Sunday, June 19, 2016

सीरियलों जैसी नहीं है समाज में महिलाएं


 
हेमंत पाल 
   टीवी सीरियलों से समाज बदलता है या ये सीरियल समाज का प्रतिरूप है? ये एक यक्ष प्रश्न है! आज सीरियलों में समाज की असंतुलित तस्वीर ही दिखाई देती है। दर्शकों को छोटे परदे की महिलाएं या तो निरीह नजर आती हैं या इतनी आधुनिक कि ऐसे समाज की कल्पना भी मुश्किल हो जाती है! ज्यादातर सीरियलों में महिलाओं की छवि को मनमाने ढंग से पेश किया जा रहा है। वास्तव में ये समाज को आगे ले जाने के बजाए पीछे ढकेलने की ही कोशिश है। यह महिलाओं को लेकर सदियों से चली आ रही पुरुष प्रधान सोच का महिमामंडन भी है! सीरियलों में तीन तरह के महिला चरित्र दिखाई देते हैं! एक है सास का जो या तो बेहद क्रूर है या बहुत ज्यादा सीधी! दूसरा चरित्र है बहू का जो या तो मर्यादा में रहती है या सारी सीमाएं तोड़ देती है! तीसरा चरित्र सपोर्टिंग किरदारों का है, जो ननंद या जेठानी  है, जो जुल्म करने वाले के साथ होती हैं! बाकी के सारे किरदार इसके आसपास ही घूमते रहते हैं!
  अधिकांश सीरियलों में महिलाओं की सहनशीलता की कहानी दोहराई जाती है। सारे जुल्म सहकर भी वो परिवार की इज्जत के लिए सब कुछ करती रहती है! ऐसे सीरियलों की टीआरपी भी अच्छी होती है। तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि दर्शक महिलाओं का यही रूप पसंद करते हैं? जबकि, इन सीरियलों के दर्शकों में ज्यादातर घरेलू महिलाएं ही होती हैं! इन महिलाओं के भीतर सास-बहू के रिश्तों को लेकर एक नॉस्टेल्जिया रहता है! वे इससे अलग नहीं हो पाती! यह काम ये सीरियल ही करते। यदि सरकार अश्लील चैनलों के कार्यक्रमों को रोक सकती है, तो क्या महिलाओं प्रति ऐसे सोच वाले सीरियलों को रोकने पर विचार नहीं किया जाना चाहिए, जो महिलाओं की गलत छवि पेश करते हैं?
  टीवी सीरियलों में धोखेबाज, क्रूर, अय्याश या विवाहेत्तर संबंधों में यकीन करने वाली नारी की छवि को ही बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा है। इससे समाज में महिलाओं की एक अलग छवि बन रही है जबकि हकीकत में वे वैसी नहीं है। हमेशा से त्याग, प्यार व समर्पण की प्रतीक महिलाओं को इन सीरियलों द्वारा विरोधाभासी बनाया जा रहा है। किसी भी चैनल पर किसी न किसी सीरियल में अपनी बहू पर जुल्म ढाती या अपने लड़की होने पर आँसू बहाती महिला मिल ही जाएगी। खुशमिजाज, स्वाभिमानी व आत्मविश्वासी महिला सीरियल बनाने वालों की पसंद नहीं है। अब वक्त आ गया है, जब दर्शकों को ही फैसला करना है, कि हमें टीवी पर क्या देखना है? यदि हम सब कुछ निर्माताओं पर ही छोड़ देंगे, तो शायद कल हमारे परिवार में भी तनाव का कारण ये सीरियल ही बनेंगे!
    अकसर आरोप लगता है कि युवा पीढ़ी को गुमराह करने, संबंधों में बिखराव और अपराधों को बढ़ावा देने में टीवी की भूमिका महत्वपूर्ण है। एक वो वक्त भी था, जब टीवी ने दर्शकों को मनोरंजन के साथ शिक्षा देने का बीड़ा उठाया था! उस दौर में भी सीरियल होते थे, जो लोग परिवार साथ बैठकर देखते थे! इसलिए कि वो समाज और परिवार को अच्छी शिक्षा देते थे! माना जाता है कि आज अधिकांश परिवारों में तनाव, विवाद और कभी-कभी तलाक का कारण ये सीरियल होते हैं! सीरियलों के किरदार परदे पर अपना अभिनय इतना बखूबी कर जाते हैं कि परिवारों में हमेशा उनकी छवि बन जाती हैं। समाज की बुराइयों को बढ़ाकर दिखाना, दर्शकों को वैसा करने के लिए उकसाता है। यही कारण है कि समाज में अपराध बढ़ रहे हैं। फैसला दर्शकों को करना है कि वे टीवी पर क्या देखें और क्या नहीं! क्योंकि, जो कुछ तय होगा वो टीआरपी की कोख से ही तो निकलेगा!
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