औसतन लूटपाट की 6 घटनाएं होती हैं! 15 हज़ार चोरी की वारदात भी दर्ज की गई। ये वे मामले हैं, जो पुलिस के रिकॉर्ड में आए! कई बार तो लोग पुलिस कार्रवाई और कोर्ट के चक्करों से बचने के लिए शिकायत तक नहीं करते! महिलाओं के खिलाफ अपराधों को लेकर तो मध्यप्रदेश हमेशा ही सुर्ख़ियों में रहा है! लेकिन, अब प्रदेश में नाबालिग अपराधियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। ये बाल अपराधी लूट, अपहरण, छेड़छाड़ और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में भी पीछे नहीं हैं! एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक नाबालिगों के खिलाफ दर्ज अपराधों में प्रदेश 2014-15 में देश में सबसे ऊपर रहा! नाबालिगों पर दर्ज 7,802 अपराधों में सबसे ज्यादा बाल अपराधी इंदौर, ग्वालियर जैसे बड़े शहरों से हैं! प्रदेश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले इंदौर का नाम सबसे ऊपर हैं। संस्कारधानी कहे जाने वाले शहर जबलपुर के नाबालिग भी संस्कार नहीं पा सके!   
  अपराधों के मामले में प्रदेश का सबसे आधुनिक शहर इंदौर तो लगातार असुरक्षित होता जा रहा है! अमन पसंद और चैन की जिंदगी जीने वालों का ये शहर कुछ सालों से हत्या, लूटपाट,अवैध हथियारों और ड्रग्स के कारोबार, कॉन्ट्रैक्ट किलिंग और भू-माफिया के विवादों के कारण लगातार चर्चित है! जमीन की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि और रियल इस्टेट कारोबार बढ़ने के कारण अवैध वसूली करने वाले गुंडे राजनीतिक संरक्षण में पनप रहे हैं! इस सबके कारण इंदौर को अपराधों के मामले में देश के शीर्ष 10 शहरों में लाकर खड़ा कर दिया है। अकसर होने वाली लूटपाट से कारोबारियों का इंदौर पर से भरोसा उठने लगा है। अपराधों के बढ़ते आंकड़ों के कारण इंदौर एक तरह से आपराधिक राजधानी बनता जा रहा है। महिलाओं से होने वाली लूटपाट आम बात हो गई! एक काला सच ये भी है कि शरीफ लोग तो अपनी बात कहने थाने जाने से ही घबराते हैं! सरकार थानों का माहौल ऐसा नहीं बना सकी कि आम शहरी निश्चिंत होकर शिकायत लिखवाने थाने जा सके! जब तक थानों का खौफ नहीं घटेगा, अपराध कैसे कम होंगे?
  आदतन अपराधियों के आंकड़ों से अलग नजर दौड़ाएं तो मध्यप्रदेश में एक और अपराधी गिरोह पनप रहा है 'खनन माफिया' का! इनमें सबसे सक्रिय है 'रेत माफिया!' प्रतिबंध के बावजूद नदियों से रेत निकालकर बेचने वाले इस गिरोह को लगता है किसी का खौफ नहीं है! न पुलिस का, न खनिज विभाग का और न प्रशासन का! ये अवैध कारोबार करने वालों ने अपराधियों का एक गिरोह खड़ा कर लिया है, जो अफसरों और पुलिस पर भी हमले करने से बाज नहीं आता! प्रदेश में खनन माफिया का आतंक थमने का नाम नहीं ले रहा! मुद्दे बात ये कि इस तरह के अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण मिलने के आरोप भी लगते रहते हैं! 
  पिछले दिनों शाजापुर में रेत का अवैध परिवहन रोकने गई महिला खनिज अधिकारी व सुरक्षाकर्मियों पर लाठियों व पत्थरों से हमला कर दिया गया था! रेत माफियाओं के खिलाफ कार्रवाई करने पहुंचे बुरहानपुर जिले के सब डिविजनल मजिस्ट्रेट को 200 लाेगों ने घेर लिया और उन्हें नदी में डुबोकर मारने की कोशिश की गई! उज्जैन में अवैध खनन रोकने कोशिश करते तहसीलदार पर डंपर चढ़ाने की कोशिश की गई! मुख्यमंत्री के गृह जिले सीहोर में रेत माफिया के ट्रक ने दो पुलिस वालों को कुचल दिया। सब-इंस्पेक्टर सुनील वर्मा और एएसआई रामदत्त सिंह बुढ़नी से एक केस की पड़ताल करके बाइक से लौट रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें कुचल दिय गया! मुरैना के धनेला गांव में रेत माफिया ने पुलिस कांस्टेबल धर्मेंद्रसिंह चौहान की कथित हत्या करवा दी। चौहान पुलिस दल के साथ एक आरोपी को पकड़ने गए थे लेकिन रास्ते में रेत माफिया के डंपर को रोकने की कोशिश में वह शहीद हो गए। रेत माफिया के लोगों ने ही सिंगरोली जिले के वन विभाग के डिप्टी रेंजर फुलेल सिंह को जिंदा जलाने की कोशिश की। खनन माफिया के आतंक का ये प्रदेश में ये सिर्फ नजारा है। मुरैना में पदस्थ आईपीएस नरेंद्र कुमार की अवैध खनन रोकने में ही मौत हो गई थी। 
   प्रदेश में बढ़ते अपराधों का सबसे बड़ा कारण छोटे शहरों के संसाधनों पर बढ़ती जनसंख्या का दबाव है। राजनीतिक संरक्षण, पुलिसकर्मियों की अपराधियों से सांठगांठ, अपर्याप्त पुलिस बल और कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगवाने वाले पुराने कानून इस मसले को और गंभीर बना रहे हैं। इस बात से इंकार नहीं कि राजनीति संरक्षण प्रदेश में अपराधों के बढ़ने का एक बड़ा कारण है! नेताओं के आस-पास समर्पित कार्यकर्ताओं के बजाए अपराधिक गतिविधियों में संलग्न गुंडों की भीड़ बढ़ती जा रही है! राजनीति से भयभीत होकर पुलिस भी उनपर हाथ डालने से डरती है! यही कारण है कि अपराधों पर अंकुश नहीं लग पा रहा है! 
-------------------------------------------

Sunday, June 12, 2016

'आँधी' से 'उड़ता पंजाब' तक सेंसर की धार


हेमंत पाल 

    अनुराग कश्यप ने जब 'उड़ता पंजाब' बनाने की योजना बनाई होगी, तब ये नहीं सोचा होगा कि ये फिल्म रिलीज से पहले ही इतनी चर्चित हो जाएगी! इस फिल्म पर भले ही विवादों की जंग छिड़ी हो, पर इस बहाने फिल्म का प्रचार भी जमकर हो गया! पहले फिल्म में बोली गई भाषा, गानों में गंदे बोल और दृश्यों को लेकर विवाद हुआ, अब इसके नाम में शामिल 'पंजाब' को लेकर! फिल्म निर्माण से जुड़े फिल्मकारों का कहना है कि फिल्म में जो भाषा इस्तेमाल की गई है वो स्क्रिप्ट की डिमांड है! सेंसर बोर्ड के पास 89 कट के अपने तर्क हैं और अनुराग कश्यप पास बचाओ का अपना स्क्रिप्ट डिमांड का आधार! लेकिन, जो भी हो इस मसले ने फिल्म को इतना चर्चा में तो ला ही दिया कि दर्शक अब फिल्म की रिलीज का इसका इंतजार कर रहे हैं! यानी नकारात्मक ही सही, पर फिल्म को प्रचार तो मिल ही गया!     

सेंसर बोर्ड और फिल्मकारों के बीच विवाद का ये पहला मामला नहीं है! बरसों से सेंसर अपनी कैंची की धार तेज करता रहा है और फिल्मकार उसके नीचे से अपनी फिल्म को बचाकर निकाल ले जाने की जुगत भिड़ाते रहे! 1975 में आई गुलजार की फिल्म ‘आंधी’ पर आपातकाल के समय प्रतिबंध लगा दिया गया था। क्योंकि, फिल्म की नायिका सुचित्रा सेन में इंदिरा गांधी की झलक दिखाई दी थी। जबकि, फिल्म के कथानक का इंदिरा गांधी जिंदगी से कोई सरोकार नहीं था! बाद में ये फिल्म रिलीज हुई और जबरदस्त कामयाब हुई! आपातकाल के ही दौर में 1977 में आई अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ को सेंसर बोर्ड ने रिलीज नहीं करने दिया था! क्योंकि, फिल्म के बारे में कहा गया था कि इसमें आपातकाल के खिलाफ टिप्पणी की गई थी! फिल्म को लेकर इतना विवाद बढ़ा था कि संजय गांधी के समर्थकों ने फिल्म के ओरीजनल प्रिंट तक जला दिए थे। वे सेंसर बोर्ड के ऑफिस में घुसकर प्रिंट निकाल ले गए और जला डाला। यदा कदा इस तरह के विवाद होते रहते हैं, पर चर्चा तब आम होती है, जब निर्माता-निर्देशक अपनी बात पर अड़ जाते हैं! निर्देशक अनुराग कश्यप की ही फिल्म 'ब्लैक फ्राइडे' भी सेंसर में उलझ चुकी है! 1993 के दंगों पर बनी इस फिल्म के कुछ दृश्य काटे जाने के खिलाफ वे अदालत में पहुंच गए थे। करीब दो साल बाद उन्हें फिल्म रिलीज करने का मौका मिला! पाँच, उर्फ़ प्रोफ़ेसर, डेज्ड इन दून, इंशाल्लाह फुटबॉल, बेंडिट क्वीन और परजानिया जैसी फ़िल्में भी सेंसर बोर्ड के चंगुल में फँस चुकी है! 
  मुद्दे की बात ये है कि फिल्म सेंसर बोर्ड का चैयरमेन कोई गैर फ़िल्मी व्यक्ति न होकर फिल्मकारों का ही प्रतिनिधि होता है! लेकिन, जब उसके हाथ में 'कैंची' आती है, उसका अंदर वाले जिम्मेदार इंसान का जमीर जाग जाता है! उसे फिल्म की भाषा, दृश्य और स्क्रिप्ट में खामियां नजर आने लगती है! विवाद के केंद्र में बैठे सेंसर बोर्ड के चैयरमेन गोविंद निहलानी भी बड़े फिल्मकार रहे हैं! लेकिन, आज जब वे निर्णय करने की स्थिति में हैं उन्हें सही और गलत नजर आने लगा! निहलानी तो सेंसर बोर्ड में आने के साथ ही विवाद से जुड़ गए थे। उन्होंने फिल्मों के लिए 'बैड वर्ड्' की लिस्ट जारी कर दी थी, जिनके फिल्मों में इस्तेमाल पर रोक का प्रस्ताव था! उनके इस कदम का जमकर विरोध हुआ और उन्हें पीछे हटना पड़ा! 
  सेंसर बोर्ड और फिल्मकारों के बीच बढ़ते विवाद और तनाव को ख़त्म करने के लिए सरकार ने श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई है! कमेटी को सेंसर बोर्ड के कामकाज का नए ढंग से निर्धारण करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है! कमेटी ने अपनी रिपोर्ट भी सरकार को सौंप दी, पर अभी इसे लागू नहीं किया गया! बेनेगल कमेटी का मानना है कि बोर्ड का काम फिल्म को सर्टिफिकेट देने का होना चाहिए न कि कैंची चलाने का! फिल्म को कतरने से बेहतर होगा है कि उसे अलग श्रेणी का सर्टिफिकेट दिया जाए। इससे फिल्मकार की रचनात्मकता भी बरक़रार रहेगी! इसके अलावा भी और भी कई सुधारों की सिफारिशें की गई है! लेकिन, अभी सरकार कमेटी की सिफारिशों पर विचार कर ही कर रही थी, कि अनुराग कश्यप के 'उड़ता पंजाब' ने विवादों की उड़ान भर ली! सवाल उठता है कि सेंसर बोर्ड के चंद मेंबर ये फैसला कैसे ले सकते हैं कि देश की सवा सौ करोड़ से ज्यादा जनता क्या देखे और क्या नहीं! क्योंकि, देश जिस राह पर जा रहा है, उसका कारण सिर्फ फ़िल्में ही नहीं और भी बहुत कुछ है!  
------------------------------------------------------

Friday, June 10, 2016

पत्नियों की सियासी हिस्सेदारी 'पार्षद पतियों' के कब्जे में!

- हेमंत पाल 

   मध्यप्रदेश सरकार कई बार महिलाओं को राजनीति में हिस्सेदारी देने के अपने फैसले पर खुद अपनी पीठ थपथपाती नजर आई! इस बात से इंकार नहीं है कि इस मामले में सरकार के कुछ फैसले प्रशंसनीय हैं! लेकिन, इन फैसलों से क्या वाकई महिलाएं लाभान्वित हुई हैं? क्या वास्तव में महिलाओं को राजनीति में वो हिस्सेदारी मिली, जो दिखाई देती है? शायद नहीं! सबसे ख़राब स्थिति महिलाओं के लिए आरक्षित पंचायतों और महिला पार्षदों के मामले में है! दोनों स्थानों पर निर्वाचित महिलाओं के पति (या परिजन) उनके अधिकारों का उपयोग करते हैं और राजनीति करते हैं! सरकार के आदेश से त्रिस्तरीय पंचायतों में तो पतियों और परिजनों का दखल कुछ हद तक बंद सा हो गया! लेकिन, महिला पार्षदों के पतियों से अभी व्यवस्था मुक्त नहीं हुई! पत्नी को राजनीति में अक्षम दर्शाकर उनके पति पूरी तरह जनप्रतिनिधि बन बैठे हैं! ये उन मतदाताओं का भी अपमान है, जिन्होंने वोट तो किसी और को दिया, पर उनका प्रतिनिधित्व कोई और कर रहा है! आश्चर्य है कि पार्षद पतियों की ज्यादती की ढेरों ख़बरें सामने आने के बाद भी सरकारी स्तर पर इन्हें रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए!    
00000000 

 मध्यप्रदेश सरकार ने महिलाओं को उनके कई अधिकारों से नवाजा है! महिलाओं को उनकी शक्ति का अहसास करने के लिए और राजनीति में उनकी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए त्रिस्तरीय पंचायतों में 50 फीसदी आरक्षण दिया! जबकि, नगर निगमों और नगर पालिकाओं में भी 33 फीसदी सीटें आरक्षित करके सदन में उनकी मौजूदगी सुनिश्चित की! कुछ हद तक इन कोशिशों के अच्छे नतीजे भी सामने आए! महिला सरपंचों और पार्षदों की संख्या बढ़ी और पुरुष प्रधान राजनीति में महिलाओं का दखल दिखाई देने लगा! लेकिन, क्या सरकार की महिलाओं को राजनीति में अधिकार दिलाने की ये कोशिशें पूरी तरह सफल हुई? क्या वास्तव में सरपंच और पार्षद बनकर महिलाएं अपने अधिकारों का उपयोग कर पा रही हैं? और क्या वे अपने पतियों को अपने अधिकार देकर खुश हैं? यदि इन सवालों के जवाब खोजे जाएँ तो जवाब नकारात्मक होगा! 
    जब से महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण शुरू हुआ, कई पुरुषों को अपनी राजनीतिक इच्छाओं की तिलांजलि देना पड़ी! वे पार्टी के टिकट पर निर्वाचित होकर खुलकर राजनीति करना चाहते थे, पर आरक्षण के कारण उन्हें मन मसोसकर पीछे हटना पड़ा! लेकिन, इस व्यवस्था में भी उन्होंने राजनीति करने का आसान रास्ता निकाल लिया! महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर पत्नियों को चुनाव लड़वाया! जब वे जीत गईं, तो उनकी राजनीतिक अधिकारों का डंडा लेकर खुद चलाने लगे! नतीजा ये हुआ कि निर्वाचित महिलाएं फिर चूल्हे-चौके में व्यस्त हो गईं और पतियों ने उनकी सरपंची या पार्षदी संभाल ली! बात यदि सरपंच या पार्षद द्वारा जाने वाली जनसेवा तक सीमित होती, तब तो ठीक था! लेकिन, ये पार्षद पति उससे भी कहीं आगे निकल गए! महिला पार्षद के पति की हैसियत से अधिकारियों को धमकाने लगे, आदेश देने लगे, आवंटित राशि की बंदरबांट करने लगे और कई स्थानों पर तो पार्षद पति निगम और पालिकाओं की बैठकों में भी शामिल होने लगे! ये सब खुलेआम हो रहा है, पर कहीं कोई विरोध होता नजर नहीं आया! न सरकारी स्तर पर न जनता द्वारा! लेकिन, जब कोई घटना होती है तो पार्षद पति की गुंडागर्दी, दबाव या धमकाने खबर जरूर जाती है! जैसे हाल ही में इंदौर की एक महिला पार्षद के पति ने बिजली कंपनी के एक कर्मचारी का मुँह काला करके अपनी ताकत बताई!    
  आखिर, इस सबके पीछे जनता का क्या दोष जो वो सुरक्षित वार्डों से महिला पार्षदों को चुनकर भेजती है। शायद निर्वाचित महिला पार्षद भी अपने अधिकार के साथ काम करना चाहती होगी? फिर क्या कारण है कि उनके पति बेवजह अपनी पार्षद पत्नी के काम में हस्तक्षेप करते हैं? स्पष्ट है कि वे पत्नियों के माध्यम से अपने कई ऐसे काम कर लेते हैं, जो वे चाहते हैं! क्योंकि, पत्नी का रिमोट उन्हीं हाथ में होता है। सवाल है कि क्या महिला पार्षद नाममात्र की जनप्रतिनिधि हैं? महिला पार्षदों के पति अपनी पत्नी के नाम पर कैसे स्थानीय प्रशासन के कामकाज में दखलंदाजी कर लेते हैं? सांसदों और विधायकों के कामकाज में उनकी ​पत्नियों का हस्तक्षेप कभी नजर नहीं आता, फिर यही व्यवस्था महिला पार्षदों पर लागू क्यों नहीं होती? जब किसी वार्ड से महिला को जनता ने अपना प्रतिनिधि चुनती है, तो उनके पति किस अधिकार से उसपर अतिक्रमण करते हैं? वे आरक्षित सीटों से चुनकर आई हैं, तो उन्हें निर्भीक होकर काम क्यों नहीं करने दिया जाता?
   मध्यप्रदेश सरकार ने त्रिस्तरीय पंचायतों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के पतियों पर बैठकों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया! इसके बाद भोपाल के महापौर आलोक शर्मा ने भी पार्षद पतियों पर बैठकों में भाग लेना प्रतिबंधित कर दिया! महापौर ने वार्डों के निरीक्षण के दौरान ली गई बैठकों में पाया था कि अधिकांश महिला पार्षदों के पति इन बैठकों में शामिल हुए! इसके बाद ही उन्होंने इस पर प्रतिबंध लगाया! महापौर का कहना था कि जब जनहित के मुद्दों पर जनप्रतिनिधि और अधिकारियों की बैठक हो रही हो, तो उसमें महिला जनप्रतिनिधि के पति को शामिल नहीं होना चाहिए। इस बैठक में कई अहम फैसले होते हैं। कई बार इन फैसलों पर महिला जनप्रतिनिधि तो आपत्ति नहीं उठाते, मगर उनकी पति इस पर आपत्ति जताते हैं। 
   महिला पार्षदों और सरपंचों के पतियों का व्यवस्था में दखल स्थानीय मसला नहीं, बल्कि बड़ी समस्या है! राष्ट्रीय पंचायत राज दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंचायती सम्मेलन को संबोधित करते हुए स्पष्ट रुप कहा था कि पंचायती राज व्यवस्था के तहत सरपंच के पति का दखल समाप्‍त होना चाहिए! इस बारे में बिलासपुर हाईकोर्ट में लगी एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने भी कहा कि पंचायती राज शासन व्यवस्था में सरपंच पतियों की दखलंदाजी और उनके द्वारा किए जा रहे शक्ति दुरुपयोग बंद होने चाहिए! राज्य सरकार को ऐसा सुनिश्चित करने के लिए नियम बनाने चाहिए! जस्टिस टीपी शर्मा और इंदर सिंह की डिवीजन बेंच ने सरकार को निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधि को अधिकार संपन्न बनाने के लिए क्या-क्या उपाय किए जा सकते हैं, इस बारे में ब्यौरा पेश करने के भी निर्देश दिए!
    राज्य सरकार ने भी प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायतों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के पतियों पर बैठकों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया! शासन के इस फैसले के बाद अब महिला जनप्रतिनिधियों की बैठक में इनके पति उपस्थित नहीं होते! सरकार ने आदेश में कहा है कि पंचायतों में महिला प्रतिनिधियों के सशक्तिकरण और ग्रामीण विकास में उनकी भूमिका को मजबूत बनाने के उद्देश्य से ग्राम सभाओं की बैठकों में महिला सरपंचों तथा पंचों की सक्रिय भागीदारी जरुरी है! इसके लिए राज्य शासन द्वारा पंचायतों की कार्यवाहियों में सरपंच पति के शामिल होने पर प्रतिबंध लगाया गया है। आदेश में कहा गया कि महिला आरक्षित पदों पर निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की एवज में ग्राम पंचायत और ग्राम सभा की बैठकों में महिला प्रतिनिधि के पति या उनके परिजन भाग नहीं ले सकते! यदि निर्वाचित महिला प्रतिनिधि के अलावा ग्राम सभा की बैठकों में उनके किसी परिजन द्वारा भाग लिया जाता है, तो संबंधित महिला सरपंच एवं पंच के विरुद्ध पद से विधिवत हटाए जाने की कार्रवाई प्रारंभ की जाएगी! यह व्यवस्था नगर पालिकाओं और नगर निगमों में लागू क्यों नहीं की गई? यदि कोई पार्षद पति अधिकारियों को धमकाता है, पार्षद पत्नी के अधिकारों का खुद उपयोग करता है या निर्माण कार्यों में हिस्सेदारी करता है, तो महिला पार्षद को हटाने की भी कार्रवाई की जाना चाहिए! क्या सरकार ने इस दिशा में कभी सोचा है? यदि नहीं सोचा तो अब वक़्त गया है कि पार्षद पतियों लेकर कोई नीति बनाई जाए! क्योंकि, वैकल्पिक जनप्रतिनिधि को झेलना जनता की मज़बूरी नहीं है! 
000
(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)
संपर्क : 09755499919 
------------------------------------------------------

Wednesday, June 8, 2016

बहुत कुछ कहती है, मायावती की ये ‘व्हिप’

 - हेमंत पाल 

 राजनीति ऐसा खेल है, जिसमें कब, कहाँ उलटफेर का समीकरण बन जाए कहा नहीं जा सकता! प्रतिद्वंदी को मात देने के लिए उसके राजनीतिक दुश्मन से दोस्ती गांठने का कोई मौका नहीं छोड़ा जाता! मध्यप्रदेश में राज्यसभा की एक सीट को लेकर पेंच है! अपने उम्मीदवार विवेक तन्खा को जिताने को लेकर कांग्रेस ने जो चाल चली, उसने भविष्य की एक राजनीति की तरफ जरूर इशारा जरूर कर दिया! मध्यप्रदेश में कांग्रेस के पास 57 विधायक हैं, उन्हें एक की जरुरत थी! मायावती ने अपनी पार्टी बसपा के 4 विधायक उनको झोली में डाल दिए! ऐसे में भाजपा ने जो शतरंज की बिसात बिछाई थी, उसे मायावती ने एक झटके में बिखेर दिया! अब बसपा के चारों विधायक राज्यसभा उम्मीदवार के लिए कांग्रेस उम्मीदवार विवेक तन्खा का समर्थन करेंगे। मायावती ने बकायदा 'व्हिप' भी जारी की! यही कहानी पहले उत्तराखंड में हो चुकी है! वहां भी बसपा के 2 विधायकों ने कांग्रेस की हरीश रावत खिलाफ हुए शक्ति परीक्षण में कांग्रेस का साथ दिया था!
  ये तो ख़बरों की दुनिया में पुरानी बात हो गई! नई बात ये है कि मायावती और कांग्रेस में क्या कोई सियासी खिचड़ी पक रही है? क्या दोनों की स्वार्थ के लिए एक-दूसरे की तरफ बढ़ रहे हैं? दरअसल, दोनों में बढ़ती नजदीकियां किसी बड़ी राजनीतिक खबर की तरफ इशारा कर रही हैं! कहीं ऐसा तो नहीं कि ये 'दोस्ती' अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर है? उत्तराखंड के बाद मध्यप्रदेश में भी जिस तरह मायावती ने कांग्रेस की मदद की, वो सहज नहीं है! राजनीति में निस्वार्थ भाव से कभी ऐसा होते देखा नहीं गया! उत्तराखंड में हरीश रावत की सरकार को मुसीबत के वक़्त मायावती ने ही मदद की! जब 9 कांग्रेसी विधायकों ने पार्टी से विद्रोह कर दिया था, तब विधानसभा में शक्ति परीक्षण भाजपा के 2 विधायकों ने ही सरकार को बचाने में जोर लगाया! अब यही काम मध्यप्रदेश में राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए किया गया!
   उत्तरप्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव होना है! इस बार का चुनाव आसान नहीं दिख रहा! हमेशा की तरह इस बार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच ही निर्णायक मुकाबला होता नहीं दिख रहा! सत्ता में बैठी समाजवादी पार्टी वापसी कर सकेगी, इसे लेकर संदेह गड्ढा अब गहरी खाई बन चुका है! पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन अप्रत्याशित रहा था! लेकिन, विधानसभा चुनाव में भी वो चमत्कार हो सकेगा, संदेह कीड़ा यहाँ भी बिलबिला रहा है! मायावती अकेले के दम पर उत्तरप्रदेश फतह कर सकेगी, ये दावा भी कमजोर है! लोकसभा चुनाव में 20% वोट पाकर भी मायावती का कोई उम्मीदवार चुनाव जीत नहीं सका था! जहाँ तक कांग्रेस की बात है, तो वो कहीं दौड़ में ही दिखाई नहीं दे रही! यदि उसे जमीन पकड़ना है तो किसी कंधे का सहारा तो लेना ही पड़ेगा! इसके अलावा उत्तरप्रदेश में अजित सिंह जैसे कई छोटे-छोटे दलों का दलदल है!
    यदि गठबंधन की बात करें तो अभी तक लग रहा था कि भाजपा और बसपा ही समाजवादी पार्टी के खिलाफ साथ आ सकते हैं! लेकिन, जिस तरह मायावती और कांग्रेस नजदीक आ रहे हैं, ये संभावना किसी दूसरी दिशा में मुड़ती लग रही है! उत्तराखंड के बाद मध्यप्रदेश में जिस तरह मायावती ने अपने विधायकों का कांग्रेस के समर्थन के लिए उपयोग किया है, इन दोनों के बीच ही कोई खिचड़ी पकती दिखती है! क्योंकि, यदि भाजपा और बसपा  सियासी समीकरण बनते हैं तो मुस्लिम वोट बसपा से खिसककर सपा की झोली में गिर सकता है! मायावती को ऐसे में सरकार विरोधी लहर का भी फ़ायदा नहीं मिलेगा। ये हुआ तो मायावती की राजनीति के लिए आत्मघाती होगा। भाजपा और सपा तो खैर कभी साथ आ ही नहीं सकते! ऐसे में भाजपा के खिलाफ बनने वाले किसी भी मोर्चे से कांग्रेस जरूर जुड़ सकती है! इस सारे परिदृश्य को देखकर ये संभावना प्रबल है कि कांग्रेस और बसपा या तो गठबंधन बनकर उत्तरप्रदेश का चुनाव लड़ेंगी या फिर सीटों लेकर कोई समझौता होगा! आखिर मायावती की ये 'व्हिप' कुछ तो कहती है!
-----------------------------------------------------

Sunday, June 5, 2016

कई सवाल उठाता है तन्मय का ये मजाक!

हेमंत पाल 

  सप्ताहभर पहले तक तन्मय भट्ट को कितने लोग जानते थे? शायद उतने नहीं, जितना आज जानते हैं! आज वे ख़बरों की सुर्ख़ियों में हैं! लता मंगेशकर और सचिन तेंदुलकर पर उन्होंने फेसबुक वॉल पर एक ऐसा वीडियो 'सचिन वर्सेस लता-सिविल वॉर' पोस्ट किया जिससे बवाल हो गया! देखा जाए तो इस बहाने उनका मकसद पूरा हो गया! तन्मय के इस कॉमिक वीडियो पर प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आ गई! लोगों के अलावा बॉलीवुड से जुड़े लोगों ने भी इस वीडियो पर असहमति जताई! स्टैंडअप कॉमेडियन के तौर पर तन्मय की कॉमिक टाइमिंग की प्रशंसा की जाती हैं। हंसाने की उनकी कोशिश ने नाराज कर दिया। उन्होंने दो ऐसे लोगों का मजाक बना दिया, जो प्रशंसकों के दिल में बसते हैं।
   कॉमेडियन का लक्ष्य नकल उतारना, व्यंग्यात्मक टिप्पणियां करना, हंसाने के मकसद से काल्पनिक दृश्य प्रस्तुत करना होता है। जैसे कार्टून में व्यक्ति-विशेष पर कटाक्ष होता है, वही काम कॉमेडियन करता है। लेकिन, तन्मय का ‘सचिन वर्सेस लता सिविल वार’ वीडियो हास्य जगाने में नाकाम रहा! वे परिहास और उपहास में फर्क करने का बोध विकसित नहीं कर सके! रातों रात चर्चित होने की कोशिश में उन्होंने जान-बूझकर इस फर्क को मिटा दिया। दरअसल, हास्य का आधार प्रीति पर होता है न कि द्वेष पर! यदि किसी की प्रकृति, प्रवृत्ति, स्वभाव, आचार आदि की विकृति पर कटाक्ष भी करना हो तो वह कटु उक्ति के रूप में नहीं, प्रिय उक्ति के रूप में होना चाहिए! उसका उद्देश्य कदापि नीचा दिखाने की भावना नहीं होना चाहिए! प्रिय उक्ति भी उपदेश की भाषा में नहीं, रंजनता की शब्दावली में ही हो! तन्मय की ही तरह पिछले दिनों एक टीवी कॉमेडी शो में ‘पलक’ नाम की महिला का किरदार निभाने वाले कॉमेडियन कीकू शारदा को भी महंगा पड़ गया था! बाबा राम रहीम का मजाक उड़ाने पर हरियाणा पुलिस उन्हें मुंबई से गिरफ्तार करके हरियाणा ले गई! जहाँ कैथल की एक कोर्ट ने उनके खिलाफ कार्रवाई की! 
     गायिका के तौर पर लता मंगेशकर और बतौर क्रिकेटर सचिन तेंडुलकर की प्रसिद्धि से सब वाकिफ हैं। दोनों देश के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से विभूषित हैं। तन्मय का ये वीडियो उनकी प्रतिष्ठा के साथ उपहास जैसा है। लेकिन, किसी उपहास पर पुलिस कार्रवाई की मांग का औचित्य समझ से परे है? ये वीडियो हास्य के नाम पर सामाजिक निंदा और अपमान का विषय तो है, पर कानूनी कार्रवाई का तो शायद नहीं! पुलिस ने सोशल मीडिया से इस वीडियो को हटाने को भी कहा, पर कोई कार्रवाई नहीं की! इस घटना ने इस बहस को फिर छेड़ दिया कि मजाक की हद कहाँ है? हास्य कब अपमानजनक हो जाता है? अभिव्यक्ति की आजादी का दायरा कहाँ तक स्वीकार्य है? ये सारे सवाल इंटरनेट पर विवादित हुए इस वीडियो से फिर उठे हैं! 
  तन्मय भट्ट के प्रति आक्रोश जताने वालों में बॉलीवुड कलाकार और नेता तक शामिल हैं। शिवसेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और मुंबई भाजपा के कुछ नेताओं ने तन्मय को गिरफ्तार करने तक की मांग की है! मनसे ने तो पिटाई की धमकी भी दे डाली! सवाल उठता है कि क्या शिवसेना और मनसे की पहचान कभी शालीन और मर्यादा का ध्यान रखने वाली राजनीतिक पार्टी के रूप में रही हैं? वास्तव में इनकी प्रतिक्रिया मौके को भुनाने की चतुराई भी हो सकती है। इस प्रसंग के कानूनी दांव-पेंच चाहे जो हों! लेकिन, इस वीडियो के बहाने सोशल मीडिया पर होने वाली पोस्ट पर चर्चा जरूर होना चाहिए! क्योंकि, सोशल मीडिया पर नेताओं और राजनीतिक पार्टियों की छवि बिगाड़ने का खेल चलता रहता है। भले ही ये चंद खुराफाती लोगों का काम होता है, पर लगता संगठित अभियान जैसा है! किसी पर कीचड़ उछालने की भी एक मर्यादा होना जरुरी है। अगर सोशल मीडिया इस्तेमाल करने वालों में जिम्मेदारी और मर्यादा का अहसास बढ़े तो इस विवाद की गर्भ से एक सार्थक नतीजा निकल सकता है। क्योंकि, सोशल मीडिया का मंच किसी की निंदा, अपमान और उपहास के लिए नहीं होता! लता मंगेशकर और सचिन तेंडुलकर की ही तरह सभी की इज्जत है! 
--------------------------------------------------

Friday, June 3, 2016

बुंदेलखंड के सूखे से सरकार ने भी नाता तोड़ा

   गर्मी का मौसम करीब बिदा हो गया! मध्यप्रदेश के बाकी हिस्से में बरसात का इंतजार किया जा रहा है! लेकिन, बुंदेलखंड इलाका आज भी सूरज की आग से झुलस रहा है! खेत सूखकर बंजर हो गए! लोग पीने के पानी की बूंद-बूंद को तरस रहे हैं! मवेशी प्यास से मर रहे हैं! दूर-दूर तक राहत की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही! अकाल जैसे हालात हैं! काम के अभाव में मजदूरी करने वाले पलायन कर गए! इतना सब होते हुए भी सरकार कहीं नजर नहीं आ रही! जिस इलाके से मंत्रिमंडल में 4 या 5 मंत्री हों, वहां की हालत पर गौर तक नहीं किया जा रहा! कहीं कोई चिंता या सुगबुगाहट नहीं! महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके के सूखे पर देशभर में आंसू बहाए गए, पर बुंदेलखंड को लेकर कोई गंभीर नजर नहीं दिख रहा! केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की बेरुखी सवाल खड़े कर रही है! यही हालत उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड में भी है! पर, जो इलाका मध्यप्रदेश के हिस्से में है, उसकी जिम्मेदारी तो इसी सरकार की बनती है!  
000    
- हेमंत पाल 

 बुंदेलखंड कि नियति है कि यहाँ लगातार सूखे की स्थिति खतरनाक स्तर पर है। 1999 के बाद से यहाँ बारिश के दिनों की संख्या 52 से घटकर 23 पर आ गई! भूजल स्तर साल दर साल गहराई में उतरता जा रहा है। यहाँ औसतन 95 सेंमी बारिश होती है! इस कारण यहाँ सालभर जलसंकट बना रहता है। यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों को दोहन ने बर्बाद कर दिया! इसी कारण खेती भी सूख गई! पिछले एक दशक में बुंदेलखंड में खाद्यान्न उत्पादन में 55% और उत्पादकता में 21% कमी आंकी गई! इसके बाद भी सरकार ने किसानों और खेती को संरक्षण देने के लिए कोई उपाय नहीं किए! बेहतर होता कि यहाँ कम बरसात में उपजने वाली फसलों को प्रोत्साहन दिया जाता! लेकिन, करीब दो दशक में आर्थिक हितों को पूरा करने के लिए नकदी फसलों को बढावा दिया! इस कारण जमीन की नमी गायब हो गई! समृद्ध किसानों ने गहरी खुदाई करके जमीन का सारा पानी खींच लिया और भूजल को सुखा डाला! सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड मुताबिक बुंदेलखंड के सभी जिलों में पानी का स्तर लगातार घट रहा है। भूजल स्तर तो 2 से 4 मीटर प्रतिवर्ष के हिसाब से गिर रहा है! ऐसे में औसत से ज्यादा भी बरसात हो जाए, तो भी पानी जमीन में नहीं उतरेगा! बारिश के पानी को उजड़े खेतों की मेढ़े रोक नहीं सकती! तब भू-जल स्तर तो बढ़ नहीं पाएगा?
 इस इलाके के मूल समस्या जल, जंगल और जमीन से जुडी हैं! कभी ये बुंदेलखंड की ताकत थी। लगातार सूखे की वजह से यहाँ की जमीन अपना उपजाऊपन खो चुकी है! इस तरफ सरकार का कोई ध्यान नहीं है। बल्कि, सूखे से पडत बनी भूमि को खदानों और सीमेंट कंपनियों में बदला जा रहा है! ये जानते हुए कि सीमेंट कंपनियों के आसपास का बड़ा इलाका बंजर बनते देर नहीं लगती! दालों के उत्पादन को भी सरकार ने बढावा नहीं दिया, जो बुंदेलखंड के लिए सबसे अच्छा विकल्प हो सकता था! धान की तुलना में दालों में बहुत कम पानी लगता है।
  दो साल पहले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में प्रधानमंत्री ग्राम सिंचाई योजना और कम ब्याज पर कृषि ऋण देकर किसानों की हालत सुधारने का वादा किया था। सिंचाई संसाधनों की कमी को पूरा करने के लिए नदियों को जोड़ने की बात कही थी! पर अभी तक मामला शून्य है। राज्य सरकार की चिंता भी बुंदेलखंड लेकर उतनी नहीं है, जितनी होना चाहिए! मध्यप्रदेश सरकार में 4 या 5 मंत्री बुंदेलखंड का प्रतिनिधित्व करते हैं, पर कोई भी सूखे, जलसंकट, बेरोजगारी और पलायन को लेकर कभी बात नहीं करता! बुंदेलखंड में इस साल सूखे और कर्जे कारण कई किसानों ने आत्महत्या की! कई की मौत कारण सदमा रहा! आंकड़ों के अनुसार, बुंदेलखंड में पिछले 10 सालों में तीन हजार से ज्‍यादा किसानों की मौत हुई! लेकिन, ये आंकड़ा भी सरकार को चिंतित नहीं करता! क्योंकि, सरकार नजर में भी बुंदेलखंड इस सबके लिए अभ्यस्त हो चुका है! एक तरफ किसान आत्महत्या कर रहे तो दूसरी तरफ काम की तलाश मजदूर वर्ग दिल्ली और अन्य बड़े शहरों की तरफ भाग रहा है! सरकार कुछ भी दावे करे, इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि बुंदेलखंड से हर साल लाखों लोग काम तलाश में अपना घर, जानवर, जंगल, जमीन छोड़ते हैं! पहले इन्हें सरकारी राहत कार्य तहत काम मिल जाता था! लेकिन, अब तो उन्होंने 'मनरेगा' भी उन्होंने उम्मीद छोड़ दी!
  लगातार पड़ते सूखे, सरकारी बेरुखी, गरीबी, अभाव, बेरोजगारी और पलायन की त्रासदी भोगते हुए बुंदेलखंड के लोग विपरीत परिस्थितियों में जीने के लिए अभ्यस्त हो चुके हैं! राजनीतिक जागरूकता होते हुए भी जीने की मज़बूरी ने बुंदेलखंड के लोगों को नेताओं के आगे पीछे घूमने लिए मजबूर कर दिया! इसका नतीजा ये हुआ कि श्रृंखलाबद्ध सूखे की त्रासदी झेलने के बाद भी कहीं से सरकार से राहत मांगने आवाज नहीं उठती! चुनाव के वक़्त भरमाने के लिए बुंदेलखंड के लिए अलग 'विकास प्राधिकरण' के वादे किए जाते हैं! पर, उस वादे पर 5 साल तक फिर बात भी नहीं की जाती! कुर्सियों की बंदरबांट के लिए कई निगम, मंडल और बोर्ड बना दिए गए, क्या बुंदेलखंड लिए 'विकास प्राधिकरण' मांग को पूरा नहीं किया जाना चाहिए?
   दरअसल, बुंदेलखंड को विकास के जिस क्रांतिकारी नज़रिए की जरूरत है वो अभी तक आकार नहीं ले सका! यदि बुंदेलखंड को खुद अपने बारे में सोचने, समझने और विकास की दिशा गढ़ने की आजादी मिल जाए तो यहाँ का सूखा भी हरियाली में बदल सकता है। सदियों से बुंदेलखंड हालात और प्रकृति के प्रकोपों से संघर्ष करता रहा है। इसी संघर्ष कोख से सूखा और जलसंकट भी पनपा है! यहाँ की भौगोलिक परिस्थितियां बारिश का पानी सहेजने लिए मुफीद नहीं हैं। कहीं पत्थर हैं तो कहीं सपाट जमीन! बुंदेलखंड के राजाओं ने यहाँ सैकड़ों तालाब बनवाए और ऐसी फसलों को अपनाया जिनमें कम पानी लगता है। लेकिन, वोट की राजनीति और सरकारों बुंदेलखंड को विकास की मूल धारा से उतारकर हाशिये पर रख दिया! जबकि, ये सार्वभौमिक सत्य है कि हर मानव सभ्यता जलस्रोतों के आसपास ही पनपी हैं! यहीं से जीवन भी विकसित हुआ! जिस सभ्यता में जल प्रबंध अच्छा हुआ वहां विकास भी गतिशील रहा और उसे सार्थक माना गया! अब, यदि सरकार वास्तव में बुंदेलखंड के प्रति गंभीर है, तो उसे इस इलाके के लिए अलग प्रशासनिक व्यवस्था (प्राधिकरण) निर्मित करना होगी! बुंदेलखंड के विकास की जिम्मेदारी उसकी तासीर को समझने वालों को सौंपना ही बेहतर विकल्प होगा! यदि सरकार ये प्रयोग करना नहीं चाहती तो सबसे अच्छा यही होगा कि छत्तीसगढ़ की तरह बुंदेलखंड से भी सरकार मोह छोड़े और एक नए राज्य की नींव रख दे!
--------------------------------------------